ब्रजगोपियाॅ

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                      महाभाग्यवती व्रजगोपियाँ

 नन्दव्रजस्त्रीणां वन्दे यासां पादरेणुमभीक्ष्णशः । भुवनत्रयम् ॥ हरिकथोद्गीतं पुनाति व्रजकी गोपांगनाओंके सम्बन्धमें हम जैसे पामर पुरुषोंका कुछ कहना ही अपराध है । शुकदेवजी भी बड़ी ही सावधानीसे श्रीमद्भागवतमें कुछ कहा है ; क्योंकि बिना तीनों गुणों से परे हुए कोई मनुष्य यथार्थव गोपी तत्त्वको समझ ही नहीं सकता । जो बिना समझे केवल उस भावकी नकल करते हैं , उनसे तो प पगपर अपराध बननेकी सम्भावना है । सिंहिनीका दूध सुवर्णके ही पात्रमें रह सकता है , दूसरी जगह वह टिक ही नहीं सकता । वह इतना गूढ़ रहस्य है कि आदर्शका भी आदर्श माना जाता है । जबतक हृदय तनिक भी कामवासना हो , तबतक मनुष्य गोपी तत्त्वके विषयमें कुछ कहनेका अधिकारी नहीं , तबतक मो वह यम , निमय , संयम , ध्यान , धारणा , जप , तप , योग आदिके द्वारा कामवासनाका क्षय करे तब उसे गोपीप्रेमकी ओर बढ़नेका अधिकार होगा । इसके बिना किये बढ़ेगा तो गिर जायगा । इसीलिये नारदजीने अपने भक्तिसूत्रोंमें गोपियोंको परमप्रेमका आदर्श बताया है । सूरदासजी कहते हैं ' गोपी प्रेमकी धुजा । ' वे हरिको परमानन्दिनी परमाहादिनी शक्तियाँ ही हैं । भगवान्से भिन्न उनका कोई स्वरूप ही नहीं उद्धव - जैसे जाती भी उनके अलौकिक प्रेमको देखकर कह उठे ' आसामहो चरणरेणुजुषामहं स्यां वृन्दावने किमपि गुल्मलतौषधीनाम् ' - मैं यदि वृन्दावनकी कोई लता या गुल्म बन जाता तो कृतकृत्य हो जाता । क्यों ? इसलिये कि इन महाभाग्यवती गोपियोंके पावन पाद - पद्मोंकी परागराशि उड़ उड़कर मेरे ऊपर पड़ती । अहा जिनकी चरणरेणुको ब्रह्मा आदि देवता तरसते हों , उनके सम्बन्ध में कुछ लिखना बड़ी ही धृष्टता है । गोपी ! गोपी ! कितना मोहक नाम है । भगवान्के अनन्त नामोंको ले लीजिये जितना मधुमय , स्निग्ध चित्तको हठात् आकर्षित करनेवाला उनका ' गोपीजनवल्लभ ' नाम है , उतना कोई भी नहीं । इसीलिए वैष्णवोंका इष्ट मन्त्र यही है । गोपीजनोंके वल्लभ ! अहा ! वल्लभका महत्त्व नहीं , महत्त्व तो गोपीजनोंका है । गोपीजन न होते तो इन वल्लभमें इतना माधुर्य आता ही कहाँसे ? भगवान्से एक बार पूछा गया - ' तुम्हारे गुरु कौन हैं ? ' उन्होंने कई नाम बताये । तब पूछा गया -'असली गुरु कौन हैं ? " श्यामसुन्दर से पड़े । उनका हृदय भर आया , कण्ठ रुद्ध हो गया । ' गो इतना ही कह पाये , आगे कुछ न कह सके । गोपी ! अहा ! गोपी ! वे हमारे श्यामसुन्दरकी परमाराधनीया परम आदरणीया गुरुरूप हैं , हे जगद्गुरुकी भी गुरुरूपा देवीगण ! तुम्हारे पादपद्योंमें पुनः पुनः प्रणाम है । श्यामसुन्दरसे पूछा गया , ' तुम कभी हारे हो ? ' वे बोले- ' कभी नहीं । ' जरासन्धसे डरकर क्यों भागे ?कालयवनके सामने भी तो भागे थे । इन सबका समाधान उन्होंने किया । भागना और बात है , हारना और बात है । सिंह जब शिकारको मारता है तो उसे पकड़नेको दस कदम पीछे भी हट जाता है । जोरसे दौड़नेके लिये पीछे हटना ही पड़ता है । यह तो विद्या है , रणकौशल है । हारनेके मानी हैं दूसरेके अधीन हो जाना , उसके हाथकी कठपुतली बन जाना । भगवान्‌से पूछा गया ' किसीसे नहीं हारे ? ' वे सोचमें पड़ गये और बोले - ' हाँ , हारे क्यों नहीं , गोपियोंसे तो हम सदा हारे ही हुए हैं । ' श्यामसुन्दरसे पूछा गया , तुम्हें वेदशास्त्र निर्लेप कहते हैं , तुम क्या लक्ष्मीके बिना रह सकते हो ? वे बोले- ' अवश्य , इसमें क्या , वह तो मेरी दासी है । क्या ब्रह्माके बिना रह सकते हो ? उन्होंने कहा- ' मेरे प्रत्येक श्वासमें अनन्त ब्रह्मा उत्पन्न होते हैं और प्रश्वासमें बहुत से ब्रह्मा पेटमें चले जाते हैं । ' तो क्या जगत्के बिना भी रह सकते हो ? भगवान्ने कहा- ' जगत् तो मेरी भ्रकुटीके संकेतमें पैदा होता है और पलक मारते ही समाप्त । ' फिर पूछा - ' क्या वृन्दावनके बिना , क्या व्रजांगनाओंके बिना रह सकते हो ? ' श्यामसुन्दर रो पड़े । ' नहीं , यह मैं सुन भी नहीं सकता । रहनेकी बात तो अलग रही । " गोपी - तत्त्वको अभीतक किसीने ठीक - ठीक समझा ही नहीं । आगे भी कोई यथार्थमें समझेगा , ऐसी आशा नहीं । रसमर्मज्ञ आचार्यगण गोपियोंके चार भेद बताते हैं - नित्य गोपी , ऋचारूपा गोपी , ऋषिरूपा गोपी , पुण्यप्राप्ता गोपी । एक तो सदा जो गोलोकमें भगवान्के साथ रहती हैं , वे गोपिकाएँ वृन्दावनमें अवतरित हुई । दूसरी वेदकी ऋचाओंने बड़ी तपस्या की थी , वे गोपीरूपमें प्रकट हुई । तीसरे ऋषियोंने दण्डकारण्य में प्रभुसे कान्ताभावके रसास्वादनका वरदान माँगा था , वे गोपीरूपमें प्रकट हुए । चौथे जिन्होंने सुकृत कर्मोंसे , ऋषियोंके वरदानसे कृष्णवल्लभा होनेका वरदान पाया था । ये सभी कृष्णप्रिया और भगवद् - अनुगामिनी हुई । श्रीगोपीजनोंके सम्बन्धमें एक बात और है , जिसे सुनने - समझनेके भी अधिकारी सब नहीं । आजतक इतिहासमें श्रवण - भक्तिके सर्वश्रेष्ठ उदाहरण महाराज परीक्षित्जी हैं । इनसे बढ़कर श्रोता तो कदाचित् ही कोई हो , क्योंकि इन्होंने स्वयं कहा है त्यक्तोदमपि बाधते । नैषातिदुःसहा पिबन्तं क्षुत्मां त्वन्मुखाम्भोजच्युतं हरिकथामृतम् ॥ ' सबसे अधिक दुःसह भूख और प्यास है , सो वह भी मुझे तनिक भी क्लेश नहीं पहुँचा रही है ; क् योंकि आपके मुखसे जो हरिकथारूपी अमृत टपक रहा है , उसे पीनेसे मैं सब कुछ भूल गया हूँ । ' शुकदेवजीने यह सोचकर कि बड़ा अच्छा श्रोता है , इसे गोपी - प्रेमकी असली कथा सुनानी चाहिये , कथा आरम्भ की । " भगवानपि ता रात्री : शरदोत्फुल्लमल्लिकाः ' यहाँसे शुरू किया । भगवान्‌की वंशी सुनकर कोई बच्चेको दूध पिला रही थी , वह वैसे ही भागी । कोई दूध दुह रही थी , वहींसे चल दी । कोई अंजन लगा रही थी , एक ही आँखमें लगा पायी थी , वैसे ही भागी । कोई केश बाँध रही थी , उसी दशामें चल दी । किसीने कहींका वस्त्र कहीं पहन लिया । इस तरह शुकदेवजी बड़ी उमंगमें वर्णन कर रहे थे । बीचमें ही परीक्षित्जी बोल उठे कृष्णं विदुः परं कान्तं न तु ब्रह्मतया मुने । गुणप्रवाहोपरमस्तासां गुणधियां कथम् ॥ ( श्रीमद्भा ० ] १०।२ ९ ।१२ )  ' हे महामुनि वे गोपिकाएँ तो भगवान्को अपना एक प्रियजन , सुहृद मानती थीं , उनका श्रीकृष्ण ब्रह्मभाव तो या नहीं , तब उन्हें संसारसे मुक्ति कैसे मिल गयी ? मुक्ति तो ज्ञानके बिना होती नहीं और उनका चित्त आसक्त था मायाके गुणोंगे । " शुकदेवजीने अपना माथा ठोंका । ' अरे बाप रे बाप । यह अभी गोपियोंको समझा ही नहीं कहता है , उन्हें मुक्ति कैसे मिली ? ज्ञान तो हुआ ही नहीं ? गोपियोंकी और मुक्ति ? उनको और ज्ञानकी कमी ? प्रश्न सुनकर शुकाचार्यजी बड़े जोरसे बिगड़े और बोले - पुरस्तादेतत्ते : सिद्धि यथा हृषीकेशं द्विपलपि किमुताधोक्षजप्रियाः ॥ ( श्रीमा ० )बाबा ! मैं तुझे पहले ही बता चुका हूँ कि अरे दुष्टबुद्धि शिशुपाल उन अखिलेश्वर प्रभुसे द्वेष करके हो मुक्त हो गया । सो भलेमानुस । ये तो उन परमेश्वरकी प्रिया थीं । उन्हें प्यार करती थीं उनसे कैसे भी सम्बन्ध हो तो सही । जब उनसे द्वेष करनेपर असुरोंको मुक्ति मिलती है , तो प्रेम करनेवालोंको और फिर उन गोपियों को जिन्होंने अपना सर्वस्व उन प्रभुको ही समझ रखा है उन्हें क्या मिलेगा , तुझे कैसे बताऊँ ? तू तो अभी मुक्तिके ही चक्करमें है । ' इसके बाद श्रीशुकदेवजीने भगवान्‌की दिव्य रासलीलाका वर्णन किया , जिसका रहस्य गोपीभावकी स्फुरणा हुए बिना नहीं समझा जा सकता । श्रीराधाजीके परम भक्त सन्त श्री ' हठी ' जीने गोपियोंकी अपार महिमाको समझकर ही ' गोपीपदपंकजपराग ' होनेकी अभिलाषा निम्न मनोहारी पदमें व्यक्त की है । कोऊ उमाराज , रमाराज , जमाराज कोऊ , कोक रामचंद सुखकंद नाम नाधे मैं । कोऊ घ्यावै गनपति , फनपति , सुरपति , कोऊ देव ध्याय फल लेत पल आधे मैं ॥ ' हठी ' को अधार निराधार की अधार तुही , जप तप जोग जग्य कछुवै न साधे मैं । कटै कोटि बाधे मुनि धरत समाधे ऐसे , राधे पद रावरे सदा ही अवराधे मैं ॥ गिरि कीजै गोधन , मयूर नव कुंजन को , पसु कीजै महाराज नंद के बगर कौ नर कौन ? तौन , जौन ' राधे - राधे ' नाम रटै , तट कीजै बर कूल कालिंदी कगर कौ ॥ इतने पै जोई कछु कीजिए कुँवर कान्छ , राखिए न आन फेर ' हठी ' के झगर कौ । गोपी पद पंकज पराग कीजै महाराज तून कीजै रावरेई गोकुलनग कौ ।।


हरिशरणम हरिशरणम हरिशरणम। 

मित्र 

ब्जगोपिकाओं चरित्र के बारे हजारों पुस्तक प्रकाशित है । मै तो सुनी सुनाई बात कह रहा हुं "गोपी प्रेम की ध्वजा है " । 

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