भगवान के प्यारे भक्त श्री शबरी जी

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                           श्री शबरी जी 6

 पवित्र जीवनके बिना पवित्रतम परमात्माको कोई नहीं प्राप्त कर सकता । ' उषःकालमें पम्पासरके तट महर्षि मतंग अपने शिष्योंसे कह रहे थे । ' अतः मनसा , वाचा , कर्मणा पवित्रताका पालन करो । शुचि भोजन शुचि परिधान और अपना प्रत्येक व्यवहार पवित्र होने दो । जीवमात्रपर दया और भगवन्नाममें अनुरक्तिक सदा ध्यान रखो । तभी स्थावर - जंगम , लता - वृक्ष आदि विश्वकी प्रत्येक वस्तुमें उन्हें देख सकोगे । यही सच्च धर्म है । जाति - कुलकी बाधासे यह धर्म सदा मुक्त है । ' महर्षि और उनके शिष्यगण चले गये थे । शबरी उनके चरण - चिह्नोंपर लोट रही थी , जैसे उसे को अमूल्य निधि मिल गयी हो , वृक्षकी ओटसे ऋषिके समस्त उपदेश - आदेश सुन लिये थे उसने । उसकी आँख बरस रही थीं । शबरीका मन उसके शैशवसे ही अशान्त था । भोले - भाले पशु - पक्षियोंकी हत्या देखकर वह सिहरउठती थी । उनकी लहू - लुहान देह देखकर वह अपनी आँखें बन्द कर लेती थी । अकेले कोने में मुँह छिपाकर होने लगती थी ।

चिन्ता , शोक और क्लेशसे उसके दिन बीतते रहे । वह नवयौवन सम्पन्ना नारी बनी । विवाहकी तैयारी हो गयी । पति वीर था उसका एक बाणसे दो दो पक्षियों को मार लेता था । तेज से तेज दौड़ता हुआ हिरन उसकी आँखों के सामने से नहीं बच सकता था । प्रशंसा शबरीने भी सुनी पर वह छटपटा उठी । एकान्त में जाकर अशान्त मनसे विश्व के प्राणाधारसे प्रार्थना करने लगी , देव मुझे पापोंसे बचाइये मैं अधमसे भी अधम मूर्ख नारी हूँ । मुझे पथका ज्ञान नहीं । आप मेरी रक्षा करें , नाथ मैं आपकी शरण हूँ । ' प्रार्थना करते करते रात अधिक हो गयी । शबरीने अपना कर्तव्य निश्चित कर लिया । अर्धरात्रिका समय था । सर्वत्र नीरवताका साम्राज्य था । आकाशमें तारे किंकर्तव्यविमूढ़ हो टुकुर - टुकुर ताक रहे थे । शबरी चुपकेसे दबे पाँव घरसे निकल पड़ी और घने जंगलोंमें जाकर विलीन हो गयी । कण्टकाकीर्ण पथ , नदी , वन और पर्वतका उसे ध्यान नहीं था वह भागती चली जा रही थी अनिश्चित स्थानकी ओर उस समय उसे केवल यही ध्यान था कि मैं अपने माँ बापके हाथ न आ जाऊँ । हिंसासे बचकर आजीवन ब्रह्मचारिणी रहकर प्रभु - भजन करूँ । भागने में उसे अपने तन - मनकी सुधि नहीं थी । न क्षुधा थी न तृषा । दो दिन बाद वह पम्पासरपर पहुँची थी । वह थक गयी थी । प्रातः हो चला था । पूर्व क्षितिजपर अरुणिमा बिखर गयी थी । उसी समय स्नानार्थी मतंग ऋषिकी चर्चा उसने सुन ली थी । महर्षिके दर्शनसे अद्भुत प्रभाव उसके मनपर पड़ा था । अपूर्व शान्तिका उसे आज अनुभव हुआ था । वहीं रहनेका उसने निश्चय कर लिया । पर उसके रहनेसे ऋषियोंके तपमें विघ्न पड़ेगा ' इस विचारसे उसने अपने रहने के लिये ऋषियोंके आश्रमसे दूर एक छोटी सी कुटिया बना ली । उसने समझ लिया था भगवान्के प्राणाधार उनके भक्त होते हैं । भक्तोंकी कृपा हो जानेपर भगवदर्शन निश्चय ही हो जायेंगे । वह एक पहर रात्रि रहते ही ऋषियोंकी कुटियोंके आस - पासकी भूमि तथा पंपासरकी ओर जानेवाले मार्गपर झाड़ू लगा देती । एक कंकड़ी भी किसी महर्षि या उनके सौभाग्यशाली भक्तके चरणों में बुभ न जाय , इसलिये वह बार - बार झाडू लगाती और वहाँ जल छिड़ककर सुगन्धित पुष्प डाल देती । कुटियों के द्वारपर सूखी लकड़ियोंका ढेर रख आती , जिससे समिधा लाने के लिये मुनिजनोंको किसी प्रकारका कष्ट न उठाना पड़े । शबरीका यह नित्यका काम था । पर मुनिलोग चकित थे । गुप्त रीतिसे यह सेवाकार्य कौन कर जाता है - ऋषिगण कुछ तै नहीं कर पाये । शिष्योंने पहरा दिया । शबरी पकड़ ली गयी । मतंग ऋषिके सामने उपस्थित कर दिया शिष्योंने उसे शबरी काँप रही थी । उसमें बोलनेका साहस नहीं था । ऋषिकी अपराधिनी थी वह मतंग ऋषिने उसे देखा । उनके मुँहसे निकल गया- ' भगवद्भक्तिमें जाति बाधा नहीं डाल सकती । शबरी परम भगवद्भक्त है । ' शिष्यगण एक - दूसरेका मुँह ताकने लगे । महर्षि मतंगने शबरीसे कहा , ' तुम मेरी कुटियाके पास ही रह जाओ । मैं कुटियाकी व्यवस्था कर देता हूँ । " शबरी दण्डकी भाँति पृथ्वीपर लेट गयी । नेत्रों से प्रेमानु बहने लगे । आज उसका भाग्योदय हुआ है । अब वह तपोधन महर्षिकी सेवा खुलकर कर सकेगी । मतंग ऋषिपर अन्य ऋषिगण कुपित हो गये । ' अनधिकार चेष्टा की है महर्षिने थे मर्यादाका उल्लंघनकर रहे है । नैष्ठिक तपोव्रतधारी ऋषि भगवद्भक्तको महिमा नहीं समझ पा रहे थे । ' अधम कहाँकी , स्पर्श कर दिया मुझे पुनः स्नान करना पड़ेगा ! ' क्रोधसे उन्मत्त एक ऋषि शबरीको डॉटकर पुनः पम्पासरकी ओर चले । E शबरी ध्यानमग्न जा रही थी , उसे ऋषिका ध्यान नहीं था । ऋषिके बिगड़नेका भी उसे कोई नहीं हुआ । वह अपने प्राणधनके रूप और नाममें छकी हुई सरोवरसे लौट रही थी । ऋषिने स्नान नहीं किया । सरोवरमें कीड़े पड़ गये थे । जल रक्तमें परिणत हो गया था । खिन्न होकर H वे स्नान किये बिना ही लौट आये । X ‘ आपके बिना मैं नहीं रह सकूँगी , मुनिनाथ ! फूट - फूटकर रोती हुई शबरी महर्षि मतंगसे कह रही थी । ' मेरे आधार आप ही हैं । आपके ही द्वारा मुझे ऋषियोंकी थोड़ी - बहुत सेवाका सौभाग्य प्राप्त हुआ है । आपके ही चरणारविन्दोंमें रहकर मैं भगवान्‌को पानेके लिये विकल हो रही हूँ । आपके बिना मैं कहाँको नहीं रहूँगी । परमार्थ सिद्धि भी नहीं कर सकूँगी । देव ! आपके साथ मैं भी अपना प्राण छोड़ दूंगी प्रभो ! ' अधीर मत हो , बेटी । ' मतंग ऋषिने शबरीको समझाया । ' मेरा अन्तिम समय निकट आ गया है । मुझे जाना ही चाहिये । पर तू अभी ठहर जा दशरथनन्दन भगवान् श्रीराम यहाँ शीघ्र आनेवाले हैं । तू उनके दर्शन करेगी और तेरी सारी साधना पूरी हो जायगी । ' ऋषिने नश्वर कायाको त्याग दिया । शबरी चिल्ल पड़ी । X ' महर्षिकी बात सत्य होगी ही । भगवान् दण्डकारण्यमें पधारेंगे । मुझे दर्शन मिलेगा । ' शबरी आनन्दमें छकी रहने लगी । पत्तेकी खड़खड़ाहटसे भी वह चौंक जाती थी , कहीं भगवान् आ तो नहीं गये । वह प्रतिदिन मार्ग साफ करके मीलोंतक भगवान्को जोह आया करती थी । ' भगवान् पहले मेरे यहाँ पधारेंगे ' ऋषियोंका निश्चय था । भगवान् आये और आते ही शबरीकी कुटियाका पता पूछने लगे । ऋषि चकित थे । प्रेमरूप भगवान् शबरीकी कुटियामें पधारे । आह ! शबरीका क्या कहना ? सबरी देखि राम गृह आए मुनि के बचन समुझि जिये भाए ॥ सरसिज लोचन बाहु बिसाला । जटा मुकुट सिर उर बनमाला ॥ स्याम गौर सुंदर दोउ भाई सबरी परी चरन लपटाई ॥ प्रेम मगन मुख बचन न आवा । पुनि पुनि पद सरोज सिर नावा ॥ ( रा ० च ० मा ० ३ ३४१६-१९ वह प्रेममें आत्मविभोर हो गयी थी । वाणी उसकी अवरुद्ध हो गयी थी । चरणोंको पकड़कर अनन्त सौन्दर्यमय भगवान्‌की ओर टकटकी लगाकर देखने और आँसू बहानेके अतिरिक्त वह और कुछ नहीं कर पा रही थी । उसके बशकी कोई बात नहीं थी । ' प्रभो । आपके लिये एकत्र किये हुए फल - मूलादि रखे हैं । बड़ी कठिनतासे अर्घ्य पाद्य देनेके बाद शबरीने कहा । वह चुने हुए मीठे - मीठे बेरोंको प्रतिदिन भगवान्‌के लिये रखती थी । उन बैरोंको ले आयी । बड़े प्रेमसे देने लगी । भगवान् आनन्दपूर्वक खाने लगे । भगवान्‌को उन बेरोंमें इतना अधिक स्वाद और आनन्दका अनुभव हो रहा था , जैसे प्रेममयी जन्मदायिनी जननी कौसल्याजी उन्हें भोजन करा रही हो ।अपनी अभीप्सा - पूर्ति देखकर अत्यन्त प्रसन्नतासे हाथ जोड़कर वह अत्यन्त प्रेमसे प्रार्थना करने लगी केहि बिधि अस्तुति करौँ तुम्हारी अधम जाति मैं जड़मति भारी ॥ अधम ते अधम अधम अति नारी तिन्ह महँ मैं मतिमंद अपारी ॥ शुद्ध प्रेम और दीनता देखकर भगवान्ने उत्तर दिया कह रघुपति सुनु भामिनि खाता मान एक भगति कर नाता ॥ फिर भगवान्ने उसके सामने नवधा भक्तिका निरूपण किया । इसी बीचमें ऋषियोंका समुदाय ( शबरीके आश्रममें ) भगवान्‌के दर्शन - निमित्त आ गया । उस समय ऋषियोंका ज्ञानाभिमान लुप्त हो गया था । वे मतंग ऋषिके तिरस्कारके लिये मन - ही - मन पश्चात्ताप करने लगे थे । उनके मुँहसे निकल गया- ' शबरी ! तू धन्य है । ' पम्पासरमें कीड़े पड़ने और जल रक्तके रूपमें परिणत होनेके सम्बन्धमें श्रीलक्ष्मणजीने ऋषियोंको बताया , ' मतंगमुनिसे द्वेष एवं बालब्रह्मचारिणी , संन्यासिनी , परम भगवद्भक्त और साध्वी शबरीके अपमान करनेसे तथा आपलोगोंके अभिमानसे सरोवरकी यह दुर्दशा हुई है । शबरीके पुनः स्पर्श करते ही वह शुद्ध हो जायगा । ' भगवान्के आदेशानुसार शबरीने सरोवरको स्पर्श किया , उसका जल पूर्ववत् निर्मल हो गया । भगवान् उसकी कुटियासे चलने लगे । शबरी अधीर हो गयी । चरणोंकी दृढ़ भक्ति भगवान्ने उसे दे ही दी थी । अब उसे कुछ पाना शेष नहीं था । उसकी सारी आकांक्षा प्रभुने पूरी कर दी थी , अब वह भगवान्से विलग होकर किसलिये जीवन धारण करती । ऋषिजनोंके सामने ही उसने अपनी पार्थिव देह त्याग दी । ऋषिगण शबरीका जय - जयकार करने लगे । धन्य थी शबरी और धन्य थी शबरीकी प्रेममयी अद्वितीय भक्ति ! भक्तमालके टीकाकार श्रीप्रियादासजी महाराज शबरीके भक्तिमय दिव्य चरित्रको रूपायित करते हुए निम्न कवित्तोंमें लिखते हैं वन में रहति नाम शबरी कहत सब चाहत टहल साधु तन न्यूनताई है । रजनी के शेष ऋषि आश्रम प्रवेश करि लकरीन बोझ धरि आवै मन भाई है ॥ न्हाइवे को मग झारि कांकरनि बीनि डारि वेगि उठि जाइ नेकु देति न लखाई है । उठत सबारे कहँ कौन धौं बुहारि गयो भयौ हिये सोच कोऊ बड़ो सुखदाई है ॥ ३१ ॥ बड़ेई असङ्ग वे मतङ्ग रस रंग भरे धरे देखि बोझ को कौन चोर आयो है । कर नित चोरी अहो गहो वाहि एक दिन बिना पाये प्रीति वाकी मन भरमायो है ॥ बैठे निशि चौकी देत शिष्य सब सावधान आय गई गहि लई काँपै तनु नायो है । देखत ही ऋषि जलधारा यही नैनन ते बैनन सों कह्यो जात कहा कछु पायो है ॥ ३२ ॥ डीठि हू न सोहीं होत मानि तन गोत छोत परी जाय सोच सोत कैसे के निकारिये । भक्ति को प्रताप ऋषि जानत निपट नीके कैक कोटि विप्रताई यापै वारि डारिये ॥ दियो बास आश्रम में श्रवन में नाम दियो कियो सुनि रोष सबै कीनी पाँति न्यारिये । शबरी सों कह्यो तुम राम दरसन करो मैं तो परलोक जात आज्ञा प्रभु पारिये ॥ ३३ ॥ गुरू को वियोग हिये दारुन लै शोक दियो जियो नहीं जात तक राम आसा लागी है । न्हाइबे की बाट निशि जात ही बुहारि सब भई याँ अबार ऋषि देखि व्यथा पागी है ॥ छुयो गयो नेकु कहूँ खीझत अनेक भाँति करिकै विवेक गयो न्हान यह भागी है । जल सों रुधिर भयौ नाना कृमि भरि गयो नयो पायो सोच तौ हू जानै न अभागी है ॥ ३४ ॥लावै बन बेर लागी राम की अवसेर भल चाखै धरि राख फिर मीठे उन जोग हैं । मारग में जाइ रहै लोचन बिछाइ कभू आवैं रघुराइ दृग पावैं निज भोग हैं ॥ ऐसे ही बहुत दिन बीते मग जोहत ही आय गये औचक सो मिटे सब सोग हैं । ऐ पै तनु नूनताई आई सुधि छिपी जाय पूछें आप सबरी कहाँ ठाड़े सब लोग हैं ॥ ३५ ॥ पूछि पूछि आये तहाँ शबरी स्थान जहाँ कहाँ वह भागवती देखौं दृग प्यासे हैं । आय गई आश्रम में जानि के पधारे आप दूर ही ते साष्टांग करी चख भासे हैं ॥ रखकि उठाय लई विधा तनु दूर गई नई नीरझरी नैन परे प्रेम पासे हैं । बैठे सुखपाइ फल खाइकै सराहे वेई को कहा कहाँ मेरे मग दुख नासे हैं ॥३६ ॥ करत हैं सोच सब ऋषि बैठे आश्रम में जल को बिगार सो सुधार कैसे कीजिये । आवत सुने हैं वन पथ रघुनाथ कहूँ आवैं जब कहें याको भेद कहि दीजिये ॥ इतने ही माँझ सुनि सबरी के विराजे आनि गयो अभिमान चलो पग गहि लीजिये । आय खुनसाय कही नीर कौ उपाय कहाँ गहाँ पग भीलिनी के छुये स्वच्छ भीजिये ॥ ३७ ॥ इन कवित्तोंका भाव संक्षेपमें इस प्रकार है शबरी वनमें निवास करने लगीं , इनके मनमें साधु - सन्तोंकी टहल करनेकी बड़ी इच्छा थी , पर साधु सन्त सेवा स्वीकार नहीं करेंगे , इसलिये थोड़ी रात रहनेपर ही वे ऋषियोंके आश्रममें छिपकर जाती और लकड़ियोंके बोझ रख आतीं । प्रातः काल शीघ्र ही उठकर सरोवरपर जाने - आनेके मार्गको झाड़ - बुहारकर उसकी कंकड़ियोंको बीनकर अलग डाल देती थीं । यह सेवा करते हुए इनको कोई भी नहीं देख पाता था । सबेरे उठकर ऋषिलोग आपसमें कहते कि मार्गको नित्य कौन झाड़ जाता है और लकड़ियोंके बोझ कौन रख जाता है ? वनवासी ऋषियोंमें एक मतंग नामक ऋषि थे । वे परम विरक्त और भक्तिरसके आनन्दसे परिपूर्ण थे । लकड़ियोंके बोझ रखे देखकर वे अपने शिष्योंसे कहने लगे कि इस तपोवनमें ऐसा कौन आ गया ? जो नित्य चोरीसे सेवा करता है । उसे एक दिन पकड़ो , उस सन्त - सेवा - प्रेमीभक्तके प्रत्यक्ष दर्शन करना चाहिये । आज्ञा पाकर मतंगजीके शिष्य सावधानीसे पहरा देने लगे । जैसे ही शबरीजीने लकड़ियोंका बोझ रखा , वैसे ही शिष्योंने उसे पकड़ लिया । वह बेचारी भय और संकोचवश काँपने लगी और उनके पैरोंपर गिर गयी । उस भक्तिमयी भीलनीको देखते ही मतंगजीके आँखोंसे आँसुओंकी धारा बहने लगी । मतंगजी भगवद्भक्तिके प्रभावको बहुत अच्छी तरह जानते थे । वे सोच - विचारकर शिष्योंसे बोले कि भक्तिके प्रतापसे यह इतनी पवित्र है कि इसके ऊपर कई कोटि ब्राह्मणता न्यौछावर कर देनी चाहिये । मतंगजीने शबरीको आश्रमकी एक पर्णकुटीमें रहनेका स्थान दिया और उसके कानमें श्रीसीताराम मन्त्र दिया और दर्शन प्राप्त करोगी । ' कहा , ' मैं प्रभुकी आज्ञासे उनके धामको जा रहा हूँ , तुम इसी आश्रममें रहकर भजन करो । यहीं श्रीरामजीका गुरुदेव श्रीमतंगजीके वियोगने शबरीजीके हृदयको बड़ा कठोर कष्ट दिया , उनसे जीवित नहीं रहा जाता था , पर श्रीरामजीके दर्शनोंकी आशा लगी थी , इसीलिये जीवित रहीं । मुनियोंके स्नानमार्गको थोड़ी रात रहे झाड़ - बुहार आती थीं । एक दिन विलम्ब हो गया । स्नानके लिये ऋषि आने - जाने लगे , मार्ग सँकरा था , कोई ऋषि शबरीजीसे किंचित् छू गये । तब वे अनेक प्रकारसे शयरीजीको डाँटने - फटकारने लगे । शबरीजी भागकर अपनी कुटीमें चली आयीं । वे ऋषि सोच - विचार करके पुनः स्नान करनेके लिये गये । सरोवरमेंप्रवेश करते ही उसका जल अनेक कीड़ोंसे भरे हुए रुधिरके समान हो गया । इससे ऋषिको एक नया दुःख उत्पन्न हो गया । भक्तस्पर्शसे अपने को अपवित्र समझनेवाले मुनिके अपराधसे ही सरोवरका जल अपवित्र हुआ था , पर उस अभागेने यह रहस्य नहीं जाना उलटे ऐसा समझा कि शबरीके स्पर्शजन्य दोषसे ही जल दूषित हो गया है । शबरीजीको श्रीरामजीकी बड़ी भारी चिन्ता रहती , वे आगमनकी प्रतीक्षामें अति व्याकुल रहतीं । वनसे बेर बीन बीनकर लार्ती , चखकर देखतीं ( जिस वृक्षके ) जो फल मीठे होते , उन्हें श्रीरामके योग्य समझकर उनके लिये रखती थीं । उत्कण्ठावश अपने प्रभुके आगमनके मार्गमें जाकर उसे स्वच्छ एवं कोमल बनातीं एवं सोचा करती कि राघवेन्द्रसरकार कब आयेंगे ? कब मेरे नेत्र उसके दर्शनरूपी अमृतका आस्वादन करेंगे ? इसी प्रकार प्रभुके आगमनकी बाट देखते देखते जब बहुत दिन बीत गये , तब एक दिन अचानक ही श्रीरामजी आ गये । उसके सभी शोक मिट गये । परंतु उसे अपने शरीरके नीचकुलमें उत्पन्न होने की बात याद आ गयी , इसलिये वह संकोचवश भागकर कहीं छिप गयी । कर भगवान् श्रीराम वनवासी लोगोंसे और ऋषियोंसे पूछते - पूछते वहाँ आये , जहाँ शबरीजीका स्थान था । वहाँ शबरीको न देखकर भगवान् कहने लगे कि भाग्यशालिनी हरिभक्ता कहाँ है ? मेरे नेत्र उसके दर्शनरूपी सुधाके प्यासे हैं । स्वयं सरकार मेरे आश्रममें पधारे - यह जानकर शबरीजी भी आश्रमकी ओर दौड़ीं । दूरसे ही जहाँसे प्रभुको देखा वहाँसे सप्रेम साष्टांग दण्डवत् प्रणाम किया । शबरीके नेत्र प्रफुल्लित हो गये । भगवान्ने समीप जाकर शीघ्रतासे ललककर उसे उठा लिया । कोमल करकमलके स्पर्शसे तन - मनकी सब व्यथा दूर हो गयी । नेत्रोंसे आनन्दके आँसुओंकी झड़ी लग गयी । भगवान् श्रीराम परम सुखी होकर आसनपर विराजे शवरीजीने अर्घ्यपाद्यपूर्वक बेर आदि फल अर्पण किये । श्रीरामजीने उन्हें प्रेमसे खाकर उनके अद्भुत सुन्दर स्वादकी बार - बार प्रशंसा की । 623 थे । जो 6 थी । उधर सभी ऋषि आश्रममें बैठकर सोच - विचार कर रहे थे कि सरोवरका जल बिगड़ गया है , उसे शुद्ध करनेके लिये यज्ञ - याग , सर्वतीर्थजलनिक्षेप आदि सब उपाय हमने कर लिये , पर वह शुद्ध नहीं हुआ , अब बताओ वह कैसे सुधरे ? सबोंने परस्पर विचारकर निश्चय किया कि वनके मार्गसे श्रीरघुनाथजी आ रहे हैं , यह सुना है , जब वे आयें , तब हमलोग उनसे कहें कि आप इसका भेद बताइये । इतनेमें ही उन ऋषियोंने सुना कि श्रीरामजी तो शबरीके आश्रममें आकर विराजे हैं । तब सबका ब्राह्मणत्वका अहंकार दूर हो गया और वे कहने लगे कि चलो , वहीं चलकर उनके चरणों में प्रणाम करें । वे ऋषिगण शबरीके आश्रम में बोले- प्रभो श्रीराम ! आप सरोवरके जलको शुद्ध करनेका उपाय बताइये । भगवान्ने उत्तर दिया कि शबरीके चरणोंका स्पर्श करो , उसके बाद सरोवरके जलसे इसके चरणस्पर्श कराओ । जल तुरंत पवित्र हो जायगा ? भगवान्‌को आज्ञासे ऋषियोंने ऐसा ही किया । सरोवरका जल अति निर्मल हो गया । भक्तिको ऐसी महिमा देखकर ऋषियोंके हृदय प्रेमभावसे द्रवित हो गये । कि जाने HIT महर्षि मतंगकी वाणी आज सत्य हो गयी थी । भगवान्ने उसे नवधा भक्तिका उपदेश दिया । शबरीने सीताजीकी खोजके लिये प्रभुको सुग्रीवसे मित्रता करनेकी सलाह दी और स्वयंको योगाग्निमें भस्मकर सदाके लिये श्रीरामके पाद - पद्यों लीन हो गयी 

हरिशरणम हरिशरणम हरिशरणम 

BHOOPAL MISHRA 
Sanatan vedic dharma karma 
Bhupalmishra35620@gmail.com

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