भारत को भारतवर्ष क्यों कहते है ?वर्ष का एक अर्थ है विभाग, खण्ड, क्षेत्र और दुसरा साल अर्थात समय । खण्ड ,क्षेत्र, द्वीप, स्थान विशेष के हिसाब से दुनिया यानी विश्व को नौ (9) विभाग यानि वर्ष मे बाटा गया है । जिसमे एक भाग को भारतवर्ष कहा गया है । भारत महाराज भरत के नाम पर पङा है ।
भारतवर्ष की भूमि कर्म भूमि है । शेष आठ वर्ष भोग भूमि है ।
अर्थात भारतवर्ष मे जन्म लेकर मनुष्य जो भला बूरा कर्म करता है ।उसी के आधार पर,उसका भविष्य निर्माण होता है । जैसे कि कोई बहुत अच्छा कर्म किया तो उसे दिव्य श्वर्ग आदि लोको की प्राप्ति होती है ।जो बुरे कर्म करते है ,उन्हे नर्क की प्राप्ति होती है । जो सनातन वैदिक धर्म के अनुसार जीवन यापन करता है ,वह मुक्त हो जाता है ।
शेष आठ वर्ष भोग्य भूमि है ।यहा पर मनुष्य स्वर्ग से आते है
और स्वर्ग से बचे हुए भोग को भोगकर, पुनः 84लाख मे चक्कर लगाने लगता है ।
भारतीय नागरिक का कर्तव्य है ,कि भारत मे जन्म लेकर अपने को धन्य समझे ।भारतीय परंपरागत ढंग से जीवन यापन करे ।यहां भटके नही ।यहां धर्म की प्रमुखता है ।और धार्मिक आचरण करना चाहिए। भारत मे अनेकानेक धर्माचार्य आज भी है ।उनके शरणागत होकर जीवन यापन करे ।पूर्ण वैराग्य, अकिंचन जीवन यापन करने चाहिए। ।उदाहरण शंकराचार्य ,रामानंद श्वामी आदि संतो का जीवन ही अनुकरणीय है ।
भारतवर्ष एक विलक्षण जगह है । सारे जहां से अच्छा है । आप अन्य जगह से जब इनकी तुलना करेगे ,तब पता चलता है कि भारत सबसे अलग, सबसे विलक्षण कैसे है ।आथिर्क तंगी के बारे मे कह सकते है ।लेकिन भारत को आज तक लुटा जा रहा है ।आज भी भारत का पैसा कई देशो मे सङ लहा है ।तो यह बात भी मिथ्या साबित होती है ।फिर भी हमलोग कई बार विदेश के गुलाम हुए है ।गुलामी से सबसे बङी घाटा यह हुआ कि हमारी संस्कृति को नष्ट किया गया ।जिसके कारण हम आजादी के बाद भी बौद्धिक गुलामी से पीड़ित होकर अन्य देशो के प्रति आकर्षित हो रहे है ।जो सर्वथा गलत है ।हमे अन्य देशो से बराबरी नही करना चाहिए। हम अपने संस्कृति पर लोटकर अपने मंजिल की ओर अग्रसर हो जाना चाहिए। शेष अन्य वर्ष के लोगो को भी भारतीय संस्कृति का सम्मान कर ,सनातन वैदिक धर्म कर्म के अनुसार जीवन यापन कर दुर्लभ मानव जीवन को धन्य कर लेना चाहिए।
यह भारत वर्ष मे मनुष्य होकर जन्म लेना अति दुर्लभ है । गरूर पूराण के अनुसार यदि देखे तो - स्वर्ग से लौटकर शेष आठ वर्ष मे जन्म लेकर फिर 84 लाख योनि मे भ्रमण ।नर्क से लोटकर फिर 84 लाख का भ्रमण। तब कही भगवत कृपा से मनुष्य योनि मे जन्म, मनुष्य योनि मे लगातार(क्योंकि चार लाख योनि सिर्फ मनुष्य मात्र मे कही गई है )सत्कर्म करते रहने से जन्म और मरण यानि पुनरऽपि जन्मं पुनरऽपि मरणं से मुक्त हो सकता है । यह संसार दुःख रूपी सागर है ।उसमे जन्म और मरण अतिशय दुःख दायी है । दो नो समय का दुःख भयंकर नर्क यातना से भी अधिक कष्ट दायी है । इसी दुःख से मुक्त होने के लिए ही ईश्वर जीव को मनुष्य योनि प्रदान करते है ।यह अंतिम योनि है ।
भारत मे जन्म लेने के लिए देवता भी तरसते है ।क्योंकि भारतवर्ष को छोड़कर अन्य किसी लोक मे भजन, कीर्तन,सत्संग ,स्वाध्याय, भगवान की सेवा ,तपस्या ,कथा श्रवण, सत्संग, सत्कर्म आदि सुख नही है । यह सौभाग्य तो मात्र भारतवर्ष मे ही संभव है । क्रमश
हरिशरणम हरिशरणम हरिशरणम
भूपाल मिश्रा वैष्णव
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