Sadan kasai _ गर्व से कहो हम हिंदु है ।

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      सदन कसाई दिव्य चरित्र 




भवसागरसे पार करानेवाले भगवद्भक भवसागरसे पार करानेवाले भगवद्भक्त

 सोझा सींव अधार धीर हरिनाभ त्रिलोचन । आसाधर द्योराजनीर सधना दुखमोचन। ।कासीस्वर अवधूत कृष्ण किंकर कटहरिया। सोभू ऊदाराम , नाम डूंगर ब्पब्रतधरि। । पदम पदारथ रामदास बिमलानंद अमृत श्रए । भव प्रबाह निस्तार हित अवलंबन ये जन भए ।।


आवागमनरूप संसारके प्रवाहमें पड़े हुए जीवोंके उद्धारके लिये ये भगवद्भक अवलम्बस्वरूप हुए । सोझाजी श्रीसींवाजी , धैर्यवान् श्रीअधारजी , श्रीहरिनाभजी , श्रीत्रिलोचनजी , श्रीआसाधरजी , श्रीचौराजनीरजी , श्रोसदनजी- ये सब भक्त जीवोंको संसार - दुःखसे छुड़ानेवाले हुए अवभूत काशीश्वरजी , श्रीकृष्णकिंकरजी , श्रोकटहरियाजी , श्रीस्वभूरामदेवाचार्यजी , श्रीकदारामजी , श्रीडूंगरजी- ये श्रीहरिनामका व्रत धारण करनेवाले हुए । श्रीपद्मजी , श्रीपदारथजी , श्रीरामदासजी , श्रीविमलानन्दजी- ये भक्त श्रीहरिभक्तिरसामृतकी वर्षा करनेवाले हुए ।

इनमेंसे कतिपय भक्तोंके विषयमें विवरण इस प्रकार है

 

सदन कसाई 


प्राचीन समयमें सदन नामक कसाई जातिके एक भक्त हो गये हैं । यद्यपि ये जातिसे कसाई थे , फिर भी इनका हृदय दयासे पूर्ण था । आजीविकाके लिये और कोई उपाय न होनेसे दूसरोंके यहाँसे मांस लाकर बेचा करते थे , स्वयं अपने हाथसे पशु - वध नहीं करते थे । इस काममें भी इनका मन लगता नहीं था , पर मन मारकर जाति व्यवसाय होनेसे करते थे । सदनका मन तो श्रीहरिके चरणोंमें रम गया था । रात - दिन वे केवल ' हरि - हरि करते रहते थे । 


भगवान् अपने भक्तसे दूर नहीं रहा करते । सदनके घरमें वे शालग्रामरूपसे विराजमान थे । सदनको इसका पता नहीं था । वे तो शालग्रामको पत्थरका एक बाट समझते थे और उससे मांस तौला करते थे । एक दिन एक साधु सदनकी दूकानके सामनेसे जा रहे थे । दृष्टि पड़ते ही वे शालग्रामजीको पहचान गये । मांस - विक्रेता कसाईके यहाँ अपवित्र स्थलमें शालग्रामजीको देखकर साधुको बड़ा क्लेश हुआ । सदनसे माँगकर वे शालग्रामको ले गये । सदनने भी प्रसन्नतापूर्वक साधुको अपना वह चमकीला बाट दे दिया । 


साधु बाबा कुटियापर पहुँचे । उन्होंने विधिपूर्वक शालग्रामजीकी पूजा की ; परंतु भगवान्‌को उससे प्रसन्नता न हुई । रातमें उन साधुको स्वप्नमें भगवान्ने कहा- ' तुम मुझे यहाँ क्यों ले आये ? मुझे तो अपने भक्त सदनके घरमें ही बड़ा सुख मिलता था । जब वह मांस तौलनेके लिये मुझे उठाता था , तब उसके शीतल स्पर्शसे मुझे अत्यन्त आनन्द मिलता था । मुझे सदनके बिना एक क्षण कल नहीं पड़ती ।


 साधु महाराज जगे । उन्होंने शालग्रामजीको उठाया और सदनके घर जाकर उसे दे आये । साथ ही उसको भगवत्कृपाका महत्त्व भी बता आये । सदनको जब पता लगा कि उनका यह बटखरा तो भगवान् सालग्राम हैं , तब उन्हें बड़ा पश्चात्ताप हुआ । अपने व्यवसायसे घृणा हो गयी । वे शालग्रामजीको लेकर पुरुषोत्तमक्षेत्र श्रीजगन्नाथपुरीको चल पड़े ।

श्रीप्रियादासजीने सदनके प्रति भगवान्‌की इस भक्तवत्सलताका इस प्रकार वर्णन किया है-


 सदना कसाई ताकी नीकी कस आई जैसे बारा बानी सोनेकी कसौटी कस आई है । जीवको न बध करें ऐपै कुलाचार ढरें बेचें मांस लाय प्रीति हरिसों लगाई है ।। गंडकीकौ सुत बिन जाने तासों तोल्यौ करें भरे ढंग साधु आनि पूजै पै न भाई है । कही निसि सुपने मैं वाही ठौर मोकों देवौ सुनौ गुनगान रीझाँ हियेकी सचाई है ।। 

लै कै आयो साधु मैं तो बड़ो अपराध कियौ कियौ अभिषेक सेवा करी पैन भाई है । ये तौ प्रभु रीझे तोपै जोई चाहौ सोई करौ गरो भरि आयौ सुनि मति बिसराई है । वे ई हरि उर धारि डारि दियो कुलाचार चले जगन्नाथ देव चाह उपजाई है । ।

मिल्यौ एक संग संग जात वे सुगात सब तब आप दूर दूर रहें जानि पाई है ॥ 


 मार्गमें सन्ध्या - समय सदनजी एक गाँवमें एक गृहस्थके घर ठहरे । उस घरमें स्त्री - पुरुष दो ही व्यक्ति थे । स्त्रीका आचरण अच्छा नहीं था । वह अपने घर ठहरे हुए इस स्वस्थ , सुन्दर , सबल पुरुषपर मोहित हो गयी । आधी रातके समय सदनजीके पास आकर वह अनेक प्रकारकी अशिष्ट चेष्टाएँ करने लगी । यह देख वे हाथ जोड़कर बोले - ' तुम तो मेरी माता हो । अपने बच्चेकी परीक्षा मत लो , माँ मुझे तुम आशीर्वाद दो । 


उस स्त्रीने समझा कि मेरे पतिके भयसे ही यह मेरी बात नहीं मानता । वह गयी और तलवार लेकर सोते हुए अपने पतिका सिर उसने काट दिया और कहने लगी - ' प्यारे । अब डरो मत । मैंने अपने पतिका सिर काट डाला है । अब तुम मुझे स्वीकार करो । 


' सदन भयसे काँप उठे । स्त्रीने अनुनय - विनय करके जब देख लिया कि उसकी प्रार्थना स्वीकार नहीं हो सकती , तब द्वारपर आकर छाती पीट - पीटकर रोने लगी । लोग उसका रुदन सुनकर एकत्र हो गये । उसने कहा- ' इस यात्रीने मेरे पतिको मार डाला है और यह मेरे साथ बलात्कार करना चाहता था । लोगोंने सदनको खूब भला - बुरा कहा , कुछने मारा भी ; पर सदनने कोई सफाई नहीं दी । मामला न्यायाधीशके पास गया । सदन तो अपने प्रभुकी लीला देख रहे थे , अतः अपराध न करनेपर भी अपराध स्वीकार कर लिया । न्यायाधीशकी आज्ञासे उनके दोनों हाथ काट लिये गये । 


सदनके हाथ कट गये , रुधिरकी धारा चलने लगी ; उन्होंने इसे अपने प्रभुकी कृपा ही माना । उनके मनमें भगवान्‌के प्रति तनिक भी रोष नहीं आया । भगवान्‌के सच्चे भक्त इस प्रकार निरपराध कष्ट पानेपर भी अपने स्वामीकी दया ही मानते हैं । भगवन्नामका कीर्तन करते हुए सदन जगन्नाथपुरीको चल पड़े । उधर पुरीमें प्रभुने पुजारीको स्वप्नमें आदेश दिया- ' मेरा भक्त सदन मेरे पास आ रहा है । उसके हाथ कट गये हैं । पालकी लेकर जाओ और उसे आदरपूर्वक ले आओ । ' पुजारी पालकी लिवाकर गये और आग्रहपूर्वक सदनको उसमें बैठाकर ले आये । सदनने जैसे ही श्रीजगन्नाथजीको दण्डवत् करके कीर्तनके लिये भुजाएँ उठायीं , उनके दोनों हाथ पूर्ववत् ठीक हो गये । 


श्रीप्रियादासजीने इन घटनाओंका अपने दो कवित्तोंमें इस प्रकार वर्णन किया है 


आयौ मग गाँव भिक्षा लेन इक ठाँव गयौ नयो रूप देखि कोऊ तिया रीझि परी है । बैठो याही ठौर करो भोजन निहोरि कह्यौ रह्यौ निसि सोय आई मेरी मति हरी है ॥ 


 लेवो मोको संग गरौ काटौ तौ न होय रंग बूझी और काटी पति ग्रीव पै न डरी है । कही अब पागो मोसों नातो कौन तोसों मोसों सोर करि उठी इन मार्यो भीर करी है ॥ 

हाकिम पकरि पूछे कहँ हँसि मारयो हम , डारयौ सोच भारी कही हाथ काटि डारियै । कट्यो कर चले हरिरंग माँझ झिले मानी जानी कह चूक मेरी यह ठर धारियै ॥ जगन्नाथदेव आगे पठाई लेन , सधनासो भक्त कहाँ ? चढ़ न विचारियै । चढ़ि आये प्रभु पास सुपनोसो मिट्यौ त्रास बोले दै कसौटी हूँ पै भक्ति विसतारियै ॥ ३


प्रभुकी कृपासे हाथ ठीक तो हुए , पर मनमें शंका बनी ही रही कि वे क्यों काटे गये ? रातमें स्वप्न में भगवान ने सदन जी को बताया -तुम पुर्व जन्म मे काशी मे सदाचारी विद्वान ब्राह्मण थे ।एक दिन एक गाय कसाई के घर से भागी जा रही थी । उसने तुम्हें पुकारा । तुमने कसाईको जानते हुए भी गायके गलेमें दोनो हाथ डालकर उसे भागने से रोक लिया ।वही गाय वह स्त्री थी और उसका पति वह कसाई ।पुर्व जन्म का बदला लेने के लिए उसने उसका गला काटा ।तुमने भयातुर गाय को दोनो हाथ से पकड़कर कसाई को सौंपा था ,इस पाप से तुम्हारे हाथ काटे गए। इस दंड से तुम्हारे पाप का नाश हो गया ।


 सदन ने  भगवान्‌की असीम कृपाका परिचय पाया । वे भगवत्प्रेममें विह्वल हो गये । बहुत कालतक नाम कीर्तन , गुण - गान तथा भगवान्के ध्यानमें तल्लीन रहते हुए उन्होंने पुरुषोत्तमक्षेत्रमें निवास किया और अन्तमें श्रीजगन्नाथजीके चरणोंमें देह त्यागकर वे परम - धाम पधारे । 


                      गुसाई श्री काशीश्वर जी महाराज 


गोस्वामी श्रीकाशीश्वरजी श्रीचैतन्य महाप्रभुके गुरु श्रीईश्वरपुरीजीके शिष्य थे । पहले आप अवधूत संन्यासी थे । उस समय आप प्रायः विचरण किया करते थे । एक बार मार्गमें आपको एक भूत मिला , वह आपको डराने लगा तो आपने पूछा कि आखिर मुझसे क्या चाहते हो ? भूतने कहा- मैं तुम्हें मारकर भूत बनाना चाहता हूँ । ' आपने पूछा- ' ऐसा क्यों ? ' भूतने कहा- ' इसलिये कि तुम श्रीहरिसे विमुख हो । ' यह सुनकर आपने मन - ही - मन भगवान् श्रीहरिकी शरण ली । मनमें शरणागतिका संकल्प करते ही भूत पलायन कर गया ।


 गुसाई श्रीकाशीश्वरजीको श्रीनीलाचल ( श्रीजगन्नाथपुरी ) का वास अच्छा लगता था , अत : अनुरागपूर्वक वहीं बस गये । कालान्तरमें महाप्रभु श्रीकृष्णचैतन्यजीके आदेशानुसार आप श्रीवृन्दावन चले आये । श्रीवृन्दावनका दर्शन करके आपके हृदयकी अभिलाषा पूरी हो गयी । यहाँ आपको रसिकेन्द्रचूड़ामणि श्रीराधा गोविन्दचन्द्रजीकी सेवाका अधिकार प्राप्त हुआ ।


 श्रीप्रियादासजीने गुसाई काशीश्वरजीकी भाव - दशाका वर्णन इस प्रकार किया है 


श्रीगुसाई काशीश्वर आगे अवधूत वर करि प्रीति नीलाचल रहे लाग्यो नीको है । महाप्रभु कृष्ण चैतन्यजूकी आज्ञा पाय आये वृन्दावन देखि भायौ भयौ हीको है ॥ 

सेवा अधिकार पायौ रसिक गोविन्दचन्द चाहत मुखारविन्द जीवनि जो जीको है । नित ही लड़ावें भाव सागर बढ़ावैं कौन पारावार पावैं सुनै लागे जग फीको है ॥ 

 परमधामगमनके समय आपके श्रीगुरुदेव श्रीईश्वरपुरीजी महाराजने आपको आज्ञा दी कि तुम श्रीगौरांगकी सेवामें जाकर रहो । आपका तो श्रीगौरांग महाप्रभुसे पहलेसे ही अनुराग भाव था , अतः सहर्ष श्रीजगन्नाथपुरी आकर श्रीगौरांग महाप्रभुको सेवा और सन्निधि प्राप्त की । श्रीमहाप्रभु आपको गुरुभाई मानकर अपनी सेवा देने में संकोच करते थे , पर गुरु - आज्ञा और आपके प्रेम - भावको देखकर सेवा देना स्वीकार कर लिया । आप शरीरसे बड़े ही हृष्ट - पुष्ट थे । श्रीमहाप्रभुजी जब श्रीजगन्नाथस्वामीके सम्मुख प्रेम - विभोर नृत्य करते तो उनके दर्शनार्थ जनसमुदाय उमड़ पड़ता था , उस समय आप ही भीड़को सँभालते थे।

कालान्तरमें आप महाप्रभुके आज्ञानुसार श्रीधाम चुदावन चले आये और श्रीगोविन्ददेवजीकी सेवा करते हुए अपने जीवन को धन्य कर दिया ।

हरिशरणम हरिशरणम हरिशरणम 

भूपाल मिश्र 

सनातन वैदिक धर्म 

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