Sri Jivgoswami ji _ गर्व से कहो हम हिंदु है

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 श्री जीव गस्वामी  जी महाराज

 के दिव्य गाथा 


बेला भजन सुपक्व कषाय न कबहूँ लागी । वृंदाबन दृढ़ बास जुगल चरननि अनुरागी ॥ पोथी लेखन पान अघट अच्छर चित दीनो । सदग्रंथनि को सार सबै हस्तामल कीनो ॥ संदेह ग्रंथि छेदन समर्थ ( रस ) रास उपासक परम धिर । ( श्री ) रूप सनातन भक्ति जल जीव गुसाईं सर गंभिर ॥ 

 श्रीरूपगोस्वामीजी एवं श्रीसनातनगोस्वामीजीके भक्तिरूपी जलको धारण करनेके लिये श्रीजीवगोस्वामीज गम्भीर सरोवरके समान हुए दृढ़ नियमपूर्वक भजन - साधन ही इस सरोवरका सुदृढ़ तट है । इसमें कभी भी मायिक विकाररूप काई नहीं लगी । आपने अखण्ड वृन्दावनवास किया । श्रीप्रियाप्रियतमयुगलके श्रीचरण कमलोंमें आपका परमानुराग था । ग्रन्थ लिखनेमें आप प्रत्येक पत्रोंपर न्यूनाधिक्य दोषरहित समान अ लिखते थे । समस्त सद्ग्रन्थोंके सार सिद्धान्तका आपको सम्यक् बोध था । जिज्ञासुजनोंकी सन्देहरूपी गाँठोंक खोलनेमें आप परम समर्थ थे । रामरस अर्थात् परमोज्ज्वल शृंगाररसके आप उपासक थे तथा परम शान् दान्त एवं विवेकवान् थे॥


 श्रीजीवगोस्वामीजीके विषय में कुछ विवरण इस प्रकार है चार सौ साल पहलेकी बात है , बंगालके महामहिम शासक हुसेनशाहके प्रधान अधिकारी दबिर शाकिर ( सनातन और रूप ) की श्रद्धा और भक्तिसे प्रसन्न होकर श्रीचैतन्य महाप्रभुने रामकेलि ग्रामकी की । गंगातटपर तारोंभरी रातमें चन्दनवनकी वायुसे सम्पन्न नीरव उपवनमें कदम्बके झुरमुटमें जिस समय 

रूप और सनातनको महाप्रभु चैतन्य हरिनाम - ध्वनिसे कृतार्थ कर रहे थे , उसी समय उनके छोटे भाई अनूप अथवा वल्लभके पुत्र जीव गोस्वामीने उनके दर्शन किये और उनके चरणारविन्द - मकरन्दकी अमृतवारुणीसे प्रमत्त होकर अपने आपको पूर्णरूपसे समर्पित कर दिया । उनकी अवस्था अल्प थी , पर भक्ति माधुरीने उनके जीवनको बदल दिया । 


               वृन्दावनसे अनूप नीलाचल आये , वहीं उनकी मृत्यु हो गयी । पिताकी मृत्युने जीव गोस्वामीके हृदयको बड़ा आघात पहुँचाया । वे आनन्दकन्द नन्दनन्दनकी राजधानी- वृन्दावन में आनेके लिये विकल हो उठे । एक रातको उन्होंने स्वप्नमें श्रीचैतन्य और नित्यानन्द महाप्रभुके दर्शन किये , वे नवद्वीप चले आये । नित्यानन्दने उनको काशी तपनमिश्रके आश्रम में शास्त्र अध्ययनके लिये भेजा जीव गोस्वामीने मधुसूदन वाचस्पतिसे वेदान्त , न्याय आदिकी शिक्षा पायी । वे शास्त्रमें पूर्णरूपसे निष्णात होकर परम विरक्त सनातन और रूपके पास वृन्दावन चले आये । जीवनके शेष पैंसठ वर्ष उन्होंने वृन्दावनमें ही बिताये । श्रीभगवान्के स्वरूप तथा तत्त्वविचारमें उन्होंने अपने पाण्डित्यका सदुपयोग किया । रूपने उनको मन्त्र दिया और समस्त शास्त्र पढ़ाये।जीव गोस्वामी पूर्ण विरक्त हो उठे । वे भगवती कालिन्दीके परम पवित्र तटपर निवास करने लगे । वे भगवान्‌की उपासना माधुर्य - भावसे करते थे । उनके चरित्र और लीलाको परम तत्त्वका सार समझते थे । रूप गोस्वामीकी महती कृपासे वे धीरे - धीरे न्याय , दर्शन और व्याकरणमें पूर्ण पारंगत हो गये । उन्होंने जीवनपर्यन्त ब्रह्मचर्य व्रतका पालन किया । उन्होंने वृन्दावननिवासकालमें श्रीरूपगोस्वामिकृत भक्तिरसामृतसिन्धु एवं उज्ज्वलनीलमणिकी टीकाएँ , क्रमसन्दर्भ नामक भागवतकी टीका , भक्तिसिद्धान्त , उपदेशामृत , षट्सन्दर्भ , गोपालचम्पू , गोविन्दविरुदावली , हरिनामामृत व्याकरण आदि भक्ति - सम्प्रदायके ग्रन्थोंकी रचना की । श्रीजीव गोस्वामीके ये सभी ग्रन्थ ' अचिन्त्यभेदाभेद ' मतके अनुसार लिखे गये हैं , जो कि जीवकी कठिन हृदय ग्रन्थियोंको दृढतापूर्वक छेदन करनेमें समर्थ हैं । 


एक बार वल्लभभट्ट नामक एक दिग्विजयी पण्डितने श्रीरूपगोस्वामीकी किसी कृतिमें दोष निकाला और घोषणा कर दी कि रूपने जयपत्र लिख दिया । जीवके लिये यह बात असह्य हो गयी , उन्होंने शास्त्रार्थ में वल्लभको पराजित किया । रूपको जब यह बात विदित हुई , तब उन्होंने जीवको अपने पाससे अलग कर दिया । वे सात - आठ दिनतक एक निर्जन स्थानमें पड़े रहे । सनातनने रूपसे पूछा कि ' जीवके प्रति वैष्णवका कैसा व्यवहार होना चाहिये ? ' रूपने कहा - ' दयापूर्ण ! ' सनातनने कहा- ' तुम जीव गोस्वामीके प्रति इतना कठोर व्यवहार क्यों करते हो ? ' रूपके हृदयपर बड़े भाईके कथनका बड़ा प्रभाव पड़ा । उन्होंने जीवको बुलाकर गले लगाया और अपने पास रख लिया । रूप और सनातनके बाद जीव ही वृन्दावनके वैष्णवोंके सिरमौर घोषित किये गये ।


 आपकी सेवामें चारों ओरसे अपार धन आता , परंतु आप उस धनको श्रीयमुनाजीमें फेंक देते थे । शिष्य सेवकोंने कई बार अनुरोध किया कि धनको श्रीयमुनाजीमें न फेंककर उससे साधुसेवा की जाय तो उसका अच्छा सदुपयोग होगा । आपने कहा- मैं किसी भी शिष्य अथवा सेवकमें साधुसेवा करनेकी योग्यता नहीं देखता हूँ । एक शिष्यने कहा- मैं अच्छी प्रकारसे साधुसेवा करूँगा । उसने कहनेको तो कह दिया , परंतु एक बार उसने एक साधुके आनेपर झुंझलाकर क्रोधपूर्वक जोरसे कटु वचन बोल दिया ; तब श्रीजीवगोस्वामीजीने उसे समझाया तथा सन्तोंकी महिमाका बखान किया । फिर आपने समस्त शिष्य - सेवकोंको शिक्षा दी कि तुम सब लोग सुबहसे लेकर शामतक मधुर बोला करो । आपके अपार चरित्र हैं । आपकी भक्ति - भावनाका पार नहीं है । आपने परम वैराग्यको धारण किया था , उसका ओर - छोर वर्णन कोई नहीं कर सकता है ।

इस घटनाका वर्णन भक्तमालके टीकाकार श्रीप्रियादासजीने इस प्रकार किया है -

किये नाना ग्रन्थ हुदै ग्रन्थि दृढ़ छेदि डार डारै धन यमुनामें आवै चहुँ ओर ते । कही दास ' साधु सेवा कीजै ' कहें ' ' पात्रता न ' करौ नीके , करी बोल्यो कटु कोप जोर ते ॥ तब समझायौ सन्त गौरव बढ़ायौ यह सबकों सिखायी बोलें मीठो निसि भोर ते । चरित अपार भाव भक्ति की न पारावार कियोक बैराग सार कहै कौन छोर ते ॥ 


जीव गोस्वामीने भक्तिको रस माना है । वे रसोपासक और विरक्त महात्मा थे । भक्तिसे ही भगवत्स्वरूपका साक्षात्कार होता है । जीव गोस्वामीकी मान्यता थी कि भजनानन्द स्वरूपानन्दसे विशिष्ट है । भजनानन्दसे भगवान्‌की भक्ति मिलती है , स्वरूपानन्द ब्रह्मत्वका परिचायक है । उन्होंने भक्तिको ज्ञानसे उन्होंने सर्वश्रेष्ठ भक्ति - शास्त्र माना है ।


 श्रेष्ठ स्वीकार किया है । भक्ति भगवान्‌की ओर ले जाती है , ज्ञान ब्रह्मानुभूति प्रदान करता है । श्रीमद्भागवतको आश्विन शुक्ल तृतीयाको शाके १५४० में पचासी सालकी अवस्थामें उन्होंने देह त्याग किया । ये महान् दार्शनिक पण्डित और भक्तियोगके पूर्ण मर्मज्ञ थे । महात्मा , योगी , विरक्त , भक्त- सबके सहज समन्वय थे । 


                श्रीराधारमण के भक्त 

 सर्बस राधारमन भट्ट गोपाल हृषीकेस भगवान बिपुल बीठल रस सागर ॥ थानेस्वरि जग ( नाथ ) लोकनाथ महमुनि मधु श्रीरँग । कृष्णदास पंडित्त उभै अधिकारी हरि अँग ॥ घमँडी जुगलकिसोर भृत ( भू ) गर्भ जीव दृढ़ ब्रत लियो । वृंदाबन की माधुरी इन मिलि आस्वादन कियो ॥ 


 श्रीधाम श्रीवृन्दावनकी माधुरीका इन महाभागवतोंने मिलकर अर्थात् परस्पर सत्संगद्वारा खूब आस्वादन किया । इनके नाम ये हैं- परम विख्यात श्रीगोपालभट्टजी , जिनके सर्वस्व ठाकुर श्रीराधारमणजी थे । श्रीहषीकेशजी , श्रीअलिभगवान्जी , माधुर्यरससागर श्रीविठ्ठलविपुलजी , श्रीजगन्नाथजी थानेश्वरी , श्रीलोकनाथगोस्वामीजी , महामुनि श्रीमधुगोस्वामीजी , श्रीरंगजी , ब्रह्मचारी श्रीकृष्णदासजी और पण्डित श्रीकृष्णदासजी- ये दोनों श्रीहरिरसके अधिकारी एवं भगवान्‌के परमप्रिय थे , श्रीयुगलकिशोरजीके सेवक व्रत ले रखा था ॥ 


 श्रीउद्धवघमण्डदेवाचार्यजी , श्रीभूगर्भगोस्वामीजी , श्रीजीवगोस्वामीजी - इन महानुभावोंने श्री श्रीधामवासका दृढ़ श्रीराधारमणजीके इन भक्तोंका चरित्र संक्षेपमें इस प्रकार वर्णित है 


      श्री गोपाल भट्ट जी महाराज 


 श्रीगोपाल भट्टजीका जन्म श्रीरंगम् क्षेत्रस्थ बेलगुंड ग्राममें माघ कृष्ण ३ सं ० १५५७ वि ० को हुआ था । आपके पिताका नाम श्रीवेंकटभट्ट और माताका नाम श्रीसदाम्बाजी था । श्रीप्रबोधानन्द सरस्वतीजी आपके चाचा थे , जो श्रीचैतन्य महाप्रभुके प्रिय पार्षद और अपने समयके उद्भट विद्वान् थे । आपने न्याय , वेदान्त , व्याकरण , साहित्य आदिकी शिक्षा इन्होंसे प्राप्त की । श्रीचैतन्य महाप्रभुने दक्षिण भारतकी यात्रा करते समय चातुर्मास्य आपके यहाँ ही बिताया था , उस समय आप मात्र एकादश वर्षके थे , अतः आपको महाप्रभु की गोद में बैठकर ब्रजलीलाके निगूड़तम रहस्योंका उस अल्प अवस्थामें ही श्रवण करने का सौभाग्य प्राप्त हुआ । चातुर्मास्यको समाप्ति के बाद जब महाप्रभु पुनः तीर्थाटनपर जाने लगे तो आपने किया । इसपर महाप्रभुजीने आपको समझाते हुए कहा कि अभी तुम्हारा कार्य है , समयपर प्रभुको सेवा भी तुम्हें प्राप्त हो जायगी । माता - पिता की सेवा पूरी करके तुम श्रीधाम वृन्दावन चले जाना , वहाँ तुम्हें रूप - सनातन मिलेंगे । उनसे तुम्हें प्रभु सेवा प्राप्त हो जायगी । आपने महाप्रभुजीके आदेशका अक्षरशः पालन किया । जब माता - पिताका परमधामगमन हो गया तो आपने श्रीब्रज - वृन्दावनकी राह पकड़ी और वहाँ पहुँचकर श्रीरूप- सनातनके दर्शन किये तथा उनकी सन्निधिमें रहते हुए अनेक भक्ति ग्रन्थोंका अध्ययन , व्रजके तीर्थोंका उद्धार , वैष्णव - ग्रन्थोंका प्रणयन और भक्तिका प्रचार किया । रूप सनातनके द्वारा आपके वृन्दावन - आगमनकी सूचना जब महाप्रभुको मिली तो वे बहुत प्रसन्न हुए और एक वैष्णवके हाथ आशीर्वादरूप में श्रीजगन्नाथभगवान्‌की प्रसादी तुलसी माला , अपना वहिवास तथा योगपट्ट आपके लिये भेजा ।


 आप एक बार श्रीमुक्तिनाथजीकी यात्रापर गये थे तो गण्डकीनदीसे एक शालग्रामशिला लाये और उसीकी सेवा करते थे । एक बार एक भगवद्भक्त सेठ वृन्दावन आये और उन्होंने क्षेत्रस्थ सभी ठाकुरजीके लिये वस्त्र - आभूषण दिया । इसी क्रमसे वे आपके भी पास आये और श्रीठाकुरजीके लिये वस्त्र आभूषण देने लगे । आपने सोचा कि हमारे श्रीठाकुरजी तो शालग्रामभगवान् ही हैं , उनको हम कैसे वस्त्राभूषण धारण करायें ? आपने अपनी विवशता सेठको बतायी तो वह भी बहुत दुखी हुआ और अनमने भावसे जाने लगा । भक्तवांछाकल्पतरु श्रीभगवान्‌से अपने भक्तकी पीड़ा और विवशता न देखी गयी । जब आप सेठको तुलसीदल प्रसादके रूपमें देनेके लिये श्रीठाकुरजीके पास आये तो देखा कि प्रभु मोरमुकुट और वंशी धारण किये हुए हैं । यह आश्चर्य देख आप भगवत्कृपासे गद्गद हो उठे और उन भगवद्भक्त सेठको श्रीविग्रहका दर्शन कराते हुए कहा कि प्रभु आपके भावको स्वीकारकर शालग्रामसे श्रीकृष्णरूपमें आ गये हैं , अब आप इन्हें वस्त्राभूषण समर्पित कर दें । सेठजी भी प्रभुकी अहैतुकी कृपासे धन्य हो गये और आपका गुणगान करते चले गये । 


इसी प्रकार आपपर प्रभुकी कृपाका एक अन्य उदाहरण है । एक बार आपने एक बहुत बड़े महोत्सवका आयोजन किया , जिसके कारण आपपर कुछ कर्ज भी हो गया । धनके अभावमें आप यथासमय कर्ज चुका न सके , तब दुकानदारने निश्चय किया कि मैं कल प्रातःकाल ही इनके घरपर पहुँचकर चाहे जैसे हो अपना कर्ज वसूल करूंगा । भगवान्ने सोचा कि प्रातःकाल तो आप मेरी सेवा पूजामें मग्न रहते हैं , अगर यह दुकानदार प्रातःकाल पहुँच जायगा तो मेरे भक्तके आनन्दमें विघ्न आ जायगा । यह सोचकर उन्होंने आपका रूप धारण किया और प्रातःकाल बहुत जल्दी ही जाकर दुकानदारको सारे कर्जका भुगतान कर आये । संयोगसे उसी दिन किसी भक्तने आपको प्रचुर धनराशि भेंट की , अतः आपने सोचा कि जाकर पहले दुकानदारका कर्ज उतार आऊँ । यह सोचकर जब आप दुकानदार के पास जाकर उसे कर्जके रुपये देने लगे तो वह आश्चर्यचकित होकर कहने लगा ' पण्डितजी ! यह आप क्या कर रहे हैं ? आप तो बहुत सबेरे ही आकर हिसाब चुकता कर गये हैं , क्यों देने आये हैं ? ' पहले तो उसकी बात सुनकर आपको आश्चर्य हुआ , फिर समझ गये कि यह मेरे आराध्य श्रीराधारमणजीकी ही कृपा है , वे ही मेरा वेश धारण करके इसे पैसे दे गये हैं । फिर दुबारा मन - ही - मन प्रभुकी कृपाका विचार करते हुए आप गद्गद - हृदयसे वापस लौट आये ।

श्रीगोपाल भट्टजीको सम्प्रदाय में गुणमंजरी सखीका अवतार माना जाता है , जिनके जिम्मे श्रीप्रिया प्रियतमको जल पिलाने तथा चँवर डुलानेकी सेवा है । श्रीगोपालभट्टजी अपने परमाराध्य श्रीराधारमणलालजीको अत्यन्त अनुरागमें पगकर अनेक प्रकारके राग - भोग सेवामें प्रस्तुत करते थे । भक्तिके प्रभावसे आप जगद्विख्यात हुए । आपके अनुपम प्रेममय अनेकों चरित्र हैं । आपने आजीवन श्रीवृन्दावनकी अगाध माधुरीका रसास्वादन किया तथा जिसने आपकी सीध - प्रसादी पायी , वह भी दिव्य जीवन पाकर रसस्वरूप हो गया । आप जीवमात्रके गुणको ही ग्रहण करते थे , अवगुणोंको ध्यानमें नहीं लाते थे । आप बड़े ही करुणाधाम , धर्मके सेतु ( पुल ) तथा भक्तराज थे ।

        श्रीप्रियादासजीने श्रीगोपालभट्टजीके वृन्दावन और कृष्ण प्रेमका इस प्रकार निरूपण किया है -

श्रीगोपालभट्टजू के हिये वै रसाल बसे लसे यों प्रगट राधारवन सरूप हैं । नाना भोग राग करें अति अनुराग पगे जगे जग माहिं हित कौतुक अनूप हैं । वृन्दावन माधुरी अगाधकौ सवाद लियौ जियौ जिन पायौ सीथ भये रस रूप हैं । गुन ही को लेत जीव अवगुनको त्यागि देत करुनानिकेत धर्मसेत भक्तभूप हैं ॥ 

श्रीगोपालभट्टने अनेक नवीन ग्रन्थोंका प्रणयन किया , अनेक ग्रन्थोंपर टीकाएँ लिखीं । आषाढ़ शुक्ल ५ , शक सं ० १५०७ में आप नित्यलीलालीन हो गए।

हरिशरणम हरिशरणम हरिशरणम 

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