Balmiki ji महर्षि बालमीकि जी

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                  महर्षि वाल्मीकि 

जन्म पुनि जन्म को न मेरे कछु सोच अहो , सन्तपदपंकज रेनु सीस पर धारिये । पराचीनबर्हि आदि कथा परसिद्ध जग , उभै बालमीकि बात चित्त नै न टारिये ॥ भये भील सङ्ग भील ऋषि सङ्ग ऋषि भये , भये राम दरसन लीला विसतारिये । जिन्हें जग गाय किहूँ सबै न अघाय चाय , भाव भरि हियोभरि नैन भरि ढारिये ॥ ७४ ॥ प्रियादासजी नाभाजीके हार्दिक भावको व्यक्त करते हुए कहते हैं कि अहो ! यदि मुझे बार - बार लेकर संसारमें आना पड़े तो इसकी मुझे कुछ भी चिन्ता नहीं है , क्योंकि इससे बड़ा भारी लाभ होग कि सन्तोंके चरणकमलोंकी रज सिरपर धारण करनेका शुभ अवसर मिलेगा । प्राचीनबर्हि आदि म कथाएँ पुराण - इतिहासमें वर्णित हैं , परंतु महर्षि वाल्मीकि और श्वपचभक्त वाल्मीकि - इन दोनोंकी कथा चित्तसे कभी दूर नहीं करना चाहिये । महर्षि वाल्मीकि पहले भीलोंका साथ पाकर भीलोका - सा आवा करनेवाले हो गये । फिर ऋषियोंका संग पाकर ऋषि हो गये । उन्हें श्रीरघुनाथजीके दर्शन हुए । उन अपनी वाल्मीकिरामायणमें श्रीरामजीके चरित्रका विस्तारपूर्वक ऐसा उत्तम वर्णन किया है , जिन्हें गाते और सुनते हुए संसार तृप्त नहीं होता है । श्रोताओं और वक्ताओंके हृदय उत्कट प्रेमानुरागमय भावसे भर ज हैं , फिर आनन्दवश नेत्रोंसे आँसुओंकी धारा बहने लगती है ॥ ७४ श्रीरामकथाका गुणगान करनेवाले महर्षि वाल्मीकिजीका पावन चरित संक्षेपमें इस प्रकार है राम त्वन्नाममहिमा वर्ण्यते केन या कथम् । ब्रह्मर्षित्वमवाप्तवान् ॥ यत्प्रभावादहं राम भगवन्नामके जपसे मनुष्य क्या से क्या हो सकता है , इसके ज्वलन्त उदाहरण भगवान् वाल्मीकि हैं । इनका जन्म तो अंगिरागोत्रके ब्राह्मणकुलमें हुआ था , किन्तु डाकुओंकि संसर्गमें रहकर ये लूट - मार और हत्या करने लगे । जो भी आता उसीको लूटते और कोई कुछ कहता तो उसे जानसे मार देते । इस प्रकार बहुत वर्षीतक ये इस लोकनिन्दित क्रूर कर्मको करते रहे । इस संसारचक्रमें घूमते - घूमते जब जीवके उद्धार होनेके दिन आते हैं , तब उसे साधुसंगति प्राप्त होती है । जिसे भगवत्कृपासे साधुसंगति प्राप्त हो गयी और साधु - सन्त उसपर अहेतुकी कृपा करने लगे तब समझन चाहिये कि अब इसके उद्धारका समय आ गया । वाल्मीकिजीके भी उद्धारके दिन आ गये । एक दिन उन्होंने देखा उधरसे नारदजी चले आ रहे हैं । उन्हें देखते ही ये उनके ऊपर झपटे और बोले - ' जो कुछ है उसे रख दो , नहीं तो जीवनसे हाथ धोना पड़ेगा । ' नारदजीने बड़े ही कोमल स्वरमें हँसते - हँसते कहा - ' हमारे पास और है हो क्या ? यह वीणा है , एक वस्त्र है ; इसे लेना चाहो तो ले लो , जानसे क्यों मारते हो ? ' वाल्मीकिजीने कहा- ' वीणाका क्या करते हो , थोड़ा गाकर सुनाओ । ' नारदजीने मधुर स्वरसे भगवान्क त्रैलोक्यपावन नामका कीर्तन किया । कीर्तन सुनकर वाल्मीकिका हृदय पसीजा । कठोर हृदयमें दयाका संचाल हुआ और चित्तमें कुछ कोमलता आयी । देवर्षिने कृपावश उनसे कहा- ' तुम व्यर्थमें जीवहिंसा क्यों करता । हो ? प्राणियोंके वधके समान कोई दूसरा पाप नहीं है । ' यह सुनकर वाल्मीकिजीने कहा - ' भगवन् ! मेरा परिवार बड़ा है , उनकी आजीविका का दूसरा कोई प्रबन्ध नहीं । वे सब मेरे सुख - दुःखके साथी हैं , उनका भरण - पोषण मुझे करना होता है ; यदि मैं लूटपाट न करूँ तो वे क्या खायँ ? ' नारदजीने कहा- ' तुम जाकर  अपने परिवार वालों से पूछो कि वे खाने के ही साथी हैं या तुम्हारे पापमें भी हिस्सा बँटायेंगे । ' मन में कुछ दुविधा हो गयी , इन्होंने समझा कि ये महात्मा इस प्रकार बहाना बनाकर भागना चाहते हैं । उनके मनकी बात जानकर सर्वज्ञ ऋषि बोले- ' तुम विश्वास करो कि तुम्हारे लौटने तक हम कहीं भी न जायेंगे , इतने पर भी तुम्हें संतोष न हो तो तुम हमें इस पेड़से बाँध दो । ' यह बात इनके मनमें बैठ गयी । देवर्षिको एक पेड़से बाँधकर ये घर चले गये और वहाँ जाकर अपने माता - पिता , स्त्री तथा कुटुम्बियोंसे पूछा- ' तुम हमारे पापके हिस्सेदार हो या नहीं ? ' सभीने एक स्वरसे कहा - ' हमें खिलाना- पिलाना तुम्हारा कर्तव्य है । हम क्या जानें कि तुम किस प्रकार धन लाते हो , हम तुम्हारे पापोंके हिस्सेदार नहीं । " जिनके लिये वे निर्दयतासे प्राणियोंका वध करते रहे , उनका ऐसा उत्तर सुनकर वाल्मीकिजीके ज्ञाननेत्र खुल गये । जल्दीसे जंगलमें आकर मुनिका बन्धन खोला और रोते - रोते उनके चरणोंमें लिपट गये । महर्षिके चरणोंमें पड़कर वे खूब जी खोलकर रोये । उस रुदनमें गहरा पश्चात्ताप था । नारदजीने उन्हें धैर्य बँधाया और कहा - ' अबतक जो हुआ , अब यदि तुम हृदयसे पश्चात्ताप करते हो तो मेरे पास राम - नामरूप सो हुआ एक ऐसा मन्त्र है , जिसके निरन्तर जपसे तुम सभी पापोंसे छूट जाओगे । इस नामके जपमें ऐसी शक्ति है कि वह किसी प्रकार भी जपा जाय पापोंको नाश कर देता है । अत्यन्त दीनताके साथ वाल्मीकिजीने कहा ' भगवन् ! पापोंके कारण यह नाम तो मेरे ओठोंसे निकलता नहीं , अतः मुझे कोई ऐसा नाम बताइये , जिसे मैं सरलतासे ले सकूँ । ' तब नारदजीने बहुत समझ - सोचकर रामनामको उलटा करके ' मरा - मरा ' का उपदेश दिया । निरन्तर ' मरा - मरा ' कहनेसे अपने आप ' राम - राम ' हो जाता है । देवर्षिका उपदेश पाकर वे निरन्तर एकाग्रचित्तसे ' मरा - मरा ' जपने लगे । हजारों वर्षोतक एक ही जगह बैठकर वे नामकी रटनमें निमग्न हो गये । उनके सम्पूर्ण शरीरपर दीमकका पहाड़ सा जम गया । दीमकोंके घरको वल्मीक कहते हैं , उसमें रहनेके कारण ही इनका नाम वाल्मीकि पड़ा । पहले इनका नाम रत्नाकर था । ये ही संसारमें लौकिक छन्दोंके आदिकवि हुए इन्होंने ही श्रीवाल्मीकीय रामायण आदिकाव्यकी रचना की । वनवासके समय भगवान् स्वयं इनके आश्रमपर गये थे । सीताजीने भी अपने अन्तिम वनवासके दिन इन्हीं महर्षिके आश्रममें बिताये थे । वहींपर लव और कुशका जन्म हुआ । सर्वप्रथम लव और कुशको ही श्रीरामायणका गान सिखाया गया । इस प्रकार निरन्तर रामनामके जपके प्रभावसे वाल्मीकिजी व्याधकी वृत्तिसे हटकर ब्रह्मर्षि हो गये । इसीलिये नाममहिमामें गोस्वामी तुलसीदासजीने कहा है जान आदिकवि नाम प्रतापू भवठ सुद्ध करि उलटा जापू ॥ उलटा नामु जपत जगु जाना बालमीकि भए ब्रह्म समाना ॥

हरिशरणम हरिशरणम हरिशरणम। 
BHOOPAL Mishra 
Sanatan vedic dharma karma 
Bhupalmishra35620@gmail.com 
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