भगवान के प्यारे भक्त श्रीजाम्बानजी

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                        श्री जाम्बवान जी महाराज 4

ब्रह्माके अंशावतार हैं । एक रूपसे सृष्टि करते - करते ही दूसरे रूपसे भगवान्‌की आराधना , सेवा एवं सहायता की जा सके , इसी भावसे वे जाम्बवान्के रूपमें अवतीर्ण हुए थे । ऋक्षके रूपमें अवतीर्ण होनेका कारण यह था कि उन्होंने रावणको वर दे दिया था कि उसकी मृत्यु नर वानर आदिके अतिरिक्त किसी देव आदिसे न हो । अब इसी रूपमें रहकर रामजीकी सहायता पहुँचायी जा सकती थी । जब भगवान् विष्णुने वामनका अवतार धारणकर बलिकी यज्ञशालामें गमन किया और संकल्प लेनेके बाद अपना विराट् रूप प्रकट किया तब इन्होंने उनके त्रिलोकीको नापते - नापते इनकी सात प्रदक्षिणा कर लीं । इनकी इस अपूर्व शक्ति और साहसको देखकर बड़े - बड़े मुनि और देवता इनकी प्रशंसा करने लगे । रामावतारमें तो मानो ये भगवान्‌के प्रधान मन्त्री ही थे । सीताके अन्वेषणमें ये हनुमान्जीके साथ थे और जब समुद्रपार जानेकी किसीको हिम्मत न पड़ी , तब इन्होंने हनुमान्जीको इनकी शक्तिका स्मरण कराया और लंकामें जाकर क्या करना चाहिये , इस विषयमें सम्मति दी ।

समय - समयपर सलाह देनेके अलावा ये लड़ते भी थे और लंकाके युद्धमें इन्होंने बड़े - बड़े राक्षसोंका संहार किया । 57 3 भगवान् रामके चरणोंमें इनका इतना प्रेम था कि उनके अयोध्या पहुँचनेपर इन्होंने वहाँसे अपने घर जाना अस्वीकार कर दिया और हठ किया कि मैं आपके चरणोंको छोड़कर कहीं नहीं जाऊँगा । जबतक भगवान् रामने द्वापरमें आकर दर्शन देनेकी प्रतिज्ञा नहीं की तबतक ये अपने हठपर अड़े ही रहे । अन्ततः उनकी आज्ञा मानकर अपने घर आये और नित्य भगवान्‌की प्रतीक्षामें उन्हींका चिन्तन - स्मरण करते हुए अपना जीवन व्यतीत करने लगे । द्वापरयुगमें श्रीकृष्णावतार हुआ । उस समय द्वारकाके एक यदुवंशी सत्राजित्ने सूर्यकी उपासनाकर स्यमन्तकमणि प्राप्त की । एक दिन स्यमन्तकमणिको पहनकर उसका छोटा भाई प्रसेन जंगलमें गया हुआ था , वहाँ एक सिंहने उसे मार डाला और मणिको छीन लिया । तत्पश्चात् ऋक्षराज जाम्बवान्ने सिंहको मारकर वह मणि ले ली । इधर द्वारकार्मे कानोकान यह बात फैलने लगी कि श्रीकृष्ण उस मणिको चाहते थे , उन्हें ही प्रसेनको मारकर मणिको ले लिया होगा । यह बात भगवान्ने भी सुनी । यद्यपि लोकदृष्टिसे तो भगवा कलंकके परिमार्जन और मणिके अन्वेषणके लिये ही यात्रा की , परंतु वास्तवमें बात यह थी कि उन्हें अ पुराने भक्त जाम्बवानको दर्शन देकर कृतार्थ करना था , जिनका एक - एक क्षण बड़ी व्याकुलताके साथ भगवान्‌की प्रतीक्षा में ही बीत रहा था । हाँ , तो भगवान् कृष्ण जाम्बवानके घर पहुँच गये । उस समय उनका पुत्र मणिके साथ खेलत हुआ पालने में झूल रहा था । अपरिचित मनुष्यको देखकर वह रोने लगा और मणिकी और भगवान्की दृष्टि देखकर उसकी धाई भी चिल्ला उठी । जाम्बवान् आये , भगवान्‌को इस रूपमें वे नहीं पहचान सके । भगवान्की कुछ ऐसी ही लीला थी । दोनोंमें बड़ा घमासान युद्ध हुआ । सत्ताईस दिनतक लगातार द्वन्द्वयुद्ध करते - करते जब एकने भी हार नहीं मानी तब भगवान्ने एक घूंसा लगाया , जिससे दुरंत जाम्बवानका शरीर शिथिल पड़ गया और उनके मनमें यह बात आयी कि मेरे प्रभुके अतिरिक्त और किसीमें ऐसी शक्ति नहीं है कि मुझे इस प्रकार पराजित कर सके । यह भावना उठते ही देखते हैं उनके सामने धनुष - बाणधारी भगवान् रामचन्द्र खड़े हैं । उन्होंने अपने इष्टदेवको साष्टांग नमस्कार करके स्तुति की , षोडशोपचार पूजा की और उपहारस्वरूप उस मणिके साथ अपनी कन्या जाम्बवतीका समर्पण कर दिया और इस प्रकार अपने जीवन और अपने सर्वस्वको भगवान्के चरणोंमें चढ़ाकर जीवनका सच्चा लाभ लिया । वास्तवमें प्रभुके चरणोंमें समर्पित हो जाना ही इस जीवनका परम और चरम लक्ष्य है ।

                    श्री सुग्रीव जी महाराज 5


 न सर्वे भ्रातरस्तात भवन्ति मंद्रिया या पितुः सुहृदो भरतोषमाः । भवद्विधाः ॥ श्रीरामजी सुग्रीवसे कहते हैं — ' भैया । सब भाई भरतके समान आदर्श नहीं हो सकते । सब पुत्र हमारा तरह पितृभक्त नहीं हो सकते और सभी सुहृद तुम्हारी तरह दुःखके साथी नहीं हो सकते । ' सभी सम्बन्धकि एकमात्र स्थान श्रीहरि ही हैं । उनसे जो भी सम्बन्ध जोड़ा जाय , उसे वे पूरा निभाते हैं । सच्ची लगन होनी चाहिये , एकनिष्ठ प्रेम होना चाहिये । प्रेमपाश में बँधकर प्रभु स्वामी बनते हैं । वे सख सुहृद भाई , पुत्र , सेवक - सभी कुछ बननेको तैयार हैं । उन्हें शिष्टाचारकी आवश्यकता नहीं , वे सच्चा स्नेह चाहते हैं । तरु तर कपि डार तुलसी न राम ते किए आपु समान । सीलनिधान ॥ सुग्रीवको भगवान्ने स्थान - स्थानपर अपना सखा माना है । बालि और सुग्रीव - ये दो भाई थे । दोनोंमें ही परस्पर बड़ा स्नेह था बालि बड़ा था , इसलिये वही बानका राजा था । एक बार एक राक्षस रात्रिमें किष्किन्धा आया । आकर बड़े जोरसे गरजने लगा । बालि उसे मारनेके लिये नगरसे अकेला निकला । सुप्रीय भी भाईके स्नेहके कारण उसके पीछे - पीछे चला वह राक्षस एक बड़ी भारी गफार्मे गया । बालि अपने छोटे भाईको द्वारपर बैठाकर उस रासको मारने उसके पीछे - पीछे उस गुफाम चला गया ।सुग्रीव को बैठे बैठे एक माह बीत गया,किन्त बालि उस गूफा से नही निकला।एक महीने बाद गुफामेंसे रक्तकी धार निकली । सुग्रीवने समझा , मेरा भाई मर गया है , अब वह राक्षस बाहर निकलकर मुझे भी मार डालेगा , अतः उस गुफाको एक बड़ी भारी शिलासे ढककर वह किष्किन्धापुरी लौट गया । मन्त्रियोंने जब राजधानीको राजासे हीन देखा , तब उन्होंने सुग्रीवको राजा बना दिया । थोड़े ही दिनोंमें बालि आ गया । सुग्रीवको राजगद्दीपर बैठा देखकर वह बिना ही जाँच - पड़ताल किये क्रोधसे आग - बबूला हो गया और उसे मारनेको दौड़ा । सुग्रीव भी अपनी प्राणरक्षाके लिये भागा । भागते - भागते वह मतंग ऋषिके आश्रमपर जा पहुँचा । बालि वहाँ शापवश जा नहीं सकता था । अतः वह लौट आया और सुग्रीवका धन - स्त्री आदि सब उसने छीन लिया । राज्य , स्त्री और धनके हरण होनेपर दुखी सुग्रीव अपने हनुमान् आदि चार मन्त्रियोंके कुछ साथ ऋऋष्यमूकपर्वतपर रहने लगा । लगत सीताजीका हरण हो जानेपर भगवान् श्रीरामचन्द्रजी अपने भाई लक्ष्मणजीके साथ उन्हें खोजते खोजते शबरीके बतानेपर ऋष्यमूकपर्वतपर आये । सुग्रीवने दूरसे ही श्रीराम लक्ष्मणको देखकर हनुमान्जीको भेजा । हनुमान्जी उन्हें आदरपूर्वक ले आये । अग्निके साक्षित्वमें श्रीराम एवं सुग्रीवमें मित्रता हुई । सुग्रीवने अपना सब दुःख भगवान्‌को सुनाया । भगवान्ने कहा- मैं बालिको एक ही बाणसे मार दूंगा । ' सुग्रीवने परीक्षाके लिये अस्थिसमूह दिखाया । श्रीरामजीने उसे पैरके अँगूठेसे ही गिरा दिया । फिर सात ताड़वृक्षोंको एक ही बाणसे गिरा दिया । सुग्रीवको विश्वास हो गया कि श्रीरामजी बालिको मार देंगे । सुग्रीवको लेकर श्रीरामजी बालिके यहाँ गये । बालि लड़ने आया , दोनों भाइयोंमें बड़ा युद्ध हुआ । अन्तमें श्रीरामचन्द्रजीने तककर एक ऐसा बाण बालिको मारा कि वह मर गया । बालिके मरनेपर श्रीरामजीकी आज्ञासे सुग्रीव राजा बनाये गये और बालिके पुत्र अंगदको युवराजका पद दिया गया । तदनन्तर सुग्रीवने वानरोंको इधर - उधर श्रीसीताजीकी खोजके लिये भेजा और श्रीहनुमान्‌जीद्वारा सीताजीका समाचार पाकर वे अपनी असंख्य वानरी सेना लेकर लंकापर चढ़ गये । वहाँ उन्होंने बड़ा पुरुषार्थ दिखलाया । सुग्रीवने संग्राममें रावणतकको इतना छकाया कि वह भी इनके नामसे डरने लगा । लंका - विजय करके ये भी श्रीरामजीके साथ श्रीअवधपुरी आये और वहाँ श्रीरामजीने उनका परिचय कराते हुए गुरु वसिष्ठजीसे कहा ए सब सखा सुनहु मुनि मेरे भए समर सागर कहँ बेरे ॥ मम हित लागि जन्म इन्ह हारे भरतहु ते मोहि अधिक पिआरे । ( रा ० प ० मा ० ] ७१८1७-८ ) श्रीरामजीने सुग्रीवजीको स्थान - स्थानपर ' प्रिय सखा ' कहा है और अपने मुखसे स्पष्ट कहा है कि ' तुम्हारे समान आदर्श निःस्वार्थ सखा संसारमें बिरले ही होते हैं । ' श्रीरामजीने थोड़े दिन इन्हें अवधपुरीमें रखकर विदा कर दिया और ये भगवान्की लीलाओंका स्मरण - कीर्तन करते हुए अपनी पुरीमें रहने लगे । अन्तमें जब भगवान् निजलोक पधारे , तब ये भी आ गये और भगवान्‌के साथ ही साकेत गये । सुग्रीव जैसे भगवत्कृपाप्राप्त सखा संसारमें बिरले ही होते हैं । उनका समस्त जीवन रामकाज और रामस्मरणमें हो बीता । यही जगमें जीवनका परम लाभ है । भगवान से प्रार्थना करते हुए सुग्रीवजी कहते हैं -

त्वत्पादपद्मार्पितचित्तवृत्तिस्त्वन्नामसंगीतकथासु। वाणी । त्वद्भक्तसेवानिरतौ करौ मे त्वदङ्गसङ्गं लभतां मदङ्गम् ॥ त्वन्मूर्तिभक्तान् स्वगुरुं च चक्षुः पश्यत्वजस्त्रं स शृणोतु कर्णः । त्वज्जन्मकर्माणि च पादयुग्मं व्रजत्वजस्त्रं तव मन्दिराणि ॥

हरिशरणम हरिशरणम हरिशरणम 
BHOOPAL MISHRA 
SANATAN VEDIC DHARMA KARMA 
BHUPALMISHRA35620@GMAIL.COM 

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