मंधाता जी महाराज

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महाराज इक्ष्वाकुके वंशमें एक युवनाश्व नामके परम प्रतापी राजा हुए । राजा युवनाश्व के भी रानियाँ डॉ । परंतु संतान किसीके भी नहीं थी । इसलिये राजा युवनाश्व दुखी होकर अपनी सभी रातियों के साथ बनमें चले गये । वहाँ ऋषियोंने कृपा करके राजासे पुत्रप्राप्ति के लिये इन्द्रदेवताका यज्ञ कराया । एक दिन राजा युवनाश्यको रात्रिके समय बड़े जोरकी प्यास लगी । वे यज्ञशालामें गये । किंतु वहाँ देखा कि ऋषि लोग सो रहे हैं । तब जल मिलने का कोई और उपाय न देखकर उन्होंने वह मन्त्रसे अभिमन्त्रित जाल ही पी लिया । जब प्रातःकाल ऋषियोंको मालूम हुआ तो उन लोगोंने भगवदिच्छाको ही प्रधान माना । इसके बाद का समय आनेपर युवनाश्वको दाहिनी कोख फाड़कर एक बालक उत्पन्न हुआ । उसे रोते देखकर ऋषियोनि -यह बालक दूधके लिये रो रहा है । अतः किसका दूध पीयेगा ? तब इन्हने कहा- मेरा पीयेगा ' मांधाता ' बेटा ! तू रो मत यह कहकर इन्ने अपनी तर्जनी उँगली उसके मुंह में डाल दी । ब्राह्मण और देवाओं प्रसाद युवनाश्वको भी मृत्यु नहीं हुई । वे जंगल में ही तपस्या करके मुक्त हो गये । इन्हने उल बालकका नाम रखा असदस्युः क्योंकि रावणादि दस्यु ( लुटेरे ) उससे भयभीत रहते थे और इन्हने जो उसके कह दिया था - मांधाता ' अतः बालक मान्धाता नामसे भी जगदमें प्रसिद्ध हुआ । राजा हुए । भगवान् के तेजसे तेजस्वी होकर उन्होंने अकेले ही पृथ्वीका शासन किया । तथा कर्मकाण्डकी उन्हें कोई विशेष आवश्यकता नहीं थी , फिर भी उन्होंने बड़ों बीयनपुरूष प्रभुको आराधना की परमयोगी मुचुकुन्दजी इन्सोंक पुत्र थे ।

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