श्री रसिकमुरारि जी महाराज के अद्भुत गौरवान्वित चरित्र, जो हिंदु धर्म के महानता को प्रदर्शित करने वाला है ।
रसिक मुरारे जी का परम पावन चरित्र सनातन धर्मावलम्बी के लिए दिव्य विमान है । जिसके अध्यन से संसार सागर से पार करना सुलभ हो जाएगा। अपने धर्म संस्कति के रक्षा के लिए भी विमान है ।जिस पर सवार होकर बङे से बङे आततायी का मुकाबला भी संभव है ।
आज जितना धन अस्त्र शस्त्र के निर्माण मे खर्च कर रहे है उसका कुछेक अंश यदि साधु संतो की सूरक्षा पर खर्च कर दिया जाए तो बिना अस्त्र शस्त्र के ही विश्व विजेता हो सकते है ।
कलिकाल के इस माहौल मे भी रसिक मुरारी जी का परम पावन चरित्र अनुकरणीय और वंदनीय है ।
तन मन धन परिवार सहित सेवत संतन कहँ । दिब्य भोग आरती अधिक हरि हू ते हिय महँ ॥ श्रीवृंदाबनचंद स्याम स्यामा रॅग भीने।मगन प्रेम पीयूष पयधि परचै बहु दीने ॥ ( श्री ) हरिप्रिय स्यामानंद बर भजन भूमि उद्धार कियो । ( श्री ) रसिक मुरारि उदार अति मत्त गजहि उपदेस दियो ।।
श्रीरसिकमुरारिजी परमोदार सन्त थे । इन्होंने मतवाले हाथीको भी श्रीकृष्णनामका उपदेश दिया । ये ( शिष्य परिकर एवं ) सपरिवार तन , मन , धनसे सन्तोंकी सेवा करते थे । सन्तोंको दिव्य भोग अर्पित करते , विधिपूर्वक पूजा - आरती करते । कहाँतक कहा जाय , ये अपने हृदयमें श्रीहरिसे भी अधिक श्रीहरिभक्तोंको मानते थे । श्रीवृन्दावनचन्द श्रीश्यामा श्यामके प्रेमरंग में रंगे रहते थे तथा सर्वदा प्रेमामृतसिन्धुमें डूबे रहते थे । इन्होंने बहुत से चमत्कार दिखाये हैं । श्रीभगवान्के परम प्यारे , श्रीसद्गुरुदेववर्य श्रीश्यामानन्दजीकी सन्तसेवाकी साधनभूत भूमिको यवन नवाबके चंगुलसे मुक्तकर आपने अपनी अद्भुत भक्ति - शक्तिका परिचय दिया ।।
श्रीरसिकमुरारिजीके विषय में विशेष विवरण इस प्रकार है
श्रीरसिकमुरारिजीका जन्म उड़ीसा मल्लभूमिमें रोहिणीनगरमें शक सं ० १५१२ में कार्तिक शुक्ल प्रतिपदाको प्रातः कालकी मंगल वेलामें हुआ था । आपके पिता श्रीअच्युतपटनायक जमींदार होते हुए भी बड़े भगवद्भक्त थे तथा माता भवानीदेवी पतिव्रता सद्गृहिणी थीं । आपका नामकरण करते समय पण्डितोंने ज्योतिष गणनाके आधारपर आपका नाम ' रसिक ' रखा और महापुरुषके लक्षण बताये , परंतु आपके पिताजी आपका नाम ' मुरारि ' रखना चाहते थे अतः दोनों नाम मिलाकर आपका नाम ' रसिकमुरारि ' रखा गया । अन्नप्राशनके अवसरपर प्रवृत्ति परीक्षण हेतु रखे गये द्रव्योंपर जब हाथ रखना हुआ तो आपने ग्रन्थरल श्रीमद्भागवतपर अपना हाथ रखा । उसी समय उपस्थित जनों और कुटुम्बियोंको यह दृढ़ निश्चय हो गया कि यह बालक परम भागवत और महान् भगवद्भक्त होगा । बाल्यकालसे ही आपका सन्तोंके प्रति सहज आकर्षण था । उनको ' जय जगदीश ' की ध्वनि सुनते ही आप अपने नन्हें - नन्हें हाथोंमें जो कुछ मिलता भरकर लाते और भिक्षा देते । बड़े होनेपर भी अध्ययनकालमें आप पढ़ाईके साथ - साथ बच्चोंको लेकर नगर कीर्तन करते । एक बार आपके यहाँ श्रीमद्भागवतका सप्ताह पाठ चल रहा था , जब उसमें गोपीगीतका प्रसंगआया तो आप मूर्च्छित हो गये । श्रीमद्भागवत ग्रन्थपर आपका विशेष अनुराग था , अतः आपने पिता की अनुमति लेकर पं ० श्रीजगन्नाथाचार्यजीसे श्रीधरीटीकासहित श्रीमद्भागवतका अध्ययन किया । आप श्रीगौरांग महाप्रभु से विशेष प्रभावित थे , अतः चाहते थे कि किसी गौरांग पार्षदसे मुझे दीक्षा प्राप्त हो जाय । कहते हैं कि आपकी इस अदम्य उत्कण्ठा और भक्ति - भावको देखकर भगवान् श्रीकृष्णने स्वप्नमें दर्शन दिया और कहा कि तुम धारेन्दा चले जाओ , वहाँ तुम्हें मेरे भक्त श्रीश्यामानन्दजी मिलेंगे , तुम उनका आश्रय ग्रहण करो , इससे तुम्हारे सभी मनोरथ पूर्ण हो जायेंगे । प्रभुकी आज्ञानुसार आपने श्रीश्यामानन्दजीके दर्शन किये और उनसे श्रीयुगल - मन्त्रकी दीक्षा प्राप्त की । उन्हींसे आपको व्रजतत्त्व और सम्प्रदाय रहस्यका ज्ञान हुआ । श्रीगुरुदेवजीके साथ आपने व्रजके तीर्थोंकी यात्राकर उनके तात्त्विक दर्शन किये । तत्पश्चात् उन्हींक साथ आप उत्कलदेश चले गये , वहाँ अनेक विमुखोंको भक्त बनाया और अन्तिम समयतक भगवान् श्रीजगन्नाथजीकी सेवामें रत रहे ।
श्रीरसिकमुरारिजी बड़े समारोहपूर्वक सन्त - सेवा करते थे । आपकी सेवाकी पद्धति कुछ विलक्षण ही थी , वह यह कि सन्तोंके चरणोदकसे भरे हुए मटके घरपर धरे रहते थे । आप उसीको प्रणाम करते , उसीकी पूजा करते और उसीका हृदयमें ध्यान धरते थे । आपके यहाँ जो भी सन्त वैष्णव आते , उन्हें अपार सुख देते थे । आप बड़े समारोहसे श्रीगुरु - उत्सव मनाया करते थे । उसमें पूरे दिन कथा - कीर्तन - सत्संग , भोज - भण्डारे होते रहते थे , जिससे सब लोग बहुत सुख पाते थे । यह उत्सव बारह दिन तक लगातार चलता रहता था । बारहों दिनतक भक्तोंकी भीड़ लगी रहती थी , जो देखनेमें अत्यन्त ही प्रिय लगती थी ।
श्रीप्रियादासजी महाराजने श्रीरसिकमुरारिजीकी इस सन्तसेवाका इस प्रकार वर्णन किया है -
रसिकमुरारि साधुसेवा बिसतार कियौ पावै कौन पार रीति भाँति न्यारियै । कछु सन्त चरणामृत के माट गृह भरे रहै ताहीकौ प्रनाम पूजा करि उर धारियै ॥ आवैं हरिदास तिन्हें देत सुखराशि जीभ एक न प्रकाशि सकै थकै सो विचारियै । करें गुरु उत्सव लै दिनमान सबै कोऊ द्वादस दिवस जन घटा लागी प्यारियै ॥
एक दिन श्रीरसिकमुरारिजीके यहाँ भण्डारेमें बहुतसे सन्त प्रसाद पा रहे थे । आपने एक शिष्यका सन्तोंके प्रति हृदयका भाव जानने के लिये उसे आज्ञा देकर भेजा कि जाकर सन्तोंका चरणामृत अच्छी प्रकारसे ले आओ । उसने लाकर कहा कि सब साधुओंका चरणामृत ले आया । श्रीरसिकमुरारिजीने चरणामृत पानकर कहा कि क्या कारण है कि चरणामृतमें पहले जैसा स्वाद नहीं आया । ' आपने निश्चय करके जान लिया कि यह किसी सन्तका चरणामृत लेनेसे छोड़ आया है , अतः जोर देकर पूछा कि ' सही बताओ तुमने किसी सन्तको छोड़ा तो नहीं है ? ' तब शिष्यने कहा कि ' एक कोढ़ी सन्त थे , मैंने उन्हींका चरणामृत नहीं लिया । ' आपने कहा- ' जाओ , उनका चरणामृत भी ले आओ । तब शिष्य उनका भी चरणामृत ले आया । उसे आपने स्वयं पान किया और दूसरोंको भी दिया । आपको वह चरणामृत पीनेसे अपार सुख मिला । आपके नेत्रोंसे प्रेमाश्रु बह चले ।
श्रीप्रियादासजीने श्रीरसिकमुरारिजीकी इस सन्तचरणामृतनिष्ठाका इस प्रकार वर्णन किया है
सन्त चरणामृतको ल्यावो जाय नीकी भाँति जीकी भाँति जानिबेको दास लै पठायौ है । आनिकै बखान कियौ लियौ सब साधुनकौ पान कर बोले ' सो सवाद नहिं आयौ है ' ॥ जिते सभाजन कही चाखौ देहु मन , कोऊ महिमा न जानें कन जानी छोड़ि आयौ है । पूछी , कही ' कोढ़ी एक रह्यौ , ' आनो , ल्यायो , पीयो , दियो सुख पाय नैन नीर ढरकायौ है ।।
एक बार भक्तराज श्रीरसिकमुरारिजी राजाओंके समाजमें विराजमान होकर ज्ञानोपदेश कर रहे थे । सभी लोग बड़े ही मनोयोगपूर्वक आपका उपदेश श्रवण कर रहे थे ; वहीं पासमें ही एक स्थलपर सब सन्त बैठे भोजन कर रहे थे । उन्हीं सन्तोंमें एक सन्त अपने अतिरिक्त अपने सोटिका भी दूसरा परसा माँग रहे थे । परंतु रसोइया उन्हें सोटेका परसा नहीं दे रहा था । परसा न देनेपर वह सन्त शोरगुल मचा रहे थे । अन्ततोगत्वा उन सन्तने अपनी परसी - परसाई पत्तल उठायी और गोस्वामी श्रीरसिकमुरारिजीके ऊपर डाल दी और बहुतेरी गालियाँ भी दीं । प्रवचन करते समय मुँह खुला होनेके कारण एक लड्डू गोस्वामीजीके मुखमें चला गया । श्रीरसिकमुरारिजी शान्तिपूर्वक गालियाँ सुनते रहे । फिर उन्होंने अवसर देखकर कहा - ' अहो ! मैं सन्तोंकी सीथ - प्रसादीसे विमुख था तो सन्तने स्वयं कृपा करके लाकर मेरे मुखमें ही डाल दिया । ' तत्पश्चात् आपने उस सेवकको , यह कहकर कि तुम्हारा सन्त सेवामें भाव नहीं है , सेवासे अलग कर दिया और सोटेका परसा दिलाया ।
श्रीप्रियादासजी महाराज इस घटनाका अपने एक कवित्तमें इस प्रकार वर्णन करते हैं
नृपति समाज मैं विराजमान भक्तराज कहैं वे विवेक कोऊ कहनि प्रभाव है । तहाँ एक ठौर साधु भोजन करत रौर देवी दूजी सोंटा संग कैसे आवै भाव है ॥ पातरि उठाय श्रीगुसाई पर डारि दई दई गारी सुनि आप बोले देख्यौ दाव है । सीथ सों विमुख मैं तो आनि मुखमध्य दियौ कियौ दास दूर सन्तसेवामें न चाव है ॥
एक दिनकी बात है । श्रीरसिकमुरारिजीके बागमें सन्तोंकी जमात टिकी हुई थी । आप सन्तोंका दर्शन करने चले । उस समय एक सन्त हुक्का पी रहे थे । उन्होंने आपको आते हुए देखा तो सकुचाकर हुक्काको कहीं छिपा दिया । अपने आनेसे सन्तोंको संकोच हुआ जानकर इसके प्रायश्चित्तके लिये आपने उन साधुका सम्मान करना चाहा । फिर तो उसी क्षण चक्कर खाकर पेट पकड़कर बैठ गये और बोले - ' मेरे पेटमें बड़े जोरका दर्द हो रहा है , देखो तो किसी संतके पास हुक्का रखा है क्या ? ' आपके एक सेवकने सन्तोंकी जमातमें जाकर सबको सुनाकर पूछा कि ' किसीके पास हुक्का - तम्बाकू है ' , यह सुनकर हुक्का पीनेवाले सन्तको बड़ा उल्लास हुआ और उन्होंने तत्काल ही हुक्का लाकर सामने कर दिया । आपने झूठ - मूठकी लम्बी श्वास खींचकर हुक्का पीनेका स्वाँग किया और तुरंत स्वस्थ हो गये । इस प्रकार आपने झूठे स्वाँगसे सन्तकी शंका और दुःखको दूर कर दिया ।
श्रीप्रियादासजीने इस घटनाका अपने एक कवित्तमें इस प्रकार वर्णन किया है "
बागमें समाज सन्त चले आप देखिबेको देखत दुरायो जन हुक्का सोच परयौ है । बड़ौ अपराध मानि साधु सनमान चाहँ , घूमितन बैठि कही देखौ कहूँ धरयौ है ॥ जायकै सुनाई दास काहूके तमाखू पास सुनिकै हुलास बढ्यौ आगे आनि कयौ है । झूठे ही उसाँस भरि साँचे प्रेम पाय लिये किये मन भाये ऐसे संका दुःख हरयौ है ॥
श्रीरसिकमुरारिजीके गुरुदेव ' धारेन्दा ' नामक स्थानमें रहते थे । उनके स्थानसे सम्बन्धित कुछ जमीन बानपुर नामक ग्राममें थी । वहाँ खेती होती थी । जो अन्न उत्पन्न होता , वह साधुसेवा निमित्त धारेन्दा स्थानपर आता । उन्हीं दिनों बानपुरमें एक नया नवाब आया । वह बड़ा ही दुष्ट था । उसने आकर साधुओंको बहुत अवाच्य वचन कहा और उस ग्रामकी समस्त भूमि अपहरण कर ली । श्रीश्यामानन्दजीने विचार किया कि सन्तसेवाकी इस जमीनको कैसे छुड़ाया जाय ? फिर विचारकर उन्होंने श्रीरसिकमुरारिजीको पत्र लिख दिया कि तुम जिस स्थिति में हो , उसी स्थितिमें यहाँ चले आओ । श्रीरसिकमुरारिजी उस समय भोजन कर रहे थे । पत्र पाते ही बिना आचमन किये ही हाथ जोड़े हुए चले आये । श्रीरसिकमुरार िजीने हाथ और मुँह जूठा होनेसे पीछेसे ही गुरुजीको साष्टांगदण्डवत् प्रणाम किया । पुनः निवेदन किया कि मैं भोजन कर रहा था , उसी समय आपका पत्र मिला , अतः बिना आचमन किये , ज्यों - का - त्यों चला आया । इनकी यह गुरुभक्ति देखकर श्रीश्यामानन्दजीका हृदय प्रेमसे भीग गया । श्रीरसिकमुरारिजीकी गुरुभक्तिकी इस घटनाका वर्णन श्रीप्रियादासजीने इस प्रकार किया है उपजत अन्न गाँव आवै साधुसेवा ठांव नयो नृपदुष्ट आय काँव काँव कियो है । ग्रामसो जबत कर्यो कर्यो लै विचार आप स्यामानन्दजू मुरारि पत्र लिखि दियो है ॥ जाही भाँति होहु ताही भाँति उठि आवौ इहाँ आये हाथ बाँधि करि अँचहू न लियो है । पाछे साष्टांग करी करी लै निवेदन सो भोजनमें कही चले आये भीज्यो हियो है ॥
श्रीगुरुदेव श्रीश्यामानन्दजीकी आज्ञा पाकर श्रीरसिकमुरारिजीने आचमन किया । तत्पश्चात् श्रीश्यामानन्दजीने इन्हें उसी स्थानपर भेजा , जहाँ दुष्टोंमें शिरोमणि नवाब रहता था । आप वहाँ गये । वहाँपर आपके शिष्यगण मिले , जो नवाबके यहाँ मुन्शी , मुनीम आदि थे । उन सबने आपको नवाबकी बात सुनायी कि वह बड़ा नीच है , अतः आप तो यहाँसे प्रातःकाल ही चले जायँ । हम सब उसको समझा - बुझाकर काम करा लेंगे । श्रीरसिकमुरारिजी बोले - ' चिन्ता मत करो । हृदयमें निश्चिन्तताको धारण करो । ' तीन दिनतक नवाबके कर्मचारी लोग अपने गुरुदेव श्रीरसिकमुरारिजीकी ही सेवामें रहे । तीसरे दिन नवाबका ध्यान इस ओर गया तो उन लोगोंको दरबारमें बुलवाया और पूछा कि तीन दिनतक कहाँ रहे ?
जब नवाबने कर्मचारियोंके मुखसे यह सुना कि उनके गुरुवर्य आये हैं तो कहा कि उन्हें मेरे घर लिवा लाओ , मैं उनकी करामात देखूँगा । नवाबने जब यह बात सुनायी तो कर्मचारियोंने आकर श्रीरसिकमुरारिजीसे प्रार्थना की कि अब भी आप यहाँसे चले जाइये । आपने कहा कि चलो , जरा उसको देखें तो क्या कहता - करता है । उसकी कितनी सामर्थ्य है ? यह कहकर आप नवाबके द्वारा भेजी हुई पालकीपर बैठकर चले । मार्गमें आये तो देखा कि चारों ओर मतवाले हाथीकी धूम छायी हुई है । हाथीके डरसे कहार इनकी पालकी छोड़कर भाग गये । परंतु आप किंचिन्मात्र भी विचलित नहीं हुए । बल्कि शास्त्रों में जैसी वाणी बोलनेको कहा गया है , हाथीसे आप वैसी ही परमरसमयी वाणी बोले- ' हे गज ! हरे कृष्ण हरे कृष्ण कहो , अपने तामसी शरीरके तमोगुणी स्वभावको छोड़ो । " आपके ये वचन सुनते ही हाथीके हृदयमें प्रेम - भाव भर गया । उसने आपके श्रीचरणोंमें अपने शरीरको झुकाकर प्रणाम किया ।
श्रीरसिकमुरारिजीका मंगलमय दर्शन करके और अमृतमय वचनोंको श्रवण करके हाथीके नेत्रोंसे प्रेमाश्रु बहने लगे । तब आपने कृपा करके उसे धैर्य बँधाया और भक्ति - भाव प्रदान दिया । उसके कानमें श्रीकृष्णनाम सुनाया , गलेमें तुलसीकी माला पहिनायी और उसका नाम गोपालदास रखा । इस प्रकार ऐसे मतवाले हाथीको शिष्य बनानेसे श्रीरसिकमुरारिजीका महान् प्रभाव प्रकटित हुआ , जिसे देखकर दुष्टशिरोमणि नवाब दौड़कर उसी स्थानपर आया और आपके श्रीचरणोंमें लिपट गया । जो जमीन जब्त की थी , वह तो लौटा ही दी और भी कितने नवीन गाँव एवं हाथी भेंटमें दिया । पुनः हाथ जोड़कर बोला कि आज मेरे किसी बड़े भाग्यक उदय हुआ , जो आपका दर्शन हुआ ।
भक्तमालके टीकाकार श्रीप्रियादासजी इस घटनाका अपने कवित्तोंमें इस प्रकार वर्णन करते हैं
आज्ञा पाइ अँचयो लै दै पठाए वाही ठौर दुष्ट सिर मौर जहाँ तहाँ आप आये हैं । मिले मुतसद्दी शिष्य आइकै सुनाई बात ' जावो उठि प्रात ' यह नीच जैसे गाये हैं ॥ हमहीं पठावैं , काम करि समझावैं सब मनमें न आवै जानी नेह ड रपाये हैं । चिन्ता जिनि करौ हिये धरौ निहचिंतताई भूप सुधि आई दिना तीन कहाँ छाये हैं ॥
सुनि आये गुरुवर कही ल्यावो मेरे घर देखाँ करामात बात यह लै सुनाई है । कह्यौ आनि अभूं जावाँ चलौ उनमान देखे , चले सुख मानि आयौ हाथी धूम छाई है ॥ छोड़िकै कहार भाजि गये न निहारि सके आप रससार बानी बोले जैसी गाई है । बोलौ हरे कृष्ण कृष्ण छाड़ौ गज तम तन सुनि गयौ हिये भाव देह सो नवाई है ।।
बहै दृग नीर देखि है गयौ अधीर आप कृपा करि धीर कियौ दियौ भक्ति भाव है । कान में सुनायौ नाम नाम दै ' गुपालदास ' माल पहिराई गरें प्रगट्यौ प्रभाव है ॥ दुष्ट सिरमौर भूप लखि लहि ठौर आयौ पाँय लपटायौ भयौ हिये अति चाव है । निपट अधीन गाँव केतिक नवीन दिये लिये करजोरि मेरौ फल्यौ भागदाव है ॥
श्रीरसिकमुरारिजीकी कृपासे वह गजराज गोपालदास भक्तराज हो गया । वह खूब सन्तसेवा करता था । सन्त समाजको देखकर प्रणाम करता था । वह हाथी बनजारोंके यहाँसे बोरे - के - बोरे चावल - दाल आदि लाकर सन्तोंकी जमातमें पटक देता था । एक बार सभी बनजारोंने मिलकर गजराज गोपालदासजीके गुरुदेव श्रीरसिकमुरारिजीके स्थानपर आकर पुकार की कि ' आपके शिष्य गजगोपालदास हमलोगोंका सब माल - मत्ता उठा लाते हैं । ' गजगोपालदासजीका नियम था कि जब कभी स्थानमें कोई विशेष महोत्सव , भोज भण्डारा होता तो जब सन्तोंकी पंक्ति भोजन करके उठ जाती , तब वे आते और सन्तोंकी सीथ प्रसादी पाते । एक दिन ऐसे ही समयपर आये तो श्रीरसिकमुरारिजीने समझाया कि बलात्कारपूर्वक बनजारोंका सामान मत उठा लाया करो । यह काम निन्द्य है । तबसे गजगोपालदासजीने वह काम छोड़ दिया । सन्तोंसे उनका ऐसा प्रेम बढ़ा कि उनके संग सन्तोंका समूह चलता था । इससे गजगोपालदासजीकी बड़ी ख्याति फैली ।
इनका चमत्कार सुनकर बंगालके नवाब शाहशुजाको चाह हुई कि ऐसे हाथीको हम अपने पास रखें । अतः पकड़वानेके लिये उसने बहुतसे आदमी नियुक्त किये , परंतु यह किसीके भी हाथ नहीं आये , तब सूबेदारने यह घोषणा की कि जो भी हाथीको पकड़कर लायेगा , उसे बहुत पुरस्कार दिया जायगा । यह सुनकर उस सन्तवेषनिष्ठ हाथीको एक साधुवेषधारी , जो नाममात्रका साधु था , पकड़ लाया । श्रीगजगोपालदासजीका नियम था कि बिना सन्तोंकी सीथ- प्रसादी लिये जल भी नहीं पीते थे । सूबेदारके यहाँ सन्तोंकी सीथ प्रसादी न मिलनेसे तीन - चार दिनतक इन्होंने कुछ भी खाया - पिया नहीं । तब सूबेदारके कहनेसे नौकर - चाकर इन्हें जल पिलाने के लिये श्रीगंगाजीकी धारामें ले गये । श्रीगंगाजीका दर्शन करके इन्होंने बीच धारामें प्रवेश करके अपना शरीर छोड़ दिया ।
श्रीप्रियादासजी गजगोपालदासजीकी इस सन्तनिष्ठाका अपने कवित्तोंमें वर्णन करते हुए कहते हैं
भयौ गजराज भक्तराज साधुसेवा साज सन्तनि समाज देखि करत प्रनाम है । आनि डारै गोनि बनजारनि की बारन सों आयेई पुकारन वे जहाँ गुरुधाम है ॥ आवत महोच्छौ मध्य पावत प्रसाद सीथ बोले आप हाथी सौं यौं निन्द्य वह काम है । छोड़ि दई रीति तब भक्तनसौं प्रीति बढ़ी संगही समूह फिरै फैलि गयौ नाम है ।।
सन्त सत पाँच सात संग जित जात तित लोग उठि धावै ल्यावै सीधे भीर है । चहूँ दिसि परी हई सूबा सुनि चाह भई हाथ पै न आवत सो आनै कोऊ धीर है ॥ साधु एक गयौ गहि लयौ भेष दास तन मन में प्रसाद नेम पीवै नहिं नीर है । बीते दिन तीन चार जल लै पिवावैं धार गंगा जू निहारि मधि तज्यौ यों सरीर है ॥
हरिशरणम हरिशरणम हरिशरणम
भूपाल मिश्र
सनातन वैदिक धर्म
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