भक्ति मति सुश्री द्रौपदी जी

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                                    भक्तिमति  सुश्री  द्रौपदी जी      

द्रोणाचार्यको गुरुदक्षिणा देनेके लिये अर्जुनने द्रुपदको पराजित कर दिया । यद्यपि आचार्य द्रोणने द्रुपदको पाशमुक्त करके केवल आधा राज्य लेकर मित्र बना लिया , परंतु वे इस अपमानको भूल न सके । द्रुपद ने द्रोणसे बदला लेनेके लिये यज्ञ करके संतान प्राप्तिका निश्चय किया । कल्माषी नगरीके तपस्वी , वेदज्ञ ब्राह्मण उपयाजकी उन्होंने अर्चना की । उनको प्रसन्न करके प्रार्थना की कि द्रोणको मारनेवाले पुत्रकी मुझे प्राप्ति हो , ऐसा यज्ञ करायें । उपयाजने प्रार्थना अस्वीकार कर दी । महाराजने पुनः एक वर्ष सेवा की । इससे प्रसन्न होकर उन विप्रदेवने कहा — ' मैंने अपने अग्रजको भूमिमें पड़ा पका फल उठाकर ग्रहण करते एक बार देखा है । मैंने इससे समझा है कि वे द्रव्यको शुद्धि - अशुद्धिका विचार नहीं करते । आप उनसे प्रार्थना करें । ' महाराज द्रुपदने उनके अग्रज याजको सेवासे प्रसन्न किया । दस करोड़ गायोंकी दक्षिणाका प्रलोभन थोड़ा नहीं था । याजने महाराजके नगरमें आकर सविधि यज्ञ कराया ।

यज्ञकी पूर्णाहुतिके समय उससे मुकुट , कुण्डल , कवच , त्रोण तथा धनुष धारण किये एक कुमार प्रकट हुआ । इस कुमारका नाम याजने धृष्टद्युम्न रखा । महाभारतके युद्धमें पाण्डवपक्षका पूरे युद्धमें यही कुमार सेनापति रहा । यज्ञकुण्डसे एक कुमारी भी प्रकट हुई । वह युवती थी । उसका वर्ण श्याम था । उसके समान रूपवती दूसरी स्त्री हो नहीं सकती । उसके शरीरसे प्रफुल्ल नील कमलकी गन्ध निकलकर कोसभरतक दिशाओंको सुरभित कर रही थी । वर्णके कारण याजने उसका नाम ' कृष्णा ' रखा । इस रूपमें ऋषिकुमारी गुणवती अग्निवेदीसे प्रकट हुई थीं और महाकालीने अंशरूपसे क्षत्रिय - विनाशके लिये उनमें प्रवेश किया था । महाराज द्रुपदकी महारानीने याजसे प्रार्थना की कि ये दोनों मुझे ही माता समझें और याजने ' एवमस्तु ' कह दिया ।। एकचक्रा नगरीमें ही पाण्डवोंको अपने आश्रयदाता ब्राह्मणसे ज्ञात हो गया कि महाराज द्रुपद अपनी पुत्रीका स्वयंवर कर रहे हैं । भगवान् व्यासने आकर आदेश दिया और उसे स्वीकारकर पाण्डव ब्राह्मणवेषमें पांचाल पहुंचे । वहाँ वे एक कुम्हारके घर ठहरे । स्वयंवर सभामें भी वे ब्राह्मणोंके साथ बैठे । उनके वेष ब्राह्मणोंके समान थे । महाराज द्रुपदने सभाभवनमें ऊपर एक यन्त्र बना रखा था । यन्त्र घूमता रहता था । उसके मध्य में एक मत्स्य बना था । नीचे तैलपूर्ण कड़ाह था । तैलमें छाया देखते हुए घूमते चक्रके मध्यस्थ मत्स्यको पाँच बाणोंसे मारना था । जो ऐसा कर सके , उसीसे द्रौपदीके विवाहकी घोषणा थी । इस कार्यके लिये जो सुदीर्घ धनुष रखा था , वह इतना कठोर और भारी था कि बहुत से राजा तो उसे उठानेमें हो असमर्थ हो गये । जरासन्ध शिशुपाल शल्य उसपर ज्या चढ़ानेके प्रयत्नमें दूर गिर पड़े । केवल कर्णने धनुष चढ़ाया । वह बाण मारने ही जा रहा था कि द्रौपदीने पुकारकर कहा- ' मैं सूतपुत्रका वरण नहीं करूंगी । '

अपमानसे तिलमिलाकर सूर्यकी ओर देखते हुए कर्णने धनुष रख दिया । राजाओंके निराश होनेपर अर्जुन उठे । उन्हें ब्राह्मण जानकर विप्रवर्गने प्रसन्नता प्रकट की । धनुष चढ़ाकर अर्जुनने मत्स्यवेध किया । द्रौपदीने जयमाल डाली । राजाओंने एक ब्राह्मणसे द्रौपदीका विवाह होते देख द्रुपद और पाण्डवोंपर आक्रमण कर दिया । अर्जुनने धनुष चढ़ा लिया । एक वृक्ष लेकर भीमसेन टूट पड़े । अर्जुनसे युद्ध करके कर्णने शीघ्र समझ लिया कि वे अज्ञेय हैं । उन्हें ब्राह्मण समझकर वह युद्धसे हट गया । उधर भीमने शल्यको दे पटका । इससे सभी नरेश युद्धसे पृथक् होने लगे । श्रीकृष्णने पाण्डवोंको पहचान लिया था । अतः उन्होंने समझा - बुझाकर राजाओंको शान्त कर दिया । ' मा ! हम एक भिक्षा लाये हैं । द्रौपदीको लेकर घर पहुँचनेपर अर्जुनने कहा । ' पाँचों भाई उसे बाँट लो । ' बिना देखे ही घरमेंसे माता कुन्तीने कह दिया । कुन्तीने बाहर आकर द्रौपदीको देखा तो बड़ा पश्चात्ताप हुआ । वे युधिष्ठिरसे अनुनय करने लगीं । ' मैंने कभी मिथ्याभाषण नहीं किया है । मेरे इस वचनने मुझे धर्मसंकटमें डाल दिया । बेटा ! मुझे अधर्मसे बचा । ' ' धर्मपूर्वक तुमने पांचालीको प्राप्त किया है , अतः तुम इससे विवाह करो । ' धर्मराजने अर्जुनसे कहा । ' बड़े भाईके अविवाहित रहते छोटे भाईका विवाह करना अधर्म है । आप मुझे अधर्ममें प्रेरित न करें । द्रौपदीके साथ आपका विवाह ही उचित है । अर्जुनने नम्रतापूर्वक प्रतिवाद किया । युधिष्ठिरने देखा कि सभी भाई द्रौपदीके अलौकिक सौन्दर्यपर मुग्ध हैं । सभी उसे प्राप्त करना चाहते हैं । उन्होंने कहा- ' माताके सत्यकी रक्षाके लिये हम पाँचों भाई इससे विवाह करेंगे । यह महाभागा हम सबकी समान रूपसे पत्नी होगी । ' श्रीकृष्णने आकर पाण्डवोंसे साक्षात् किया और उनसे सत्कृत होकर द्वारका गये । महाराज द्रुपदने पाण्डवोंके पीछे - पीछे धृष्टद्युम्नको भेजा था , उनका परिचय प्राप्त करनेके लिये । धृष्टद्युम्नने गुप्तरूपसे निरीक्षण करके लौटकर पितासे बताया कि लक्षणोंसे वे पाँचों भाई शूरवीर क्षत्रिय जान पड़ते हैं । महाराजके आमन्त्रणपर माताके साथ पाँचों भाई राजसदन गये । महाराजने उनका विविध प्रकारसे सत्कार किया । वे परिचय पाकर अत्यन्त प्रसन्न हुए । उनकी चिर अभिलाषा कि उनकी कन्या अर्जुनको प्राप्त हो , पूर्ण जो हुई थी । द्रौपदी पाँचों भाइयोंकी पत्नी हो , यह एक धर्म और समाजके विरुद्ध बात थी , जो किसी प्रकार द्रुपदको स्वीकार नहीं थी । भगवान् व्यासने आकर द्रौपदीके पूर्वजन्मका चरित बताकर समझाया । महाराज द्रुपदने स्वीकार किया । विधिपूर्वक क्रमशः एक - एक दिन पाँचों भाइयोंने पांचालीका पाणिग्रहण किया । चरोंद्वारा सभी राजाओंको पता लग चुका था कि लाक्षाभवनसे पाण्डव जीवित निकल गये हैं और द्रुपदराजतनयाका विवाह उन्हींसे हुआ है । कौरवोंने यह समाचार पाकर पहले तो कर्णकी सलाहसे आक्रमण करना चाहा , किंतु द्वारकासे ससैन्य श्रीकृष्ण सहायता कर सकते हैं और राज्य दिलाने आ सकते हैं भीष्मपितामहके यह समझानेपर धृतराष्ट्रने विदुरको भेजकर सम्मानपूर्वक उन्हें बुला लिया । एक साथ रहनेसे संघर्ष होगा , इस भयसे आधा राज्य देकर युधिष्ठिरकी राजधानी इन्द्रप्रस्थ बना दी गयी । माता कुन्तीके साथ पाण्डव वहाँ रहने लगे । देवर्षि नारदने पाण्डवोंको सुन्द - उपसुन्दकी कथा सुनाकर समझाया कि पत्नीके कारण भाइयोंका प्रगाढ़ प्रेम भी शत्रुतामें परिवर्तित हो जाता है । पाण्डवोंने देवर्षिके उपदेशसे यह नियम किया कि प्रत्येक भाई एक पक्षतक द्रौपदीके साथ रहे । एक भाई द्रौपदीके साथ जब अन्तःपुरमें हो और उस समय दूसरा भाई अन्तःपुरमें प्रवेश करे तो वह प्रायश्चित्तस्वरूप बारह वर्ष तीर्थाटन करे । एक बारया और वहाँ धर्मदाज द्रौपदसला की रक्षा को और देवराहुए कहते है द्रौपदी सती की बात करें कौन ऐसो पद खेचत होको भये हैं । द्वारका के नाथ जब बोली सब साथ हुने द्वारका सदभक्त नये हैं ऋषिवन में पाये धर्मपुत्र बोले विनयस है । भोजन निवारि लिया आइ कड़ी सोच पोचाई तनु त्याग्यों को कृष्ण कहूँ गये है । श्रीकृष्णचन्द्रको कृपासे महाराज सूकरके हुई औ ल ने मारा निर्मित राजसभा प्राप्त को दिन सम्राट् हो गये । यज्ञ समाप्त हो जानेर एक द रहा था । पके अद्भुत शिल्पके कारण भ्रान्त होकर उसने स्थलको जल और गेको स्थलसमझकर बड़ा जा रहा था कि उसमें दिए पड़ा । सभी वस्त्र द्रौपदीको हंसी आ गयी । दुर्योधनको अत्यन्त अपमालका अनुभव हुआ । यह उ बदला लेनेके लिये अपने मामा शनिसे मना करके उसने धर्मको खेलने जुआ खेलनेको आज्ञा दे दो । द्यूत प्रारम्भ हुआ । नपा फेंक रहा था । कपटपूर्ण जाल धर्मराज हारते गये धनराज्य कोष - सभी हारपरके उन्माद अगली बाजी आशा वे अपने एक - एक भाइयोंको लगाते गये दविपर अन्त में अपनेको हार गये प्रोत्साहित किया और द्रौपदी पर लगी बाजी तो हाली थी हो । बड़े दुर्योधनने दूतको आदेश दिया - जा और द्रौपदीको यहाँ पकड़ ला । अब वह हमा रजस्वला थी . यह सुनकर तो उनके दुःखका पार नहीं रहा । दूत उन्हें नसाको आदेश गया । भागकर गान्धारीके यहाँ जानेपर भी वह दुष्ट उनके केशोंको पकड़कर घसीटता हुआ राजसभामें ले आया । वे अन्त करुण स्वरसे विलाप कर रही थी । प उन्हें अनेक पतियोंकी पत्नी और पन्या कहकर अपमानित किया । पाण्डमस्तक नीचे किये की द्रौपदीकी पुकार और कार उनके कान सुनने में असमर्थ से थे । * धर्मराजने पहले अपनेको दाँवपर हा या मुझे पहले अपनेको दविपर हार जानेके पश्च लगानेका उन्हें क्या अधिकार रह गया था ? बड़े करुणस्ने सबसे को कृप आदि सबने मस्तक झुका लिया था दुर्योधनद्वारा अपमानित होनेके भवसे सब मौन हो रहे थे । ‘ दुःशासन । देखते क्या हो । इसका वस्त्र उतार लो और निर्वस्त्र करके यहाँ बैठा दो । ' दुर्योध वाम या वस्त्रहीन करके दिखायी कर्णने स्वयंवर सकेमा करते हुए दुर्योधनका समर्थन किया । दुःशासनने साड़ीका अंचल पकड़ लिया । अब क्या होक इस प्रकार नष्ट हो जायगी ? द्रौपदीने कातर होकर चारों ओर देखा सबके मस्तक प्रोत्साहन दे रहायोंसे वस्त्र दबाने का प्रयत्न व्यर्थ था थे । अ थे । दस साहस हादियोंके बलवाला दुःशासन साड़ीको खाँचने लगा । द्रौपदीने बन्द कर लिये वृष्टि हो रही थी । दोनों हाथ ऊपर उठाकर उन्होंने पुकाराहे कृष्ण ! हे द्वारकानाथ ! हे करुणावरुणालय ! दौड़ो कौरवोंके समुद्र में मेरी लज्जा डूब रही है । रक्षा करो । रक्षा करो । " द्रौपदीको शरीरका भान भूल गया । दीनबन्धुका वस्त्रावतार हो चुका था । दुःशासन पसीने - पसीने हो रहा था । रंग - बिरंगे वस्त्रोंका पर्वत लग गया था । उस दस हाथकी साड़ीका ओर छोर नहीं था सब एकटक आश्चर्षसे देख रहे थे । ' महाराज बहुत हो गया । शीघ्र द्रौपदीको सन्तुष्ट कीजिये । नहीं तो श्रीकृष्णके चक्रके प्रकट होकर आपके पुत्रोंको काट डालनेमें अधिक विलम्ब नहीं जान पड़ता । ' विदुरने अन्धे राजा धृतराष्ट्रको पूरा वर्णन सुनाया । धृतराष्ट्र भयसे काँप गये । उन्होंने प्रेमसे द्रौपदीको समीप बुलाया । पुत्रोंके अपराधके लिये क्षमा याचना की । पाण्डवोंको द्रौपदीके साथ दासत्वसे मुक्त करके हारा हुआ राज्य तथा धन लौटा दिया । ' जो हार जाय , वह भाइयों तथा स्त्रीके साथ बारह वर्ष वनमें रहे । वनवासके अन्तिम वर्ष में वह गुप्त रहे । यदि उसका पता लग जाय तो पुनः बारह वर्ष वनमें रहे । ' दुर्योधनने पिताकी उदारतासे दुखी होकर किसी प्रकार केवल एक बाजी और खेलनेकी आज्ञा प्राप्त की । युधिष्ठिर इस नियमपर पुनः द्यूतमें हार गये । माता कुन्तीको विदुरके घर छोड़कर वे द्रौपदीके साथ वनमें चले गये । दुखी , उदास पाण्डवोंके साथ प्रजा बहुत से लोग साथ चले । वे तो किसी प्रकार लौटा दिये गये , किंतु कुछ ब्राह्मण ग्यारह वर्षतक उनके साथ वनमें रहे । गुप्तवास प्रारम्भ होनेपर वे विदा हुए ।  राजसूय यज्ञकी समाप्तिपर ही श्रीकृष्णचन्द्र द्वारका चले गये थे । शाल्वने अपने कामचारी विमान सौभके द्वारा उत्पात मचा रखा था । पहुँचते ही केशवने शाल्वपर आक्रमण किया । सौभको गदाघातसे चूर्ण करके , शाल्व तथा उसके सैनिकोंको यमराजके घर भेजकर जब वे द्वारकामें लौटे तो उन्हें पाण्डवोंके जुएमें हारनेका समाचार मिला । वे सीधे हस्तिनापुर आये और वहाँसे जहाँ वनमें पाण्डव अपनी स्त्रियों , बालकों तथा प्रजावर्ग एवं विप्रोंके साथ थे , पहुँचे । पाण्डवोंसे मिलकर उन्होंने कौरवोंके प्रति रोष प्रकट किया ।  द्रौपदीने श्रीकृष्णसे वहाँ कहा- ' मधुसूदन ! मैंने महर्षि असित और देवलसे सुना है कि आप ही सृष्टिकर्ता हैं । परशुरामजीने बताया था कि आप साक्षात् अपराजित विष्णु हैं । आप ही यज्ञ , ऋषि , देवता तथा पंचभूतस्वरूप हैं । जगत् आपके एक अंशमें स्थित है । त्रिलोकीमें आप व्याप्त हैं । निर्मलहृदय महर्षियोंके हृदय में आप ही स्फुरित होते हैं । आप ही ज्ञानियों तथा योगियोंकी परम गति हैं । आप विभु हैं , सर्वात्मा हैं , आपकी शक्तिसे ही सबको शक्ति प्राप्त होती है । आप ही मृत्यु जीवन एवं कर्मके अधिष्ठाता हैं । आप हो परमेश्वर हैं । मैं अपना दुःख आपसे न कहूँ तो किससे कहूँ ? ' द्रौपदीके नेत्रोंसे अश्रु गिरने लगे । वे कह रही थीं — ' मैं महापराक्रमी पाण्डवोंकी पत्नी , धृष्टद्युम्नको बहन और आपकी सखी हूँ । कौरवोंकी भरी सभामें मेरे केश पकड़कर मुझे घसीटा गया । मैं एकवस्त्रा रजस्वला थी , मुझे नग्न करनेका प्रयत्न किया गया । ये अर्जुन और भीम मेरी रक्षा न कर सके । इसी नीच दुर्योधनने भीमको विष देकर जलमें बाँधकर फेंक दिया था । इसी दुष्टने पाण्डवोंको लाक्षाभवनमें भस्म करनेका प्रयत्न किया । इसी पिशाचने मेरे केश पकड़कर घसिटवाया और आज भी वह जीवित है । ' पांचाली फूट - फूटकर रोने लगीं । उनकी वाणी अस्पष्ट हो गयी । वे श्रीकृष्णको उलाहना दे रही थीं ' तुम मेरे सम्बन्धी हो , मैं अग्निसे उत्पन्न गौरवमयी स्त्री हूँ तुमपर मेरा पवित्र अनुराग है , तुमपर मेरा अधिकार है और रक्षा करनेमें तुम समर्थ हो । तुम्हारे रहते मेरी यह दशा हो रही है ।भक्तवत्सल और न सुन सके । उन्होंने कहा- ' कल्याणी ! जिनपर तुम रुष्ट हुई हो , उनका जीवन समाप्त हुआ समझो । उनकी स्त्रियाँ भी इसी प्रकार रोयेंगी और उनके अश्रु सूखनेका मार्ग नष्ट हो चुका रहेगा । थोड़े दिनोंमें अर्जुनके बाणोंसे गिरकर वे शृगाल और कुत्तोंके आहार बनेंगे । मैं प्रतिज्ञा करता हूँ कि सम्राज्ञी बनकर रहोगी । आकाश फट जाय , समुद्र सूख जाये , हिमालय चूर हा जाय , पर मेरा बात असल्य तुम न होगी । " द्रौपदीने अर्जुनकी ओर देखा । अर्जुनने अपने सखाकी बातका समर्थन किया । श्रीकृष्ण अपने साथ सुभद्रा और अभिमन्युको लेकर द्वारका गये । धृष्टद्युम्न द्रौपदीके पुत्रोंको पांचाल ले गये । सभी आगत राजा अपने अपने देशोंको लौट गये । विनयपूर्वक धर्मराजने प्रजावर्गको लौटा दिया । 

 वनमें भगवान् श्रीकृष्ण पाण्डवोंसे मिलने सत्यभामाजीके साथ आये थे । एकान्तमें सत्यभामाने कृष्णा पूछा — ' बहन ! तुम्हारे पति लोकपालोंके समान शूर हैं । तुम ऐसा क्या व्यवहार करती हो कि वे तुमपर कभी रुष्ट नहीं होते ? वे तुमसे सदा प्रसन्न ही रहते हैं । वे सदा तुम्हारे वशमें क्यों रहते हैं ? मुझे भी तुम कोई ऐसा व्रत , तए तीर्थ , मन्त्र , औषधि , विद्या , जप , हवन या उपचार बताओ , जिससे श्यामसुन्दर सदा मेरे वशमें रहें । द्रौपदीने कुछ स्नेह - रोषपूर्वक कहा - ' सत्ये । तुम तो मुझसे दुराचारिणी स्त्रियोंकी बात पूछ रही हो । मैं ऐसी स्त्रियोंको बात क्या जानूँ । मुझपर ऐसी शंका करना तुम्हारे लिये उचित नहीं । जब पति जान लेता है कि पत्नी उसे वशमें करनेके लिये मन्त्र - तन्त्र कर रही है तो वह उससे डरकर दूर रहने लगता है । इस प्रकार चित्तमें उद् वेग होता है और तब शान्ति कैसे रह सकती है ? तन्त्र - मन्त्रादिसे कभी पति वशमें नहीं । किया जा सकता । इससे तो अनर्थ ही होते हैं । धूर्तलोग स्त्रियोंद्वारा पतिको ऐसी वस्तुएँ खिला देते हैं , जिससे भयंकर रोग हो जाते हैं । पतिके शत्रु इसी बहाने विष दिला देते हैं । ऐसी स्त्रियाँ मूर्खतावश पतिको जलोदर , कुष्ठ , अकालवार्धक्य , नपुंसकता , उन्माद या बधिरता - जैसे रोगोंका रोगी बना देती हैं । पापियोंकी बातें माननेवाली पापी नारियाँ इस प्रकार पतिको अनेक कष्ट देती हैं । साध्वी स्त्रीको भूलकर भी ऐसा प्रयत्न नहीं करना चाहिये । द्रौपदीने इसके पश्चात् अपनी चर्या बतायी- ' मैं अहंकार और क्रोध छोड़कर पाण्डवोंकी तथा उनको दूसरी स्त्रियों की सावधानी से सेवा करती हूँ कभी ईर्ष्या नहीं करती । केवल सेवाके लिये मनको वशमें करके पतियोंके अनुकूल रहती हूँ । न तो अभिमान करती हूँ और न कभी कटुभाषण । असभ्यतासे खड़ी नहीं होती , बुरे स्थानपर बैठती नहीं , बुरी बातोंपर दृष्टि नहीं देती और पतियोंका दोष न देखकर उनके संकेतोंके अनुसार व्यवहार करती हूँ । कितना भी सुन्दर पुरुष हो , मेरा मन पतियोंके अतिरिक्त उधर नहीं जाता । पतियोंके स्नान भोजन किये बिना मैं स्नान या भोजन नहीं करती । उनके बैठ जानेपर ही बैठती हूँ और उनके घरमें आनेपर उठकर आदरपूर्वक उनको आसन तथा जल देती हूँ । घरके बर्तनोंको स्वच्छ रखती हूँ , सावधानीसे रसोई बनाती हूँ , समयपर भोजन कराती हूँ । घरको स्वच्छ रखती हूँ तथा गुप्तरूपसे अन्नका संचय रखती हूँ । कभी किसीका तिरस्कार नहीं करती , दुष्टा स्त्रियोंके पासतक नहीं जाती । द्वारपर बार - बार नहीं खड़ी होती , कूड़ा फेंकनेके स्थानपर अधिक नहीं ठहरती । पतिसे पृथक् रहना मुझे पसंद नहीं । पतियोंके घरसे कार्यवश बाहर जानेपर पुष्प , चन्दनका उपयोग छोड़कर व्रत करती हूँ । मेरे पति जिन वस्तुओंको खाते , पीते या सेवन रहती हूँ । नहीं करते , उनसे दूर रहती हूँ । स्त्रियोंके शास्त्रविहित सब व्रत करती हूँ । अपनेको सदा वस्त्रालंकारसे सजाये रहती हुं ।

द्रौपदी ने और भी बताया- ' मेरो पूज्या सामने जो भी कौटुम्बिक धर्म बताये हैं , सबका पालन करती हूँ । भिक्षा देना , अतिथि सत्कार , बाद्ध तथा त्योहारोंपर पक्वान बनाना , माननीयोंका सत्कार आदि सब धर्म सावधानी से पालन करती हूँ । पतियोंसे अच्छा भोजन , अच्छे वस्त्र में कभी ग्रहण नहीं करती । उनसे ऊंचे आसनपर नहीं बैठती । सासजीसे विवाद नहीं करती । सदा अपनी वीरमाता सासको भोजन - वस्त्रसे सेवा करती हूँ । उनकी कभी वस्त्र , भूषण या जलमें उपेक्षा नहीं करती । सबसे पीछे सोती हूँ , सबसे पहले शम्या छोड़ देती हूँ । धर्मराजके भवनमें प्रतिदिन आठ सहल ब्राह्मण स्वर्णपात्र में भोजन करते थे । महाराज अड्ढासी सहस का भरण - पोषण करते थे । दस सहस दासियाँ उनके थीं । मुझे सबके नाम , रूप , भोजन - वस्त्रका पता रहता था । मैं दासियोंके सम्बन्ध में पता रखती थी कि किसने क्या काम कर लिया है और क्या नहीं । महाराज के पास एक लक्ष घोड़े और इतने ही हाथी थे । उनका भी मैं हो प्रबन्ध करती थी । उनकी गणना करती आवश्यकताएँ सुनती और अन्तःपुरके ग्वालों , गड़रियों तथा सेवकोंको देख - भाल करती । ' महारानी द्रौपदोके कार्य यहीं नहीं समाप्त हो जाते , वे और बताती हैं - ' महाराजके आय - व्ययका हिसाब रखती थी । मेरे पति कुटुम्बका सारा भार छोड़कर पूजा - पाठ या आगतोंका सत्कार करते थे । पूरे परिवारको देख - भाल मैं ही करती थी । वरुणके समान महाराजके अटूट खजानेका पता भी मुझे ही रहता था । भूख - प्यास सहकर रात - दिन एक करके मैं सदा पाण्डवोंके हितमें लगी रहती थी । मुझे तो पतियोंको वश करनेका भी यही उपाय ज्ञात है । " रहो महारानी कृष्णा सचमुच गृहस्वामिनी थीं । सत्यभामाने उनसे क्षमा माँगी । विदा होते समय पांचालीने उन्हें पतिको वश करनेका निर्दोष मार्ग बतलाते हुए कहा- ' तुम सुहृदता , प्रेम , परिचर्या , कार्यकुशलता तथा विविध प्रकारके पुष्प- चन्दनादिसे श्रीकृष्णकी सेवा करो । वही काम करो , जिससे वे समझें कि तुम एकमात्र उन्हींको प्रिय मानती हो । उनके आनेकी आहट पाते ही आँगनमें खड़ी होकर स्वागतको उद्यत रहो । आते ही आसन और पैर धोनेको जल दो । वे दासीको कोई आज्ञा दें तो वह काम स्वयं कर डालो । तुमसे यदि कोई गुप्त रखनेयोग्य बात पतिदेव कहें तो उसे किसीसे मत कहो । पतिके मित्रों तथा हितैषियोंको भोजनादिसे सन्तुष्ट करो तथा पतिके शत्रु द्वेषी , तटस्थ लोगोंसे दूर रहो । सपलियोंके पुत्रोंके साथ भी एकान्तमें मत बैठो । कुलीन , दोषरहित सती स्त्रियोंका ही साथ करो । क्रूर , झगड़ालू , पेटू , चोर , दुष्टा तथा चंचल स्वभावकी स्त्रियों से दूर रहो । इस प्रकारसे सब प्रकार पतिकी सेवा करनेसे तुम्हारे यश और सौभाग्यकी वृद्धि होगी । तथा अन्तमें स्वर्ग प्राप्त होगा । तुम्हारे विरोधी शमित हो जायेंगे । 

कृष्णे ! मैं बहुत दूरसे आया हूँ  । थक गया हूँ । बड़ी भूख लगी है । अपना गृहप्रबन्ध पीछे करना , पहले मुझे कुछ खानेको दो । ' सहसा श्यामसुन्दरने प्रवेश करके कहा । पाण्डवोंने आश्चर्य से देखा था कि अकस्मात् दारुकके रथ रोकते ही श्रीकृष्ण कूदकर पर्णकुटीमें चले गये । उन्होंने धर्मराजको अभिवादनतक नहीं किया ।को हो ' तुम तो जानते ही हो कि साथके विप्रोंको भोजन देनेके लिये महाराजने तपस्या करके सूर्यनारायण से एक पात्र प्राप्त किया है । उसी पात्रसे विविध पक्वान्न निकलता है और उसीसे हम सबका काम चलता है । मेरे भोजनके पश्चात् वह पात्र रिक्त हो जाता है । मैंने भोजन कर लिया है । पात्र धोकर रख दिया है अब क्या हो ? ' द्रौपदीने बड़ी खिन्नतासे कहा । ' मैं तो भूखसे व्याकुल हो रहा हूँ और तुम्हें हँसी सूझती है । मैं कुछ नहीं जानता ; लाओ , कुछ खिलाओ ! ' नकली रोषसे लीलामयने कहा । द्रौपदीका भय दूर हो गया था । उसने प्रार्थना की । ' मेरे पतियोंके समीप दस सहस्र शिष्योंके साथ महर्षि दुर्वासा आये हैं । धर्मराजने उन्हें आतिथ्यको आमन्त्रित कर दिया है । स्नान - सन्ध्या करने वे सरोवर गये हैं । लौटनेपर उन्हें अन्न न मिला तो शाप देकर पाण्डवोंको भस्म कर देंगे । इसी संकटमें पड़कर मन ही - मन तुम्हारा स्मरण करते हुए मैं रो रही थी । तुमने मुझ दुखियाकी पुकार सुन ली । अब अपने पाण्डवोंकी रक्षा करो !! ' यह सब पचड़ा पीछे ; पहले लाओ , अपना वह पात्र दो । ' श्रीकृष्ण झुंझलाये । ' लो ! तुम्हीं देख लो । ' द्रौपदीने पात्र लाकर दे दिया । भगवान्की लीला , भली प्रकार सावधानी से स्वच्छ किये उस पात्रमें भी शाकका एक पत्ता चिपका निकल आया । ' यज्ञभोक्ता सर्वात्मा इससे तृप्त हों ! ' माधवने वह पत्ता उठाकर मुखमें डाल लिया । अब यह पुनः भोजनक्रम प्रारम्भ हो गया था , अतः पात्र भर गया । उसे तो अब द्रौपदीके भोजन न करनेतक अन्न देते रहना था । ' जाओ ! ऋषियोंको बुला लाओ ! ' श्रीकृष्णने सहदेवको बाहर आकर आज्ञा दी । वहाँ जलमें खड़े ऋषियोंका उदर विश्वात्मा श्रीकृष्णके मुखमें शाक डालते ही भर गया था । खट्टी डकारें आ रही थीं । दुर्वासाजीने सोचा कि युधिष्ठिर अन्न प्रस्तुत करेंगे , अब हम भोजन तो कर नहीं सकते । कहीं अन्न व्यर्थ नष्ट होता देख धर्मराज रुष्ट हो गये तो लेनेके देने पड़ जायँगे । धर्मराज भगवान्‌के सच्चे भक्त हैं । महर्षिको अभी अम्बरीषपर रुष्ट होकर कष्ट पानेकी घटना भूली नहीं थी । उन्होंने भागनेमें ही कल्याण समझा । सहदेवने लौटकर बताया कि वहाँ कोई नहीं है । ' महर्षि कहीं अर्धरात्रिको आकर अन्न न माँगें । ' प्राण्डव चिन्तित हो गये । ' दुर्वासा अब नहीं आयेंगे । दुष्ट दुर्योधनने अपनी सेवासे प्रसन्न करके उनसे वरदान ले लिया था कि शिष्योंके साथ वे तुम्हारा आतिथ्य ग्रहण करने तब पधारें , जब पांचाली भोजन कर चुकी हों । इस कष्टको मैंने निवारित कर दिया । ' श्रीकृष्णने सबको समझाकर आश्वस्त किया । श्रीप्रियादासजी इस घटनाका वर्णन अपने कवित्तमें इस प्रकार करते हैं सुन्यो भागवती को वचन भक्तिभाव भर्यो कर्यो मन आये श्याम पूजे हिये काम है । आवत ही कही मोहि भूख लागी देवो कछु महासकुचाये माँगें प्यारो नहीं धाम है । विश्व के भरण हार धरे हैं आहार अजू हमसों दुरावो कही वाणी अभिराम है । लग्यो शाक पत्र पात्र जल सङ्ग पाइ गये पूरण त्रिलोकी विप्र गिनै कौन नाम है ॥ ७२ सिन्धुनरेश जयद्रथ सब प्रकार सज - धजकर विहारके लिये शाल्व देशकी ओर जा रहा था । उसने एकाकिनी द्रौपदीको वनमें देखा । पाण्डव आखेटके लिये गये थे । जयद्रथ द्रौपदीको देखते ही मुग्ध हो गया । उसने अपने साथी राजा कोटिकास्यको परिचय जाननेके लिये भेजा । कोटिकास्यने समीप जाकर मधुर शब्दोंमें परिचय पूछा और अपना परिचय दिया । द्रौपदीने बड़े संकोचसे कहा — ' मर्यादानुसार मुझे तुमसे नहीं बोलना चाहिये , परंतु समीपमें दूसरे किसी पुरुष या स्त्रीके न होनेसे मुझे विवश होकर बोलना पड़ा । मैं तुम्हें और सिन्धुनरेशको भी जानती हूँ । मेरे पति वनमें आखेटको गये हैं । उन विश्वविख्यात पाण्डवोंको तुम जानते हो । मैं उनकी पत्नी कृष्णा हूँ । अपनेवाहन खोल दो ! पाण्डवोंका आतिथ्य स्वीकार करके जहाँ जाना हो , चले जाना । उनके लौटनेका समय हो गया है । " द्रौपदी कुटीमें आतिथ्यकी व्यवस्था करने चली गयी । उसने इन लोगोंपर विश्वास कर लिया । कोटिकास्यसे परिचय पाकर स्वयं जयद्रथ आया । उसने पहले तो कुशल पूछी और पाण्डवोंको राज्यहीन , निर्धन कहकर द्रौपदीसे कहने लगा कि वह उनको छोड़कर सिन्धुकी महारानी बने । द्रौपदीने उसे फटकारा ' मेरे पति युद्धमें देवता और राक्षसोंका भी वध कर सकते हैं । मूर्खतावश अपने नाशके लिये तूने मेरे प्रति कुदृष्टि की है ! ' जयद्रथने पुनः धमकाया । कृष्णाने कहा ' तू एकाकिनी समझकर मुझपर बल दिखा रहा है , पर मैं तेरे सम्मुख दीन वचन नहीं बोल सकती । जब एक रथपर बैठकर श्रीकृष्ण और अर्जुन मेरी खोजमें निकलेंगे तो इन्द्र भी तुझे छिपा नहीं सकते । अभी मेरे पति आकर तेरी सेनाका नाश कर देंगे । यदि मैं पतिव्रता हूँ तो इस सत्यके प्रभावसे आज मैं देखूँगी कि पाण्डव तुझे घसीट रहे हैं । ' जयद्रथने द्रौपदीको पकड़ना चाहा , उसे धक्का देकर पांचालीने धौम्यमुनिके चरणोंमें प्रणाम किया और इसलिये स्वयं रथमें बैठ गयीं कि जयद्रथ उनका स्पर्श न करे । उनको लेकर जयद्रथ ससैन्य चला । पाण्डवोंने वनमें शृंगालको रोते हुए पाससे जाते देख अमंगलकी आशंका की । वे शीघ्रतापू र्वक लौटे । आश्रममें धात्रिकाको रोते देख उससे पूछकर उन्होंने समाचार ज्ञात किया आगे बढ़नेपर धौम्यमुनि पैदल सेनामें भीमको पुकारते हुए जाते दिखायी पड़े । भयभीत होकर पैदल सेनाने तो शरण माँग ली । शेषपर पाण्डवोंने बाणवर्षा प्रारम्भ की । अनेक राजा मारे गये । भयातुर जयद्रथ द्रौपदीको रथसे उतारकर भागा । द्रौपदी धौम्यमुनिके साथ धर्मराजके पास लौट आयीं । ' बहन दुःशला ( दुर्योधनकी बहन ) का ध्यान करके जयद्रथको मारना मत ! बहनको विधवा मत करना । ' भीमको सिन्धुराजके पीछे जाते देख युधिष्ठिरने आदेश दिया । भीमने दौड़कर जयद्रथको ललकारा और पराजित करके पकड़ लिया । उसको पटककर मरम्मत कर दी । सिरके केश मूँड़कर पाँच चोटियाँ रखकर तथा दासत्व स्वीकार करवाके उसे बाँधकर वे ले आये । इस दशामें उसे देखकर द्रौपदीको दया आ गयी । उन्होंने भीमसेनसे कहा - महाराजके इस दासको अब छोड़ दो । ' धर्मराजने बन्धनमुक्त करके जयद्रथको दासत्वसे भी मुक्त कर दिया और विदा करते समय समझाया कि- ' अब कभी परस्त्रीपर कुदृष्टि डालने - जैसा नीच कार्य मत करना ।  महारानी ! मैं सैरन्ध्री हूँ और अपने योग्य कार्य चाहती हूँ । मुझे बालोंको सुन्दर बनाना , गूंथना , पुष्पहार बनाना , चन्दन या अंगराग बनाना बहुत अच्छा आता है । मैं इससे पूर्व द्रौपदीके अन्तःपुरमें रह चुकी हूँ । मुझे केवल भोजन - वस्त्र चाहिये । ' पांचालीने विराटकी महारानी सुदेष्णाको बताया । उसे नगरमें भटकते देख महारानीने बुलाया था । कि महाराज तुमपर आसक्त हो जायेंगे । ' सुदेष्णाने उत्तर दिया ! ' तुम तो देवताओंके समान सुन्दर हो । यह कार्य तुम्हारे योग्य नहीं । तुम्हें अन्तःपुरमें रखनेपर भय है ' पाँच परम पराक्रमी गन्धर्व मेरे पति हैं । जो मुझपर कुदृष्टि करता है , उसे वे उसी रात्रि मार डालते हैं । जो मुझसे पैर नहीं धुलवाता तथा जूठेका स्पर्श नहीं कराता , उसका वे मंगल करते हैं । कृष्णाने आश्वासनतुम्हें पैर नहीं धोने होंगे और उच्छिष्ट भी स्पर्श नहीं करना पड़ेगा । तुम मेरे समीप आदरपूर्वक निवास करो । सुदेश ने स्वीकृति दे दी । तुम इतनी सुन्दर हो ? यह कार्य तुम्हारे योग्य नहीं । मुझे स्वीकार करो । ' एक दिन विराट के सेनापति कौचकने अन्तःपुरमें सैरन्ध्रीको देखकर कहा वह उसके सौन्दर्यपर मुग्ध हो गया था । द्रौपदीने परस्त्रीके प्रति आकर्षित न होनेके लिये उसे समझाया किंतु वह दुष्ट बराबर हठ ही करता रहा । गन्धवक भयका भी उसपर कोई प्रभाव न हुआ । उसने द्रौपदीसे कोरा उत्तर पाकर अपनी बहन सुदेष्णासे प्रार्थना की । सुदेष्णाने द्रौपदीके अस्वीकार करनेपर भी बलपूर्वक रस लानेके बहाने उन्हें कीचकके भवनमें भेजा उन्मत कोचकने उन्हें पकड़ने का प्रयत्न किया । किसी प्रकार उसे धक्का देकर भागकर वे राजसभामें आयीं । पीछे दौड़ता हुआ कोचक वहाँ भी पहुँचा और उसने द्रौपदीको केश पकड़कर पटक दिया तथा पाद - प्रहार किया । सूर्यद्वारा द्रौपदीकी रक्षामें नियुक्त राक्षसने आँधीके समान कीचकको दूर फेंक दिया । वह गिरकर मूर्च्छित हो गया । भीमसेन और अर्जुन दोनों क्रोधित हो गये , पर धर्मराजने संकेतसे उन्हें रोक दिया । द्रौपदीने सभाभवनके द्वारपर खड़े होकर कहा , ' मेरे महापराक्रमी पति सूतद्वारा मेरा अपमान कायरोंकी भाँति देख रहे हैं । वे धर्मपाश में बँधे हैं । यहाँका राजा विराट एक निरपराध स्त्रीको इस प्रकार मारे जाते देखकर चुप है । यह राजा होकर भी न्याय नहीं करता । यह लुटेरोंका - सा धर्म राजाको शोभा नहीं देता । सभासद् भी इस अन्यायको चुपचाप सह रहे हैं । ' सभासदोंने द्रौपदीकी प्रशंसा की । महाराज विराट कीचकके बलसे दबे थे । उसने अनेक देश जीते थे । यद्यपि वह लम्पट था , प्रजासे धन लूट लेता था और प्रजाकी स्त्रियोंके साथ अत्याचार करता था , परंतु महाराज उसका विरोध नहीं कर सकते थे , अतः वे चुप रहे धर्मराजने संकेत से कहा- ' तेरे पति तेरे कष्टदाताको अवश्य नष्ट कर डालेंगे । वे अभी अवसर नहीं देखते । तू अन्तःपुरमें जा ! ' ī द्रौपदी अन्तःपुरमें गयी । सुदेष्णाने उसे आश्वासन देनेका प्रयत्न किया । रात्रिमें द्रौपदीने भोजनालय में भीमसेनके पास जाकर रोते हुए कहा- ' तुम लोगोंको इस वेषमें देखकर मेरा हृदय फटता है । मुझे भी सुदेष्णाकी दासी बनकर रहना पड़ रहा है । अब तो यह अपमान मैं सह नहीं सकती । कीचक नित्य घृणित संकेत करता है और गन्दी बातें कहता है । आज उसने भरी सभामें तुम सबके देखते मुझे मारा है । अब मैं प्राण दे दूंगी । " वह मुझे नित्य मारेगा और बलप्रयोग करेगा । यदि तुम मुझे अवधि पूर्ण होनेतक चुप रहनेको कहोगे तो भीमसेनने द्रौपदीको आश्वासन दिया । उनकी सम्मतिसे जब कीचकने दूसरे दिन वही राग छेड़ा तो कृष्णाने उसे रात्रिको एकान्तमें विराटकी नवीन नृत्यशालामें बुलाया । भीमसेन सूचना पाकर पहलेसे ही वहाँ उपस्थित थे । उन्होंने युद्धमें कीचकको पछाड़कर मार डाला । उसके हाथ - पैर धड़में दबाकर घुसा दिये । पतियोंने क्या दशा की , सो जाकर देखो ! ' इसी दशामें द्रौपदीको दिखाया । द्रौपदीने लोगोंसे कहा- ' मेरा अपमान करनेवाले नीच कीचककी मेरे गन्धव ' कोचकको मृत्यु सैरन्ध्रीके कारण ही हुई है । अतः इसे भी साथमें जला दो । इससे कीचककी आत्माको सन्तोष होगा । ' कीचकको मरा देखकर रोषके मारे उपकीचकोंने यह निश्चय किया । उनके भयसे डरे विराटने भी ऐसा करनेको आज्ञा दे दी । उन्होंने द्रौपदीको बाँध लिया और श्मशान ले चले । आर्तनाद करती जाती द्रौपदीकी रक्षा - पुकार भीमसेनने सुन ली नगर - परकोटा लाँघकर वे पहले ही श्मशान पहुँच गये । एक महान वृक्ष उखाड़कर दौड़े । उन्हें देखकर उपकीचक भागे । भीमसे उन सबको मार डाला और द्रौपदीको बन्धनमुक्त कर दिया । भीम अपना काम करके पुनः उसी मार्गसे भोजनालय पहुँच गये । ' भद्रे महाराज गन्धर्वोसे बहुत डरे हैं । तुम अत्यन्त सुन्दरी हो और पुरुष स्वाभाविक कामी होते हैं । तुम्हारे गन्धर्व बड़े क्रोधी हैं । उन्होंने एक सौ पाँच उपकीचकोंको मार डाला है । अतः महाराजने कहा है कि तुम अब यहाँसे जहाँ इच्छा हो , चली जाओ । अन्तःपुरमें पहुँचते ही सुदेष्णाने कहा । नजा ' महाराज मुझे तेरह दिन और क्षमा करें । मेरे गन्धर्व पति इसके पश्चात् स्वयं मुझे ले जायेंगे और वे महाराजका भी मंगल करेंगे । ' सैरन्ध्रीकी इस बातका प्रतिवाद करनेका साहस अब रानी सुदेष्णामें नहीं था । तेरह दिन पश्चात् गुप्तवासकी अवधि समाप्त होनेपर पाण्डव प्रकट हो गये । पाण्डवोंके वनवासकी अवधि समाप्त हुई । विराटनगरमें उनके पक्षके नरेश एकत्र होने लगे । अनेक ऋषियों , विदुरने तथा औरोंने भी दुर्योधनको समझाया ; किंतु वह बिना युद्धके पाँच ग्राम भी पाण्डवोंको देनेको प्रस्तुत नहीं था । अन्तिम प्रयत्नके रूपमें शान्तिदूत बनकर स्वयं श्रीकृष्णचन्द्रने विराटनगरसे हस्तिनापुर जाना निश्चित किया । उनको जानेको उद्यत देखकर द्रौपदीने उनसे कहा - ' जनार्दन । अवध्यका करनेमें जो पाप होता है , वही पाप वध्यका वध न करनेमें भी होता है । मैं अपने अपमानको भूल नहीं सकी हूँ । शान्ति और दुर्योधनकी दी हुई भिक्षा मेरी अन्तर्खालाको शान्त नहीं करेगी । यादव , पाण्डव और पांचालके शूरोंके रहते मेरी यह दशा है । यदि आपका मुझपर तनिक भी स्नेह है तो कौरवॉपर कोप कीजिये । ' भले कुरुराज दूतवर - वेश । पर , धारि भूलि न जैयो पे वहाँ , केशव द्रौपदि - केश ॥ परि FRE अपने काले - काले सुदीर्घ केशोंको हाथमें लेकर श्रीकृष्णको दिखाते हुए रोकर पांचालीने कहा - ' आज बारह वर्षसे इन केशोमें कंघी नहीं पड़ी है । ये बाँधे नहीं गये हैं । जिसने इनको भरी सभामें खींचा है , उस दुष्ट दुःशासनकी उसी भुजाके रक्तसे धोकर तब मैं इन्हें बाँधूंगी , यह मैंने प्रतिज्ञा की है । मधुसूदन ! क्या ये आजीवन खुले ही रहेंगे ? यदि पाण्डव कायर हो गये हैं , यदि वे युद्ध नहीं करते तो मैं अपने पाँचों पुत्रोंको आदेश दूँगी । बेटा अभिमन्यु उनका नेतृत्व करेगा । मेरे पिता और भाई भी यदि मेरी उपेक्षा कर दें तो मैं तुम्हारे पैर पकड़ेंगी । क्या मेरी प्रार्थनापर भी तुम द्रवित न होओगे ? क्या तुम्हारा चक्र शान्त ही रहेगा ? मैं कौरवोंकी लाशोंको धूलिमें तड़पते देखना चाहती हूँ । इसके बिना कोई साम्राज्य मुझे सुखी नहीं कर सकता । श्रीकृष्णने गम्भीरतासे कहा - ' कृष्णे ! आँसुओंको रोको । इस नाटकको हो जाने दो । मैंने प्रतिज्ञा की है और प्रकृतिके सारे नियमोंके पलट जानेपर भी वह मिथ्या नहीं होगी । जिनपर तुम्हारा कोप है , उनकी विधवा पत्नियों को तुम शीघ्र ही रोते देखोगी । ये ही धर्मराज युद्धका आदेश देंगे और तुम्हारे शत्रु युद्धभूमि में मारे जायेंगे । ' महाभारतका युद्ध प्रारम्भ हो गया था । सहसा एक रात्रिको धर्मराजके चरोंने समाचार दिया कि दुर्योधनके द्वारा उत्तेजित किये जानेपर भीष्मपितामहने प्रतिज्ञा की है कि कल वे समस्त सैन्यके साथ पाँचों पाण्डवों को मार देंगे । पाण्डवोंमें अत्यन्त व्याकुलता फैल गयी । धर्मराजने श्रीकृष्णके पास अर्जुनको भेजा , किंतु रूखा उत्तर मिला । अन्तमें द्रौपदीने माधवके शिविरमें जाकर उनसे प्रार्थना की कि वे पाण्डवों की रक्षा करें ।

यदि पितामहने प्रतिज्ञा की है , तो वह सत्य होकर रहेगी । ' मैं असमर्थ हूँ।'मुख उत्तर दिश ' तो क्या तुमने लम्बी - लम्बी शपथें खाकर मुझको झूठा ही आश्वासन दिया था । श्रीकृष्णक जीवित रहते उनकी सखी कृष्णाके पति परलोक सिधार जायें , इससे बढ़कर कलंक और क्या होगा ? ' खीझकर कहा । एक उपाय है - तुम चुपचाप मेरे पीछे - पीछे चलो और भीष्मके शिविरमें जाकर उनका आशीर्वाद प्राप्त करो । ' श्रीकृष्णने मुसकराते हुए कहा । ' मैं तो सदा ही तुम्हारे वचनोंका अनुसरण करनेको प्रस्तुत हूँ , चलो शीघ्र । ' रातका तीसरा प्रहर था । भगवान् द्रौपदीको लेकर चले । ' अरे तुम्हारी पंचनदीय जूतियोंको देखकर भी कोई भी पहचान लेगा उतारो जूतियाँ जल्दी । ' श्रीकृष्णने द्रौपदीको कुछ कहनेका अवसर ही नहीं दिया और जूतियोंको लेकर अपने पीत उत्तरीयमें लपेटा और धीरेसे बगलमें दबा लिया और कहा - ' बस , पीछे पीछे चली चलो । द्रौपदीने आज्ञाका पालन किया । यह पितामहका शिविर है । चुपचाप अन्दर जाकर पितामहको प्रणाम करो । वे मेरा ध्यान कर रहे होंगे बैठे - बैठे प्रणाम करना तो आभूषणोंको भली प्रकार बजाकर मैं यहीं हूँ । मेरा पता मत बताना लीलामयने आदेश दे दिया । पितामहके शिविरमें सौभाग्यवती स्त्री , ब्राह्मण , साधु तथा श्रीकृष्णके निर्वाध प्रवेशकी आज्ञा थी । पितामह ध्यानस्थ बैठे थे । द्रौपदीने जाकर पैरोंपर मस्तक रखा । पितामहने समझा दुर्योधन अभी - अभी गया है , रानी प्रणाम करने आयी होगी । झटसे कह दिया - ' सौभाग्यवती हो , बेटी ! ' ' पतियोंको मारनेकी प्रतिज्ञा करके पत्नीको सौभाग्यवती होनेका आशीर्वाद ? पितामह । आप तो कभी असत्य नहीं बोलते यह कैसी विडम्बना । ' द्रौपदीने पूछा । ' ओह , पांचाली ! तू यहाँ कैसे , पुत्री । मैंने पाण्डवोंको मारनेकी प्रतिज्ञा तो की है ; परंतु साथ ही यह भी कहा है कि यदि श्रीकृष्णने शस्त्र न उठाया तो ऐसा होगा तू यहाँ किसके साथ आयी ? बिना श्यामसुन्दरके यह सब कौन कर सकता है ? बता , वे मेरे प्रभु कहाँ है ? ' बुद्धिमान् भीष्मने सब समझ लिया । ' मुझे धिक्कार है , जिसके यहाँ आनेमें संकोच करके श्रीकृष्णको द्वारपर रुकना पड़ता है । ' द्रौपदीके न बतानेपर भी भीष्मने स्वयं मधुसूदनको ढूँढ लिया । जगत्पति जूतियाँको बगलमें दबाये द्वारपर निस्तब्ध खड़े मुसकरा रहे थे । भीष्म चरणोंपर गिरकर रोने लगे । ' यदि आप इसी प्रकार दस सहस्र महारथी नित्य मारते रहे तो द्रौपदी सौभाग्यवती हो चुकी । ' शिविरमें आकर आसन तथा सत्कार ग्रहण करके केशवने कहा । ‘ आप जो चाहते हैं , वह तो होगा ही मेरे मुखसे ही मेरी मृत्युका उपाय आपको सुनना है तो मैं वह भी बता दूँगा ; किंतु कलके युद्धमें मेरी प्रतिज्ञाकी रक्षा करनी होगी । ' पितामहने गद्गद स्वरमें प्रार्थना की । वहाँसे पितामहके रथमें बैठकर द्रौपदीको लेकर श्रीकृष्ण धर्मराजके शिविरमें लौट आये । पूरा समाचार जानकर पाण्डवोंका समस्त शोक दूर हो गया । महाभारत समाप्त हुआ । पाण्डव - सेना शान्तिसे शयन कर रही थी । श्रीकृष्ण पाँचों पाण्डवों तथा द्रौपदीको लेकर उपप्लब्य  नगर चले गये थे । प्रातः दूतने समाचार दिया कि रात्रिमें शिविरमें अग्नि लगाकरअश्वत्थामाने सबको निर्दयतापूर्वक मार डाला । यह सुनते ही सब रथमें बैठकर शिविरमें पहुंचे । अपने मृत पुत्रों को देखकर द्रौपदीने बड़े करुण स्वरमें क्रन्दन करते हुए कहा - ' मेरे पराक्रमी पुत्र यदि युद्धमें लड़ते हुए मारे गये होते तो मैं सन्तोष कर लेती । क्रूर ब्राह्मणने निर्दयतापूर्वक उन्हें सोते समय मार डाला है । द्रौपदीको धर्मराजने समझानेका प्रयत्न किया , परंतु पुत्रके शवके पास रोती माताको क्या समझायेगा कोई । भीमने क्रोधित होकर अश्वत्थामाका पीछा किया । श्रीकृष्णने बताया कि नीच अश्वत्थामा भीमपर ब्रह्मास्त्रका प्रयोग कर सकता है । अर्जुनको लेकर वे भी पीछे रथमें बैठकर गये । अश्वत्थामाने ब्रह्मास्त्रका प्रयोग किया । उसे शान्त करनेको अर्जुनने भी उसी अस्त्रसे उसे शान्त करना चाहा । दोनों ब्रह्मास्त्रोंने प्रलयका दृश्य उपस्थित कर दिया । भगवान् व्यास तथा देवर्षि नारदने प्रकट होकर ब्रह्मास्त्रोंको लौटा लेनेका आदेश दिया । अर्जुनने ब्रह्मास्त्र लौटा लिया । पकड़कर द्रोण - पुत्रको उन्होंने बाँध लिया और अपने शिविरमें ले आये । अश्वत्थामा पशुकी भाँति बँधा हुआ था । निन्दित कर्म करनेसे उसकी श्री नष्ट हो गयी थी । उसने सिर झुका रखा था । अर्जुनने उसे लाकर द्रौपदीके सम्मुख खड़ा कर दिया । गुरुपुत्रको इस दशामें देखकर द्रौपदीको दया आ गयी । उन्होंने कहा - ' इन्हें जल्दी छोड़ दो । जिनसे सम्पूर्ण अस्त्र - शस्त्रोंकी आपलोगनि शिक्षा पायी है , वे भगवान् द्रोणाचार्य पुत्ररूपमें स्वयं उपस्थित हैं । जैसे पुत्रोंके शोकमें मुझे दुःख हो रहा है , मैं रो रही हूँ , ऐसा ही प्रत्येक स्त्रीको होता होगा । देवी कृपीको यह शोक न हो ! वे पुत्रशोकमें मेरी तरह न रोयें ! ब्राह्मण सब प्रकार पूज्य होता है । इन्हें शीघ्र छोड़ दो । ब्राह्मणोंका हमारे द्वारा अनादर नहीं होना चाहिये । ' भीमसेन अश्वत्थामाके वधके पक्षमें थे । अन्तमें श्रीकृष्णकी सम्मतिसे द्रोणपुत्रके मस्तकपर रहनेवाली मणि छीनकर अर्जुनने उसे शिविरसे बाहर निकाल दिया । महाभारतकी समाप्तिपर युधिष्ठिरने बन्धुत्वकी भावना करके विरक्त होकर वनमें जानेका विचार प्रकट किया । जब सब भाई उन्हें समझा चुके तो पांचालराजकुमारीने कहा - ' महाराज ! आपने द्वैतवनमें बार - बार कहा है कि शत्रुओंको जीतकर आप हम सबको सुखी करेंगे , अब अपनी बातको क्यों मिथ्या कर रहे हैं ? मेरी सास कुन्तीजी कभी झूठ नहीं बोलतीं । उन्होंने भी कहा था कि आप शत्रुओंपर विजय करके साम्राज्यका उपभोग करेंगे । अपनी माताके वचनोंको आप क्यों मिथ्या कर रहे हैं ? दुष्टोंको दण्ड देकर , निर्बलोंकी रक्षा करके , अनाथकी सहायता करके , विप्रॉको दान देकर प्रजापालन करनेवाला राजा निःश्रेयसको प्राप्त करता है । आप अपने धर्मको छोड़कर किस विधर्मके प्रलोभनमें वन जाना चाहते हैं ? आपने दानमें , शास्त्र सुनाकर , युद्धमें धोखा देकर या अन्यायसे यह राज्य नहीं पाया है । धर्मयुद्धमें शत्रुओंका दमन करके आपने इसे प्राप्त किया है । आपने सम्पूर्ण पृथ्वीपर शासन प्राप्त किया है , अब आप इस दायित्वसे क्यों विमुख मैं पुत्रोंके मरनेपर भी केवल आपकी ओर देखकर ही जीवित हूँ । आपके ये पराक्रमी भाई भी आपके लिये ही जीवन धारण किये हैं । आपके लिये उदासीनता उचित नहीं । शासन कीजिये , यज्ञ कीजिये और ब्राह्मणोंको दान दीजिये । हैं ? महाराज युधिष्ठिरने दीर्घकालतक शासन किया । उन्होंने द्रौपदीके साथ तीन अश्वमेधयज्ञ किये । द्वारकासे लौटकर अर्जुनने जब यदुवंशके क्षयका समाचार दिया तो परीक्षितका राज्याभिषेक करके धर्मराजने अपने राजोचित वस्त्रोंका त्याग कर दिया । मौनव्रत लेकर वे निकल पड़े । भाइयोंने भी उन्होंका अनुकरण किया । द्रौपदीने भी वल्कल पहना और पतियोंके पीछे चल पड़ीं । धर्मराज सीधे उत्तर दिशामें चलते गये ।

बदरिकाश्रमसे ऊपर वे हिमप्रदेशमें जा रहे थे । द्रौपदी सबके पीछे चल रही थीं । सब मौन थे । कोई किसीकी ओर देखता नहीं था । द्रौपदीने अपना चित्त सब ओरसे एकाग्र करके परात्पर भगवान् श्रीकृष्णमें लगा दिया था । उन्हें शरीरका पता नहीं था । हिमपर फिसलकर वे गिर पड़ीं । शरीर उसी श्वेत हिमराशिमें विलीन हो गया । महारानी द्रौपदी तो परम तत्त्व से एक हो चुकी थी ।

हरिशरणम हरिशरणम हरिशरणम। 

BHOOPAL Mishra 

Sanatan vedic dharma karma 

Bhupalmishra35620@gmail.com 

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