श्री अंबरीष जी

0

                          श्रीअम्बरीषजी

 वैवस्वत मनुके प्रपौत्र तथा राजर्षि नाभागके पुत्र महाराज अम्बरीषजी सप्तद्वीपवती सम्पूर्ण पृथ्वी के स्वामी थे और उनके ऐश्वर्यकी संसारमें कोई तुलना न थी । कोई दरिद्र मनुष्य भोगोंके अभावमें वैराग्यवान् बन जाय , यह तो सरल है ; किंतु धन - दौलत होनेपर , विलासभोगकी पूरी सामग्री प्राप्त रहते वैराग्यवान् होना , विषयोंसे दूर रहना महापुरुषोंके ही वशका है और यह भगवान्‌की कृपासे ही होता है । थोड़ी सम्पत्ति और साधारण अधिकार भी मनुष्यको मदान्ध बना देता है , किंतु जो भाग्यवान् अशरण - शरण दीनबन्धु भगवान्के चरणोंका आश्रय ले लेते हैं , जो उन मायापति श्रीहरिकी रूपमाधुरीका सुधास्वाद पा लेते हैं , मायाकी मादकता उन्हें रूखी लगती है । मोहनकी मोहनी जिनके प्राण मोहित कर लेती है , मायाका ओछापन उन्हें लुभाने में असमर्थ हो जाता है ।

वे तो जलमें कमलकी भाँति सम्पत्ति एवं ऐश्वर्यके मध्य भी निर्लिप्त ही रहते हैं । वैवस्वत मनुके प्रपौत्र तथा राजर्षि नाभागके पुत्र अम्बरीषको अपना ऐश्वर्य स्वप्नके समान असत् जान पड़ता था । वे जानते थे कि सम्पत्ति मिलनेसे मोह होता है और बुद्धि मारी जाती है । भगवान् वासुदेवके भक्तोंको पूरा विश्व ही मिट्टीके ढेलों - सा लगता है । विश्वमें तथा उसके भोगोंमें नितान्त अनासक्त अम्बरीषजीने अपना सारा जीवन परमात्माके पावन पाद - पद्योंमें ही लगा दिया था ।  कर जैसा राजा , वैसी प्रजा महाराज अम्बरीषके प्रजाजन , राजकर्मचारी- सभी लोग भगवान्‌के पवित्र चरित सुनने , भगवान्के नाम - गुणका कीर्तन करने और भगवान्के पूजन - ध्यान में ही अपना समय लगाते थे । मळवत्सल भगवान्ने देखा कि मेरे ये भक्त तो मेरे चिन्तनमें ही लगे रहते हैं , तो भक्तोंके योगक्षेमकी रक्षा करनेवाले प्रभुने अपने सुदर्शनचक्रको अम्बरीष तथा उनके राज्यकी रक्षामें नियुक्त कर दिया । जब मनुष्य अपना सब भार उन सर्वेश्वरपर छोड़कर उनका हो जाता है , तब वे दयामय उसके योगक्षेमका दायित्व अपने ऊपर लेकर उसे सर्वथा निश्चिन्त कर देते हैं । चक्र अम्बरीषके द्वारपर रहकर राज्यकी रक्षा करने लगा । ( क ) राजर्षि अम्बरीषके एकादशीव्रतनिष्ठाकी कथा राजा अम्बरीषने एक बार अपनी पत्नीके साथ श्रीकृष्णको प्रसन्न करनेके लिये वर्षकी सभी एकादशियोंके व्रतका नियम किया । वर्ष पूरा होनेपर पारणके दिन उन्होंने धूम - धामसे भगवान्की पूजा को । ब्राह्मणोंको गोदान किया । यह सब करके जब वे पारण करने जा रहे थे , तभी महर्षि दुर्वासा शिष्यों सहित पधारे । राजाने उनका सत्कार किया और उनसे भोजन करनेकी प्रार्थना की । दुर्वासाजीने राजाकी प्रार्थना स्वीकार कर ली और स्नान करने यमुना तटपर चले गये । द्वादशी केवल एक घड़ी शेष थी । द्वादशीमें पारण न करनेसे व्रत भंग होता । उधर दुर्वासाजी आयेंगे कब , यह पता नहीं था । अतिथिसे पहले भोजन करना अनुचित था । ब्राह्मणोंसे व्यवस्था लेकर राजाने भगवान्के चरणोदकको लेकर पारण कर लिया और भोजनके लिये ऋषिकी प्रतीक्षा करने लगे । किया मेरा मह दुर्वासाजीने स्नान करके लौटते ही तपोबलसे राजाके पारण करनेकी बात जान ली । वे अत्यन्त क्रोधित हुए कि मेरे भोजनके पहले इसने क्यों पारण किया । उन्होंने मस्तकसे एक जटा उखाड़ ली और उसे जोरसे पृथ्वीपर पटक दिया । उससे कालाग्निके समान कृत्या नामकी भयानक राक्षसी निकली । वह राक्षसी तलवार लेकर राजाको मारने दौड़ी । राजा जहाँ - के - तहाँ स्थिर खड़े रहे । उन्हें तनिक भी भय नहीं लगा । सर्वत्र सब रूपोंमें भगवान् ही हैं , यह देखनेवाला भगवान्‌का भक्त भला , कहीं अपने ही दयामय स्वामीसे डर सकता है ? अम्बरीषको तो कृत्या भी भगवान् ही दीखती थी । परंतु भगवान्‌का सुदर्शनचक्र तो भगवान्‌की आज्ञासे पहलेसे ही राजाकी रक्षामें नियुक्त था । उसने पलक मारते कृत्याको भस्म कर दिया और दुर्वासाकी भी खबर लेने उनकी ओर दौड़ा । अपनी कृत्याको इस प्रकार नष्ट होते और ज्वालामय कराल चक्रको अपनी ओर आते देख दुर्वासाजी प्राण लेकर भागे । वे दसों दिशाओंमें , पर्वतोंकी गुफाओंमें , समुद्रमें - जहाँ जहाँ छिपनेको गये , चक्र वहीं उनका पीछा करता गया । आकाश - पातालमें सब कहीं वे गये । इन्द्रादि लोकपाल तो उन्हें क्या शरण देते , स्वयं ब्रह्माजी और शंकरजीने भी आश्रय नहीं दिया । दया करके शिवजीने उनको भगवान्के ही पास जानेको कहा । अन्तमें वे वैकुण्ठ गये और भगवान् विष्णुके चरणोंपर गिर पड़े । दुर्वासाने कहा प्रभो ! आपका नाम लेनेसे नारकी जीव नरकसे भी छूट जाते हैं , अतः आप मेरी रक्षा करें । मैंने आपके प्रभावको न जानकर आपके भक्तका अपराध किया , इसलिये आप मुझे क्षमा करें । मेरे मैं भी भगवान् अपनी छातीपर भृगुकी लात तो सह सकते हैं , अपने प्रति किया गया अपराध वे कभी मनमें ही नहीं लेते , पर भक्तके प्रति किया गया अपराध वे क्षमा नहीं कर सकते । प्रभुने कहा- महर्षि ! मैं स्वतन्त्र नहीं हूँ । मैं तो भक्तोंके पराधीन हूँ । साधु भक्तोंने मेरे हृदयको जीत लिया है । साधुजन हृदय हैं और मैं उनका हृदय हूँ । मुझे छोड़कर वे और कुछ नहीं जानते और उनको छोड़कर और कुछ नहीं जानता । साधु भक्तोंको छोड़कर मैं अपने इस शरीरको भी नहीं चाहता और इन लक्ष्मीजीको जिनकी एकमात्र गति मैं ही हूँ उन्हें भी नहीं चाहता । जो भक्त स्त्री - पुत्र , घर - परिवार , धन - प्राण , इहलोक - परलोक सबको त्यागकर मेरी शरण आया है , भला मैं उसे कैसे छोड़ सकता हूँ ? जैसे पतिव्रता स्त्री पतिको अपनी सेवासे वशमें कर लेती है , वैसे ही समदर्शी भक्तजन मुझमें चित लगाकर मुझे भी अपने वशमें कर लेते हैं । नश्वर स्वर्गादिकी तो चर्चा ही क्या , मेरे भक्त मेरी सेवाके आगे मुक्तिको भी स्वीकार नहीं करते । ऐसे भक्तोंके मैं सर्वथा अधीन हूँ , अतएव ऋषिवर ! आप उन महाभाग नाभागतनयके ही पास जायें । वहीं आपको शान्ति मिलेगी । इधर राजा अम्बरीष बहुत ही चिन्तित थे । उन्हें लगता था कि मेरे ही कारण दुर्वासाजीको मृत्युभयसे ग्रस्त होकर भूखे ही भागना पड़ा । ऐसी अवस्थामें मेरे लिये भोजन करना कदापि उचित नहीं है । अतः वे केवल जल पीकर ऋषिके लौटनेको पूरे एक वर्षतक प्रतीक्षा करते रहे । वर्षभरके बाद दुर्वासाजी जैसे भागे थे , वैसे ही भयभीत दौड़ते हुए आये और उन्होंने राजाका पैर पकड़ लिया । ब्राह्मणके द्वारा पैर पकड़े जानेसे राजाको बड़ा संकोच हुआ । उन्होंने स्तुति करके सुदर्शनको शान्त किया । महर्षि दुर्वासा मृत्युके भयसे छूटे । सुदर्शनका अत्युग्र ताप , जो उन्हें जला रहा था , शान्त हुआ । अब प्रसन्न होकर वे कहने लगे- आज मैंने भगवान्‌के दासोंका महत्त्व देखा । राजन् ! मैंने तुम्हारा इतना अपराध किया था , पर तुम मेरा कल्याण ही चाहते हो । जिन प्रभुका नाम लेनेसे ही जीव समस्त पापोंसे छूट जाता है , उन तीर्थपाद श्रीहरिके भक्तोंके लिये कुछ भी कार्य शेष नहीं रह जाता । राजन् ! तुम बड़े दयालु हो । मेरा अपराध न देखकर तुमने मेरी प्राणरक्षा की । अम्बरीषके मनमें ऋषिके वाक्योंसे कोई अभिमान नहीं आया । उन्होंने इसको भगवान्‌की कृपा समझा । महर्षिके चरणों में प्रणाम करके बड़े आदरसे राजाने उन्हें भोजन कराया । उनके भोजन करके चले जानेपर एक वर्ष पश्चात् उन्होंने वह पवित्र अन्न प्रसादरूपसे लिया । बहुत कालतक परमात्मामें मन लगाकर प्रजापालन करने के पश्चात् अम्बरीषजीने अपने पुत्रको राज्य सौंप दिया और भगवान् वासुदेवमें मन लगाकर बनमें चले गये । वहाँ भजन तथा तप करते हुए उन्होंने भगवान्‌को प्राप्त किया । श्रीप्रियादासजी महाराज श्रीअम्बरीषजीके चरित्रका निम्न कवित्तोंमें इस प्रकार वर्णन करते हैं अम्बरीष भक्त की जो रीस कोऊ करे और बड़ो मति बौर किहूँ जान नहिं भाखिये । रिषि सीष सुनी नहीं कहूँ साधु मानि अपराध सिर जटा खैचि नाखिये ॥ दुरबासा लई उपजाय काल कृत्या विकराल रूप भूप महाधीर रह्यो ठाड़ो अभिलाखिये । 1 चक्र दुख मानि लै कृशानु तेज राख करी परी भीर ब्राह्मण को भागवत साखिये ॥ ३ ९ ॥ भाग्यो दिशा दिशा सब लोक लोकपाल पास गयो नयो तेज चक्र चून किये डारे हैं । ब्रह्मा शिव कही यह गही तुम देव बुरी दासनि को भेद नहिं जान्यो वेद धारे हैं । पहुंचे बैकुण्ठ जाय की दुःख अकुलाय हाय हाय राखौ प्रभु खरो तन जारे हैं । मैं तो हाँ अधीन तीनि गुन को न मान मेरे भक्तवात्सल्य गुण सबही को टारे हैं ॥ ४० ॥ मोको अति प्यारे साधु उनकी अगाधमति कर्यो अपराध तुम सह्यो कैसे जात हैं । धाम धन वाम सुत प्राण तनु त्याग करें ढरें मेरी ओर निशिभोर मोसों बात है ॥ मेरेड न सन्त बिनु और कछु साँची कहाँ जाओ वाही ठौर जाते मिटै उत्पात है । बड़ेई दयाल सदा दीन प्रतिपाल करें न्यूनता न धरें कहूँ भक्ति गात गात है ॥ ४ ९ ॥ है करि निरास ऋषि आयो नृप पास चल्यो गर्व सों उदास पग गहे दीन भाष्यो है । राजा लाज मानि मृदु कहि सनमान कर्यो ढर्यो चक्र ओर करजोरि अभिलाष्यो है । भक्त निष्काम कभू कामना न चाहत हैं चाहत हैं विप्र दुख दूरि करो चाख्यो है । देखि के विकलताई सदा सन्त सुखदाई आई मान माँझ सब तेज ढाँकि राख्यो है ॥ ४२ ॥ इन कवित्तोंका भाव संक्षेपमें इस प्रकार है--भक्त अम्बरीषकी छोटी रानीके विवाहकी कथा भलवर अम्बरीषकी अपूर्व भगवद्भक्तिपर एक राजकुमारी लुब्ध हो गयी । उसने निश्चय किया कि मैं उन्हींको अपने पतिके रूपमें वरण करूंगी । अपना दृढ़ विचार उसने पिताके समक्ष उपस्थित कर दिया । पिताने एक पत्रमें सारी बातें लिखकर उसे ब्राह्मणके द्वारा अम्बरीषके पास भेजा । ब्राह्मणदेव नृपशिरोमणि अम्बरीषके पास पहुँचे और पत्र उन्हें दे दिया । पत्र पढ़कर नरेशने कहा , ' भगवद्भजन और राज्य कार्यसे मुझे तनिक भी अवकाश नहीं मिलता कि किसी भी रानीकी सेवामें उपस्थित हो सकूँ । रानियाँ भी मेरे अधिक हैं । ऐसी स्थितिमें किसी अन्य राजकुमारीका परिणय मुझे प्रिय नहीं है । ' ब्राह्मणदेव लौट आये । श्रीअम्बरीषका सन्देश राजा और उनकी पुत्रीको उन्होंने सुना दिया । राजकुमारीके मनकी कली विकसित हो गयी । उसने सोचा - ' ऐसे पुरुष जिन्हें विलास आदिसे पूरी विरक्ति और भगवान् के चरणों में अनुपम अनुरक्ति है , धन्य हैं । मैं उन्हें अवश्य ही पति बनाऊँगी । इस प्रकार अपना जीवन सफल कर लूँगी । ब्राह्मणदेवता पुनः अम्बरीषके पास पहुँचे और बोले - ' राजकुमारीने अत्यन्त विनयसे कहा है कि आपके विचारोंको सुनकर मेरा हृदय गद्गद हो गया है । मनसे आपको मैंने पति बना लिया है । पत्नीके रूपमें यदि आपने मुझे स्वीकार नहीं किया तो मैं आत्महत्या कर लूँगी । स्त्री - वधके महापापसे आप नहीं बच सकेंगे । ' धर्मप्राण नरेशने विवाह करना स्वीकार कर लिया । उन्होंने ब्राह्मणको अपना खड्ग देकर कहा , ' आप इससे राजकुमारीकी भाँवरी फिरा लें । ' प्रसन्नमन ब्राह्मण लौटे । राजकुमारी हर्षातिरेकसे नाच उठीं । खड्गसे भाँवरी फिराकर उसका विवाह संस्कार पूर्ण हुआ । वे माता - पितासे विदा होकर पतिगृहमें आ गयीं । परम भगवद् - भक्त पतिकी शान्त मूर्तिके दर्शनकर उन्होंने अपना अहोभाग्य समझा । ( ग ) छोटी रानीके भगवद्भावने सबको भगवद्भक्त बना दिया अम्बरीषने देखा , उनके पूजाकी समस्त सामग्रियाँ धोकर यथास्थान रखी रहती हैं । पूजा - गृह धुला मिलता है । यह उन्हें अभीष्ट नहीं था , क्योंकि प्रभु - सेवाका सारा कार्य वे स्वयं अपने ही हाथों करना उचित समझते थे और इसीमें उन्हें प्रसन्नता मिलती थी । पता लगानेके लिये एक दिन रात्रिमें वे पूजागृहमें छिप गये । एक प्रहर रात रहते ही नयी रानीने वहाँ प्रवेश किया और पूजाके पात्र मलने लगीं । राजाका मन प्रसन्न हो गया । उन्होंने कहा , ' यदि ऐसा ही करना है तो भगवान् को अपने भवनमें पधरा लो , प्रिये ! ' रानीकी आकांक्षा पूरी हुई । उनकी प्रसन्नताकी सीमा नहीं थी । भगवान् उनके भवनमें ही पधारे । अब वे रात रहते ही स्नानादिसे निवृत्त होकर भगवान्‌को धूप - दीपादि षोडशोपचारसे अत्यन्त श्रद्धा और प्रेमसे पूजा करतीं और भजनमें बैठतीं तो दोपहर बीत जाता । उन्हें खान पानकी कुछ सुधि ही नहीं रहती । दासियोंके बार - बारके आग्रहपर वे भजनसे उठ पातीं । यह समाचार अम्बरीषने भी सुना । दूसरे दिन सूर्योदयके समय ही वे छोटी रानीके पूजा - गृहमें आये । उन्होंने देखा , रानीने भगवान्‌को अत्यन्त सुन्दर ढंगसे सजा रखा है । धूपकी मधुर सुगन्ध उड़ रही है । घृत दीप जल रहा है । रानी पद्मासन लगाये भगवान्के सामने बैठी हैं । मधुर स्वरमें वीणाके तार झनझना रहे मोतियोंकी माला पिरोती जा रही हैं । हैं और भजनकी मधुर स्वर लहरियाँ वीणाके तारोंके स्वरोंमें विलीन होती जा रही हैं । रानीकी आँखें अनुरूपी रानीकी तन्मयता । स्वर्गीय भजन !! अद्वितीय प्रभु - प्रेम !!! अम्बरीष पीछे खड़े - खड़े देख रहे थे । भजनसमाप्त हुआ । शरीरको छायादेखकर रानीने पीछे समायो यह भजन फिर सुनाओ । ' रानीके सौभाग्यका क्या कहना पतिदेव रोझ चुके थे । परमपतिकी थी । सी अंगुलियाँ तारोंपर थिरकने लगीं । मधुर स्वर लहरीमें घिरा हुआ भी कह रहा त वे समाधिस्य - से हो गये थे । उनकी आँखें बरस रही थीं । उस दिनसे प्रतिदिन नियमपूर्वक भक्तवर अम्बरीष अपनीटात काही भजन - पूजनमें कभी - कभी दिन का दिन निकल जाता । वे रानीको अत्यन्त फार करते । ' भवन - पूजनसे राजा प्रसन्न होते हैं यह सोचते ही अम्बरीषकी समस् अपने - अपने भवनमें भगवान्का विग्रह पथराकर पूजन करने लगीं । समस्त गतियाँ प्रभुक ' राजाकी प्रसन्नता भगवद्भजनमें यह समाचार समस्त प्रजामें फिल गया । फिर क्या था समस्त प्रजा भगवान्‌की भक्ति करने लगी । राजा - रानी और समस्त प्रजाके प्राण भगवान कृपा सबपर बरसने लगी । धन्य अम्बरीष और धन्य उनकी भकि राजर्षि अम्बरीषकी रानीकी इस भगवद्भक्तिका वर्णन श्रीप्रियादासजीने प्रकार एक नृप सुता सुनि पिता सों निशंक है के अम्बरीष भक्ति भाव भयो हिय भाव ऐसी वर कर लीजिये । कही पति कियो मैं ही विनय मानि मेरी बेगि चीटी लिख दीजिये । पाती लैके चल्यो विप्र छिप्र वही पुरी गयो नयो चाव जान्यो ऐ पै कैसे तिया श्रीजिये । कहो तुम जाय रानी बैठी सत आय मोको बोल्यो न सुहाय प्रभु सेवा माँझ भीजिये ॥४३ ॥ कह्यो नृप सुता सों जु कीजिये जतन कौन पौन जिमि गयो आयो काम नहीं बिया को फेरिकै पठायो सुख पायो मैं तो जान्यो वह बड़े धर्मज्ञ वाके लोभ नाही तिया को बोली अकुलाय मन भक्ति ही रिझाय लियो कियो पति मुख नहीं देखीं और पिया को जायके निशंक यह बात तुम मेरी कहो चेरी जो न करौ तौप लेवो पाप जिया को ॥४४ ॥ कही विप्र जाय सुनि चाय भहराय गयो दयो लै खड़ग यासों फेरी फेर लीजिये । भयो जू विवाह उत्साह कहूं मात नाहि आई घर अम्बरीष देखि छवि भीजिये । की नव मन्दिर में झारिकै बसेरो देवो देवो सब भोग विभौ नाना सुख कीजिये । पूरब जनम कोऊ मेरे भक्ति गन्ध हुती याते सम्बन्ध पायो यहै मानि धीजिये ॥ ४५ ॥ रजनी के सेस पति भौन में प्रवेश कियो लियो प्रेम साथ ढिग मन्दिर के आइये बाहिरी टहल पात्र चौका करि रीझि रही गही कौन जाय जामे होत म खाइये आवत ही राजा देखि लगे न निमेष किहूँ कौन चोर आयो मेरी सेवा से बुराइये देखि दिन तीनि फेर चीन्हिके प्रवीन कही ऐसो मन जौ पै प्रभु माथे लई बात मानि मानो मन्त्र लै सुनायाँ कान होत ही बिहान सेवा नीकी पथराई है । करत सिंगार फिर आपु ही निहारि रहै लहै नहीं पार दुग झरी सी लगाई है भई बढ़वार राग भोग सो अपार भाव भक्ति विस्तार रीति पुरी सब छाई है । नृप हू सुनत अब लागि चोप देखिये की आये ततकाल मति अति अकुलाई है ॥ ४७ ॥ ॥४६ ॥

हरे हरे पौरियान भने करे खरे अरब कब देखा भागभरी को । गये चलि मन्दिर लॉ सुन्दरी न सुधि अङ्ग रङ्ग भीजि रही ढुंग लाइ रहे झरी को ॥ बीन ले बजाये गायें लालन रिझावै त्यो त्यो अति मनभावै कहँ धन्य यह घरी को । द्वार पै रह्यो न जाय गये ढिग ललचाय भई उठि ठादि देखि राजा गुरु हरी को ॥ ४८ ॥ वैसे ही बजाओ बीन ताननि नवीन लैके झीन सुर कान परै जाति मति खोइये । जैसे रंग भीजि रही कही सो न जात मोपै ऐपै मन चैन चैन कैसे करि गोइये ॥ करि के अलापचारी फेरि कै सँभारि तान आइ गयो ध्यान रूप ताहि माँझ भोइये । प्रीति रस रूप भई राति सब बीति गई नई कछु रीति अहो जामें नहिं सोइये ॥ ४ ९ ॥ बात सुनी रानी और राजा गये गई ठौर भई सिरमौर अब कौन वाकी सर है । हमहूँ ले सेवा करें पति मति वश करै धेरै नित्य ध्यान विषय बुद्धि राखी धर है ॥ सुनिकै प्रसन्न भये अति अम्बरीष ईस लागी चोप फैलि गई भक्ति घर घर है । बढ़े दिन दिन चाव ऐसोई प्रभाव कोई पलटै सुभाव होत आनँद को भर है ॥ ५० ॥ 

 हरिशरणम हरिशरणम हरिशरणम हरिशरणम। 

एक टिप्पणी भेजें

0 टिप्पणियाँ

Please Select Embedded Mode To show the Comment System.*

pub-8514171401735406
To Top