श्री मदालसाजी

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Madalsa ji

                              श्रीमदालसाजी 

भारतवर्ष में ऐसे योग्य पुत्र तो बहुत हुए हैं , जिन्होंने अपने सत्कर्मोंसे माता - पिताका उद्धार करके ' पुत्र ' नामको सार्थक किया हो ; परंतु ऐसी माता , जो परम उत्तम ज्ञानका उपदेश देकर पुत्रोंका भी संसार सागरसे उद्धार कर दे , केवल मदालसा ही थी । उसने पुत्रोंका ही नहीं , अपना और पतिका भी उद्धार किया था । मदालसा आदर्श विदुषी , आदर्श सती और आदर्श माता थी । उसका जन्म दिव्य कुलमें हुआ । पहले तो गन्धर्वराज विश्वावसुकी पुत्री थी । फिर नागराज अश्वतरकी कन्यारूप में प्रकट हुई । उसके जीवनका संक्षिप्त वृत्तान्त इस प्रकार है यहा प्राचीन कालमें शत्रुजित् नामके एक धर्मात्मा राजा राज्य करते थे । उनकी राजधानी गोमतीके तटपर थी । उनके एक बड़ा बुद्धिमान , पराक्रमी और सुन्दर पुत्र भी था , उसका नाम था ॠतध्वज एक दिन नैमिषारण्यसे गालवमुनि राजा शत्रुजितके दरबारमें पधारे । उनके साथ एक बहुत ही सुन्दर दिव्य अश्व था । उन्होंने राजासे कहा- ' महाराज ! हम आपके राज्यमें रहकर तपस्या , यज्ञ तथा भगवान्‌का भजन करते हैं ; किंतु एक दैत्य कुछ कालसे हमारे इस पवित्र कार्य में बड़ी बाधा डाल रहा है । यद्यपि हम उसे अपनी क्रोधाग्निसे भस्म कर सकते हैं तथापि ऐसा करना नहीं चाहते , क्योंकि प्रजाकी रक्षा करना और दुष्टोंको दण्ड देना- यह राजाका कार्य है । एक दिन उसके उपद्रवसे पीड़ित होकर हम उसे रोकनेके उपायपर विका कर रहे थे , इतनेमें ही यह दिव्य अश्व आकाशसे नीचे उतरा । उसी समय यह आकाशवाणी हुई - मुन । यह अश्व बिना किसी रुकावटके समस्त पृथ्वीकी परिक्रमा कर सकता है ; आकाश , पाताल , पर्वत , समुद्र सब जगह आसानी से जा सकता है । इसलिये इसका नाम ' कुवलय ' है । भगवान् सूर्यने यह अश्व आपको समर्पित किया है । आप इसे ले जाकर राजा शत्रुजितके पुत्र राजकुमार ऋतध्वजको दे दें । वे ही इसपर आरु होकर उस दैत्यका वध करेंगे , जो सदा आपको कष्ट दिया करता है । इस अश्वरत्नको पाकर इसीके नामया राजकुमारकी प्रसिद्धि होगी , वे कुवलयाश्व कहलायेंगे । इस आकाशवाणीको सुनकर हम आपके पास आये हैं । आप इस अश्वको लीजिये और राजकुमारको इसपर सवार करके हमारे साथ भेजिये , जिससे धर्मका लोप न होने पाये । गालवमुनिके यों कहनेपर धर्मात्मा राजाने बड़ी प्रसन्नताके साथ राजकुमारको मुनियोंकी रक्षा के लिये भेजा । महर्षिके आश्रमपर पहुँचकर वे सब ओरसे उसकी रक्षा करने लगे । एक दिन वह मदोन्मत्त दानव शूकरका रूप धारण करके वहाँ आया । राजकुमार शीघ्र ही घोड़ेपर सवार हो उसके पीछे दौड़े । अर्धचन्द्राकार बाणसे उसपर प्रहार किया । बाणसे आहत होकर वह शूकराकार दैत्य प्राण बचानेके लिये भागा और वृक्षों तथा पर्वतसे घिरी हुई घनी झाड़ीमें घुस गया । राजकुमारके अश्वने उसका पीछा न छोड़ा । दैत्य भागता हुआ सहस्रों योजन दूर निकल गया और एक स्थानपर बिलके आकारमें दिखायी देनेवाली अँधेरी गुफामें कूद पड़ा । अश्वारोही राजकुमार भी उसके पीछे उसी गड्ढेमें कूद पड़े । भीतर जानेपर वहाँ सूअर नहीं दिखायी पड़ा ; बल्कि दिव्य प्रकाशसे परिपूर्ण पाताललोकका दर्शन हुआ । सामने ही इन्द्रपुरीके समान एक सुन्दर नगर था , जिसमें सैकड़ों सोनेके महल शोभा पा रहे थे । राजकुमारने उसमें प्रवेश किया ; किंतु वहाँ उन्हें कोई मनुष्य नहीं दिखायी दिया । वे नगरमें घूमने लगे । घूमते - ही - घूमते उन्होंने एक स्त्री देखी , जो बड़ी उतावलीके साथ कहीं चली जा रही थी । राजकुमारने उससे कुछ पूछना चाहा ; किंतु वह आगे बढ़कर चुपचाप एक महलकी सीढ़ियोंपर चढ़ गयी । ऋतध्वजने भी घोड़ेको एक जगह बाँध दिया और उसी स्त्रीके पीछे - पीछे महलमें प्रवेश किया । भीतर जाकर देखा , सोनेका बना हुआ एक विशाल पलँग है । उसपर एक सुन्दरी कन्या बैठी है , जो अपने सौन्दर्यसे रतिको भी लजा रही है । दोनोंने एक - दूसरेको देखा और दोनोंका मन परस्पर आकर्षित हो गया । कन्या मूर्च्छित हो गयी । तब पहली स्त्री ताड़का पंखा लेकर उसे हवा करने सब कुछ अपनी सखीको बता दिया । लगी । जब वह कुछ होशमें आयी तो राजकुमारने उसकी मूर्च्छाका कारण पूछा । वह लजा गयी । उसने उसकी सखीने कहा — ' प्रभो ! देवलोकमें गन्धर्वराज विश्वावसु सर्वत्र विख्यात हैं । यह सुन्दरी उन्हींकी कन्या मदालसा है । एक दिन जब यह अपने पिताके उद्यानमें घूम रही थी , पातालकेतु नामक दानवने अपनी माया फैलाकर इसे हर लिया । उसका निवासस्थान यहीं है । सुननेमें आया है , आगामी त्रयोदशीको वह इसके साथ विवाह करेगा , इससे मेरी सखीको अपार कष्ट है । अभी कलकी बात है , यह बेचारी आत्महत्या करनेको तैयार हो गयी थी । उसी समय कामधेनुने प्रकट होकर कहा- ' बेटी ! वह नीच दानव तुम्हें नहीं पा सकता । मर्त्यलोकमें जानेपर उसे जो अपने बाणोंसे बींध डालेगा , वही तुम्हारा पति होगा । ' यों कहकर माता सुरभि अन्तर्धान हो गयीं । मेरा नाम कुण्डला है । मैं इस मदालसाकी सखी , विन्ध्यवान्‌की पुत्री और वीर पुष्करमालीकी पत्नी हूँ । मेरे पति देवासुर संग्राममें शुम्भके हाथों मारे गये । तबसे मैं तपस्याका जीवन व्यतीत कर रही हूँ । सखीके स्नेहसे यहाँ इसे धीरज बँधाने आ गयी हूँ । सुना है , मर्त्यलोकके किसी वीरनेपातालकेतुको अपने बाणोंका निशाना बनाया है । मैं उसीका पता लगाने गयी थी । बात सही निकली । आपको देखकर मेरी सखीके हृदय में प्रेमका संचार हो गया है , किंतु माता सुरभिके कथनानुसार इसका विवाह उस वीरके साथ होगा , जिसने पातालकेतुको घायल किया है । यही सोचकर दुःखके मारे यह मूर्च्छित हो गयी । है । जिससे प्रेम हो , उसीके साथ विवाह होनेपर जीवन सुखमय बीतता है । इसका प्रेम तो आपसे हुआ और विवाह दूसरेसे होगा , यही इसकी चिन्ताका कारण है । अब आप अपना परिचय दीजिये । कौन हैं और कहाँसे आये हैं ? ' राजकुमारने अपना यथावत् परिचय दिया तथा उस दानवको बाण मारने और पातालमें पहुँचनेकी सारी कथा विस्तारपूर्वक कह सुनायी । सब बातें सुनकर मदालसाको बड़ी प्रसन्नता हुई । उसने लज्जित होकर सखीकी ओर देखा , किंतु कुछ बोल न सकी । कुण्डलाने उसका मनोभाव जानकर कहा- ' वीरवर ! आपकी बात सत्य है । मेरी सखीका हृदय किसी अयोग्य पुरुषकी ओर आसक्त नहीं हो सकता । कमनीय कान्ति चन्द्रमायें और प्रचण्ड प्रभा सूर्यमें ही मिलती है । आपके ही लिये गोमाता सुरभिने संकेत किया था । आपने हो दानव पातालकेतुको घायल किया है । मेरी सखी आपको पतिरूप में प्राप्त करके अपनेको धन्य मानेगी । ' कुण्डलाकी बात सुनकर राजकुमारने कहा - ' मैं पिताकी आज्ञा लिये बिना विवाह कैसे कर सकता हूँ ? ' कुण्डला बोली - ' नहीं , नहीं , ऐसा न कहिये । यह देवकन्या है । आपके पिताजी इस विवाहसे प्रसन्न होंगे । अब उनसे पूछने और आज्ञा लेनेका समय नहीं रह गया है । आप विधाताकी प्रेरणासे ही यहाँ आ पहुँचे हैं ; अतः यह सम्बन्ध स्वीकार कीजिये । ' राजकुमारने ' तथास्तु ' कहकर उसकी बात मान ली । कुण्डलाने अपने कुलगुरु तुम्बुरुका स्मरण किया । वे समिधा और कुशा लिये तत्काल वहाँ आ पहुँचे । उन्होंने अग्नि प्रज्वलित करके विधिपूर्वक ऋतध्वज और मदालसाका विवाह संस्कार सम्पन्न किया । कुण्डलाने अपनी सखी राजकुमारके हाथों सौंप दी और दोनोंको अपने - अपने कर्तव्यपालनका उपदेश दिया । फिर दोनोंसे विदा लेकर वह दिव्य गतिसे अपने अभीष्ट स्थानपर चली गयी । ऋतध्वजने मदालसाको घोड़ेपर बिठाया और स्वयं भी उसपर सवार हो पाताललोकसे जाने लगे । इतनेहीमें पातालकेतुको यह समाचार मिल गया और वह दानवोंकी विशाल सेना लिये राजकुमारके सामने आ डटा राजकुमार भी बड़े पराक्रमी थे । उन्होंने हँसते - हँसते बाणोंका जाल - सा फैला दिया और त्वाष्ट्र नामक दिव्य अस्त्रका प्रयोग करके पातालकेतुसहित समस्त दानवोंको भस्म कर डाला । इसके बाद वे अपने पिताके नगरमें जा पहुँचे । घोड़ेसे उतरकर उन्होंने माता - पिताको प्रणाम किया । मदालसाने भी सास - ससुरके चरणोंमें मस्तक झुकाया । ऋतध्वजके मुखसे सब समाचार सुनकर माता पिता बहुत प्रसन्न हुए । उन्होंने पुत्र और पुत्रवधूको हृदयसे लगाकर उनका मस्तक सूँघा मदालसा पतिगृहमें बड़े सुखसे रहने लगी । वह प्रतिदिन प्रातःकाल उठकर सास - ससुरके चरणों में प्रणाम करती और पतिको अपनी सेवाओंसे सन्तुष्ट रखती थी । तदनन्तर एक दिन राजा शत्रुजित्ने राजकुमार ऋतध्वजसे कहा- ' बेटा ! तुम प्रतिदिन प्रातः काल इस अश्वपर सवार हो ब्राह्मणोंकी रक्षाके लिये इस पृथ्वीपर विचरते रहो । ' राजकुमारने ' बहुत अच्छा ' कहकर पिताकी आज्ञा शिरोधार्य की । वे प्रतिदिन पूर्वाह्नमें ही पृथ्वीकी परिक्रमा करके पिताके चरणों में नमस्कार करते थे । एक दिन घूमते हुए वे यमुनातटपर गये । वहाँ पातालकेतुका छोटा भाई तालकेतु आश्रम बनाकर मुनिके वैषमें रहता था । राजकुमारने मुनि जानकर उसे प्रणाम किया । वह बोला - ' राजकुमार मैं धर्मके लिये यज्ञ करना चाहता हूँ : किंतु मेरे पास दक्षिणा नहीं है । तुम अपने गलेका यह आभूषण दे दो और यहीं रहकर मेरे आश्रमकी रक्षा करो । मैं जलके भीतर प्रवेश करके वरुण - देवताकी स्तुति करता हूँ । उसके बाद जल्दी ही लौटूंगा । यह कहकर तालकेतु जल मे घुसा और मायासे अदृश्य हो गया । राजकुमार उसके आश्रमपर ठहर गये । मुनिवेषधारी तालकेतु राजा शत्रुजितके नगरमें गया । वहाँ जाकर उसने कहा- ' राजन् ! आपके पुत्र दैत्यां के साथ युद्ध करने करते मारे गये । यह उनका आभूषण है । ' यो कहकर वह जैसे आया था , उसी प्रकार लौट गया । राजकुमारी मृत्युका दुःखपूर्ण समाचार सुनकर नगरमें हाहाकार मच गया । राजा - रानी तथा रनिवासकी स्त्रियाँ शोकसे व्याकुल होकर विलाप करने लगीं । मदालसाने उनके गलेके आभूषणको देखा और पतिको मारा गया सुनकर तुरंत ही अपने प्यारे प्राणोंको त्याग दिया । राजमहलका शोक दूना हो गया । राजा शत्रुजित्ने किसी प्रकार धैर्य धारण किया और रानी तथा अन्तःपुरके अन्य लोगोंको भी समझा - बुझाकर शान्त किया । मदालसाका दाह संस्कार किया गया । उधर तालकेतु यमुना - जलसे निकलकर राजकुमारके पास गया और कृतज्ञता प्रकट करते हुए उसने उनको घर जाने की आज्ञा दे दी । राजकुमारने तुरंत अपने नगरमें पहुँचकर पिता - माताको प्रणाम किया । उन्होंने पुत्रको छातीसे लगा लिया और नेत्रोंसे आँसू बहाने लगे । राजकुमारको सब बातें मालूम हुई । मदालसाके वियोगसे उनका हृदय रो उठा । उनकी दुनिया सूनी हो गयी । उन्होंने मदालसाके लिये जलांजलि दी और यह प्रतिज्ञा की , ' मैं मृगके समान विशाल नेत्रोंवाली गन्धर्वराजकुमारी मदालसाके अतिरिक्त दूसरी किसी स्त्रीके साथ भोग नहीं करूंगा । यह मैंने सर्वथा सत्य कहा है । इस प्रकार प्रतिज्ञा करके उन्होंने स्त्री सम्बन्धी भोगसे मन हटा लिया और समवयस्क मित्रोंके साथ मन बहलाने लगे । इसी समय नागराज अश्वतरके दो पुत्र मनुष्यरूप में पृथ्वीपर घूमनेके लिये निकले । राजकुमार ऋतध्वजके साथ उनकी मित्रता हो गयी । उनका आपसका प्रेम इतना बढ़ गया कि नागकुमार एक क्षण भी उन्हें छोड़ना नहीं चाहते थे । वे दिनभर पातालसे गायब रहते थे । एक दिन नागराजके पूछनेपर उन्होंने ऋवध्वजका सारा वृत्तान्त सुनाकर पितासे कहा - ' हमारे मित्र ऋतध्वज मदालसाके सिवा दूसरी किसी स्त्रीको स्वीकार न करनेकी प्रतिज्ञा कर चुके हैं । मदालसा पुनः जीवित हो सके तो कोई उपाय करें । ' नागराज बोले - ' उद्योगसे सब कुछ सम्भव है । प्राणीको कभी निराश नहीं होना चाहिये । ' यों कहकर नागराज अश्वतर हिमालयपर्वतके प्लक्षावतरण तीर्थमें , जो सरस्वतीका उद्गमस्थान है , जाकर अपने पुत्रोंके मित्र राजकुमार ऋतध्वजके हितार्थ दुष्कर तपस्या करने लगे । सरस्वती देवीने प्रसन्न होकर उन्हें प्रत्यक्ष दर्शन दिया और वर माँगनेको कहा । अश्वतर बोले- ' देवि ! मैं और मेरा भाई कम्बल दोनों संगीतशास्त्रके पूर्ण मर्मज्ञ हो जायें । ' सरस्वतीदेवी ' तथास्तु ' कहकर अन्तर्धान हो गयीं । अब दोनों भाई कम्बल और अश्वतर कैलासपर्वतपर गये और भगवान् शंकरको प्रसन्न करनेके लिये तालस्वरके साथ उनके गुणोंका गान करने लगे । शंकरजीने प्रसन्न होकर कहा - ' वर माँगो । ' तब कम्बलसहित अश्वतरने महादेवजीको प्रणाम करके कहा - ' भगवन् ! कुवलयाश्वकी पत्नी मदालसा जो अब मर चुकी है , पहलेकी ही अवस्थामें मेरी कन्याके रूपमें प्रकट हो । उसे पूर्वजन्मकी बातोंका स्मरण बना रहे । पहले ही जैसी उसकी कान्ति हो तथा वह योगिनी एवं योगविद्याकी जननी होकर मेरे घरमें प्रकट हो । ' महादेवजीने कहा- ' नागराज ! तुम श्राद्धका दिन आनेपर यही कामना लेकर पितरोंका तर्पण करना और श्राद्धमें दिये हुए मध्यम पिण्डको शुद्ध भावसे खा लेना । इससे वह तत्काल ही तुम्हारे मध्यम फणसे प्रकट हो जायगी । ' नागराजने वैसा ही किया । सुन्दरी मदालसा उनके मध्यम फणसे प्रकट हो गयी । नागराजने उसे महलके भीतर स्त्रियोंके संरक्षणमें रख दिया । यह रहस्य उन्होंने किसीपर प्रकट नहीं किया । लाओ । ' बुला तदनन्तर नागराज अश्वतरने अपने पुत्रोंसे कहा- ' तुम राजकुमार ऋतध्वजको यहाँ नागकुमार उन्हें लेकर गोमतीके जलमें उतरे और वहींसे खींचकर उन्हें पातालमें पहुँचा दिया । वहाँ वे अपनेअसली रूपमें प्रकट हुए । ऋतध्वज नागलोककी शोभा देखकर चकित हो उठे । उन्होंने नागराजको प्रणाम किया । नागराजने आशीर्वाद देकर ऋतध्वजका भलीभाँति स्वागत - सत्कार किया । भोजनके पश्चात् सब लोग एक साथ बैठकर प्रेमालाप करने लगे । नागराजने मदालसाके पुनः जीवित होनेकी सारी कथा उन्हें कह सुनायी । फिर तो उन्होंने प्रसन्न होकर अपनी प्यारी पत्नीको ग्रहण किया । उनके स्मरण करते ही उनका प्यारा अश्व वहाँ आ पहुँचा । नागराजको प्रणाम करके वे मदालसाके साथ अश्वपर आरूढ़ हुए और अपने नगरमें चले गये । वहाँ उन्होंने मदालसाके जीवित होनेकी कथा सुनायी । मदालसाने भी सास - ससुरके चरणों में प्रणाम किया । नगरमें बड़ा भारी उत्सव मनाया गया । कुछ कालके पश्चात् महाराज शत्रुजित् परलोकवासी हो गये । ऋतध्वज राजा हुए और मदालसा महारानी । मदालसाके गर्भसे प्रथम पुत्र उत्पन्न हुआ । राजाने उसका नाम विक्रान्त रखा । मदालसा यह नाम सुनकर हँसने लगी । इसके बाद समयानुसार क्रमशः दो पुत्र और हुए उनके नाम सुबाहु और शत्रुमर्दन रखे गये । उन नामोंपर भी मदालसाको हँसी आयी । इन तीनों पुत्रोंको उसने लोरियाँ गानेके व्याजसे विशुद्ध आत्मज्ञानका उपदेश दिया । बड़े होनेपर वे तीनों ममताशून्य और विरक्त हो गये । तत्पश्चात् रानी मदालसाके गर्भसे चौथा पुत्र उत्पन्न हुआ । जब राजा उसका नामकरण करने चले तो उनकी दृष्टि मदालसापर पड़ी । वह मन्द - मन्द मुसकरा रही थी । राजाने कहा- ' मैं नाम रखता हूँ तो हँसती हो । अब इस पुत्रका नाम तुम्हीं रखो । ' मदालसाने कहा- ' जैसी आपकी आज्ञा । आपके चौथे पुत्रका नाम मैं अलर्क रखती हूँ । ' ' अलर्क ! ' यह अद्भुत नाम सुनकर राजा ठठाकर हँस पड़े और बोले - ' इसका क्या अर्थ है ? ' मदालसाने उत्तर दिया , ' सुनिये । नामसे आत्माका कोई सम्बन्ध नहीं है । संसारका व्यवहार चलाने के लिये कोई - सा नाम कल्पना करके रख लिया जाता है । वह संज्ञामात्र है , उसका कोई अर्थ नहीं । आपने भी जो नाम रखे हैं , वे भी निरर्थक ही हैं , पहले ' विक्रान्त ' इस नामके अर्थपर विचार कीजिये । क्रान्तिका अर्थ है गति । जो एक स्थानसे दूसरे स्थानपर जाता है , वही विक्रान्त है । आत्मा सर्वत्र व्यापक है , उसका कहीं आना - जाना नहीं होता । अतः यह नाम उसके लिये निरर्थक तो है ही , स्वरूपके विपरीत भी है । आपने दूसरे पुत्रका नाम ' सुबाहु ' रखा है । जब आत्मा निराकार है , तो उसे बाँह कहाँसे आयी ? जब बाँह ही नहीं है तो सुबाहु नाम रखना कितना असंगत है । तीसरे पुत्रका नाम ' शत्रुमर्दन ' रखा गया है , उसकी भी कोई सार्थकता नहीं दिखायी देती । सब शरीरोंमें एक ही आत्मा रम रहा है ; ऐसी दशामें कौन किसका शत्रु है और कौन किसका मर्दन करनेवाला ? यदि व्यवहारका निर्वाहमात्र ही उसका प्रयोजन है तब तो अलर्क नामसे भी इस उद्देश्यकी पूर्ति हो सकती है । राजा निरुत्तर हो गये । मदालसाने उस बालकको भी ब्रह्मज्ञानका उपदेश सुनाना आरम्भ किया । तब राजाने रोककर कहा – ' देवि ! इसे भी ज्ञानका उपदेश देकर मेरी वंश - परम्पराका उच्छेद करनेपर क्यों तुली हो ? इसे प्रवृत्तिमार्गमें लगाओ और उसके अनुकूल ही उपदेश दो । ' मदालसाने पतिकी आज्ञा मान ली और अलर्कको बचपनमें ही व्यवहार शास्त्रका पण्डित बना दिया । उसे राजनीतिका पूर्ण ज्ञान कराया । धर्म , अर्थ और काम तीनों शास्त्रोंमें वह प्रवीण बन गया । बड़े होनेपर माता - पिताने अलर्कको राजगद्दीपर बिठाया और स्वयं वनमें तपस्या करनेके लिये चले गये । जाते समय मदालसाने अलर्कको एक अंगूठी दी और कहा ' जब तुमपर कोई संकट पड़े तो इस अँगूठीके छिद्रसे उपदेशपत्र निकालकर पढ़ना और इसके अनुसार कार्य करना । ' अलर्कने गंगा - यमुनाके संगमपर अपनी अलर्कपुरी नामकी राजधानी बनायी , जो आजकल अरैलके नामसे प्रसिद्ध है । कुछ कालके बाद अलर्कको भोगोंमें आसक्त देख उनके बड़े भाई सुबाहुने काशिराजकीसहायतासे उनपर आक्रमण किया । अलकने संकट जानकर माताका उपदेश पढ़ा । उसमें लिखा था सवात्पना त्यान्यः चेत्त्वक्तुं न शक्यते । भेषजम् ॥ कर्तव्यः सतां सङ्घी हि चेच्छक्यते सवात्मना प्रति हेवो हातु तत्कार्य सेव तस्यापि भैषजम् ।। संग ( आसक्ति ) का सब प्रकारके त्याग करना चाहिये किंतु यदि उसका त्याग न किया जा सके । को सत्पुरुषोंका संग करना चाहिये ; क्योंकि सत्पुरुषोंका सँग ही उसकी ओषधि है । कामनाको सर्वथा छ । देना चाहिये ; परंतु यदि वह छोड़ी न जा सके तो मुमुक्षा के प्रति कामना करनी चाहिये क्योंकि मुमुक्षा हो उस कामनाको मिटानेकी दवा है । " इस उपदेशको अनेक बार पढ़कर राजाने सोचा , मनुष्योंका कल्याण कैसे होगा ? मुक्तिकी इच्छा जा करनेपर और मुक्तिकी इच्छा जतात् होगी सत्संगसे ऐसा विचारकर अलर्कने महात्मा दत्तात्रेयजीको शरण सो और वहाँ ममतारहित विशुद्ध आत्मज्ञानका उपदेश पाकर वे सदाके लिये कृतार्थ हो गये । इस प्रकार महावी मदालसाने अपने पुत्रोंका उद्धार करके स्वयं भी पतिके साथ परमात्मचिन्तनमें मन लगाया और थोड़े ही समय में मोक्षस्वरूप परमपद प्राप्त कर लिया । मदालसा अब इस लोकमें नहीं है ; किंतु उसका नाम सदाके लिये अमर हो गया ।    मार्कण्डेयपुराण

हरिशरणम हरिशरणम हरिशरणम 

मित्र  मदालसा के दिव्य जीवन चरित्र धन्य है  । सनातन हिंदु धर्म कर्म की सहजता से व्याख्यायित है । अन्य पंथ मे   ऐसी चरित्र  उपहास  का पात्र ही हो सकता  है ।


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