श्री हनुमान जी महाराज 3
श्रीहनुमान्जयत्र यत्र रघुनाथकीर्तनं तत्र तत्र कृतमस्तकाञ्जलिम् । णबाष्पवारिपरिपूर्णलोचनं मारुतिं नमत प्रनवउँ राक्षसान्तकम् ॥ पवनकुमार खल बन पावक ग्यानधन । ह जासु हृदय आगार बसहिं राम सर चाप धर ॥ रा प्र म रें भगवान् शंकरके अंशसे वायुके द्वारा कपिराज केसरीकी पत्नी अंजनामें हनुमान्जीका प्रादुर्भाव हुआ । मर्यादापुरुषोत्तम श्रीरामको सेवा शंकरजी अपने रूपसे तो कर नहीं सकते थे , अतएव उन्होंने ग्यारहवें रुद्ररूपको इस प्रकार वानररूपमें अवतरित किया । जन्मके कुछ ही समय पश्चात् महावीर हनुमान्जीने उगते हुए सूर्यको कोई लाल - लाल फल समझा और उसे निगलने आकाशकी ओर दौड़ पड़े । उस दिन सूर्यग्रहणका समय था ।
गहुने देखा कि कोई दूसरा ही सूर्यको पकड़ने आ रहा है , तब वह उस आनेवालेको पकड़ने चला , किंतु जब वायुपुत्र उसकी ओर बढ़े , तब वह डरकर भागा राहुने इन्द्रसे पुकार की ऐरावतपर चढ़कर इन्द्रको आते देख पवनकुमारने ऐरावतको कोई बड़ा - सा सफेद फल समझा और उसीको पकड़ने लपके । घबराकर देवराजने वज्रसे प्रहार किया । वज्रसे इनकी ठोड़ी ( हनु ) -पर चोट लगनेसे वह कुछ टेढ़ी हो गयी , इसीसे ये लगे । बज्र लगनेपर ये मूच्छित होकर गिर पड़े । पुत्रको मूच्छित देखकर वायुदेव बड़े कुपित हुए । उन्होंने अपनी गति बन्द कर ली । श्वास रुकनेसे देवता भी व्याकुल हो गये । अन्तमें हनुमान्को सभी लोकपालोंने अमर होने तथा अग्नि जलवायु आदिसे अभय होनेका वरदान देकर वायुदेवको सन्तुष्ट किया ।
जातिस्वभावसे चंचल हनुमान् ऋषियोंके आश्रमों में वृक्षोंको सहज चपलतावश तोड़ देते तथा आश्रमकी वस्तुओंको अस्त - व्यस्त कर देते थे । अतः ऋषियोंने इन्हें शाप दिया- ' तुम अपना बल भूले रहोगे । जब कोई तुम्हें स्मरण दिलायेगा , तभी तुम्हें अपने बलका भान होगा । ' तबसे ये सामान्य वानरकी भाँति रहने लगे । माताके आदेशसे सूर्यनारायणके समीप जाकर वेद - वेदांग - प्रभृति समस्त शास्त्रों एवं कलाओंका इन्होंने अध्ययन किया । उसके पश्चात् किष्किन्धामें आकर सुग्रीवके साथ रहने लगे । सुग्रीवने इन्हें अपना निजी सचिव बना लिया । जब बालिने सुग्रीवको मारकर निकाल दिया , तब भी ये सुग्रीवके साथ ही रहे । सुग्रीवके
विपत्तिके साथी होकर ऋष्यमूकपर ये उनके साथ ही रहते थे । बचपनमें माता अंजनासे बार - बार आग्रहपूर्वक इन्होंने अनादि रामचरित सुना था । अध्ययनके समय वेदमें , पुराणों में श्रीरामकथाका अध्ययन किया था । किष्किन्धा आनेपर यह भी ज्ञात हो गया कि परात्पर प्रभुने अयोध्या में अवतार धारण कर लिया । अब वे बड़ी उत्कण्ठासे अपने स्वामीके दर्शनकी प्रतीक्षा करने लगे । श्रीमद्भागवतमें कहा गया है - ' जो निरन्तर भगवान्की कृपाकी आतुर प्रतीक्षा करते हुए अपने प्रारब्धसे प्राप्त सुख - दुःखको सन्तोषपूर्वक भोगते रहकर हृदय , वाणी तथा शरीरसे भगवान्को प्रणाम करता रहता है हृदयसे भगवान्का चिन्तन , वाणीसे भगवान्के नाम - गुणका गान - कीर्तन और शरीरसे भगवान्का पूजन करता रहता है , वह मुक्तिपदका स्वत्वाधिकारी हो जाता है । ' श्रीहनुमान्जी तो जन्मसे ही मायाके बन्धनोंसे सर्वथा मुक्त थे । वे तो अहर्निश अपने स्वामी श्रीरामके ही चिन्तनमें लगे रहते थे । अन्तमें श्रीराम अपने छोटे भाई लक्ष्मणके साथ रावणके द्वारा सीताजीके चुरा लिये जानेपर उन्हें ढूँढ़ते हुए ऋष्यमूकके पास पहुँचे । सुग्रीवको शंका हुई कि इन राजकुमारोंको बालिने मुझे मारनेको न भेजा हो । अतः परिचय जानने के लिये उन्होंने हनुमान्जीको भेजा । विप्रवेष धारणकर हनुमान्जी आये और परिचय पूछकर जब अपने स्वामीको पहचाना , तब वे उनके चरणोंपर गिर पड़े । वे रोते - रोते कहने लगे नाई हते हैं । अग्यान । एकु मैं मंद मोह बस कुटिल हृदय पुनि प्रभु मोहि बिसारेठ दीनबंधु भगवान ॥ श्रीरामने उठाकर उन्हें हृदयसे लगा लिया । तभीसे हनुमान्जी श्री अवधेशकुमारके चरणोंके समीप ही रहे । हनुमान्जीकी प्रार्थनासे भगवान्ने सुग्रीवसे मित्रता की और बालिको मारकर सुग्रीवको किष्किन्धाका राज्य दिया । राज्यभोगमें सुग्रीवको प्रमत्त होते देख हनुमान्जीने ही उन्हें सीतान्वेषणके लिये सावधान किया । वे पवनकुमार ही वानरोंको एकत्र कर लाये । श्रीरामजीने उनको ही अपनी मुद्रिका दी । सौ योजन समुद्र लाँघनेका प्रश्न आने पर जब जाम्बवन्तजीने हनुमान्जीको उनके बलका स्मरण दिलाकर कहा कि ' आपका तो अवतार ही रामकार्य सम्पन्न करनेके लिये हुआ है , ' तब अपनी शक्तिका बोधकर केसरीकिशोर उठ खड़े हुए । उनके बल और बुद्धिका ज्ञान प्राप्त करनेके लिये देवताओंके द्वारा भेजी हुई नागमाता सुरसाको सन्तुष्ट करके समुद्रमें छिपी राक्षसी सिंहिकाको मारकर हनुमान्जी लंका पहुँचे । द्वाररक्षिका लंकिनीको एक घूँसेमें सीधा करके छोटा रूप धारणकर ये लंकामें रात्रिके समय प्रविष्ट हुए । विभीषणजीसे पता पाकर अशोकवाटिकामें जानकीजीके दर्शन किये । उनको आश्वासन देकर अशोकवनको उजाड़ डाला । रावणके भेजे राक्षसों तथा रावणपुत्र अक्षयकुमारको मार दिया । मेघनाद इन्हें ब्रह्मास्त्रमें बाँधकर राजसभामें ले गया । वहाँ रावणको भी हनुमान्जीने अभिमान छोड़कर भगवान्की शरण लेनेकी शिक्षा दी । राक्षसराजकी आज्ञासे इनकी पूँछमें आग लगा दी गयी । इन्होंने उसी अग्निसे सारी लंका फूँक दी । सीताजीसे चिह्नस्वरूप चूड़ामणि लेकर भगवान् के समीप लौट आये । समाचार पाकर श्रीरामने युद्धके लिये प्रस्थान किया । समुद्रपर सेतु बाँधा गया । संग्राम हुआ और अन्तमें रावण अपने समस्त अनुचर , बन्धु - बान्धवोंके साथ मारा गया । युद्धमें श्रीहनुमान्जीका पराक्रम , उनका शौर्य , उनकी वीरता सर्वोपरि रही । वानरी सेनाके संकटके समय वे सदा सहायक रहे । राक्षस उनकी हुंकारसे ही काँपते थे । लक्ष्मणजी जब मेघनादकी शक्तिसे मूर्च्छित हो गये , तब मार्गमें पाखण्डी कालनेमिको मारकर द्रोणाचलको हनुमान्जी उखाड़ लाये और इस प्रकार संजीवनी ओषधि आनेसे लक्ष्मणजीको चेतना प्राप्त हुई । मायावी अहिरावण जब माया करके राम - लक्ष्मणको युद्धभूमिसे चुरा ले गया , तब पाताल जाकर अहिरावणका वध करके हनुमान्जी श्रीरामजीको भाई लक्ष्मणजीके साथ ले आये । रावणवधका समाचार श्रीजानकीको सुनानेका सौभाग्य और ' श्रीराम लौट रहे हैं'- यह आनन्ददायक समाचार भरतजीको देना गौरव भी प्रभुने अपने प्रिय सेवक हनुमानजीको ही दिया । हनुमान्जी विद्या , बुद्धि , ज्ञान तथा पराक्रमको मूर्ति हैं , किंतु इतना सब होनेपर भी अभिमान उन्हें नहीं गया । जब वे लंका जलाकर अकेले ही रावणका मान - मर्दन करके प्रभुके पास लौटे और प्रभुने पूर्ण कि ' त्रिभुवन विजयी रावणको लंकाको तुम कैसे जला सके ? ' तब उन्होंने उत्तर दिया साखामृग के बड़ि मनुसाई साखा में साखा पर जाई ॥ जारा निसिचर गन बधि बिपिन उजारा ॥ नाघि सिंधु हाटकपुर सो सब तव प्रताप रघुराई नाथ न कछू मोरि प्रभुताई ॥ हनुमान्जी आजन्म नैष्ठिक ब्रह्मचारी हैं । व्याकरणके महान् पण्डित हैं , वेदज्ञ हैं , ज्ञानिशिरोमणि है बड़े विचारशील , तीक्ष्णबुद्धि तथा अतुलपराक्रमी हैं । श्रीहनुमान्जी बहुत निपुण संगीतज्ञ और गायक भी हैं । एक बार देव ऋषि - दानवोंके एक महान् सम्मेलनमें जलाशयके तटपर भगवान् शंकर तथा देवर्षि नारदजी आदि गा रहे थे । अन्यान्य देव ऋषि - दानव भी योग दे रहे थे । इतनेमें ही हनुमान्जीने मधुर स्वरसे ऐसा सुन्दर गान आरम्भ किया कि जिसे सुनकर उन सबके मुख म्लान हो गये । जो बड़े उत्साहसे गा - बजा रहे थे और वे सभी अपना - अपना गान छोड़कर मोहित हो गये तथा चुप होकर सुनने लगे । उस समय केवल हनुमान्जी ही गा रहे थे कृशाः म्लानमम्लानमभवत् स्वां स्वां गीतिमतः सर्वे तूष्णीं सर्वे पुष्टास्तदाभवन् ॥ तिरस्कृत्यैव मूच्छिताः । समभवन्देवर्षिगणदानवाः ॥ श्रोतारः सर्व एव ते । एक : स हनुमान् गाता ( पद्मपुराण , पातालखण्ड ११४१६७-१६९ ) जबतक पृथ्वीपर श्रीरामकी कथा रहेगी , तबतक पृथ्वीपर रहनेका वरदान उन्होंने स्वयं प्रभुसे माँग लिय है । श्रीरामजीके अश्वमेधयज्ञमें अश्वकी रक्षा करते समय जब अनेक महासंग्राम हुए , तब उनमें हनुमानजीक पराक्रम ही सर्वत्र विजयी हुआ । महाभारतमें भी केसरीकुमारका चरित है । वे अर्जुनके रथकी ध्वजापर बैठ रहते थे । उनके बैठे रहनेसे अर्जुनके रथको कोई पीछे नहीं हटा सकता था । कई अवसरोंपर उन्होंने अर्जुनक रक्षा भी की । एक बार भीम , अर्जुन और गरुडजीको आपने अभिमानसे भी बचाया था । कहते हैं कि हनुमान्जीने अपने वज्रनखसे पर्वतकी शिलाओंपर एक रामचरित - काव्य लिखा था । उ देखकर महर्षि वाल्मीकिको दुःख हुआ कि यदि यह काव्य लोकमें प्रचलित हुआ तो मेरे आदिकाव्यक समादर न होगा । ऋषिको सन्तुष्ट करनेके लिये हनुमान्जीने वे शिलाएँ समुद्र में डाल दीं । सच्चे भक्तमें यह मान , बढ़ाईकी इच्छाका लेश भी नहीं होता । वह तो अपने प्रभुका पावन यश ही लोकमें गाता है । श्रीरामकथा श्रवण , राम - नाम कीर्तनके हनुमान्जी अनन्यप्रेमी हैं जहाँ भी राम - नामका कीर्तनम राम - कथा होती है , वहाँ वे गुप्तरूपसे आरम्भ में ही पहुँच जाते हैं । दोनों हाथ जोड़कर सिरसे लगाये सब अन्ततक वहाँ वे खड़े ही रहते हैं । प्रेमके कारण उनके नेत्रोंसे बराबर आँसू झरते रहते हैं । श्रीप्रियादासजी महाराज हनुमानजीकी भक्तिका वर्णन करते हुए एक प्रसंगमें कहते हैं रतन अपार क्षीरसागर उधार किये लिये हित चाय के बनाय माला करी है । सब सुख साज रघुनाथ महाराज जू को भक्तिसों विभीषणजू आनि भेंट धरी है ।
सभा ही की चाह अवगाह हनुमान गरे डारि दई सुधि भई मति अरबरी है । राम बिन काम कौन फोरि मनि दीन्हे डारि खोलि त्वचा नामही दिखायो बुद्धि हरी है ॥ २७ ॥ कवित्तका भाव इस प्रकार है रावणके कोषमें समुद्र मन्थनके समय निकले सभी दिव्य रत्न संचित थे । उसके वधके बाद जब विभीषणका राज्याभिषेक हुआ तो उन्होंने उन दिव्य रत्नोंकी एक माला बनायी और कृतज्ञता ज्ञापन करते हुए उसे श्रीराम प्रभुके चरणोंमें अत्यन्त भक्तिपूर्वक निवेदित किया । उस दिव्य रत्नमालाके लिये समस्त वानर भालुओंका मन लालायित हो गया , वहाँ श्रीहनुमान्जी भी थे , परंतु उनका मन तो अपने आराध्य प्रभुके रूप सुधाका पान करनेमें ही मग्न था । यह देखकर प्रभुने वह माला श्रीहनुमान्जीके गलेमें डाल दी । हनुमान्जीने उस मालाको उलट - पुलटकर देखा , फिर उसके एक - एक रत्नको निकालकर अपने वज्रसदृश दाँतोंसे तोड़ - तोड़कर देखने लगे । उन्हें ऐसा करते देख विभीषणजीने पूछा- ' हनुमान्जी ! आप इन अमूल्य रत्नोंको क्यों नष्ट कर रहे हैं ? ' हनुमान्जीने अनमने भावसे उत्तर दिया- ' इन रत्नोंमें प्रभु श्रीरामका नाम अंकित नहीं है , इसलिये ये मेरे लिये मूल्यहीन हैं । ' इसपर विभीषणजीने कहा - ' आपके शरीरपर भी तो कहीं राम नाम अंकित नहीं है , फिर इसे आप क्यों धारण किये हैं ? ' इसपर श्रीहनुमान्जीने अपना हृदय चीरकर दिखलाया , तो उनके अन्तस्तलमें विराजमान श्रीराम - सीताके दर्शन सबको हुए ।
जय श्रीराम ।
राम रामेति रामेति रमे रामे मनोरमे।
शहशत्र ततुलयं राम नाम वरानने। ।
BHOOPAL MISHRA
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