श्री कुन्तीजी

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                                 श्रीकुन्तीजी  

श्रीकृष्णचन्द्र के पितामह शूरसेनजीने अपनी पुत्री पृथाको अपनी बुआके सन्तानहीन पुत्र कुन्तिभोजको दत्तकरूपमें प्रदान किया । परम सुन्दरी पृथा सात्त्विक प्रवृत्तिकी और धार्मिक थी । एक बार महाराज कुन्तिभोजके यहाँ एक तेजस्वी ब्राह्मण अतिथि हुए । पिताने उनके सत्कारका भार पृथाको दिया । पूरे वर्षभर वे विप्रदेव कुन्तिभोजके घर रहे । अवस्थामें छोटी होनेपर भी राजकुमारी पृथा अत्यन्त श्रद्धा , संयम तथा परिश्रमसे उनकी सेवामें लगी रही । विदा होते समय ब्राह्मणदेवताने सन्तुष्ट होकर वरदान माँगनेको कहा । ‘ आपके समान वेदज्ञ तपस्वी तथा मेरे पिता मुझपर प्रसन्न हैं , इसीसे मेरा श्रम सार्थक हो गया । मुझे कोई अभिलाषा नहीं है ।

कुन्तीने ब्राह्मणकी निष्काम भावसे सेवा की थी । ' बेटी ! मेरी प्रसन्नता निष्फल नहीं होनी चाहिये । मुझसे तू इन मन्त्रोंको ग्रहण कर ले । इनके द्वारा तू जिस देवताका आह्वान करेगी , वह विवश होकर तेरे समीप उपस्थित होगा । ' ब्राह्मणने आग्रह किया । शापके भयसे पृथा निषेध न कर सकीं । अथर्वशीर्ष में आये मन्त्रोंका उपदेश करके तथा महाराजको अपना जाना सूचित करके वे तेजस्वी ब्राह्मण वहीं अन्तर्हित हो गये । ब्राह्मणवेषमें ये महर्षि दुर्वासा थे ।

विप्रदेवने ये कैसे मन्त्र दिये हैं । ' कुन्ती राजभवनके ऊपर खड़ी सोच रही थीं । उनके मनमें परीक्षा करनेका कुतूहल हुआ । उदय होते सूर्यपर उनकी दृष्टि पड़ी । मन्त्र प्रभावसे कवच - कुण्डलधारी भगवान् सूर्यके उस सूर्यमण्डलमें उन्हें दर्शन हुए । विधिवत् आचमन करके उन्होंने मन्त्रोंका जप करते हुए सूर्यनारायणका आह्वान किया । स्वर्णवर्ण , दिव्याभरणभूषित तेजोमय पुरुषरूपसे सूर्यदेव सम्मुख उपस्थित हो गये । उन्होंने कहा — ' भद्रे ! मैं तुम्हारी मन्त्र - शक्तिसे विवश होकर आया हूँ । आज्ञा दो , मैं क्या करूँ ? ' कुन्तीने प्रणाम करके प्रार्थना की आप अपने धामको पधारें । मैंने कुतूहलवश आपको बुलाया था । मेरा अपराध क्षमा करें । भगवान् सूर्यने कहा - ' देवताका आना व्यर्थ नहीं होना चाहिये । मुझे देखकर तुम्हारे मनमें यह भाव आया था कि मेरे इन कुण्डलों तथा कवचसे भूषित अतुल पराक्रमी पुत्र हो । अतः मैं तुम्हें ऐसा ही पुत्र प्रदान करूंगा । मैं कन्या हूँ । मेरे माता - पिता जीवित हैं , इस शरीरपर उनका अधिकार है । सदाचार ही लोकमें श्रेष्ठ है और वह है - अनाचारसे शरीरको बचाये रखना । आप मेरे अपराधको क्षमा करके लौट जायँ । ' कुन्तीने भीत होकर प्रार्थना की । भगवान् सूर्यने समझाया कि उनकी बात स्वीकार करके भी उसका कन्याभाव नष्ट नहीं होगा । वह सती ही रहेगी । कुन्तीने इसपर सूर्यनारायणकी बात स्वीकार कर ली । भगवान् सूर्यने योगशक्तिसे उसके उदरमें अपना अंश स्थापित किया । उसके कन्याभावको दूषित नहीं किया । अन्तः पुरमें केवल एक धायको पता था कि पृथा गर्भवती हैं । यथासमय देवताओंके समान कान्तिमान् बालक उत्पन्न हुआ । उसके शरीरपर स्वर्णकवच तथा कानोंमें दिव्य कुण्डल थे । पृथाने धात्रीकी सलाहसे एक पिटारीमें कपड़े बिछाये , ऊपरसे मोम चुपड़ दिया । उसीमें नवजात शिशुको लिटाकर ढक्कन लगा दिया । पिटारीको अश्वनदीमें छोड़ते हुए रोकर विदीर्ण होते हृदयसे माता कुन्तीने कहा- ' बेटा ! सभी जल , स्थल , नभके प्राणी तेरी रक्षा करें । तेरा मार्ग मंगलमय हो । शत्रु तुझे विघ्न न दें । सभी लोकपाल तेरी रक्षा करें ! तू कभी कहीं भी मिलेगा तो इन कवच और कुण्डलोंसे मैं तुझे पहचान लूंगी । ' इस के है । और । 1 वह पिटारी अश्वनदीसे चर्मण्वती उससे यमुनामें होती गंगामें पहुँची । चम्पापुरीमें सूत अधिरथने उसे पकड़ा और उसमेंसे निकले हुए बालकको पुत्र मानकर पालन - पोषण किया । वही बालक वसुषेण महारथी कर्णके नामसे प्रख्यात हुआ । दूतोंद्वारा कुत्तीको पता लग गया था कि उनका पुत्र सूतद्वारा पाला जा रहा है । लोकलज्जाके भयसे उन्होंने इस रहस्यको प्रकट नहीं किया । सुन्दरी पृथाके लिये महाराज कुन्तिभोजसे अनेक राजाओंने प्रार्थना की स्वयंवर हुआ और महाराज पाण्डुके गलेमें जयमाल पड़ी । कुन्तीको लेकर वे हस्तिनापुर आये । आखेटमें मृगवेषधारी ऋषिकुमार किन्दमपर पाण्डुने बाण चला दिया । मरते समय ऋषिपुत्रने अपना रूप प्रकट करके शाप दे दिया- ' तुमने सहवास करते मृगपर बाण छोड़ा , अतः पत्नीके साथ सहवास करते समय तुम्हारी मृत्यु होगी । ' विरक्त होकर महाराजने संन्यास लेनेका निश्चय किया , किंतु कुन्ती देवीके आग्रहसे पत्नियोंके साथ बनमें तपस्वी जीवन व्यतीत करना उन्होंने स्वीकार कर लिया । संतान न होनेसे पुरुष पितृ ऋणसे उऋण नहीं होता , यह सोचकर महाराज दुखी रहते थे । ऋषियोंने उन्हें देवांशसे पाँच पुत्रोंकी प्राप्तिका वरदान दिया था । ऋषिवाक्य सत्य होने चाहिये , यह सोचकर उन्होंने एक दिन कुन्तीसे कहा - भद्रे ! तुम सन्तति - प्राप्तिके लिये कोई यत्न करो ।

आपकी आज्ञा होनेपर मैं जिस देवताका आह्वान करूंगी , उसीसे मुझे संतान होगी । आप आज्ञा किस देवताका संकल्प करूँ ? ' दुर्वासाजीद्वारा मन्त्र प्राप्तिका वर्णन सुनाकर कुन्तीजीने पूछा । ' मुझे धर्मात्मा पुत्र चाहिये । धर्मात्मा सन्तति कुलको पवित्र कर देती है । तुम धर्मराजके उद्देश्यसे मन्त्र जप करो ! ' महाराजने आदेश दिया । आज्ञाका पालन हुआ । फलतः धर्मराजके अंशसे युधिष्ठिरका जन्म हुआ । क्षत्रिय जाति बलप्रधान है । परम बलवान् सन्ततिकी में कामना करता हूँ । कुछ दिना पश्चात् महाराजने पुनः आज्ञा की । इस बार कुन्तीने वायुदेवताके उद्देश्यसे जप किया । पवनके अंशसे उन्हें भीमसेन जैसे पराक्रमी पुत्रकी प्राप्ति हुई । ' मैंने देवराजको प्रसन्न कर लिया है , तुम उनका स्मरण करो । ' पाण्डुने सर्वश्रेष्ठ पुत्रकी प्राप्ति के लिये एक पैरसे सूर्यके सम्मुख खड़े होकर उग्र तपस्या करके महेन्द्रको प्रसन्न कर लिया था । पतिकी आज्ञासे कुन्ती देवीने भी एक वर्षतक व्रत एवं विशेष नियमोंका पालन किया था । महाराजके आदेशसे पृथाके आह्वान करनेपर देवराज पधारे । उनके अंशसे परम पराक्रमी नरके अवतार अर्जुनका जन्म हुआ । छोटी रानी माद्रीके अनुरोध करनेपर महाराजने पृथाको आदेश दिया , ' कल्याणी ! माद्रीको भी सन्तति प्रदान करो !! पतिकी आज्ञा शिरोधार्य करके उन्होंने मन्त्र बताकर माद्रीसे किसी देवताका ध्यान करनेको कहा । माद्रीके ध्यान करनेपर अश्विनीकुमारोंके अंशसे यमज नकुल और सहदेवकी उत्पत्ति हुई । एकान्तमें पर्वतपर माद्रीके साथ घूमते हुए पाण्डु अपनेको संयमित न रख सके । फलतः उनका शरीरान्त हो गया । बड़ी रानी होनेके कारण सती होनेका अधिकार कुन्तीजीको था , किंतु माद्रीका अनुरोध स्वीकार करके उन्होंने आजीवन पति वियोगका कष्ट स्वीकार किया । माद्रीके सती हो जानेपर अपने और माद्रीके पुत्रोंका सर्वथा समान भावसे उन्होंने पालन किया । उस वनके तपस्वियोंने पाण्डुके पुत्रों तथा पत्नीको आदेशसे यहीं पाण्डु एवं माद्रीकी और्ध्वदैहिक क्रिया सम्पन्न हुई । धृतराष्ट्रके समीप पहुँचा देना आवश्यक समझा । कुन्तीदेवी तपस्वियोंके साथ हस्तिनापुर आयीं । धृतराष्ट्रके दुरात्मा दुर्योधनके कारण पाण्डवोंपर अनेक आपत्तियाँ आयीं । उसने भीमसेनको विष दे दिया और बाँधकर जलमें फेंक दिया । इससे भीमके बच जानेपर सभी पाण्डवोंको मार डालनेकी इच्छासे वारणावत नगरमें लकड़ी , लाख , तैलके संयोगसे इस प्रकारका भवन बनवाया , जो अग्निसे तुरंत भस्म हो जाय । धृतराष्ट्र अपने पुत्रसे सहमत थे । उन्होंने माताके साथ पाण्डवोंको वारणावत जानेकी आज्ञा दे दी । विदुरजीको कौरवोंके समय युधिष्ठिरको संकेतसे उन्होंने सब बातें समझा दीं । इस षड्यन्त्रका पहले ही पता लग गया था । उन्होंने उस भवनसे वनतक एक सुरंग बनवा दी थी । दुर्योधनका सेवक पुरोचन लाक्षा - भवनमें अग्नि लगानेको नियुक्त था । एक वर्ष पाण्डव वहाँ रहे । एक दिन रात्रिमें स्वयं अग्नि लगाकर वे माताके साथ सुरंगसे वनमें चले गये । पुरोचन उसी अग्निमें भस्म हो लिया कि माताके साथ पाण्डव अग्निमें जल गये । गया । दैवात् पाण्डवोंसे अन्न लेने एक भील स्त्री अपने पाँच पुत्रोंके साथ उसी दिन आयी थी । सुरापानके कारण प्रमत्त हो वे लोग उसी भवनमें अनजाने सोते रह गये थे । उनके जले शवोंको देखकर लोगोंने समझ य रा वहाँसे बचकर घूमते हुए पाण्डव एकचक्रा - नगरी पहुंचे । वहा ब्राह्मण वेशमें एक ब्राह्मणके घर वेठहर गये । एक दिन चारों भाई कन्द - मूल लाने वनमें गये थे , केवल भीमसेन माताके पास थे । उसी समय उस घरके लोगोंको करुण - क्रन्दन करते सुनकर माताने कहा - ' बेटा ! हमलोग ब्राह्मणके घरमें रहते हैं । ये हमारा सत्कार करते हैं । मैं बराबर इनका कोई उपकार करनेकी बात सोचा करती हूँ । आज इनपर कोई विपत्ति आयी जान पड़ती है । यदि इनकी कुछ सहायता हो सके तो हम इनके ऋणसे उऋण हो जायें । भीमसेनने उत्तर दिया- ' मा ! पता लगाओ ! कठिन से कठिन कार्य करके भी हम ब्राह्मणकी सेवा करेंगे । " 2 कुन्तीने जाकर छिपकर देखा , घरका प्रत्येक सदस्य - ब्राह्मण , उसकी पत्नी तथा पुत्री - दूसरेकी रक्षाको आवश्यकता बताकर अपनेको किसी राक्षसकी भेंट करनेकी बात कर रहे हैं । सभी रो रहे हैं । सभी अपना बलिदान करनेको उत्सुक हैं । सभी अपनेको अनावश्यक तथा दूसरोंको आवश्यक सिद्ध करना चाहते हैं । एक छोटा बच्चा सबके पास जाकर तोतली वाणीमें कह रहा है कि मुझे राक्षसके पास भेज दो । मैं उसे मार डालूँगा । ' आपके दुःखका कारण क्या है ? हो सका तो मैं उसे दूर करनेका प्रयत्न करूंगी । ' कुन्तीदेवीका हृदय इस दृश्यसे द्रवित हो गया था । उन्होंने प्रकट होकर पूछा । ब्राह्मणने बताया कि बक नामक कोई राक्षस समीप ही रहता है । उसके लिये दो - एक गाड़ी अन्न तथा दो भैंसे प्रतिदिन दिये जाते हैं । जो यह सामग्री लेकर जाता है , उसे भी वह खा जाता है । यदि ऐसा न किया जाय तो पता नहीं ग्रामके कितने लोगोंको वह खा जाय । प्रत्येक घरके लोग बारी - बारीसे अन्न ले जाते हैं । आज मुझ ब्राह्मणकी बारी है । किसी न - किसी घरके सदस्यको राक्षसका भक्ष्य बनना होगा । कुटम्बमें किसीको घरपर रहना स्वीकार न होनेके कारण ब्राह्मणने सपरिवार राक्षसके यहाँ जा ना निश्चित किया है , यह भी बताया । ' आप शोक छोड़ दें । राक्षससे छुटकारेका उपाय मेरे पास है । आपके एक ही पुत्र है और एक ही कन्या है । आपमेंसे किसीका जाना उचित नहीं । मेरे पाँच पुत्र हैं । उनमेंसे एक राक्षसका भोजन लेकर चला जायगा । ' कुन्तीदेवीने दृढ़ स्वरमें कहा । ' हरे , हरे , मैं इस नश्वर शरीरके लिये अतिथिका वध कभी न होने दूंगा । मैं आत्महत्या तो कर नहीं रहा हूँ । वह राक्षस मुझे पत्नीके साथ भले खा ले , परंतु अपने बदलेमें एक अतिथि ब्राह्मणका बलिदान कभी नहीं करूंगा । मुझे अपने धर्मका ज्ञान है । आपका त्याग , कुलीनता एवं धर्म प्रशंसनीय हैं , परंतु मैं अपने धर्मका नाश न करूंगा । ' वह धर्मात्मा ब्राह्मण इस प्रस्तावसे ही काँप गया । ' मैं ब्राह्मणकी रक्षा करनेका दृढ़ निश्चय कर चुकी हूँ । आप निश्चिन्त रहें । राक्षस चाहे जितना बलवान् हो , वह मेरे पराक्रमी मन्त्रसिद्ध पुत्रका कोई अनिष्ट न कर सकेगा । मेरे पुत्रके हाथों अनेक विशालकाय राक्षस मारे जा चुके हैं । आपसे केवल इतनी प्रार्थना है कि इस बातको गुप्त रखें । लोग मेरे पुत्रोंको पीछे वेग न करें , यह मैं चाहती हूँ । ' कुन्तीजीके दृढ़ निश्चयके सामने ब्राह्मणको झुकना पड़ा । भीमसेन अन्न लेकर गये । वहाँ जाकर गाड़ीमें जुते भैंसोंको तो पीटकर उन्होंने गाँवमें भगा दिया और अन्नका स्वयं प्रसाद पा लिया । राक्षस बक लाल - पीला होता आया सही , किंतु युद्धमें पछाड़कर वृकोदर ( भीमसेन ) ने उसे सीधे यमलोक भेज दिया । माता कुन्तीकी कृपासे उस गाँवके निवासियोंकी विपत्ति सदाके लिये दूर हो गयी । यहाँसे पाण्डव पांचाल गये । स्वयंवरमें अर्जुनने द्रौपदीको प्राप्त किया । ' मा ! हम एक भिक्षा लाये हैं । " राजकुमारीको लाकर अर्जुनने कहा बिना देखे ही माताने भीतरसे कह दिया - पाँचों भाई उसे बाँट लो । फलत : पांचाली पाँचों भाइयोंकी पत्नी हुई । पता लगनेपर धृतराष्ट्रने विदुरको भेजकर पाण्डवोंको बुला लियाआधा राज्य देकर इन्द्रप्रस्थ उनकी राजधानी कर दी । माताके साथ पाण्डवोका यहाँ निवास हुआ । कंसारि श्रीकृष्ण पाण्डवोंकी ओरसे शान्तिदूत होकर हस्तिनापुर पधारे । दुर्योधनने स्पष्ट कह दिया कि युद्धके बिना सूईकी नोक रखनेभर भूमि न दूँगा । जब श्रीकृष्ण पुनः विराटनगर लौटने लगे तो माता कुन्तीने अपने पुत्रोंके लिये सन्देश दिया- ' युधिष्ठिर क्षत्रियोंको बाहुबलसे आजीविका चलानी चाहिये । राजासे सुरक्षित रहकर प्रजा जो धर्म करती है , उसका चतुर्थांश राजाको प्राप्त होता है । दण्डनीतिका ठीक प्रयोग करके लोगोंको वह धर्ममार्ग में प्रवृत्त करता है । तुम जिस सन्तोषको लिये बैठे हो , उसे तुम्हारे पिता - पितामहने कभी आदर नहीं दिया । यह याचना तुम्हारे लिये उपयुक्त नहीं भिक्षा ब्राह्मण माँगते हैं , वैश्य कृषि - वाणिज्यसे और शुद्र सेवासे आजीविका चलाते हैं । तुम क्षत्रिय हो , भुजबलसे राज्य प्राप्त करो । यही तुम्हारी धर्मसम्मत आजीविका है । तुम सा पुत्र पाकर भी मैं दूसरोंके टुकड़ोंपर आश्रित हूँ , यह कितने कष्टकी बात है । ' भ द्यूतमें हारकर पाण्डवोंके वन जानेपर माता कुन्ती विदुरजीके यहाँ रहती थीं । वे अपना पूरा समय भजन , पूजन तथा व्रतों में व्यतीत करती थीं । उनका रहन - सहन अत्यन्त सादा था । अपने सब कार्य वे स्वयं कर लिया । करती थीं । उन्होंने श्रीकृष्णको विदुलाका आख्यान सुनाकर फिर कहा - ' अर्जुनसे कहना कि उससे मुझे बड़ी बड़ी आशाएँ हैं । आकाशवाणीने उसके जन्मके समय कहा था कि ' वह इन्द्रके समान पराक्रमी होगा । भीमके साथ रहकर शत्रुओंका जय करेगा । सारे कौरवोंको मारकर पितृराज्य प्राप्त करेगा । ' मेरी इच्छा है कि देवताओंकी वाणी सत्य हो । क्षत्राणियाँ जिस कामके लिये पुत्र उत्पन्न करती हैं , उसका समय आ गया । ' 1 fa श्रीकृष्णसे उन्होंने पुत्रोंको उत्साहित करने तथा रक्षा करनेका अनुरोध किया ।' बेटा ! कर्णको भी जलांजलि दो । ' युद्धमें मारे गये सभी स्वजनोंको धर्मराज तिलांजलि दे रहे थे । रोती हुई माता कुन्तीने उनसे अनुरोध किया । मा । वह सूतपुत्र सदा हमसे द्वेष करता रहा । वह हमारे गोत्रका भी नहीं । हम उसे जल नहीं देंगे । ' युधिष्ठिरने अस्वीकार किया । तुम नहीं जानते , वे महाभाग तुम्हारे ज्येष्ठ भ्राता थे । ' कुन्तीने कर्णके जन्मका परिचय दिया । ' हाय ! हम यह पहले जानते तो इतना अनर्थ क्यों होता ? हम उनके चरणोंमें सिंहासन निवेदित करके स्वयं सेवक बने रहते । हमने अपने ही ज्येष्ठ भ्राताको मार डाला ! मा ! तूने यह बात मुझसे क्यों नहीं कही ? धर्मराज अत्यन्त शोकार्त होकर रोते हुए बार - बार पूछने लगे । ' ' पुत्र युद्ध आरम्भ होनेसे पूर्व ही मैं उन सूर्यनन्दनके समीप गयी थी । वे उस समय जलमें खड़े होकर सन्ध्या कर रहे थे । उन्होंने अपनेको अधिरथका पुत्र कहकर मुझे प्रणाम किया । मैंने उन्हें बताया कि वे मेरे पुत्र हैं । भगवान् सूर्यने स्पष्ट वाणीमें मेरा समर्थन किया । मैंने अनुरोध किया कि वे पाण्डवोंके पक्ष में आ जायें । हाय ! मेरे पुत्रने अधिरथके उपकारोंका स्मरण करके इस सत्यको स्वीकार करके भी मानना नहीं चाहा उसने किसी भी प्रकार दुर्योधनका पक्ष छोड़ना स्वीकार नहीं किया । उसने मुझसे वचन ले लिया कि मैं इस बातको छिपाये रहूँगी । माताका आदर करनेके लिये उसने प्रतिज्ञा की कि युद्धमें अर्जुनके अतिरिक्त किसी पाण्डवको मारनेमें समर्थ होकर भी वह नहीं मारेगा । अपनी प्रतिज्ञाका अन्ततक उसने निर्वाह किया । ' माता कुन्तीने रोते हुए बताया । ' माता ! तुमने यह बात छिपाकर हमारे हाथों बहुत बड़ा अनर्थ करा डाला । मैं शाप देता हूँ कि अबसेस्त्रियाँ कोई बात छिपा नहीं सकेंगी । शोकार्त धर्मराजने शाप दिया । विधिपूर्वक उन्होंने कर्णकी अन्त्येष्टि क्रिया की । विपदः भवतो सन्तु नः शश्वत् तंत्र तत्र जगद्गुरो । यत्स्यादपुनर्भवदर्शनम् ॥ दर्शनं ' हे जगद्गुरु हे सर्वेश्वर ! मुझपर बार - बार विपत्तियाँ आयें ; क्योंकि उनमें आपका दर्शन , स्मरण होता है , जो मोक्षको देनेवाला है । ' माता कुन्तीने भगवान् श्रीकृष्णसे यह वरदान माँगा , जब वे हस्तिनापुरसे युद्धकी समाप्तिके पश्चात् द्वारका जाने लगे । विपत्तिका वरदान माता कुन्तीने बराबर विपत्तियों में रहकर यह अनुभव कर लिया था कि भगवान्‌का सच्चा स्मरण विपत्तिमें ही होता है । राज्य प्राप्त करके पाण्डवोंने धृतराष्ट्रका वही सम्मान रखा , जो पहले था । धृतराष्ट्रकी आज्ञासे ही वे सब कार्य करते थे । पन्द्रह वर्षोतक पाण्डवोंने धृतराष्ट्रके संरक्षणमें राज्यकार्य किया कुन्तीजीने सदा गान्धारीके अनुकूल आचरण किया और उनकी सेवामें लगी रहीं । अन्तमें धृतराष्ट्रने वनमें सपत्नीक रहकर तपस्या करनेका निश्चय किया । महर्षि व्यासके समझानेपर युधिष्ठिरने उनके वनवासके लिये सम्मति दे दी । अन्तमें पुत्रोंका श्राद्ध करके धृतराष्ट्र वनको चले । पाण्डव , सभी पाण्डवोंकी पत्नियाँ और परिजन पहुँचाने चले । माता कुन्ती गान्धारीका हाथ पकड़े आगे - आगे चल रही थीं । युधिष्ठिर , भीम आदिने मातासे लौटने के लिये बहुत प्रार्थना की , पर कुन्ती अपने निश्चयपर अटल रहीं ।। धृतराष्ट्र तथा गान्धारीने भी कुन्तीको लौटनेका आदेश दिया , अनेक प्रयत्न किये , किंतु असफल हुए । सती कुन्ती वनवासका निश्चय कर चुकी थीं । गान्धारी उन्हें किसी प्रकार लौटा न सकीं । वनमें कुशकी चटाईपर गान्धारीके साथ माता कुत्ती रात्रिमें सो रहती थीं । वही जल तथा कन्द - मूल लाती थीं । आश्रम भी वही स्वच्छ करती थीं । सब प्रकारसे वे धृतराष्ट्र तथा गान्धारीकी सावधानीपूर्वक सेवा करती थीं । स्वयं अनेक प्रकारके व्रत - उपवास किया करती थीं । तीनों समय स्नान करके पतिका स्मरण करतीं । इस प्रकार बनमें अपना समय वे व्यतीत करने लगीं । वनमें युधिष्ठिर एक बार सपरिवार पूरे समाजके साथ मातृदर्शनके लिये पधारे । इसी समय वहाँ भगवान् व्यास भी आये । धृतराष्ट्रने भगवान् व्याससे अपने मृत पुत्रोंको देखनेकी इच्छा प्रकट की । माता कुन्तीने भी कर्णको देखना चाहा । योगबलसे व्यासजीने सभी मृत पुरुषोंको दिखा दिया पूरी रात्रि वे मृतजन पाण्डवोंके साथ मिलते - जुलते तथा क्रीड़ा करते रहे । प्रातः गंगामें वे अदृश्य हो गये । भगवान् व्यासने आदेश दिया ' जो स्त्रियाँ पतियोंके समीप जाना चाहें , वे गंगामें डुबकी लगा लें । ' पाण्डवोंके हस्तिनापुर लौट आनेपर कुन्तीजी गान्धारी तथा धृतराष्ट्रके साथ हरिद्वार चली गयीं । वहाँ तोनों कठोर व्रतोंका आचरण करने लगे । एक दिन वनमें दावाग्नि लगी देख तीनोंने आसन लगाया । योगके द्वारा प्राणनिरोध करके उन्होंने शरीर छोड़ दिया । उनका वह शरीर दावाग्निकी भेंट हो गया । देवी कुन्तीजीके विषयमें श्रीप्रियादासजी एक कवित्तमें इस प्रकार कहते हैं कुन्ती करतूति ऐसी करै कौन भूत प्राणी मांगति विपति जासों भाजैं सब जन हैं । देख्यो मुख चाहो लाल देखे बिन हिये शाल हूजिये कृपाल नहीं दीजै वास वन हैं । देखि विकलाई प्रभु आँखि भर आई फेरि घर ही को लाई कृष्ण प्राण तन धन हैं । श्रवण वियोग सुनि तनक न रह्यो गयो भयो वपु न्यारो अहो यही साँचो पन हैं ॥ अर्थात् इस संसारमें ऐसा कौन प्राणी है , जो श्रीकुन्तीजीके समान भगवान्‌में प्रीति करे । जिस विपत्तिसे सभी लोग दूर भागते हैं , उसे कुन्तीजीने भगवान् से माँगा कि मुझपर सदा विपत्ति रहे , जिसमें आपका दर्शन होता है । हे लालन । मैं सदा तुम्हारे मुखारविन्दका दर्शन करना चाहती हूँ , बिना दर्शनों के हृदय में शूल लगने के समान दुःख होता है या तो आप निकट रहकर सदा दर्शन दीजिये , नहीं तो विपत्तिरूप वनवास दीजिये । ऐसी व्याकुलता देखकर भगवान्‌की आँखों में आँसू आ गये । द्वारकाको प्रस्थान करते हुए श्रीकृष्णको फिर घरको ही लौटा लायीं । श्रीकृष्ण कुन्तीके तन , धन और प्राण थे । भूमिका भार उतारकर भगवान् निजधामको चले गये - यह सुनते ही उनके वियोग में कुन्तीजीसे थोड़ा भी नहीं रहा गया । तुरंत शरीर छूट गया । वे भगवद्धामको चली गयीं । धन्य है , यही सच्चा प्रेमप्रण है।

हरिशरणम हरिशरणम हरिशरणम  ।

महारानी भक्ति मति श्री कुन्ती  जी का यह दिव्य चरित्र  निश्चय ही श्री कृष्ण मे प्रीति बढाने वाली है । अपनी राय लिखें ।


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