श्रीप्रियव्रतजी
स्वायम्भुव मनुके पुत्र प्रियव्रतजी जन्मसे ही भगवान्के परम भक्त थे । उन्हें भगवान्के गुण - गान , उन उत्तमश्लोकके मंगलचरित - श्रवणको छोड़कर कुछ भी अच्छा नहीं लगता था । देवर्षि नारदकी कृपासे उन परमभागवतने परमार्थतत्त्वको जान लिया था । वे देवर्षिके समीप गन्धमादन पर्वतपर रहकर निरन्तर भगवान्का चिन्तन करते और नारदजीसे भगवान्की परम पावन लीलाका श्रवण करते । जब मनुजी ब्रह्मसत्रकी दीक्षा लेने लगे , तब उन्होंने प्रियव्रतको राज्य करनेके लिये बुलाया , किंतु जिनका चित्त भगवान् वासुदेवमें ही सब ओरसे लगा था , उन प्रियव्रतजीको राज्यके सुख भोग अच्छे न लगे । उन्होंने संसारके विषयोंको विषके समान समझ लिया था । अतएव राज्य संचालन उन्होंने अस्वीकार कर दिया ।
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प्रियव्रतने जब राज्य करना अस्वीकार कर दिया , तब स्वयं भगवान् ब्रह्मा उन्हें समझाने के लिये ब्रह्मलोकसे वहाँ पधारे । आकाशसे हंसवाहन सृष्टिकर्ताको आते देख नारदजी और प्रियव्रत खड़े हो गये । उन्होंने ब्रह्माजीको प्रणाम करके उनका पूजन किया । ब्रह्माजीने कहा - ' बेटा प्रियव्रत ! अप्रमेय , सर्वेश्वर प्रभुने जो कर्तव्य तुम्हें दिया है , उसमें तुम्हें दोषदृष्टि नहीं करनी चाहिये । मैं , शंकरजी , महर्षिगण विवश होकर उन प्रभुके आदेशका पालन करते हैं । कोई भी देहधारी तपस्या , विद्या , योगबल , अर्थ या धर्मके द्वारा स्वयं या दूसरोंकी सहायतासे भी उन सर्वसमर्थके किये विधानको अन्यथा नहीं कर सकता । उन प्रभुको प्रसन्न करना ही तुम्हारा भी उद्देश्य है , अतः तुम्हें उनके विधानसे प्राप्त कर्तव्यका पालन करना चाहिये । देखो , जो मुक्त पुरुष हैं , उन्हें भी अभिमानशून्य होकर प्रारब्ध शेष रहनेतक देह धारण करना ही पड़ता है । वे भी प्रारब्ध भोग भोगते ही हैं ; किंतु जैसे स्वप्नमें अनुभव किये भोग जाग जानेवारीको बाधित नहीं करते , वैसे ही वे प्रारब्धके भोग मुक्त पुरुषोंको दूसरा शरीर नहीं दे पाते । रही घरमै रहने और वनमें तप करनेकी बात , सो जो प्रमत्त है , उसके लिये वनमें भी पतनका भय है , क्योंकि उसके चितमें काम - क्रोध , लोभ मोह , मद - मत्सर- ये छः विकार लगे हैं । किंतु जो सावधान है , जितेन्द्रिय है , आत्मचिन्तनमें लगा है , भगवदाश्रयी है , उसकी गृहस्थाश्रम क्या हानि कर सकता है , जो कामादि छ : रिपुओंको जीतना चाहता हो , उसे पहले गृहस्थाश्रममें रहकर ही इनको जीत लेना चाहिये ; क्योंकि गृहस्थाश्रमके भोगोंको भोगता हुआ किलेमें सुरक्षित राजाके समान शत्रुरूप इन विकारोंको वह सरलतासे जीत सकता है । तुम तो कमलताभ नारायणके चरणकमलरूपी गढ़का आश्रय लेकर सभी विकारोंको जीत चुके हो ; अतः अब भगवान्के दिये हुए भोगोंको भोगो और आसक्तिरहित होकर प्रजाका पालन करो । ' प्रियव्रतने अपनेसे श्रेष्ठ ब्रह्माजीकी आज्ञा स्वीकार की । लोकस्रष्टा उनसे सत्कृत होकर अपने लोकको चले गये । प्रियव्रत नगरमें आये । ब्रह्माजीके इस उपदेशमें आजके साधकोंक लिये बहुत ही महत्त्वकी बातें बतायी गयी हैं । किसी भी उत्तेजना या दुःखके कारण घरका त्याग करना कल्याणकारी नहीं है । घर छोड़कर बाहर जानेसे अधिक भजन होगा - यह भी मनका एक भ्रम ही है । जबतक मनमें काम , क्रोध , लोभ , मोह , मद , मत्सर हैं , तबतक घर छोड़ देनेपर पतनका भय ही अधिक है । इन दोपॉपर घर रहकर जितनी सरलतासे विजय पायी जा सकती है , उतनी बाहर नहीं । भगवान्के चरणोंका आश्रय लेकर , भगवन्नामका जप करते हुए , कर्तव्यका पालन करते हुए घर रहकर ही इन दोपको जीतना चाहिये । इन शत्रुओंसे बचे रहनेके लिये घर सुरक्षित किला है । जो घरमें इन दोपोंसे घबराता है , उसे जानना चाहिये कि बाहर उसकी कठिनाई और बढ़ जायगी , दोषोंको बढ़नेके लिये बाहर अधिक अवसर मिलेगा । ब्रह्माजीकी आज्ञा मानकर प्रियव्रत राजधानीमें आये । उन्होंने राज्य और गृहस्थाश्रम स्वीकार किया । प्रजापति विश्वकर्माकी पुत्री बर्हिष्मतीसे उन्होंने विवाह किया । उनके दस पुत्र और एक कन्या हुई । प्रियव्रत सम्पूर्ण ब्रह्माण्डके स्वामी थे । उन्हें यह अच्छा न लगा कि आधी पृथ्वीपर एक समय दिन और आधीपर रात्रि रहे । ' मैं रात्रिको भी दिन बना दूँगा । ' यह सोचकर अपने ज्योतिर्मय दिव्य रथपर बैठकर वे सूर्य - रथकी गतिके समान ही वेगसे रात्रिवाले भागमें यात्रा करने लगे । इस प्रकार सात दिन - रात्रि वे घूमते रहे और उतने काल उन्होंने पूरे भूमण्डलपर दिनके समान प्रकाश बनाये रखा ब्रह्माजीने इस कार्यसे उन्हें रोका । उनके रथके पहियोंसे ही सात समुद्र बन गये । उन समुद्रोंसे घिरे एक - एक द्वीपका अधिपति उन्होंने अपने एक एक पुत्रको बनाया । आग्नीध्र , इध्मजिह , यज्ञबाहु , हिरण्यरेता , घृतपृष्ठ , मेधातिथि और वीतिहोत्र- ये उनके सात पुत्र क्रमशः जम्बूद्वीप , प्लक्षद्वीप , शाल्मलिद्वीप , कुशद्वीप , क्राँचद्वीप , शाकद्वीप तथा पुष्करद्वीपके स्वामी हुए । कवि , महावीर और सवन - ये तीन पुत्र आजन्म ब्रह्मचारी , आत्मवेत्ता परमहंस हो गये । इतना बड़ा अखण्ड साम्राज्य , पूरे भूमण्डलका ऐश्वर्य , पुत्र - पुत्री , स्त्री आदि समस्त सुख और स्वर्गादि लोकोंके लोकपाल भी उनके मित्र ही थे ; किंतु भगवान्के परम भक्त प्रियव्रतको इन सबका तनिक भी मोह नहीं था । उन्हें लगता था कि व्यर्थ ही मैंने यह प्रपंच बढ़ाया । वे अपनेको गृहासक तथा पत्नीमें कामासक मानकर बराबर धिक्कारते थे । पुत्रोंको राज्य देकर वे सम्पूर्ण ऐश्वर्यका त्याग करके फिर गन्धमादन पर नारदजीके पास चले गये । भगवान्का निरन्तर चिन्तन करना उन्होंने अपना एकमात्र व्रत बना लिया । कर्मके द्वारा , पुण्यके द्वारा और योगके द्वारा मिलनेवाला पृथ्वी और स्वर्गादि लोकोंका समस्त भोग उन्हें प्राप्त था ; किंतु उन महाभागने उसे नरकके भोगके समान मानकर त्याग दिया । परमपुरुष भगवान्के अनन्त सुधा - सिन्धुर्मेजिनका चित्त निमग्न हो गया है , वे धन्यभाग्य भगवद्भक्त ही ऐसा त्याग कर सकते हैं ।
हरिशरणम हरिशरणम हरिशरणम।
BHOOPAL MISHRA
SANATAN VEDIC DHARMA KARMA
bhupalmishra35620@gmail.com