श्रीहरिध्याननिष्ठ भक्तगण
जोगेस्वर श्रुतदेव अंग मुचु ( कुंद ) प्रियव्रत जेता । पृथू परीच्छित सेष सूत सौनक परचेता ॥ सतरूपा त्रयसुता सुनीति सती ( सबाह ) मंदालस । जग्यपत्नि ब्रजनारि किए केसव अपने बस ॥ ऐसे नर नारी जिते तिनही के गाऊँ जसैं । पद पंकज बांछौं सदा जिन के हरि नित उर बसें ॥ १० ॥ जिन भक्तोंके हृदयमें भगवान् नित्य निवास करते हैं , मैं उनके चरणकमलोंको प्राप्त करनेकी इच्छा करता हूँ । नौ योगीश्वर , श्रुतदेव , राजा अंग , मुचुकुन्दजी , विश्वविजयी प्रियव्रतजी , पृथुजी , परीक्षित्जी , शेषजी , सूतजी , शौनकादि ऋषि , प्रचेतागण , शतरूपाजी , प्रसूतिजी , आकूतिजी , देवहूतिजी , सुनीतिजी , दक्षकन्या सतीजी , सम्पूर्ण सतीवर्ग , मन्दालसा , यज्ञपत्नियाँ और व्रजगोपियाँ , जिन्होंने श्रीकृष्णको अपने वशमें कर लिया है , ऐसे जितने स्त्री या पुरुष हैं , मैं सदा उनके सुयशका गान करूँ ॥ १० ॥ यहाँ श्रीहरिध्याननिष्ठ इन भक्तजनोंके मंगलमय पावन चरित्रका किंचित् स्मरण प्रस्तुत है नौ योगीश्वर महाराज स्वायम्भुव मनु और शतरूपासे इस सृष्टिका प्रारम्भ हुआ । स्वायम्भुव मनुके पुत्र हुए प्रियव्रत । प्रियव्रतके आग्नीध्र , आग्नीधके नाभि और नाभिके पुत्र हुए ऋषभ । वे भगवान् वासुदेवके अंश थे । मोक्ष धर्मका उपदेश करनेके लिये उन्होंने अवतार लिया था । ऋषभके सौ पुत्र थे , वे सब के सब वेदोंके पारदर्शी विद्वान् थे । उनमें सबसे बड़े थे राजर्षि भरत । वे भगवान् नारायणके परम प्रेमी भक्त थे । उन्होंके नामसे यह भूमिखण्ड जो पहले ' अजनाभवर्ष ' कहलाता था , ' भारतवर्ष ' कहलाया । राजर्षि भरत चक्रवर्ती सम्राट् थे , उन्होंने सारी पृथ्वीका राज्य - भोग किया और अन्तमें इसे छोड़कर वनको चले गये । वहाँ उन्होंने तपस्याद्वारा भगवान्की उपासना की और तीसरे जन्ममें भगवान्को प्राप्त हुए । भगवान् ऋषभदेवके शेष निन्यानबे पुत्रोंमेंसे नौ पुत्र भारतवर्षके सब ओर स्थित नौ द्वीपोंके अधिपति , इक्यासी पुत्र कर्मकाण्डके रचयिता ब्राह्मण और बाकी नौ संन्यासी हो गये । ऋषभदेवके जो नौ पुत्र संन्यासी हो गये , वे बड़े ही भाग्यवान् थे । उन्होंने आत्मविद्याके सम्पादनमें बड़ा परिश्रम किया था और वास्तवमें वे उसमें बड़े निपुण थे । वे प्रायः दिगम्बर ही रहते थे और अधिकारियोंको परमार्थ वस्तुका उपदेश दिया करते थे । उन्हें ही नौ योगीश्वर कहा जाता है । उनके नाम हैं - कवि , हरि , अन्तरिक्ष , प्रबुद्ध , पिप्पलायन , आविर्होत्र , द्रुमिल , चमस और करभाजन ये नौ योगीश्वर इस कार्य कारण और व्यक्त - अव्यक्त भगवद्रूप जगत्को अपनी आत्मासे अभिन्न अनुभव करते हुए पृथ्वीपर स्वच्छन्द विचरण करते थे । उनके लिये कहीं भी रोक - टोक न थी । वे जहाँ चाहते , चले जाते । देवता , सिद्ध , साध्य , गन्धर्व , यक्ष , मनुष्य , किन्नर और नागोंके लोकोंमें तथा मुनि , चारण , विद्याधर ,ब्राह्मण और गौओंके स्थानों में वे स्वच्छन्द विचरते थे । वे सब - के - सब जीवन्मुक्त महात्मा थे । इन नौ योगीश्वरोंका विदेहराज महात्मा निमिसे एक बार संवाद हुआ था , जिसमें इन महात्मा योगीश्वरोंने भगवान्को प्राप्त करानेवाले धर्मो और साधनोंका वर्णन किया था । उस समय महाराज निमि बड़े - बड़े ऋषियोंद्वारा एक महान् यज्ञका सम्पादन करवा रहे थे । स्वच्छन्द भावसे विचरण करते हुए ये नौ योगीश्वर भी वहाँ पहुँच गये । महाराज निमिने इनका बहुत आदर - सत्कार किया और अधिकारी जानकर भगवच्चर्चा की । महाराज निमिके पूछनेपर उन योगीश्वरमें प्रथम योगीश्वर कविने उन्हें भगवान् श्रीकृष्णको प्राप्त करानेवाले भागवतधर्मोका उपदेश दिया । तत्पश्चात् राजा निमिके पूछनेपर नौ योगीश्वरोंमें दूसरे योगीश्वर हरिजीने भगवद्भक्तोंके धर्म , लक्षण और स्वभावका वर्णन किया । इसके बाद पुनः राजाके पूछनेपर तीसरे योगीश्वर अन्तरिक्षजीने माया और उसके स्वरूपका वर्णन किया और चौथे योगीश्वर प्रबुद्धजीने मायाको पार करनेका उपाय बताया । इसके बाद पाँचवें योगीश्वर पिप्पलायनजीने ' नारायण ' नामवाले परब्रह्म परमात्माका वर्णन किया । तत्पश्चात् राजा निमिने प्रार्थना की कि हे योगीश्वरो । अब आपलोग मुझे कर्मयोगका उपदेश कीजिये , जिसके द्वारा शुद्ध होकर मनुष्य शीघ्रतिशीघ्र अपने कर्मबन्धनको काट डालता है और परम नैष्कर्म्य अर्थात् कर्मबन्धनकी आत्यन्तिक निवृत्तिका लाभ करता है - जन्म - मृत्युके चक्रसे सर्वदाके लिये छुटकारा पा जाता है । इस प्रश्नका उत्तर छठे योगीश्वर श्रीआविर्होत्रजीने दिया । इसके बाद राजाके पूछनेपर सातवें योगीश्वर श्रीद्रुमिलजीने भगवान्के तबतक हुए और आगे होनेवाले अवतारोंका वर्णन किया । इतना सब भगवच्चरित्र सुननेके बाद राजा निमिने पूछा- हे योगीश्वरो ! कृपा करके यह बतलाइये कि जिनकी कामनाएँ शान्त नहीं हुई हैं , लौकिक - पारलौकिक भोगोंकी लालसा मिटी नहीं है और मन एवं इन्द्रियाँ भी वशमें नहीं हैं तथा प्रायः जो भगवान्का भजन नहीं करते - ऐसे लोगोंकी क्या गति होती है ? इसका उत्तर देते हुए आठवें योगीश्वर श्रीचमसजीने बताया कि हे राजन् ! जो लोग अन्तर्यामी भगवान् श्रीकृष्णसे पराङ्मुख हैं , उनकी ओर न चलकर उनसे उलटे चल रहे हैं , वे अत्यन्त परिश्रम करके गृह , पुत्र , मित्र और धन सम्पत्ति इकट्ठी करते हैं , परंतु उन्हें अन्तमें सब कुछ छोड़ देना पड़ता है और न चाहनेपर भी विवश होकर घोर नरकमें जाना पड़ता है । भगवान्का भजन न करनेवाले विषयी पुरुषोंकी यही गति होती है । अब राजा निमिने पूछा- हे योगीश्वरो भगवान् किस समय किस रंग और किस आकारको स्वीकार करते हैं और मनुष्य किन नामों और विधियोंसे उनकी उपासना करते हैं ? इसका उत्तर देते हुए नवें योगीश्वर श्रीकरभाजनजीने कहा- राजन ! सत्ययुगमें भगवान्के श्रीविग्रहका रंग श्वेत होता है । उनके चार भुजाएँ और सिरपर जटा होती है तथा वे वल्कल वस्त्र पहनते हैं । वे काले मृगका चर्म , यज्ञोपवीत , रुद्राक्षकी माला , दण्ड और कमण्डलु धारण करते हैं । सत्ययुगमें लोग तपस्याद्वारा सबके प्रकाशक परमात्माका ध्यान करते हैं । त्रेतायुगमें भगवान्के श्रीविग्रहका रंग लाल होता है । उनके चार भुजाएँ होती हैं और वे कटिभागमें तीन मेखला धारण करते हैं । उनके केश सुनहले होते हैं और वे स्रुक् , स्रुवा आदि यज्ञपात्रोंको धारण किया करते हैं । इस युगके मनुष्य अपने धर्ममें बड़ी निष्ठा रखनेवाले और वेदोंके अध्ययन अध्यापनमें प्रवीण होते हैं । वे लोग ऋग्वेद , यजुर्वेद और सामवेदरूप वेदत्रयीके द्वारा सर्वदेवस्वरूप देवाधिदेव भगवान् श्रीहरिकी आराधना करते हैं । द्वापरयुगमें भगवान्के श्रीविग्रहका रंग साँवला होता है । वे पीताम्बर तथा शंख , चक्र , गदा आदि अपने आयुध धारण करते हैं । वक्षःस्थलपर श्रीवत्सका चिह्न , भृगुलता , कौस्तुभमणि आदि लक्षणोंसे वे पहचाने जाते हैं । कलियुगमें कालेरंगकी कान्तिसे , अंगों और उपोगों , अस्त्रों एवं पार्षदोंसे युक्त श्रीकृष्ण श्रेष्ठ बुद्धिमान पुरुष ऐसे जोक द्वारा आराधना करते हैं । जिनमें नाम , गुण , लीला आदिके कीर्तनको प्रधानता रहती है। इस प्रकार राजा निमि तथा अन्य आचार्योंको भागवत धर्मका उपदेश देकर वे नवौ योगीश्वर अंतर्धान हो गए।
हरिशरणम हरिशरणम हरिशरणम
मित्र नव योगीश्वर का यह परम पावन चरित्र दिव्य ज्ञान, भक्ति को बढाने वाला है ।