श्री विदुरजी

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                  श्रीविदुरजी एवं उनकी धर्मपत्नी 

 विदुरानीजी लिया माण्डव्य ऋषिके शापसे यमराजजीने ही दासीपुत्रके रूपमें धृतराष्ट्र तथा पाण्डुके भाई होकर जन्म था ।

यमराजजी भागवताचार्य हैं । अपने इस रूपमें मनुष्य - जन्म लेकर भी वे भगवान्‌के परम भक्त तथा धर्मपरायण ही रहे । विदुरजी महाराज धृतराष्ट्र मन्त्री थे और सदा इसी प्रयत्नमें रहते थे । कि महाराज धर्मका पालन करें । नीतिशास्त्रके ये महान् पण्डित और प्रवर्तक थे । इनकी विदुरनीति बहुत ही उपादेय और प्रख्यात है । जब कभी पुत्र स्नेहवश धृतराष्ट्र पाण्डवोंको क्लेश देते या उनके अहितको योजना सोचते , तब विदुरजी उन्हें समझाने का प्रयत्न करते स्पष्टवादी और न्यायका समर्थक होनेपर भी धृतराष्ट्र इन्हें बहुत मानते थे । दुर्योधन अवश्य ही इनसे जला करता था । धर्मरत पाण्डुके पुत्रोंसे ये स्नेह करते थे । जब दुरात्मा दुर्योधनने लाक्षाभवन में पाण्डवोंको जलानेका षड्यन्त्र किया , तब विदुरजीने उन्हें बचानेकी व्यवस्था की और गुहा युक्ति भी बता दी । भाषामें सन्देश भेजकर युधिष्ठिरको पहले ही सावधान कर दिया तथा उस भयंकर गृहसे बच निकलनेको सज्जनोंको सदा न्याय एवं धर्म ही अच्छा लगता है । अन्याय तथा अधर्मका विरोध करना उनका स्वभाव होता है । इसके लिये अनेकों बार दुर्जनोंसे उन्हें तिरस्कृत तथा पीड़ित भी होना पड़ता है । विदुरजी दुर्योधन के दुष्कमका प्रबल विरोध करते थे ।

जब कौरवोंने भरी सभामें द्रौपदीको अपमानित करना प्रारम्भ किया , तब वे रुष्ट होकर सभाभवनसे चले गये । पाण्डवोंके वनवासके समय दुर्योधनके भड़कानेसे धृतराष्ट्रने विदुरजीको कह दिया- तुम सदा पाण्डवोंकी ही प्रशंसा करते हो , अतः उन्हींके पास चले जाओ । विदुरजी वनमें पाण्डवोंके पास चले गये । उनके चले जानेपर धृतराष्ट्रको उनकी महत्ताका पता लगा । विदुरसे रहित अपनेको रखनेवाले विदुरजी लौट आये । वे असहाय समझने लगे । तब दूत भेजकर विदुरजीको उन्होंने फिर बुलाया । मानापमानमें समान भाव पाण्डवों के वनवास के तेरह वर्ष कुन्तीदेवी विदुरजीके यहाँ हो रही थीं । जब श्रीकृष्णचन्द्र सन्धि कराने पधारे तब दुर्योधनका स्वागत - सत्कार उन्होंने अस्वीकार कर दिया । उन मधुसूदनको कभी ऐश्वर्य सन्तुष्ट नहीं कर पाता , वे तो भक्तके भावभरे तुलसीदल एवं जलके ही भूखे रहते हैं । श्रीकृष्णचन्द्रने धृतराष्ट्र , भीष्म , भूरित्रवा आदि समस्त लोगोंका आतिथ्य अस्वीकार कर दिया और विदुरजीके घर से बिना निमन्त्रण ही पहुँच गये । अपने सच्चे भक्तका घर तो उनका अपना ही घर है । विदुरके शाकको उन त्रिभुवनपतिने नैवेद्य बनाया । विदुरानीके केलेके छिलकेकी कथा प्रसिद्ध है । महाभारतके अनुसार विदुरजीने विविध व्यंजनादिसे उनका सत्कार किया था । महाराज धृतराष्ट्रको भरी सभामें श्रीकृष्णचन्द्र के सम्मुख तथा केशवके चले जानेपर अकेले भी विदुर समझाया - दुर्योधन पापी है । इसके कारण कुस्कुलका विनाश होता दीखता है । इसे बाँधकर आप पाण्डवको दे दें । दुर्योधन इससे बहुत बिगड़ा । उसने कठोर वचन कहे । विदुरजीको युद्धमें किसीका पक्ष लेना नहीं था , अतः शस्त्र छोड़कर वे तीर्थाटनको चले गये । अवधूतवेशमें वे तीर्थों में घूम रहे । बिना माँगे जो कुछ मिल जाता , वही खा लेते नंगे शरीर कन्द - मूल खाते हुए वे तीर्थोमें लगभग ३६ वर्ष विचरते रहे । अमे मथुराम इन्हें उद्धवजी मिले । उनसे महाभारतके युद्ध , यदुकुलके क्षय तथा भगवान्के स्वधामगमनका समाचार मिला । भगवान्ने स्वधाम पधारते समय महर्षि मैत्रेयको आदेश दिया था विदुरजीको उपदेश करनेका उद्धवजीसे यह समाचार पाकर विदुरजी हरद्वार गये । वहाँ मैत्रेयजीसे उन्होंने भगवदुपदिष्ट तत्त्वज्ञान प्राप्त किया और फिर हस्तिनापुर आये । हस्तिनापुर विदुरजी केवल बड़े भाई धृतराष्ट्रको आत्मकल्याणका मार्ग प्रदर्शन करने आये थे । उनके उपदेशसे धृतराष्ट्र एवं गान्धारीका मोह दूर हो गया और वे विरक्त होकर वनको चले गये । विदुरजी तो सदासे विरक्त थे । वनमें जाकर उन्होंने भगवान् में चित्त लगाकर योगियोंको भाँति शरीरको छोड़ दिया । भक्तमालके टीकाकार श्रीप्रियादासजी महाराजने श्रीविदुरजी और उनकी धर्मपत्नीके चरित्रका वर्णन इस प्रकार किया है न्हात ही विदुर नारि अंगन पखारि करि आइ गये द्वार कृष्ण बोलिकै सुनायो है । सुनत ही स्वर सुधि डारी लै निदरि मानो राख्यो मद भरि दौरि आनिकै चितायो है ॥ डारि दियो पीतपट कटि लपटाय लियो हियौ सकुचायो वेष वेगि ही बनायो है । बैठी ढिग आइ केरा छीलि छिलका खवाइ आयो पति खीझूयो दुःख कोटि गुनो पायो है ॥ ५१ ॥ प्रेम को विचारि आपु लागे फलसार दैन चैन पायो हियो नारि बड़ी दुखदाई है । बोले रीझि श्याम तुम कीनो बड़ोकाम ऐपै स्वाद अभिराम वैसी वस्तु में न पाई है । तिया सकुचाय कर काटि डारौँ हाय प्राणप्यारे को खवाइ छीलि छिलका न भाई है । हित ही की बातें दोऊ पार पावैं नाहिं कोऊ नीकेकै लड़ावै सोई जानै यह गाई है ॥ ५२ ॥ कवित्तोंका भाव इस प्रकार है जिस समय भगवान् श्रीकृष्ण विदुरजीके दरवाजेपर पहुँचे , उस समय उनकी स्त्री स्नान कर रही थी । आते ही श्रीकृष्णने बाहरसे आवाज लगायी । विदुरानीने सुनते ही श्रीकृष्णकी आवाज पहचान लो और सुध बुध भूल गयी , जैसे उस स्वरमें कोई आकर्षण हो । वस्त्र पहने बिना ही वह ज्यों - की - त्यों दौड़ आयी और किवाड़ खोलकर भगवान्के दर्शन किये । भगवान्ने जब उनका यह हाल देखा , तो झटसे कमरसे लिपटा हुआ पीताम्बर उनके शरीरपर डाल दिया । अब विदुरानीको होश आया । वह बड़ी लज्जित हुई और जल्दी ही अन्दर जाकर कपड़े पहन आयी । इसके अनन्तर वह श्रीकृष्णके पास आकर बैठ गयी और खिलानेके लिये लाये हुए केलॉको छील - छोलकर प्रेममें बेसुध होनेके कारण गूदेके स्थानपर छिलके खिलाने लगीं । इतनेमें पतिदेव श्रीविदुरजी भी आ गये । उन्होंने यह दृश्य देखा , तो अपनी पत्नीपर बहुत झल्लाये । विदुरानीको अपनी भूल मालूम हुई तो उन्हें बड़ा कष्ट हुआ । लगे । सबसों ऊँची प्रेमाधिक्यके कारण पत्नीसे हुई भूलको विचारकर श्रीविदुरजी भगवान्‌को केलेके गूदे खिलाने अब उनके हृदयको शान्ति मिली । फिर भी बार - बार यही सोचते रहे कि इस स्त्रीने छिलका खिलाकर भगवान्को बड़ा कष्ट दिया । इसपर भगवान्ने प्रसन्न होकर कहा- ' विदुरजी ! आपने यह काम ठीक किया कि मुझे केले खिलाये , पर सच बात तो यह है कि इतनेपर भी जैसा स्वाद उन छिलकोंमें मिला था , वैसा इन केलोंके गूदोंमें कहाँ ! ' उधर श्रीविदुरानी अपने मनमें कह रही थी - ' हाय ! इन हाथोंको मैं कैसे काट डालू , जिन्होंने गूदा तो फेंक दिया और छिलका खिला दिया । धन्य हैं विदुर - विदुरानी और धन्य है उनकी भक्ति ! सूरदासजीने भी प्रभुद्वारा विदुरजीके यहाँ भोजन करनेका प्रधान कारण प्रेम ही माना है सगाई । दुरजोधनके मेवा त्यागे , साग बिदुर घर खाई ॥ जूठे फल सबरीके खाये , बहु बिधि स्वाद बताई । प्रेमके बस नृप सेवा कीन्हीं आप बने हरि नाई ॥ राजसु - जग्य जुधिष्ठिर कीन्हों तामें जूँठ उठाई । प्रेमके बस पारथ रथ हाँक्यो , भूलि गये ठकुराई ॥ ऐसी प्रीति बढ़ी वृंदाबन , गोपिन नाच नचाई । सूर कूर इहि लायक नाहीं , कहँ लगि करौं बड़ाई ॥  जब अपनी भूल मालूम हुई तो उन्हें बड़ा कष्ट हुआ । लगे । सबसों ऊँची प्रेमाधिक्यके कारण पत्नीसे हुई भूलको विचारकर श्रीविदुरजी भगवान्‌को केलेके गूदे खिलाने अब उनके हृदयको शान्ति मिली । फिर भी बार - बार यही सोचते रहे कि इस स्त्रीने छिलका खिलाकर भगवान्को बड़ा कष्ट दिया । इसपर भगवान्ने प्रसन्न होकर कहा- ' विदुरजी ! आपने यह काम ठीक किया कि मुझे केले खिलाये , पर सच बात तो यह है कि इतनेपर भी जैसा स्वाद उन छिलकोंमें मिला था , वैसा इन केलोंके गूदोंमें कहाँ ! ' उधर श्रीविदुरानी अपने मनमें कह रही थी - ' हाय ! इन हाथोंको मैं कैसे काट डालू , जिन्होंने गूदा तो फेंक दिया और छिलका खिला दिया । धन्य हैं विदुर - विदुरानी और धन्य है उनकी भक्ति ! सूरदासजीने भी प्रभुद्वारा विदुरजीके यहाँ भोजन करनेका प्रधान कारण प्रेम ही माना है सगाई । दुरजोधनके मेवा त्यागे , साग बिदुर घर खाई ॥ जूठे फल सबरीके खाये , बहु बिधि स्वाद बताई । प्रेमके बस नृप सेवा कीन्हीं आप बने हरि नाई ॥ राजसु - जग्य जुधिष्ठिर कीन्हों तामें जूँठ उठाई । प्रेमके बस पारथ रथ हाँक्यो , भूलि गये ठकुराई ॥ ऐसी प्रीति बढ़ी वृंदाबन , गोपिन नाच नचाई । सूर कूर इहि लायक नाहीं , कहँ लगि करौं बड़ाई ॥ श्रीअकूरजी प्रेम अक्रूरजीका जन्म यदुवंशमें ही हुआ था । ये कुटुम्बके नातेसे वसुदेवजीके भाई लगते थे । इनके पिताका नाम श्वफल्क था । ये कंसके दरबारके एक दरबारी थे । कंसके अत्याचारोंसे पीड़ित होकर बहुत से यदुवंशी इधर - उधर भाग गये थे , किंतु ये जिस किसी प्रकार कंसके दरबारमें ही पड़े हुए थे । जब अनेक उपाय करके भी कंस भगवान्को नहीं मरवा सका , तब उसने एक चाल चली । उसने एक धनुषयज्ञ रचा और उसमें मल्लोंके द्वारा मरवा डालनेके लिये गोकुलसे गोप - ग्वालोंके सहित श्रीकृष्ण बलरामको बुलवाया । उन्हें आदरपूर्वक लानेके लिये अक्रूरजीको भेजा गया । कंसकी आज्ञा पाकर अक्रूरजीकी प्रसन्नताका ठिकाना नहीं रहा । वे भगवान्‌के दर्शनके लिये बड़े उत्कण्ठित थे । किसी - न - किसी प्रकार वे भगवान्‌के दर्शन करना चाहते थे । भगवान्ने स्वतः ही कृपा करके ऐसा संयोग जुटा दिया । जीव अपने पुरुषार्थ से प्रभुके दर्शन करना चाहे तो यह उसकी अनधिकार चेष्टा है । कोटि जन्ममें भी उतनी पवित्रता , वैसी योग्यता जीव नहीं प्राप्त कर सकता कि जिससे वह परात्पर प्रभुके सामने पुरुषार्थके बलपर पहुँच सके । है । प्रभुने कृपा करके घर बैठे ही अक्रूरजीको बुला दिया । जब प्रभु ही अपनी अहैतुकी कृपाके द्वारा जीवको अपने समीप बुलाना चाहें , तभी वह वहाँ जा सकता प्रातः काल मथुरासे रथ लेकर वे नन्दगाँव भगवान्‌को लेने चले । रास्ते में अनेक प्रकारके मनोरथ करते जाते थे । सोचते थे - अहा , उन पीताम्बरधारी बनवारीको मैं इन्हीं चक्षुओंसे देखूँगा , उनके सुन्दर मुखारविन्दको , घुँघराली काली - काली अलकावलीसे युक्त सुकपोलोंको निहारूँगा । वे जब मुझे अपने सुकोमल करकमलोंसे स्पर्श करेंगे , उस समय मेरे समस्त शरीरमें बिजली - सी दौड़ जायगी । वे मुझसे हँस हँसकर बातें करेंगे । मुझे पास बिठायेंगे । बार - बार प्रेमपूर्वक चाचा - चाचा कहेंगे । मेरे लिये वह कितने सुखको स्थिति होगी । इस प्रकार भाँति - भाँतिकी कल्पनाएँ करते हुए वे वृन्दावनके समीप पहुँचे । वहाँ उन्होंने वज्र ,वृन्दावन के समीप पहुँचे । वहाँ उन्होंने वज्र ,अंकुश , यव , ध्वजा आदि चिह्नोंसे विभूषित श्यामसुन्दरके चरणचिह्नोंको देखा । बस , फिर क्या था ! वे उन घनश्यामके चरणचिह्नोंको देखते ही रथसे कूद पड़े और उनकी वन्दना करके उस धूलिमें लोटने लगे । उन्हें उस धूलिमें लोटनेमें कितना सुख मिल रहा था , यह कहनेकी बात नहीं है । जैसे - तैसे व्रज पहुँचे । सर्वप्रथम बलदेवजीके साथ श्यामसुन्दर ही उन्हें मिले । उन्हें छातीसे लगाया , घर ले गये । कुशल पूछी , आतिथ्य किया और सब समाचार जाने । दूसरे दिन रथपर चढ़कर अक्रूरके साथ श्यामसुन्दर और बलराम मथुरा चले । गोपियोंने उनका रथ घेर लिया , बड़ी कठिनतासे वे आगे बढ़ सके । थोड़ी दूर चलकर यमुना किनारे अक्रूरजी नित्य कर्म करने ठहरे । स्नान करनेके लिये ज्यों ही उन्होंने डुबकी लगायी कि भीतर चतुर्भुज श्रीश्यामसुन्दर दिखायी दिये । घबराकर ऊपर आये तो दोनों भाइयोंको रथपर बैठे देखा । फिर डुबकी लगायी तो फिर वही मूर्ति जलके भीतर दिखायी दी । अक्रूरजीको ज्ञान हो गया कि जलमें , स्थलमें , शून्यमें कोई भी ऐसा स्थान नहीं , जहाँ श्यामसुन्दर विराजमान न हों । भगवान् उन्हें देखकर हँस पड़े । वे भी प्रणाम करके रथपर बैठ गये । मथुरा पहुँचकर भगवान् रथपरसे उतर पड़े और बोले - हम अकेले ही पैदल जायेंगे । अक्रूरजीने बहुत प्रार्थना की- आप रथपर पहले मेरे घर पधारें , तब कहीं अन्यत्र जायँ । भगवान्ने कहा- आपके घर तो तभी जाऊँगा , जब कंसका अन्त हो जायगा । अक्रूरजी दुखी मनसे चले गये । कंसको मारकर भगवान् अक्रूरजीके घर गये । अब अक्रूरजीके आनन्दका क्या ठिकाना ! जिनके दर्शन के लिय योगीन्द्र - मुनीन्द्र हजारों - लाखों वर्ष तपस्या करते हैं , वे स्वतः ही बिना प्रयासके घरपर पधार गये । अक्रूरजीने उनकी विधिवत् पूजा की और कोई आज्ञा चाही । भगवान्ने अक्रूरजीको अपना अन्तरंग सुहृद् समझकर आज्ञा दी कि हस्तिनापुरमें जाकर हमारी बूआके लड़के पाण्डवोंके समाचार ले आइये । हमने सुना है , धृतराष्ट्र उन्हें दुःख देता है । भगवान्की आज्ञा पाकर अक्रूरजी हस्तिनापुर गये और धृतराष्ट्रको सब प्रकार से समझाकर और पाण्डवोंके समाचार लेकर लौट आये । भगवान् जब मथुरापुरीको त्यागकर द्वारका पधारे , तब अक्रूरजी भी उनके साथ ही गये । अक्रूरजी इतने पुण्यशील थे कि वे जहाँ रहते , वहाँ खूब वर्षा होती , अकाल नहीं पड़ता । किसी प्रकारका कष्ट और महामारी आदि उपद्रव नहीं होते । एक बार वे जब किसी कारणवश द्वारकासे चले गये थे , तब द्वारकामें दैविक और भौतिक दुःखोंसे प्रजाको बड़ा भारी मानसिक और शारीरिक कष्ट सहना पड़ा था । आखिर भगवान्ने उनको हुँढ़वाकर वापस बुलवाया । ये सम्बन्धमें भगवान् श्रीकृष्णके चाचा होनेपर भी उनके सच्चे भक्त थे । अन्तमें भगवान्‌के साथ ही वे परम धामको पधारे । 

हरिशरणम हरिशरणम हरिशरणम। 

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