Sri Gadhi ji Maharaj

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                  श्री गाधि जी महाराज 

श्रीब्रह्माजीके पुत्र थे राजर्षि कुश , कुशके पुत्र कुशनाभ हुए । राजा कुशनाभके कोई पुत्र नहीं अतः श्रेष्ठ पुत्रकी प्राप्तिके लिये इन्होंने पुत्रेष्टि यज्ञका अनुष्ठान किया । उस यज्ञक अनुष्ठानका परम उदार ब्रह्मकुमार महाराज कुशने इनकी देवता , पितरोंके प्रति अगाध श्रद्धा देखकर ब्रह्मलोक आकर आश्वासन दिया — बेटा कुशनाभ । तुम्हें अपने समान ही परम धर्मात्मा ' गाधि ' नामक पुत्र प्रा होगा और उसके द्वारा तुम्हें संसारमें अक्षय कीर्ति उपलब्ध होगी । पृथ्वीपति कुशनाभसे ऐसा कह राजर्षि कुश आकाशमें प्रविष्ट हो सनातन ब्रह्मलोकको चले गये । कुछ कालके पश्चात् बुद्धिमान् र कुशनाभके यहाँ परम धर्मज्ञ ' गाधि ' नामक पुत्र हुआ । ( वा ० रा ० ) ये कान्यकुब्ज देशके राजा महाराज गाधि दीर्घकालतक पुत्रहीन रह गये , तब संतानकी इच्छासे पुण्यकर्म करनेके लिये ये व रहने लगे । वहाँ रहते समय सोमयाग करनेसे राजाके एक कन्या हुई । जिसका नाम सत्यवती भूतलपर कहीं भी उसके रूप और सौन्दर्यकी तुलना नहीं थी ।

 परमतपमें संलग्न महर्षि ऋचीकने गाधिसे उस कन्याको माँगा । ऋषिकी सामर्थ्यसे सुपरिचित राजा गाधिने यज्ञार्थ शुल्करूपमें एक सह ऐसे घोड़े माँगे , जो चन्द्रमाके समान कान्तिमान् और वायुके समान वेगवान् हों तथा जिनका एक - ए कान श्याम रंगका हो । महर्षि ऋचीकने वरुणदेवतासे एक सहस्त्र अश्व लेकर राजा गाधिको दे दि तब राजा गाधिने अपनी कन्याको वस्त्राभूषणोंसे विभूषितकर भृगुनन्दन ऋचीकको दे दिया । इन्हीं मह ऋचीककी कृपासे राजा गाधिके श्रीविश्वामित्रजी- सरीखे पुत्ररत्न हुए । राजा गाधि महान् योगी और बड़े भारी तपस्वी थे । वे प्रजाका पुत्रवत् पालन करते थे और प्र भी इन्हें साक्षात् भगवद् - रूप समझती थी । इन्होंने अपने राज्यकालमें विविध यज्ञोंद्वारा यज्ञपुरु भगवान्‌की आराधना की थी । इनका सम्पूर्ण जीवन साधनामय था जब इन्होंने अपने पुत्र विश्वामित्रक राज्यपर अभिषिक्त करके शरीरको त्याग देनेका विचार किया , तब सारी प्रजा इनसे नतमस्तक होक बोली- प्रभो ! आप कहीं न जायँ , यहीं रहकर हमारी इस जगत्के महान् भयसे रक्षा करते रहें ।

 राज गाधिने श्रीविश्वामित्रके सद्गुणोंकी प्रशंसा करके प्रजाको आश्वस्त किया और मंगल - मुहूर्तमें विश्वामित्रजीक राजसिंहासनपर बैठाकर स्वयं प्राणायामके द्वारा प्राणोंका उत्क्रमणकर भगवद्धामको चले गये ।

       महाराज रघु

सूर्यवंशमें जैसे इक्ष्वाकु , अजमीढ आदि राजा बहुत प्रसिद्ध हुए हैं , उसी प्रकार महाराज रघु भी बड़े प्रसिद्ध , पराक्रमी , धर्मात्मा , भगवद्भक्त और पवित्रजीवन हो गये हैं । इन्हींके नामसे ' रघुवंश ' प्रसिद्ध हुआ इसीलिये सच्चिदानन्दघन परमात्मा भगवान् श्रीरामचन्द्रजीके रघुवर , राघव , रघुपति , रघुवंशविभूषण , रघुनाथ आदि नाम हुए । ये बड़े धर्मात्मा थे । इन्होंने अपने पराक्रमसे समस्त पृथ्वीको अपने अधीन कर लिया था । चारों दिशाओंमें दिग्विजय करके ये समस्त भूमिखण्डके एकच्छत्र सम्राट् हुए । ये प्रजाको बिलकुल कष्ट  नहीं देना चाहते थे , ' राज्यकर ' भी ये बहुत ही कम लेते थे और विजित राजाओंको भी केवल अधीन बनाकर छोड़ देते थे , उनसे किसी प्रकारका कर वसूल नहीं करते थे । एक बार ये दरबार में बैठे थे कि इनके पास कौत्स नामके एक स्नातक ऋषिकुमार आये । अपने यहाँ स्नातकको देखकर महाराजने उनका विधिवत् स्वागत - सत्कार किया । पाद्य - अयसे उनकी पूजा की । ऋषिकुमारने विधिवत् उनकी पूजा ग्रहण की और कुशल प्रश्न पूछा । थोड़ी देरके अनन्तर ऋषिकुमार चलने लगे , तब महाराजने कहा - ' ब्रह्मन् ! आप कैसे पधारे और बिना कुछ अपना अभिप्राय बताये आप लौटे क्यों जा रहे हैं ? ' ऋषिकुमारने कहा- ' 

राजन् ! मैंने आपके दानकी ख्याति सुनी है , आप अद्वितीय दानी हैं । मैं एक प्रयोजनसे आपके पास आया था ; किंतु मैंने सुना है कि आपने यज्ञमें अपना समस्त वैभव दान कर दिया है । यहाँ आकर मैंने प्रत्यक्ष देखा कि आपके पास अर्घ्य देनेके लिये भी कोई धातुका पात्र नहीं है और आपने मुझे मिट्टीके पात्रसे अर्घ्य दिया है , अतः अब मैं आपसे कुछ नहीं कहता ।

 " राजाने कहा — ' नहीं , ब्रह्मन् ! आप मुझे अपना अभिप्राय बताइये ; मैं यथासाध्य उसे पूरा करनेकी चेष्टा करूंगा । ' स्नातकने कहा - ' राजन् ! मैंने अपने गुरुके यहाँ रहकर सांगोपांग वेदोंका अध्ययन किया । अध्ययनके अनन्तर मैंने गुरुजीसे गुरुदक्षिणाके लिये प्रार्थना की । उन्होंने कहा - ' हम तुम्हारी सेवासे ही सन्तुष्ट हैं , मुझे और कुछ भी दक्षिणा नहीं चाहिये । ' गुरुजीके यों कहनेपर भी मैं बार - बार उनसे गुरुदक्षिणाके लिये आग्रह करता ही रहा । तब अन्तमें उन्होंने झल्लाकर कहा - ' अच्छा तो चौदह लाख सुवर्णमुद्रा लाकर हमें दो ।

 ' मैं इसीलिये आपके पास आया था । ' महाराजने कहा - ' ब्रह्मन् ! मेरे हाथोंमें धनुष - बाणके रहते हुए कोई विद्वान् ब्रह्मचारी ब्राह्मण मेरे यहाँसे विमुख जाय तो मेरे राज - पाट , धन - वैभवको धिक्कार है । आप बैठिये , मैं कुबेर - लोकपर चढ़ाई करके उनके यहाँसे धन लाकर आपको दूंगा । ' महाराजने सेनाको सुसज्जित होनेकी आज्ञा दी । बात की बातमें सेना सज गयी । निश्चय हुआ कि कल प्रस्थान होगा । प्रातःकाल कोषाध्यक्षने आकर महाराजसे निवेदन किया कि महाराज ! रात्रिमें सुवर्णकी वृष्टि हुई और समस्त कोष सुवर्णमुद्राओंसे भर गया है । महाराजने जाकर देखा कि सर्वत्र सुवर्णमुद्राएँ भरी हैं । वहाँ जितनी सुवर्णमुद्राएँ थीं , उन सबको महाराजने ऊँटोंपर लदवाकर ऋषिकुमारके साथ भेजना चाहा । ऋषिकुमारने देखा , ये मुद्राएँ तो नियत संख्यासे बहुत अधिक हैं , तब उन्होंने राजासे कहा -

 ' महाराज ! मुझे तो केवल चौदह लाख ही चाहिये । इतनी मुद्राओंका मैं क्या करूंगा , मुझे तो केवल कामभरके लिये चाहिये । ' महाराजने कहा - ' ब्रह्मन् ! ये सब आपके ही निमित्त आयी हैं , आप ही इन सबके अधिकारी हैं , आपको ये सब मुद्राएँ लेनी ही होंगी । आपके निमित्त आये हुए द्रव्यको भला , मैं कैसे रख सकता हूँ ? ' ऋषिकुमारने बहुत मना किया , किंतु महाराज मानते ही नहीं थे , अन्तमें ऋषिको जितनी आवश्यकता थी , वे उतना ही द्रव्य लेकर अपने गुरुके यहाँ चले गये । शेष जो धन बचा , वह सब ब्राह्मणोंको लुटा दिया गया । ऐसा दाता पृथ्वीपर कौन होगा , जो इस प्रकार याचकोंके मनोरथ पूर्ण करे । अन्तमें महाराज अपने पुत्र अजको राज्य देकर तपस्या करने वनमें चले गये । अजके पुत्र महाराज दशरथ हुए , जिन्हें साक्षात् परब्रह्म परमात्मा श्रीरामचन्द्रके पिता होनेका सौभाग्य प्राप्त हुआ । 

          राजर्षि गय जी महाराज 

राजपि गय महाराज भरतके वंशमें उत्पन्न हुए थे । इनके पिताका नाम नक्क और माताका नाम हवि था । महाराज गयकी पत्नीका नाम गयन्ती था , जिससे उन्हें चित्ररथ , सुगति और अवरोधन नामक तीन पुत्र प्राप्त हुए । उदारकीर्ति राजर्षिप्रवर गय साक्षात् भगवान् विष्णुके अंश माने जाते थे । महाराज गय प्रजापालन , शासन और यज्ञानुष्ठानादि सभी कर्म निष्काम भावसे केवल भगवत्प्रीत्यर्थ करते थे । वे सदा ब्रह्मवेत्ता महापुरुषोंकी चरण - सेवा किया करते थे । इन सबके फलस्वरूप उन्हें भक्तियोगकी प्राप्ति हुई । वायुपुराणमें गया - माहात्म्यके सन्दर्भमें एक अन्य विष्णुभक्त असुर गयकी कथा आती है , 

जो इस प्रकार है गय अद्भुत असुर था । असुरवंशमें उत्पन्न होनेपर भी उसमें आसुर - भावका लेश भी नहीं था । स्वभाव अत्यन्त शान्त और भगवान् नारायणका परम भक्त था वह एक पैरपर खड़े होकर कई सहस्र वर्षपर्यन गय निर्जल , निराहार , स्थिर रहकर भगवान् नारायणका ध्यान करता रहा । उसके तेजसे सभी देवता , सूर्य , चन्द्र , अग्नि भी श्रीहत हो गये । भगवान् ब्रह्माको सृष्टि - रक्षाकी चिन्ता हुई । '

 महाभाग ! तुम तो मुझसे वरदान माँगते नहीं , आज मैं तुमसे याचना करने आया हूँ । मुझे यज्ञ करना है और तुम्हारे शरीर जैसा पवित्र स्थल उस यज्ञके लिये त्रिभुवनमें नहीं है । ' ' 

मेरे देहपर मेरे आराध्यको सन्तुष्ट करनेके लिये आप यज्ञ करेंगे , इससे अधिक सौभाग्य मेरा क्या होगा ? ' ब्रह्माजीकी बात पूरी होनेसे पहले ही गय भूमिपर लेट गया और बोला - ' आप इसपर यज्ञ करें । ' कुण्ड वेदिकादि सभी बने और सैकड़ों वर्ष यज्ञ चला , किंतु गयका एक रोम भी नहीं जला । वह श्वास रोके स्थिर पड़ा रहा । यज्ञको समाप्त करना ही था । गय फिर उठ खड़ा होगा- इस भयसे ब्रह्माजीने भगवान् नारायणका स्मरण किया । भगवान्ने उसके विभिन्न अंगोंपर देवताओंको स्थापित किया और उसके हृदयदेशपर स्वयं गदा लेकर खड़े हुए । ' मेरे शरीरपर कहीं कोई कैसा भी पिण्डदान करे , उसके पितरोंको अक्षय तृप्ति प्राप्त हो ! ' यह वरदान गयने भगवान्से माँगा । पूरा गयाक्षेत्र उसके देहपर ही स्थित है

हरिशरणम।    हरिशरणम हरिशरणम हरिशरणम 

                      BHOOPAL MISHRA 
SANATAN VEDIC DHARMA KARMA 
प्रचार प्रसार के लिए ही प्रकाशित कर रहे है ।अन्यथा न ले आप अवश्य शेयर कर पुण्य का भागी बने ।

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