Geet Govind गीतगोविन्द

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गोविन्दम (प्रथम सर्ग)

श्रीजयदेव गोस्वामी विरचित


श्रीगीतगोविन्दम


गीतगोविन्द 12 अध्यायों वाला एक गीतिकाव्य है जिसे प्रबंध कहे जाने वाले चौबीस भागों में विभाजित किया गया है। इसके रचयिता 12वीं शताब्दी के कवि जयदेव हैं। इस कृति में रचयिता ने धार्मिक उत्साह के साथ श्रृंगारिकता का सुन्दर संयोजन प्रस्तुत किया है। यह मध्यकालीन वैष्णव संप्रदाय से संबंधित है और इसमें राधा और कृष्ण की प्रेम लीला और उनके अलगाव के दुःख (विरह-वेदना) का वर्णन किया गया है। इस काव्य में, कवि के अनुसार, उन्होंने संगीत और नृत्य की अपनी प्रवीणता, भगवान विष्णु के प्रति अपनी भक्ति, ज्ञान और श्रृंगार या काम-शास्त्र के प्रति अपनी समझ आदि का चित्रण किया है। 

गीतगोविन्द में बारह अध्याय हैं जिन्हें पुनः 24 गीतों ( सर्गों / खण्डों ) में बांटा गया है।

प्रथम सर्ग (खण्ड) -  सामोद-दामोदरः ( आनंदित कृष्ण )


द्वितीय सर्ग (खण्ड) - अक्लेश केशवः ( अक्लेश कृष्ण )

तृतीय सर्ग (खण्ड)- मुग्ध मधुसूदनः  ( मुग्ध कृष्ण )

चतुर्थ - सर्ग (खण्ड) -  स्निग्ध-मधुसूदनः ( स्निग्ध कृष्ण )

पञ्चम सर्ग (खण्ड) -  सकांक्ष-पुण्डरीकाक्षः  ( भावुक कृष्ण )

षष्ठ सर्ग (खण्ड) -  धृष्ट-वैकुण्ठः ( धृष्ट कृष्ण )

सप्तम सर्ग (खण्ड) -  नागर-नारायणः ( कुटिल कृष्ण )

अष्टम सर्ग (खण्ड) -  विलक्ष-लक्ष्मीपतिः ( क्षमाप्रार्थी कृष्ण )

नवम सर्ग (खण्ड) -  मुग्ध-मुकुन्दः ( मुग्ध कृष्ण )

दशम सर्ग (खण्ड) -  मुग्ध-माधवः ( मुग्ध कृष्ण )

एकादश सर्ग (खण्ड) -  स्वानन्द-गोविन्दः (सानन्द कृष्ण )

द्वादश सर्ग (खण्ड) -  सुप्रीत-पीताम्बरः ( सुप्रीत कृष्ण )


प्रत्येक गीत में आठ दोहे हैं जिन्हें अष्टपदी कहा जाता है। अध्याय एक, दो, चार, पांच और बारह में दो-दो अष्टपदियां हैं; अध्याय तीन, छह, आठ, नौ और दस में केवल एक अष्टपदी है। इस प्रकार कुल चौबीस अष्टपदी हैं। इन अष्टपदियों को विभिन्न ललित रागों के जरिए संगीत से सजाया जा सकता है जिनकी परवर्ती कवियों द्वारा सराहना की गई और उनका अनुसरण भी किया गया।

प्रथम गीत के चार परिचयात्मक श्लोक हैं, जिनके बाद ग्यारह अष्टपदी हैं जो भगवान विष्णु के दस अवतारों के उद्देश्यों का वर्णन करते हैं और अंत में रचना के निर्बाध समापन के लिए समर्पण किया गया है। इसके बाद एक अन्य अष्टपदी आती है जहां कृति के नायक की प्रशंसा की गई है। यहां लेखक ने संकेत किया है कि यह अष्टपदी मंगलम, अर्थात कल्याणकारी श्लोक है।

द्वितीय गीत में, कृष्ण के गोपियों के प्रति उन्मुक्त व्यवहार से विक्षुब्द्ध, राधा का ध्यान नृत्य से विचलित होने पर भी, प्रियतम कृष्ण के प्रति राधाकी भावनाओं में कुण्ठा के स्थान पर दिव्य प्रेम का वर्णन है |

तीसरे गीत में वसंत ऋतु का वर्णन इसकी बहुविध विशेषताओं, जैसे- सुगंधित और शीलत वायु, भ्रमरों के गुंजन और कोयल की कूक के साथ यह कल्पना करते हुए किया गया है कि कृष्ण अपनी सखा द्वारा उन निकुंजों में ले जाए जा रहे हैं जहां कृष्ण को पाया जा सकता है। इसी आस में राधा अपने सखा का अनुसरण करती है। 

चौथे गीत में, कवि वृंदावन के घने जंगल में गोपियों के साथ कृष्ण की रास लीलाओं का वर्णन करते हैं। कृष्ण गोपियों से घिरे हैं, गोपियां उनसे आनन्दपूर्वक लिपटती हैं और उन्हें प्रेम से सहलाती हैं और कृष्ण किसी की तारीफ प्रेम से गले लगाकर तो किसी को चूमकर करते हैं, किसी की ओर प्रेम भरी नजरों से देखते हैं तो किसी अन्य पर प्रेम-पगी मुस्कान डालते हैं। जयदेव कहते हैं वास्तविकता तो यह है कि भगवत् कृपा हर किसी पर बरसती है। 


ग्यारहवें गीत में कवि विप्रालंभ श्रृंगार का वर्णन करते हैं। प्रेम के देवता कृष्ण यमुना नदी के तट पर राधा की प्रतीक्षा कर रहे हैं। कवि राधा और कृष्ण के आलिंगन की तुलना आकाशीय बिजली और काले बादलों तथा सारस और काले बादलों से करते हैं।

बारहवें गीत में कवि निर्मोही कृष्ण के साथ राधा के विरह की वेदना का वर्णन करते हैं। कुंज वन में, प्रेम के ताप में झुलसते हुए और अपने मन को कृष्ण पर एकाग्र टिकाए हुए राधा की ऐसी व्याकुल और दयनीय दशा हो रखी है कि वह 


अध्याय-१


सामोद दामोदरम्



मेघैः मेदुरम् अंबरम् वन भुवः श्यामाः तमाल द्रुमैः


नक्तम् भीरुः अयम् त्वम् एव तत् इमम् राधे गृहम् प्रापय |


इत्थम् नन्द निदेशितः चलितयोः प्रति अध्व   कुंज द्रुमम्


राधा माधवयोः जयन्ति यमुना कूले रहः केलयः ||१-१||



हे राधे! समस्त दिशाएँ घनघोर घटाओंसे आच्छादित हो गई हैं। वन वसुन्धरा श्यामल तमाल विटपावलीकी प्रतिच्छायासे तिमिरयुक्ता हो गई है। भीरु स्वभाववाले कृष्ण इस निशीथमें एकाकी नहीं जा सकेंगे – अतः तुम इन्हें अपने साथ ही लेकर सदनमें पहुँचो। श्रीराधाजी, सखी द्वारा उच्चरित इस वचनका समादर करती हुईं आनन्दातिशयतासे विमुग्ध हो, पथके पाश्र्वमें स्थित कुञ्ज-तरुवरोंकी ओर अभिमुख हुई और कालिन्दीके किनारे उपस्थित होकर एकान्तमें केलि करने लगीं। श्रीयुगल माधुरीकी यह रहस्यमयी लीला भक्तोंके हृदयमें स्फुरित होकर विजयी हो। ||१-१||




वाक् देवता चरित चित्रित चित्त सद्मा पद्मावती चरण – चारण चक्रवर्ती |


श्री वासुदेव रति केलि कथा समेतम् एतम् करोति जयदेव कविः प्रबन्धम् ||१-२||


जिनके चित्त-सदनमें समस्त वाणियोंके नियन्ता श्रीकृष्णकी चरितावली सुचारु रूपसे चित्रित हो रही है, जो श्रीराधाजीके चरणयुगल प्राप्तिकी लालसामें निरन्तर नृत्यविधिके अनुसार निमग्न हो रहे हैं, ऐसे महाकवि जयदेव गोस्वामी श्रीकृष्णकी कुञ्ज-विहारादि सुरत लीला समन्वित इस गीतगोविन्द नामके ग्रन्थका प्रणयन कर भावग्राही भक्तजनोंके उज्ज्वल भक्तिरसको उच्छलित कर रहे हैं ||१-२||



यदि हरि स्मरणे सरसम् मनः यदि विलास कलासु कुतूहलम् |

मधुर कोमल कांत पद आवलीम् शृणु तदा जयदेव सरस्वतीम् ||१-३||


हे श्रोताओं! यदि श्रीहरिके चरित्रका चिन्तन करते हुए आपलोगोंका मन सरस अनुरागमय होता है तथा उनकी रास-विहारादि विलास-कलाओंकी सुचारु चातुर्यमयी चेष्टाके विषयमें आपके हृदयमें कुतूहल होता है तो मनोहर सुमधुर मृदुल तथा कमनीय कान्तिगुणवाले पदसमूह युक्त कवि जयदेवकी इस गीतावलीको भक्ति-भावसे श्रवणकर आनन्दमें निमग्न हो जाएँ ||१-३||

वाचः पल्लवयति उमापतिधरः संदर्भ शुद्धिम् गिराम्

जानीते जयदेव एव शरणः श्लाघ्यः दुर् ऊह द्रुते |

शृंगार उत्तर  सत् प्रमेय रचनैः आचार्य गोवर्धनस्पर्धी कः अपि न विश्रुतः श्रुतिधरः धोयी कवि क्ष्मा पतिः ||१-४||

उमापति धर नामक कोई विख्यव्व्त कवि अपनी वाणीको अनुप्रासादि अलंकार के द्वारा सुसज्जित करते हैं | शरण नाम के कवि अत्यंत क्लिष्ट पदों में कविता का विन्यासकर प्रशंसा के पात्र हुए हैं | सामान्य नायक-नायिका के वर्णन में केवल श्रृंगार रसका उत्कर्ष वर्णन करने में गोवर्द्धन के सामान दूसरा कोई कवि श्रुतिगोचर नहीं हुआ है | कविराज धोयी तो श्रुतिधर हैं | वे जो कुछ भी सुनते हैं, कंठस्थ कर लेते हैं | जब ऐसे-ऐसे महान कवि सर्वगुणसंपन्न नहीं हो सके, फिर जयदेव कविका काव्य किसप्रकार सर्वगुणसंपन्न हो सकता है ? ||१-४||

अष्ट पदि १-दशावतार कीर्ति धवलम्

प्रलय पयोधि जले धृतवान् असि वेदम् | विहित वहित्र चरित्रम् अखेदम् ||

केशव धृत मीन शरीर जय जगत् ईश हरे || अ प १-१ ||



हे जगदीश्वर! हे हरे! नौका (जलयान) जैसे बिना किसी खेदके सहर्ष सलिलस्थित किसी वस्तुका उद्धार करती है, वैसे ही आपने बिना किसी परिश्रमके निर्मल चरित्रके समान प्रलय जलधिमें मत्स्यरूपमें अवतीर्ण होकर वेदोंको धारणकर उनका उद्धार किया है। हे मत्स्यावतारधारी श्रीभगवान्! आपकी जय हो || अ प १-१ ||

क्षितिः अति विपुल तरे तव तिष्ठति पृष्ठे | धरणि धरण किण चक्र गरिष्ठे  ||                  

 केशव धृत कच्छप रूप जय जगदीश हरे || अ प १-२ ||

हे केशिनिसूदन! हे जगदीश! हे हरे! आपने कूर्मरूप अंगीकार कर अपने विशाल पृष्ठके एक प्रान्तमें पृथ्वीको धारण किया है, जिससे आपकी पीठ व्रणके चिन्होंसे गौरवान्वित हो रही है। आपकी जय हो || अ प १-२ ||


वसति दशन शिखरे धरणी तव लग्ना | शशिनि कलंक कल इव निमग्ना || केशव धृत सूकर रूप जय जगदीश हरे || अ प १-३ ||

हे जगदीश! हे केशव! हे हरे! हे वराहरूपधारी ! जिस प्रकार चन्द्रमा अपने भीतर कलंकके सहित सम्मिलित रूपसे दिखाई देता है, उसी प्रकार आपके दाँतों के ऊपर पृथ्वी अवस्थित है || अ प १-३ ||


तव कर कमल वरे नखम् अद्भुत शृंगम् | दलित हिरण्यकशिपु  तनु भृंगम् ||

केशव धृत नर हरि रूप जय जगदीश हरे || अ प १-४ ||

हे जगदीश्वर! हे हरे ! हे केशव ! आपने नृसिंह रूप धारण किया है। आपके श्रेष्ठ करकमलमें नखरूपी अदभुत श्रृंग विद्यमान है, जिससे हिरण्यकशिपुके शरीरको आपने ऐसे विदीर्ण कर दिया जैसे भ्रमर पुष्पका विदारण कर देता है, आपकी जय हो || अ प १-४ ||

छलयसि विक्रमणे बलिम् अद्भुत वामन | पद नख नीर जनित जन पावन ||

केशव धृत वामन रूप जय जगदीश हरे || अ प १-५ ||

हे सम्पूर्ण जगतके स्वामिन् ! हे श्रीहरे ! हे केशव! आप वामन रूप धारणकर तीन पग धरतीकी याचनाकी क्रियासे बलि राजाकी वंचना कर रहे हैं। यह लोक समुदाय आपके पद-नख-स्थित सलिलसे पवित्र हुआ है। हे अदभुत वामन देव ! आपकी जय हो || अ प १-५ ||

क्षत्रिय रुधिरमये जगत् अपगत पापम् | स्नपयसि पयसि शमित भव तापम् ||

केशव धृत भृघु पति रूप जय जगदीश हरे || अ प १-६ ||

हे जगदीश! हे हरे ! हे केशिनिसूदन ! आपने भृगु (परशुराम) रूप धारणकर क्षत्रियकुलका विनाश करते हुए उनके रक्तमय सलिलसे जगतको पवित्र कर संसारका सन्ताप दूर किया है। हे भृगुपतिरूपधारिन् , आपकी जय हो || अ प १-६ ||

वितरसि दिक्षु रणे दिक् पति कमनीयम् | दश मुख मौलि बलिम् रमणीयम् || 

केशव धृत राम शरीर जय जगदीश हरे || अ प १-७ ||

हे जगत् स्वामिन् श्रीहरे ! हे केशिनिसूदन ! आपने रामरूप धारण कर संग्राममें इन्द्रादि दिक्पालोंको कमनीय और अत्यन्त मनोहर रावणके किरीट भूषित शिरोंकी बलि दशदिशाओंमें वितरित कर रहे हैं । हे रामस्वरूप ! आपकी जय हो || अ प १-७ ||

वहसि वपुषि विशदे वसनम् जलद अभम् | हल हति भीति मिलित यमुनआभम् ||

केशव धृत हल धर रूप जय जगदीश हरे ।

जगत् स्वामिन् ! हे केशिनिसूदन! हे हरे ! आपने बलदेवस्वरूप धारण कर अति शुभ्र गौरवर्ण होकर नवीन जलदाभ अर्थात् नूतन मेघोंकी शोभाके सदृश नील वस्त्रोंको धारण किया है। ऐसा लगता है, यमुनाजी मानो आपके हलके प्रहारसे भयभीत होकर आपके वस्त्रमें छिपी हुई हैं । हे हलधरस्वरूप ! आपकी जय हो || अ प १-८ ||


निन्दति यज्ञ विधेः अ ह ह श्रुति जातम् | सदय हृदय दर्शित पशु  घातम् ||

केशव धृत बुद्ध शरीर जय जगदीश हरे || अ प १-९ ||


हे जगदीश्वर! हे हरे ! हे केशिनिसूदन ! आपने बुद्ध शरीर धारण कर सदय और सहृदय होकर यज्ञ विधानों द्वारा पशुओंकी हिंसा देखकर श्रुति समुदायकी निन्दा की है। आपकी जय हो || अ प १-९ ||


म्लेच्छ निवह निधने कलयसि करवालम् | धूम केतुम् इव किम् अपि करालम् ||

केशव धृत कल्कि शरीर जय जगदीश हरे || अ प १-१० ||

हे जगदीश्वर श्रीहरे ! हे केशिनिसूदन ! आपने कल्किरूप धारणकर म्लेच्छोंका विनाश करते हुए धूमकेतुके समान भयंकर कृपाणको धारण किया है । आपकी जय हो || अ प १-१० ||


श्री जयदेव कवेः इदम् उदितम् उदारम् | शृणु सुख दम् शुभ दम् भव सारम् ||

केशव धृत दश विध रूप जय जगदीश हरे || अ प १-११ ||

हे जगदीश्वर ! हे श्रीहरे ! हे केशिनिसूदन ! हे दशबिध रूपोंको धारण करनेवाले भगवन् ! आप मुझ जयदेव कविकी औदार्यमयी, संसारके सारस्वरूप, सुखप्रद एवं कल्याणप्रद स्तुतिको सुनें || अ प १-११ ||

वेदान् उद्धरते जगत् निवहते भू गोलम् उद् बिभ्रते

दैत्यम् दारयते बलिम् च्छलयते क्षत्र क्षयम् कुर्‌वते

पौलस्त्यम् जयते हलम् कलयते कारुण्यम् आतन्वते

म्लेच्छान् मूर्च्छयते दश अकृति कृते कृष्णाय  तुभ्यम् नमः || १-५ ||

वेदोंका उद्धार करनेवाले, चराचर जगतको धारण करनेवाले, भूमण्डलका उद्धार करनेवाले, हिरण्यकशिपुको विदीर्ण करनेवाले, बलिको छलनेवाले, क्षत्रियोंका क्षय करनेवाले, पौलस्त (रावण) पर विजय प्राप्त करनेवाले, हल नामक आयुधको धारण करनेवाले, करुणाका विस्तार करनेवाले, म्लेच्छोंका संहार करनेवाले, इस दश प्रकारके शरीर धारण करनेवाले हे श्रीकृष्ण ! मैं आपको नमस्कार करता हूँ || १-५ ||


अष्ट पदि २ हरि विजय मंगलाचरण

श्रित कमला कुच मण्डल धृत कुण्डल ए |

कलित ललित वनमाल जय जय देव हरे || अ प २-१ ||

हे श्रीराधाजीके स्तन मण्डलका आश्रय लेनेवाले ! कानोंमें कुण्डल तथा अतिशय मनोहर वनमाला धारण करनेवाले हे हरे ! आपकी जय हो || अ प २-१ ||


दिन मणि मण्डल मण्डन भव खण्डन ए |

मुनि जन मानस हन्स जय जय देव हरे || अ प २ -२ ||


हे देव ! हे हरे ! हे सूर्य-मण्डलको विभूषित करनेवाले, भव-बन्धनका छेदन करनेवाले ! मुनिजनोंके मानस सरोवरमें विहार करनेवाले हंस ! आपकी जय हो ! जय हो || अ प २ -२ ||


कालिय विष धर गंजन जन रंजन ए |

यदु कुल नलिन दिन ईश जय जय देव हरे || अ प २-३ ||


हे देव! हे हरे ! विषधर कालिय नामके नागका मद चूर्ण करनेवाले, निजजनोंको आह्लादित करनेवाले, हे यदुकुलरूप कमलके प्रभाकर ! आपकी जय हो ! जय हो || अ प २-३ ||

मधु मुर नरक विनाशन गरुड आसन ए |

सुर कुल केलि निदान जय जय देव हरे || अ प २-४ ||


हे देव ! हे हरे ! हे मधुसूदन ! हे मुरारे ! हे नरकान्तकारी ! हे गरुड़-वाहन ! हे देवताओंके क्रीड़ा-विहार-निदान, आपकी जय हो ! जय हो || अ प २-४ ||


अमल कमल दल लोचन भव मोचन ए |

त्रि भुवन भवन निधान जय जय देव हरे || अ प २-५ ||


हे देव ! हे हरे ! हे निर्मल कमलदलके समान विशाल नेत्रोंवाले, भव-दुःख मोचन करनेवाले, त्रिभुवनरूप भवनके आधार स्वरूप, आपकी जय हो, जय हो || अ प २-५ ||

जनक सुता कृत भूषण जित दूषण ए |

समर शमित दश खण्ठ जय जय देव हरे || अ प २-६ ||

हे देव ! हे हरे ! श्रीरामावतारमें सीताजीको विभूषित करनेवाले, दूषण नामक राक्षसपर विजय प्राप्त करनेवाले तथा युद्धमें दशानन रावणको वधकर शान्त करनेवाले, आपकी जय हो ! जय हो || अ प २-६ ||


अभिनव जल धर सुन्दर धृत मन्दर |

श्री मुख चन्द्र चकोर जय जय देव हरे || अ प २-७ ||

हे नवीन जलधरके समान वर्णवाले श्यामसुन्दर ! हे मन्दराचलको धारण करनेवाले ! श्रीराधारूप महालक्ष्मीके मुखचन्द्रपर आसक्त रहनेवाले चकोर-स्वरूप ! हे हरे ! हे देव ! आपकी जय हो ! जय हो || अ प २-७ ||

तव चरणे प्रणता वयम् इति भावय ए |

कुरु कुशलम् प्रणतेषु जय जय देव हरे || अ प २-८ ||

हे भगवन् ! हम आपके चरणोंमें शरणागत हैं । आप प्रेमभक्ति प्रदानकर अपने प्रति प्रणतजनोंका कुशल विधान करें । हे देव ! हे हरे ! आपकी जय हो ! जय हो || अ प २-८ ||

श्री जयदेव कवेः इदम् कुरुते मुदम् ए |

मंगलम् उज्ज्वल गीतम् जय जय देव हरे || अ प २-९- ||

श्रीजयदेव कवि प्रणीत यह मनोहर, उज्जवल गीतिमय मंगलाचरण आपका आनंदवर्द्धन करें अथवा आपके गुणों का श्रवण कीर्त्तन करनेवाले भक्तजनोंको आनंद प्रदान करें | आपकी जय हो ! जय हो || अ प २-९- ||

पद्मा पयो धर तटी परि रंभ लग्न काश्मीर मुद्रितम् उरः मधु सूदनस्य |


व्यक्त अनुरागम् इव खेलत् अनंग खेद स्वेद अंबु पूरम् अनुपूरयतु प्रियम् वः ||१-६||


पद्मा श्रीराधाजीके कुंकुम छापसे चिन्हित स्तन-युगलका परिरम्भण करनेसे जिन श्रीकृष्णका वक्षःस्थल अनुरंजित हो गया है, मानो हृदयस्थित अनुराग ही रंजित होकर व्यक्त होने लगा है, साथ ही कन्दर्पक्रीड़ाके कारण जात स्वेद-विन्दुओंसे जिनका वक्षःस्थल परिप्लुत हो गया है, ऐसे मधुसूदनका सम्भोगकालीन वक्षःस्थल आप सबका (हम सबका) मनोरथ पूर्ण करें ||१-६||


वसन्ते वासन्ती कुसुम सुकुमारैः अवयवैः

भ्रमन्तीम् कान्तारे बहु विहित कृष्ण अनुसरणाम् |

अमन्दम् कन्दर्प ज्वर जनित चिन्त आकुलतया

वलद् बाधाम् राधाम् स रसम् इदम् उचे सह चरी ||१-७||


किसी समय वसन्त ऋतूकी सुमधुर बेलामें विरह-वेदनासे अत्यन्त कातर होकर राधिका एक विपिनसे दूसरे विपिनमें श्रीकृष्णका अन्वेषण करने लगी, माधवी लताके पुष्पोंके समान उनके सुकुमार अंग अति क्लान्त हो गये, वे कन्दर्पपीड़ाजनित चिन्ताके कारण अत्यन्त विकल हो उठीं, तभी कोई एक सखी उनको अनुरागभरी बातोंसे सम्बोधित करती हुई इस प्रकार कहने लगी ||१-७||


अष्ट पदि ३ माधव उत्सव कमलाकरम्

ललित लवंग लता परिशीलन कोमल मलय समीरे |

मधुकर निकर करम्बित कोकिल कूजित कुंज कुटीरे |

विहरति हरिः इह स रस वसन्ते |

नृत्यति युवती जनेन समम् सखि विरहि जनस्य दुरन्ते || अ प ३-१||


प्रिय सखि ! राधे ! हाय ! यह वसन्तकाल विरही जनोंके लिए अतीव दुःखदायी है। देखो न ! इसके आगमनपर मलय समीर सुकोमल मनोज्ञ लताओंको पुनः-पुनः आदरके साथ आलिंगन कर कैसी मनोहर शोभा प्रकट कर रहा है । देखो ! कुञ्ज-कुटीरमें भ्रमरोंके मँडरानेसे उत्पन्न गुंजारसे तथा कोयलोंकी सुमधर कुहुध्वनिसे दिग्दिगन्त परिपूरित हो गये हैं और वे श्रीकृष्ण इस कुञ्ज कुटीरमें किसी भाग्यवती युवतीके साथ विहार कर रहे हैं और प्रेमोत्सवमें मग्न होकर नृत्य भी कर रहे हैं। || अ प ३-१||


उत् मद मदन मनोरथ पथिक वधू जन जनित विलापे

अलि कुल संकुल कुसुम समूह निराकुल बकुल कलापे

विहरति हरिरिह सरस वसन्ते || अ प ३-२ ||


प्रिय सखि ! प्रवासमें गये हुए पतियोंके विरहका अनुभवकर विरहिणियाँ केवल विलाप करती रहती हैं। तुम देखो तो ! इस वसन्त ऋतुमें मालती वृक्षोंमें पुष्पोंको समा लेनेके लिए कोई रिक्त स्थान ही नहीं है। राशि-राशि बकुल पुष्प प्रफुल्लित हो रहे हैं और इनपर श्रेणीबद्ध होकर असंख्य भ्रमर गुँजार कर रहे हैं और उधर श्रीकृष्ण युवतियोंके साथ विहार तथा नृत्य कर रहे हैं। हाय ! कैसे धैर्य धारण करूँ || अ प ३-२ ||


मृग मद सौरभ रभस वशंवद नव दल माल तमाले |

युव जन हृदय विदारण मनसिज नख रुचि किंशुक जाले

विहरति हरिरिह सरस वसन्ते || अ प ३-३ ||


तमाल वृक्षावली नूतन पल्लवोंसे विभूषित हो  मानो कस्तूरीकी भाँति चारों ओर सौरभका विस्तार कर आमोदित हो रही है। देखो, देखो सखी ! इन प्रफुल्लित ढाक (पलाश) के पुष्पोंकी कान्ति कामदेवके नखके समान दिखायी दे रही है। ऐसा प्रतीत हो रहा है कि मदनराजने मानो युवक युवतियोंके वक्षस्थलको विदीर्ण कर दिया है || अ प ३-३ ||


मदन मही पति कनक दण्ड रुचि केसर कुसुम विकासे |

मिलित शिली मुख पाटलि पटल कृत स्मर तूण विलासे

विहरति हरिरिह सरस वसन्ते || अ प ३-४ ||


अब वनके विकसित पुष्प-समुदाय ऐसे प्रतीत हो रहे हैं, मानो मदनराजके हेमदण्ड हैं और भ्रमरावलिसे परिवेष्टित पाटलि (नागकेशर) पुष्पसमूह ऐसे दिखायी दे रहे हैं, मानो कामदेवके तूणीर हों || अ प ३-४ ||


विगलित लज्जित जगत् अवलोकन तरुण करुण कृत हासे |

विरहि निकृन्तन कुन्त मुख आकृति केतक दन्तुरित अशे


विहरति हरिरिह सरस वसन्ते || अ प ३-५ ||


अरी सखि ! वसन्तके प्रतापसे ऐसा प्रतीत होता है कि सम्पूर्ण जगत निर्लज्ज हो गया है। यह देखकर तरुण करुण पादपसमूह (वृक्षराजि) प्रफुल्लित सुमनोंके व्याजसे हँस रहे हैं। देखो, विरहीजनोंके हृदयको विदीर्ण करनेके लिए बरछीकी नोकके समान आकारवाले केतकी (केवड़ा) प्रसून चहुँदिशि प्रफुल्लित विलसित विकसित हो रहे हैं। इनके संयोगसे दिशाएँ भी प्रसन्न हो रही हैं || अ प ३-५ ||

क्रमश 













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