Bharatvarsh k bhakt & bhagwan _ भक्त और भगवान के प्रेम की अद्भुत गाथा

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 श्री जगन्नाथपुरी के राजा, कर्मा बाई , और सिलपिल्ले भगवान की अद्भुत लीला 

 जगन्नाथपुरीके एक राजाने अपने दाहिने हाथसे प्रसादका अपमान हुआ जानकर उसे त्याग दिया अर्थात् कटवा डाला । इस बातको मैं अपनी ओरसे बनाकर क्या कहूँ ? इसे तो सारा संसार जानता है कि उस भक्त राज़ाके कटे हुए हाथसे दौनाका वृक्ष उत्पन्न हुआ , जिसके पुष्प एवं पत्रोंकी सुगन्ध श्यामसुन्दरको अत्यन्त प्रिय लगती है । श्रीजगन्नाथजीको छप्पन राजभोगसे पहले श्रीकर्माबाईकी खिचड़ी अति ही स्वादिष्ट लगती है , अतः अबतक नित्य उसका भोग लगता है । ' हे सिलपिल्ले प्रभो ! ' — ऐसा कहते ही दोनों कन्याओंके पास भगवान् चले आये । दो राजरानियोंने भक्तोंके लिये अपने - अपने पुत्रको विष दिया । प्रभुने उन रानियोंकी लज्जा रखी , उनके पुत्रोंको जीवित किया ॥ 


इन भगवन्निष्ठ भक्तोंका संक्षिप्त परिचय इस प्रकार है भगवत्प्रसादनिष्ठ राजा श्रीजगन्नाथपुरीके राजाकी भगवत्प्रसादमें बड़ी ही निष्ठा थी , परंतु एक दिन राजा चौपड़ खेल रहा था , इसी बीच श्रीजगन्नाथजीके पण्डाजी प्रसाद लेकर आये । राजाके दाहिने हाथमें पासा था । अतः उसने बायें हाथसे प्रसादको छूकर उसे स्वीकार किया । इस प्रकार प्रसादका अपमान जानकर पण्डाजी रुष्ट हो गये । प्रसादको राजमहलमें न पहुँचाकर उसे वाप ले गये । चौपड़ खेलकर राजा उठे और अपने महलमें गये । वहाँ उन्होंने नयी बात सुनी कि मेरे अपराधके कारण अब मेरे पास प्रसाद कभी नहीं आयेगा । राजाने अपना अपराध स्वीकारकर अन्न - जल त्याग दिया । उसने मनमें विचारा कि जिस दाहिने हाथने प्रसादका अपमान किया है , उसे मैं अभी काट डालूँगा , यह मेरी सच्ची प्रतिज्ञा है । ब्राह्मणोंकी सम्मति लेना उचित समझकर राजाने उन्हें बुलाकर पूछा कि यदि कोई भगवान्‌के प्रसादका अपमान करे तो चाहे वह कोई अपना प्रिय अंग ही क्यों न हो , उसका त्याग करना उचित है या नहीं । ब्राह्मणोंने उत्तर दिया कि राजन् ! अपराधीका तो सर्वथा त्याग ही उचित है ।

       राजाने अपने मनमें हाथ कटाना निश्चित कर लिया , परंतु मेरे हाथको अब कौन काटे ? यह सोचकर मौन और अत्यन्त खिन्न हो गया । राजाको उदास देखकर मन्त्रीने उदासीका कारण पूछा । राजाने कहा- नित्य रातके समय एक प्रेत आता है और वह मुझे दिखायी भी देता है । कमरेकी खिड़कीमें हाथ डालकर वह बड़ा शोर करता है । उसीके भयसे मैं दुखी हूँ । मन्त्रीने कहा- आज मैं आपके पलँगके पास सोऊँगा और आप अपनेको दूसरी जगह छिपाकर रखिये , जब वह प्रेत झरोखेमें हाथ डालकर शोर मचायेगा , तभी मैं उसका हाथ काट दूंगा । सुनकर राजाने कहा- बहुत अच्छा ! ऐसा ही करो । रात होनेपर मन्त्रीजीके पहरा देते समय राजाने अपने पलँगसे उठकर झरोखेमें हाथ डालकर शोर मचाया । मन्त्रीने उसे प्रेतका हाथ जानकर तलवारसे काट डाला ।

 राजाका हाथ कटा देखकर मन्त्रीजी अति लज्जित हुए और पछताते हुए कहने लगे कि मैं बड़ा मूर्ख हूँ , मैंने यह क्या कर डाला ? राजाने कहा- तुम निर्दोष हो , मैं ही प्रेत था ; क्योंकि मैंने प्रभुसे बिगाड़ किया था । राजाकी ऐसी प्रसादनिष्ठा देखकर अपने पण्डोंसे श्रीजगन्नाथजीने कहा कि अभी - अभी मेरा प्रसाद ले जाकर राजाको दो और उसके कटे हुए हाथको मेरे बागमें लगा दो । भगवान्के आज्ञानुसार पण्डे लोग प्रसादको लेकर दौड़े , उन्हें आते देखकर राजा आगे आकर मिले । दोनों हाथोंको फैलाकर प्रसाद लेते समय राजाका कटा हुआ हाथ पूरा निकल आया । जैसा था , वैसा ही हो गया । राजाने प्रसादको मस्क और हृदयसे लगाया । भगवत्कृपाका अनुभव करके बड़ा भारी सुख हुआ । पण्डे लोग राजाका कटा हुआ वह हाथ ले आये । उसे बागमें लगा दिया गया । भगवान्‌को बहुत प्रिय लगती है । उससे दौनाके वृक्ष हो गये । उसके पत्र पुष्प नित्य ही जगन्नाथजीके श्रीअंगपर चढ़ते हैं । उनकी सुगन्ध श्रीप्रियादासजी पुरीनरेशकी इस प्रसादनिष्ठाका अपने कवित्तोंमें इस प्रकार वर्णन करते हैं प्रसादकी अवज्ञा तै तज्यो नृप कर एक करिकै विवेक सुनौं जैसे बात भई है । खेलै भूप चौपरि कौं आयौ प्रभु भुक्त शेष दाहिने मैं पासे बाएँ छ्यौ मति गई है । लै गये रिसायकैं फिराय महा दुखपाय उठ्यो नरदेव गृह गयो सुनी नई है । लियो अनसन हाथ तजौं याही छन तब सांचौ मेरो पन बोलि विप्र पूछि लई है ।। काटै हाथ कौन मेरो ? रह्यो गहि मौन यातैं पूछत सचिव कथा विथा सो विचारियै । आवै एक प्रेत मो दिखाई नित देत निशि डारिकै झरोखा कर शोर करै भारियै ॥ सोऊँ ढिग आइ रहौं आपुकौं छिपाइ जब डारै पानि आनि तबही सुकाटि डारियै । कही नृप भलै चौकी देत मैं घुमायो भूप डारयो उठि आइ छेद न्यारो कियो वारियै ।। देखिकैं लजानौ कहा कियाँ मैं अजानौ नृप कही प्रेत मानौँ यही हरि सों बिगारियै । कही जगन्नाथदेव लै प्रसाद जावाँ उहाँ ल्यावो हाथ बोवो बाग सोई उर धारियै ॥ चले तहाँ धाइ भूप आगे मिल्यो आइ हाथ निकस्यो लगाइ हियँ भयो सुख भारियै ।। ल्याये कर फूल ताके भये फूल दौना के जु नितहीं चढ़त अंग गन्ध हरि प्यारियै ।।

 श्रीकर्माबाईजी

         श्रीकर्माजी नामकी एक भगवद्भक्त देवी श्रीपुरुषोत्तमपुरीमें रहती थीं । इन्हें वात्सल्यभक्ति अत्यन्त प्रिय थी । ये प्रतिदिन नियमपूर्वक प्रातः काल स्नानादि किये बिना ही खिचड़ी तैयार करतीं और भगवान्को अर्पित करतीं । प्रेमके वशमें रहनेवाले श्रीजगन्नाथजी भी प्रतिदिन सुघर सलोने बालकके वेशमें आकर श्रीकर्माजीकी गोदमें बैठकर खिचड़ी खा जाते । श्रीकर्माजी सदैव चिन्तित रहा करती थीं कि बच्चेके भोजनमें कभी भी विलम्ब न हो जाय । इसी कारण वे किसी भी विधि - विधानके पचड़ेमें न पड़कर अत्यन्त प्रेमसे सबेरे ही खिचड़ी तैयार कर लेतीं ।

       एक दिनकी बात है , श्रीकर्माजीके पास एक साधु आये । उन्होंने अपवित्रताके साथ खिचड़ी तैयार करके भगवान्‌को अर्पण करते देखा । घबराकर उन्होंने श्रीकर्माजीको पवित्रताके लिये स्नानादिकी विधियाँ बता दीं । भक्तिमती श्रीकर्माजीने दूसरे दिन वैसा ही किया । पर इस प्रकार खिचड़ी तैयार करते उन्हें देर हो गयी । उस समय उनका हृदय रो उठा । मेरा प्यारा श्यामसुन्दर भूखसे छटपटा रहा होगा ।


 श्रीकर्माजीने दुखी मनसे श्यामसुन्दरको खिचड़ी खिलायी । इसी समय मन्दिरमें अनेकानेक घृतमय पक्वान्न निवेदित करनेके लिये पुजारीने प्रभुका आवाहन किया । प्रभु जूठे मुँह ही वहाँ चले गये ।

 पुजारी चकित हो गया । उसने देखा उस दिन भगवान्के मुखारविन्दमें खिचड़ी लगी है । पुजारी भी भक्त था । उसका हृदय क्रन्दन करने लगा । उसने अत्यन्त कातर होकर प्रभुसे असली बात जाननेकी प्रार्थना की ।

 उत्तर मिला , ' नित्यप्रति प्रातः काल मैं कर्माबाईके पास खिचड़ी खाने जाता हूँ । उनकी खिचड़ी मुझे बड़ी मधुर और प्रिय लगती है । पर आज एक साधुने जाकर उन्हें स्नानादिकी विधियाँ बता दीं ; इसलिये खिचड़ी बननेमें देर हो गयी , जिससे मुझे क्षुधाका कष्ट तो हुआ ही, शीघ्रतामें जूँठे मुँह आ जाना पड़ा । ' भगवान्के आज्ञानुसार पुजारीने उस साधुको ढूँढकर प्रभुकी सारी बातें सुना दीं । साधु घबराया हुआ श्रीकर्माजीके पास जाकर बोला - ' आप पूर्वकी ही तरह प्रतिदिन सबेरे ही खिचड़ी बनाकर प्रभुको निवेदन  कर दिया करें । आपके लिये किसी नियमकी आवश्यकता नहीं है । ' श्रीकर्माजी उसी तरह प्रतिदिन सबेरे भगवान्‌को खिचड़ी खिलाने लगीं । श्रीकर्माजी परमात्माके पवित्र और आनन्दमय धाममें चली गयीं , पर उनके प्रेमकी गाथा आज भी विद्यमान है । श्रीजगन्नाथजीके मन्दिरमें आज भी प्रतिदिन प्रातः काल खिचड़ीका भोग लगाया जाता है ।


 श्रीसिलपिल्लेकी भक्त 


 दो कन्याएँ ठाकुर श्रीसिलपिल्लेजीकी दो भक्त थीं- इनमें एक तो राजाकी कन्या थी और दूसरी एक जमींदारकी । एक दिन इनके घरमें श्रीगुरुजी महाराज पधारे और जब वे शालग्रामभगवान्‌की सेवा करने लगे , तब उसे देखकर ये दोनों उनके समीप जाकर बैठ गयीं । सेवादर्शन और प्रसाद ग्रहणकर इनके मनमें भी सेवा करनेकी उत्कण्ठा हुई । इन्होंने ललचाकर कहा कि हम भी सुकुमार श्यामसुन्दरकी पूजा किया करेंगी , हमें आप ठाकुरजीकी मूर्ति दे दीजिये । श्रीगुरुजीने इन्हें बच्चा , परंतु सच्चा प्रेमी जानकर दोनोंको एक - एक पत्थरका टुकड़ा दे दिया । जब इन्होंने ठाकुरजीका नाम पूछा तो कह दिया कि इनका नाम ' सिलपिल्ले ' है और तुम अपना मन लगाकर नित्य इनकी सेवा किया करना । गुरुदेवके आज्ञानुसार दोनों प्रेमसे पूजा करने लगीं सेवा करते - करते उनके हृदयमें बड़ा भारी अनुराग बढ़ गया । 


 जमींदारकन्याकी कथा श्रद्धा - विश्वासपूर्वक अनन्य भावसे अपने इष्टदेवके पादपद्योंमें हृदयकी आसक्तिको ही भक्ति कहते हैं । श्रद्धाका यह भाव मूर्तिके माध्यमसे भक्त अपने आराध्यतक पहुँचाता है और उस भक्तिसूत्रसे बँधे होनेके कारण भक्तके आवाहनपर भगवान् अपने वैकुण्ठलोकको छोड़कर उसतक पहुँच जाते हैं । यहाँ एक जमींदार कन्याके प्रेमकी इसी दिव्यताका वर्णन है बहुत पहलेकी बात है , एक जमींदारके दो पुत्र और एक कन्या थी । एक बार जमींदारके यहाँ उनके श्रीगुरुजी महाराज आये । जमींदारने उनका बड़ा ही स्वागत - सत्कार किया । जब गुरुजी श्रीशालग्राम भगवान्की सेवा करने लगे , तो जमींदारका पूरा परिवार वहाँ आकर बैठा । बाल सुलभतावश जमींदारकी कन्याको शालग्रामभगवान्‌की सेवा देख बड़ा आनन्द आया और उसने श्रीगुरुजी महाराजसे ठाकुरजीकी एक  मूर्तिके लिये निवेदन किया कि मुझे भी सेवा करनेके लिये दे दीजिये । 


पहले तो गुरुजीने मना किया , पर बालहठ देखकर एक पत्थरका टुकड़ा दे दिया । बालिकाने पूछा कि गुरुदेव ! मैं अपने भगवान्‌को क्या कहकर पुकारूंगी तो उन्होंने हँसते हुए कहा- तुम इन्हें सिलपिल्ले भगवान् कहना । श्रीगुरुजी महाराजने सामान्य ढंगसे पूजाविधि भी बतला दी । अब वह जमींदार कन्या नित्य बड़े ही प्रेम और भक्तिभावसे अपने सिलपिल्लेभगवान्की सेवा पूजा करने लगी । धीरे - धीरे उसे इस कार्य में इतनी रुचि हो गयी कि सिलपिल्ले भगवान्‌की पूजा करनेके अतिरिक्त उसका किसी अन्य कार्यमें मन ही न लगता । भगवान्‌को भी उसकी सेवा पूजामें बहुत आनन्द आता क्योंकि उन्हें तो केवल हृदयका शुद्ध भाव ही चाहिये । वे उस पत्थरके टुकड़ेकी की गयी पूजाको ही अपनी पूजा स्वीकार कर लेते थे ।


 कालान्तरमें जब जमींदारकी मृत्यु हो गयी तो उसके दोनों पुत्र अलग - अलग रहने लगे । जमींदारकी पुत्री भी अपने एक भाईके साथ रहने लगी । उन दोनों भाइयोंमें वैर - द्वेष इतना बढ़ा कि एक दिन छोटेवाले भाईने बड़े भाईके घरपर कुछ लोगोंको लेकर आक्रमण कर दिया और उसका सारा धन लूट लिया और तो और वे लोग अपनी बहनका ठाकुर बटुवा भी उठा ले गये , जिसमें वह सिलपिल्लेभगवान्‌को रखती थी । अब तो उसने सिलपिल्लेभगवान्‌के विरहमें अन्न - जलका त्याग कर दिया । यह बात जब गाँववालोंको पता चली तो उन लोगोंने जमींदारपुत्रीको समझाया कि झगड़ा भाइयोंका है , तुम्हारे लिये तो दोनों लोग एक जैसे ही हैं । तुम जाकर अपने भाईसे अपना ठाकुर बटुवा माँग लो । बड़े - बुजुर्गोंके इस तरह समझानेपर वह उस गाँवमें गयी , जहाँ दूसरा भाई रहता था । उसने भाईसे अपने ठाकुर बटुवाकी माँग की और कहा कि मैं अपने सिलपिल्लेभगवान्की सेवा पूजाके बिना अन्न - जल नहीं ग्रहण करूंगी और अपने प्राण त्याग दूंगी । यह सुनते ही भाईने कहा- तुम घरमें जाओ , वहाँ सभी ठाकुरजी एक ही स्थानपर विराजमान हैं , तुम अपने सिलपिल्लेभगवान्‌को पहचानकर ले जाओ भाईके पास ही एक व्यक्ति और बैठा हुआ था , उसने व्यंग्य करते हुए कहा कि यदि तुम्हारा अपने सिलपिल्ले भगवान् से इतना ही प्रेम है तो अन्दर जानेकी क्या जरूरत है , उन्हें ही अपने पास बुला लो । अब तो उस जमींदारकन्याके नेत्र अश्रुपूर्ण हो गये उसके प्रेम और भक्तिपर यह व्यंग्य था । उस समय उसके हृदयमें वे ही भाव उत्पन्न हुए , जो ग्राहग्रसित गजेन्द्र या दुःशासनद्वारा अपमानित हो रही द्रौपदीके हृदय में उत्पन्न हुए थे । उसने प्रार्थना की कि प्रभु मेरे प्रेमकी लाज जा रही है , उसकी रक्षा करो । घट - घटवासी भगवान् उस अनन्य भक्तासे भला कैसे दूर रह सकते थे , उसकी पुकार हुई नहीं कि वे आकर उसके हृदयसे लग गये । यह अघटित घटना देखकर उस व्यक्तिके साथ - साथ भाई भी आश्चर्यचकित हो गया , उसने क्षमा माँगते हुए बहनके चरणोंमें प्रणिपात किया कि हमारे धन्य भाग्य हैं कि तुझ जैसी भक्ता हमारी बहन है । मुझसे भूल हो गयी बहन , इतने दिन तू बड़े भाईके यहाँ रही , अब मेरे यहाँ रह जमींदारकन्याने कहा भाई । मैं दोनोंकी बहन हूँ , तो एकके यहाँ क्यों रहूँ ? तू भी बड़े भाईके ही साथ रह । अब छोटे भाई में साहस नहीं था कि वह बहनकी बातका प्रतिकार करता । उसने बड़े भाईसे भी क्षमा माँग ली और सब लोग साथ - साथ रहने लगे । इस प्रकार भगवान्ने अपनी भक्तिका अद्भुत प्रभाव दिखाया । श्रीप्रियादासजी महाराज इस घटनाको अपने कवित्तोंमें इस प्रकार वर्णन करते हैं पाछिले कवित्त मांझ दुहुँन की एक रीति अब सुनौ न्यारी न्यारी नीके मन दीजिये । जिमींदार सुता ताके भए उभे भाई रहै आपुस में बैर गांव मारयो सब छीजियै ॥ 

( सितपिल्ले हमें तुम देत बड़ी सुख लाड़ लड़ाई के पूजत प्यारे कौन - सी चूक भई हमसौँ प्रभु जो तुम है रहे आजु नियारे ॥ दुष्टन को विश्वास बढ़े सोइ कीजिय नाथ जू में यों विचारे । ' कुँवरि हठीली ' विनय सुनिकै करुना करिके प्रभु आनि पधारे ॥)

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