सारोद्धार गरुडपुराण 16 अध्याय

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🕉 Sanatan Vedic dharma



गरूर पुराण के बारे मे हजारों-हजार पुस्तक लिखी जाए तो भी इनके 
 दिव्य ज्ञान की व्याख्या संभव नही है। मानव जीवन के सम्पूर्ण कर्म धर्म की व्याख्या करने वाले इस ग्रंथ का अध्ययन अध्यापन प्रचार-प्रसार करना चाहिए।  जन्म से मनुष्य होना परम सोभाग्य की बात है ,परन्तु धर्म से विमुख होना परम दुर्भाग्य की बात है ।
भूपाल मिश्र 


 सोलहवाँ अध्याय

 मनुषय शरीर प्राप्त करनेकी महिमा, धर्माचरण हो मुख्य कर्तव्य, शरीर और संसारकी दुःखरूपता तथा नश्वरता, मोक्ष-धर्म-निरूपण

 गरुड उवाच

 श्रुता मया दयासिन्धो ह्यज्ञानाज्जीवसंसृतिः । अधुना श्रोतुमिच्छामि मोक्षोपायं सनातनम् ॥ १ ॥ शरणागतवत्सल । असारे घोरसंसारे सर्वदुःखमलीयसे ॥ २ ॥

 भगवन्

 देवदेवेश

 ॥ ॥

 नानाविधशरीरस्था

 हानन्ता

 जीवराशयः। जायन्ते च म्रियन्ते च तेषामन्तो न विद्यते ॥ ३ ॥

 सदा दुःखातुरा एव न सुखी विद्यते क्वचित् । केनोपायेन मोक्षेश मुच्यन्ते वद मे प्रभो ॥। ४ ॥

 गरुडजीने कहा- हे दयासिन्धो अज्ञान के कारण जीव जन्म-मरणरूपी संसारचक्रमें पड़ता है, यह मैने सूना । अब मैं मोक्षके सनातन उपायको सुनना चाहता हूँ ॥ १ ॥ हे भगवन्। हे देवदेवेश। हे शरणागतवत्सत् भी प्रकारके दुःखोंसे मलिन तथा साररहित इस भयावह संसारमें अनेक प्रकारके शरीर धारण करके अनन्त वराशियाँ उत्पन्न होती हैं और मरते हैं, उनका कोई अन्त नहीं है॥ २-३ ॥ 

ये सभी सदा दुःखसे पीड़ित रहते हैं, इन्हें कहीं सुख नहीं प्राप्त होता है । हे मोक्षेश! हे प्रभो! किस उपायके करनेसे इन्हें इस संसृति- चक्र से मुक्ति  प्राप्त हो सकती है, इसे आप मुझे बतायें ॥ ४ ॥


गरुडपुराण- सारोदार

श्रृणु तारक्ष्यं प्रवक्ष्यामि यन्मां त्वं परिपृच्छसि । यस्य श्रवणमात्रेण संसारान्मुच्यते नरः ।। ५ ।। 

अस्ति देव: परब्रह्मस्वरूपी निष्कलः शिवः । सर्वज्ञः सर्वकर्ता च सर्वेशो निर्मलोऽद्वयः ॥ ६ ॥

 स्वयंन्योतिरनाद्यन्तो निर्विकार: परात्परः । निर्गुणः सच्चिदानन्दस्तदंशाज्जीवसंज्ञकः ॥ ७ ॥

 श्रीभगवान्ने कहा- हे तायं । तुम इस विषय में मुझसे जो पूछते हो, मैं बतलाता हूँ सुनो, जिसके सुननेमात्र से मनुष्य संसारसे मुक्त हो जाता है ॥५ ॥ वह परब्रह्म परमात्मा निष्कल' (कलारहित) परब्रह्मस्वरूप, शिवस्वरूप,

१(. परमपुरुषको षोडश कलाओंसे युक्त बतलाया गया है। प्रश्नोपनिषद् (६) २) में षोडश कलाओंवाले पुरुषको देहमें स्थित बतलाया गया है। इहैवान्तः शरीरे सोम्य स पुरुषो यस्मिन्नेताः षोडशकलाः प्रभवन्तीति। जैसे समुद्रमे मिलनेपर नदियोंके अपने नाम और रूप समान हो जाते हैं, उसी प्रकार परमपुरुष परमात्माको कलाएँ उससे सङ्गत होनेपर अपने नाम और रूपको उसीमें विलीन कर देती हैं उनका अस्तित्व रह ही नहीं पाता और इसीलिये वह परमात्मा अकल (कला-रहित) कहलाता है (प्रश्नोपनिषद् ६५)
 ब्रह्मविद्योपनिषद् (श्लोक ३०-३९) में अनेक दृष्टान्तों के द्वारा यह बोध कराया गया है कि निष्कको कोई स्थूल सत्ता नहीं होती, अपितु वह नितान्त सूक्ष्म होता है। ब्रह्मविद्योपनिषद् (श्लोक ३३) के अनुसार ब्रह्म या परमात्मा जब देहगत (शरीरावच्छिन्न) होता है तो उसे सकल समझता चाहिये और शरीररहित अवस्थामें उसे निष्कल समझना चाहिये-देहस्थः सकलो यो निष्कलो देहवर्जितः । शाण्डिल्योपनिषद् ब्रह्मके तीन रूप बतलाये गये हैं-सकल, निष्कल और सफल निष्कल सत्य, विज्ञान और आनन्दमय, निष्क्रिय, निरञ्जन, सर्वव्यापी अत्यन्त सूक्ष्म, सर्वतोमुख, अनिर्देश्य और अमरस्वरूपको हो निष्कल कहा जाता है।)

सर्वज्ञ, सर्वकर्ता, सर्वेश्वर, निर्मल तथा अद्वय (द्वैतभावरहित) है ॥ ६ ॥ वह (परमात्मा) स्वतः प्रकाश है, अनादि,अनन्त, निर्विकार, परात्पर, निर्गुण और सत्-चित्- आनन्दस्वरूप है। यह जीव उसीका अंश है ॥ ७ ॥ 
अनाद्यविद्योपहता यचाग्नी विस्फुलिङ्गकाः । देहाद्युपाधिसम्भिन्नास्ते कर्मभिरनादिभिः ॥ ८ ॥
सुखदुःखप्रदैः पुण्यपापरूपैर्नियन्त्रिताः । तत्तज्जातियुतं देहमायुभगं च कर्मजम् ॥ ९ ॥


प्रतिजन्म प्रपद्यन्ते येषामपि परं पुनः सुसूक्ष्मलिङ्गशारीरमामोक्षादक्षर खग ॥ १० ॥

 स्थावराः कृमयश्चाब्जाः पक्षिणः पशवो नराः । धार्मिकास्त्रिदशास्तद्वन्मोक्षिणश्च यथाक्रमम् ॥ ११ ॥

 चतुर्विधशरीराणि धृत्वा मुक्त्वा सहस्रसः। सुकृतान्मानवो भूत्वा ज्ञानी चेन्मोक्षमाप्नुयात् ॥ १२ ॥

जैसे असे बहुत से स्फुलिंग (चिनगारियाँ) निकलते है उसी प्रकार अनादिकालीन अविद्यासे युक्त होनेके कारण अनादि कालसे किये जानेवाले कर्मोंके परिणामस्वरूप देहादि उपाधिको धारण करके जोव भगवान्‌से पृथकृ हो गये हैं ॥ ८ ॥

 वे जीव प्रत्येक जन्ममें पुण्य और पापरूप सुख-दुःख प्रदान करनेवाले कमसे नियन्त्रित होकर तत्तत् जातिके योगसे देह (शरीर), आयु और कर्मानुरोधी भोग प्राप्त करते हैं। हे खग। इसके पश्चात् भी पुनः वे अत्यन्त सूक्ष्म लिङ्गशरीर प्राप्त करते हैं और यह क्रम मोक्षपर्यन्त स्थित रहता है । ९-१०॥ 

ये जीव कभी स्थावर (वृक्षलतादि जड़) योनियोंमें पुनः कृमियोगियोंगे तदनन्तर जलचर, पक्षी और पशुयोनियोंको प्राप्त करते ह मनुष्ययोनि प्राप्त करते हैं। फिर धार्मिक मनुष्यके रूपमें और पुनः देवता तथा देवयोनिके पश्चात् क्रमशः मोक्ष 



प्राप्त करने के अधिकारी होते हैं.२१ स्वेदज और पिण्डज चार प्रकारके शरीरों को सहस्रों बार धारण करके उनसे मुक्त होकर सुकृत (पुण्यप्रभावसे) जीव मनुष्य शरीर प्राप्त करता है और यदि वह ज्ञानी हो जाय तो मोक्ष प्राप्त कर लेता है ॥ १२ ॥

चतुरशीतिलक्षेषु शरीरेषु शरीरिणाम्। न मानुषं विनाऽन्यत्र तत्त्वज्ञानं तु लभ्यते ॥ १३ ॥

अत्र जन्मसहस्त्राणां सहसैरपि कोटिभिः । कदाचिलभते जन्तुर्मानुष्यं पुण्यसंचयात् ।। १४ ।। 

सोपानभूतमोक्षस्य मानुष्यं प्राप्य दुर्लभम् । यस्तारयति नात्मानं तस्मात्पापतरोऽत्र कः ॥ १५ ॥

 जीवोंकी चौरासी लाख योनियोंमें मनुष्ययोनिके अतिरिक्त अन्य किसी भी योनिमें तत्त्वज्ञान प्राप्त नहीं होता. १३ ॥

 पूर्वोक्त विभिन्न योनियोंमें हजारों-हजार करोड़ों बार जन्म लेनेके अनन्तर उपार्जित पुण्यके कारण कदाचित् मनुष्य योनि प्राप्त होती है ॥ १४ ॥ 

मोक्षप्राप्ति के लिये सोपानभूत यह दुर्लभ मनुष्य शरीर प्राप्त करके इस संसृतिचक्रसे जो अपनेको मुक्त नहीं कर लेता, उससे अधिक पापी और कौन होगा ॥ १५ ॥

नरः प्राप्योत्तमं जन्म लकवा चेन्द्रियसौष्ठवम् । न वेत्यात्महितं यस्तु स भवेद् ब्रह्मघातकः ।। १६ ।। 

विना देहेन कस्यापि पुरुषार्थो न विद्यते। तस्मादेहं धनं रक्षेत् पुण्यकर्माणि साधयेत् ॥ १७ ॥ 

रक्षयेत् सर्वदात्मानमात्मा सर्वस्य भाजनम् । रक्षणे यन्त्रमातिष्ठेजीवन् भद्राणि पश्यति ॥ १८ ॥

 उत्तम मनुष्य शरीरमें जन्म प्राप्त करके और समस्त सीवसम्पन्न अविकल इन्द्रियोंको प्राप्त करके भी जो व्यक्तिअपने हितको नहीं जानता वह ब्रह्मघातक होता है ।। १६ ।। 

शरीरके बिना कोई भी जीव पुरुषार्थ नहीं कर सकता, इसलिये शरीर और धनकी रक्षा करता हुआ इन दोनोंसे पुण्योपार्जन करना चाहिये। मनुष्यको सर्वदा अपने शरीरको रक्षा करनी चाहिये क्योंकि शरीर सभी पुरुषार्थीका एकमात्र साधन है। इसलिये उसको रक्षाका उपाय करना चाहिये। जीवन धारण करनेपर हो व्यक्ति अपने कल्याणको देख सकता है।। १७-१८ ॥

पुनग्रार्म  पुनः क्षेत्रं पुनर्वित्तं पुनर्गृहम् । पुनः शुभाशुभं कर्म न शरीरं पुनः पुनः ॥ १९ ॥

 शरीररक्षणोपायाः क्रियन्ते सर्वदा बुधैः । नेच्छन्ति च पुनस्त्यागमपि कुष्ठादिरोगिणः ॥ २० ॥ 

तद्गोपितं स्याद्धर्मार्थं धर्मो ज्ञानार्थमेव च । ज्ञानं तु ध्यानयोगार्थमचिरात् प्रविमुच्यते ॥ 2१ ॥

गाँव, क्षेत्र धन पर और शुभाशुभ कर्म पुनः पुनः प्राप्त हो सकते हैं, किंतु मनुष्य शरीर पुनः पुनः प्राप्त नहीं हो सकता ॥ १९ ॥

 इसलिये बुद्धिमान् व्यक्ति सदा शरीरको रक्षाका उपाय करते हैं। कुष्ठ आदिके रोगी भी अपने शरीरको त्यागने की इच्छा नहीं करते ॥ २० ॥ 
शरीरकी रक्षा धर्माचरणाके उद्देश्यसे और धर्माचरण ज्ञानप्राप्तिके उद्देश्यसे (उसी प्रकार) ज्ञान ध्यान एवं योगकी सिद्धिके लिये और फिर ध्यानयोगसे मनुष्य अविलम्ब मोक्ष प्राप्त कर लेता है॥ २१ ॥

 आत्मेव यदि नात्मानमतेिभ्यो निवारयेत्। कोऽन्यतरस्तदात्मानं तारयति ॥ २२ ॥ 

इहैव नरकव्याधेचिकित्सां न करोति यः । गत्वा निरीषर्थ देशं व्याधिस्थः किं करिष्यति ॥ २३ ॥

क्रमशः

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