श्रीध्रुवजी
पुत्र ध्रुव स्वायम्भुव मनुके पौत्र थे । महाराज उत्तानपादकी बड़ी पत्नी सुनीतिकी कोखसे उनका जन्म हुआ था । एक समयकी बात है , राजदरबार लगा था । महाराज उत्तानपाद अपनी छोटी रानी सुरुचि एवं उसके उत्तमके साथ राजसिंहासनपर विराजमान थे । सुरुचिके रूप - लावण्यने राजाको वशीभूत कर लिया था । सुरुचिकी रुचि ही उत्तानपादकी रुचि हो गयी थी । एक दिन पाँच वर्षका बालक ध्रुव अपने सखाओंके साथ खेलता - खेलता राजसभामें जा पहुँचा । अपने छोटे भाई उत्तमको पिताकी गोदमें बैठे देखकर बालक ध्रुवने भी पिताकी गोद में बैठना चाहा । सुरुचि इसे कैसे सहन कर सकती थी ? सुनीतिसे उसका सौतियाडाह जो था ।
' अरे , तुम्हारा इतना साहस ! यदि पिताकी गोदमें बैठना चाहते हो तो तपस्या करके भगवान्की आराधना करो । भगवान्को प्रसन्न करके मेरी कोखसे जन्म लो , तभी तुम्हें यह अधिकार प्राप्त हो सकता है । ' कहते हुए सुरुचिने हाथ पकड़कर ध्रुवको राजाकी गोदसे अलग कर दिया । यद्यपि अबोध बालक ध्रुव पूरी बात न समझ सका , परंतु ' मेरा अपमान हुआ है और भगवान्की आराधनासे ही अपमानसे छुटकारा मिल सकता है ' - इतनी बात तो उनकी समझमें आ ही गयी । केवल इतनी - सी बात बालक ध्रुवको अमोघ भगवत्कृपाका अनुभव करानेमें हेतु बन गयी । विपरीत परिस्थितियाँ प्रायः मनुष्यको भगवत्कृपा प्राप्त करानेमें बड़ी सहायक होती हैं । रुदन ही बालकका बल है । ध्रुव रोता - रोता अपनी माता सुनीतिके पास पहुँचा । सुनीतिने उसकी पूरी बात सुनी और कहा - ' बेटा । सचमुच मैं अभागिनी हूँ । तुम्हारे पिता तुम्हारी छोटी माता सुरुचिके हाथ बिके हुए हैं । तुम्हारी अभिलाषा तो एक भगवान् ही पूर्ण कर सकते हैं । भगवान् विष्णुकी आराधनासे सब कुछ सुलभ है । ऐसी कोई वस्तु नहीं , जो भगवान् न दे सकें । ' ' भगवान् विष्णु सब कुछ दे सकते हैं । ' निर्मल हृदय ध्रुवके मनमें यह बात घर कर गयी । माँ मुझे आज्ञा दो , मैं भगवान्से मिलकर उन्हींसे सब कुछ प्राप्त करूंगा । ' ध्रुवने दृढ़ निश्चयके साथ माता सुनीतिसे निवेदन किया । ' बेटा । अभी तो तुम निरे बालक हो , कुछ बड़े हो जाओ , उसके बाद यह कार्य करना । माताने ध्रुवको बहुत समझाया , परंतु ध्रुवके निश्चयमें माँ सुनीति कुछ भी परिवर्तन न कर सका और अन्तमें भगवत्कृपापर पूर्ण विश्वास रखनेवाली माताने बालकको वनमें जानेकी आज्ञा दे दी । भगवान् कैसे और कहाँ मिलते हैं - यह तो ध्रुवको ज्ञात नहीं था , परंतु भगवान् मिलते हैं , इस निश्चयके साथ ध्रुवने वनकी राह ली । भगवान्की ओर बढ़नेवालेकी सहायता भगवत्कृपा स्वयं करती है । मार्गमें ध्रुवको देवर्षि नारद मिले । नारद ध्रुवकी पूरी बात सुनकर विस्मय प्रकट करने लगे - ' बेटा ! तुम्हारी आयु अभी छोटी है , इस उम्रमें क्या मानापमान ? प्रसन्न रहो और जैसे भगवान् रखें , उसीमें सन्तोष करो । भगवान्का मिलना बड़ा कठिन है । बड़े - बड़े योगी - मुनि दीर्घकालतक तपस्या करके भी उनका दर्शन अनेक जन्मोंके पश्चात् कर पाते हैं । ' देवर्षिकी ये बातें सुनकर भी ध्रुवके निश्चयमें कोई परिवर्तन नहीं हुआ । ' मुने ! आप बड़े कृपालु हैं । आपने जो उपदेश दिया , वह बहुत उत्तम है ; परंतु मुझे तो भगवान् शीघ्र मिल सकें , आप ऐसा उपाय ही बताइये । जिससे मैं दुर्लभ पद प्राप्त कर सकूँ । ' दृढ़ निष्ठा और निश्चयके साथ ध्रुवने देवर्षिके चरणोंमें नम्र निवेदन किया । ध्रुवके हृदयमें भय और संशयका बिल्कुल स्थान नहीं था । देवर्षिका हृदय ध्रुवकी निष्ठा है । देखकर पिघल गया । ध्रुवपर सन्त कृपा हुई । देवर्षिने उसे अमोघ आशीर्वाद दिया- ' बेटा तेरा कल्याण होगा । अब तुम श्रीयमुनाजीके तटस्थित मधुवनमें चले जाओ । वहाँ निरन्तर ' ॐ नमो भगवते वासुदेवाय - इस द्वादशाक्षर मन्त्रका जाप करो । त्रिकाल यमुनामें स्नान करके सुस्थिर आसनपर बैठ जाना , प्राणायाम करना , चित्तको स्थिर और एकाग्र करके भगवान् विष्णुका ध्यान करना । ' ध्रुव यमुनाजीके किनारे मधुवनमें जा पहुँचे और भगवान्की आराधनामें लग गये । नारदजीकी कृपासे उन्हें विधिका ज्ञान तो हो ही गया था । दिन - पर - दिन वे अपने व्रतको कठोर करने लगे । निर्भय - निर्द्वन्द्व उपासना चलने लगी । भगवान्की कृपापर उनका विश्वास था । मन , वाणी और शरीर- तीनोंसे वे कृपानिधि भगवान्के साथ एकाकार हो रहे थे । दुव साधनामें भय और प्रलोभनरूपा बाधाओंका ताँता लग जाता है । ध्रुवके सामने भी बड़ी भयंकर परिस्थितियाँ उत्पन्न हुईं । उन्हें डरानेके लिये बड़ी भयावनी राक्षसियाँ आयीं । मायाने माता सुनीतिका रूप धारणकर ध्रुवके सम्मुख प्रकट हो ममताका जाल डालना चाहा । ध्रुवको एकमात्र भगवत्कृपाका आश्रय था । उन्होंने उसकी बातें सुन करके भी अनसुनी कर दीं । वे प्रभुके ध्यानमें मग्न । इतनेमें वहाँ ' मारो , पकड़ो , खा डालो ' चिल्लाते हुए भयंकर राक्षस प्रकट हो गये । माता सुनीतिका रूप धारण करके आयी मायाका आर्तनाद सुनकर भी ध्रुव अपनी तपस्यामें अटल ही रहे । किसी भी तरहके विघ्न उनकी साधनामें बाधा न डाल सके । उनकी कठोर तपस्याके छः महीने पूरे होने जा रहे थे । सुरपति घबरा उठे – ' कहीं ध्रुव हमारा पद न छीन ले । देवतालोग पहुँचे भगवान्के पास । भगवान्ने देवताओंको आश्वासन दिया - ' ध्रुव मेरा भक्त है , वह किसीका कोई अनिष्ट नहीं करेगा । मैं उसे दर्शन देकर तृप्त करूंगा । ' देवतालोग निर्भय होकर चले गये , परंतु कृपानिधान भगवान् विष्णु अब अपने भक्तका कष्ट सहन नहीं कर पा रहे थे । वे तत्काल गरुड़ारूड़ होकर ध्रुवके पास पहुँच गये , परंतु फिर भी ध्रुव अपने ध्यानमें मग्न रहे । भक्तको साध्य तो प्रिय होता ही है , किंतु साध्यसे साधन भी कम प्रिय नहीं लगता । अन्तमें भगवान्को उनके ध्यानसे अपने स्वरूपको हटाना पड़ा , तब कहीं ध्रुवने विकल होकर नेत्र खोले । साक्षात् भगवान्को अपने सामने उपस्थित देखकर ध्रुव तुरंत उनके चरणोंमें लोट गये । प्रेमसे वाणी गद्गद हो गयी , शरीर रोमांचित हो गया और नेत्रोंसे प्रेमाश्रु बहने लगे । उनकी वाणी प्रेमसे अवरुद्ध थी । वे केवल हाथ जोड़े प्रभुके सामने खड़े थे , स्तुति करना चाहते हुए भी स्तुति करनेमें असमर्थ थे । करुणालय भगवान् श्रीहरिने अपना वेदमय शंख ध्रुवके कपोलसे स्पर्श करा दिव्य वाणीसे भगवान्की स्तुति करने लगे दिया । शंखका स्पर्श होते ही ध्रुवको दिव्य वाणी प्राप्त हो गयी । सम्पूर्ण वेद - ज्ञान सुलभ हो गया । ध्रुव सत्याऽऽशिषो अप्येवमर्य भगवंस्तव पादपद्म माशीस्तथानुभजतः भगवान् परिपाति वाश्रेव पुरुषार्थमूर्तेः । सन्त्कमनुग्रहकातरो ऽस्मान् ॥ (श्रीमद्भा ० ४।९ ।१७ ) भगवन् ! आप परमानन्दमूर्ति हैं जो लोग ऐसा समझकर निष्काम भावसे आपका निरन्तर भजन करते हैं , उनके लिये राज्यादि भोगोंको अपेक्षा आपके चरणकमलॉकी प्राप्ति ही भजनका सच्चा फल है । स्वामिन् यद्यपि बात ऐसी ही है , तो भी गौ जैसे तुरंत जन्म हुए बछड़ेको दूध पिलाती और व्याघ्रादिसे बचाती रहती है , उसी प्रकार आप भी भक्तोंपर कृपा करनेके लिये निरन्तर आतुर रहनेके कारण हम - जैसे सकाम जीवोंकी भी कामना पूर्ण करके संसार भयसे उनकी रक्षा करते रहते हैं । ' ' प्रभो ! आपकी कृपाका क्या कहना ! बड़े - बड़े ऋषियों और मुनियोंको भी जिस रूपके दर्शन नहीं होते , आपने उस दिव्य स्वरूपका दर्शन मुझे छः मासके अल्पसमयमें ही दे दिया । अब मैं कृतार्थ हो गया । आपकी विलक्षण कृपा प्राप्त करके अब मेरे चित्तमें कोई कामना नहीं है । मुझे केवल आपके सांनिध्यकी ही इच्छा है । ' ' बेटा ध्रुव ! तुम्हारे मनमें अब कोई कामना नहीं है , परंतु मेरी आज्ञाका तुम्हें पालन करना ही होगा । मैं तुम्हें जो पद देता हूँ , वह ग्रहण करना होगा । मेरी आज्ञासे तुम्हें राज्यभार संभालना होगा । ग्रह - नक्षत्रोंसे ऊपर तुम्हें ध्रुव - पद प्राप्त होगा । जीवनभर तुमपर मेरी अनोखी कृपा बरसती रहेगी । कल्पके अन्तमें तुम मेरे पास ही आओगे , जहाँसे तुम्हें फिर लौटना नहीं होगा । ' कृपालु श्रीहरिने ध्रुवको कृपामय आदेश दिया । भगवान् श्रीहरिके विरहका संताप लेकर राज्यकी कामना न होते हुए भी प्रभुके आदेशानुसार ध्रुव वनसे लौट आये । पितासहित सभी राजपुरुषों एवं सौतेली माँने उनका अभिनन्दनकर आशीर्वाद दिया । सुनीतिने तो आरती उतारते हुए प्रेमाश्रुओंसे अपने प्रिय पुत्रका अभिषेक किया । युवावस्थामें ध्रुवने अपने माता - पिताकी आज्ञासे गृहस्थाश्रममें प्रवेश किया । ध्रुवके भाई उत्तमको आखेटका दुर्व्यसन था । एक बार वह आखेट करते - करते स्वयं भी एक यक्षका आखेट बन गया । ध्रुव भाई उत्तमके निधनकी जानकारीके लिये वनमें गये । वहाँ उनका यक्षोंसे घमासान युद्ध हुआ । अन्तमें पितामह मनुने युद्धमें आकर भयंकर संहार बन्द करवाया । यक्षपति कुबेर भक्त ध्रुवके व्यवहारसे बहुत प्रसन्न हुए । कुबेरने ध्रुवको वरदान देना चाहा , परंतु ध्रुवने उनसे विनम्रतापूर्वक भगवद्भक्तिकी ही याचना की । ध्रुवने अनेक यज्ञ - यागादि किये । उन्होंने भगवान् शंकरकी भी आराधनाकर उन्हें प्रसन्न किया तथा भगवद्भक्तिका ही अमोघ आशीर्वाद प्राप्त किया । ध्रुवने छत्तीस सहस्त्र वर्षतक धर्मपूर्वक पृथ्वीका पालन किया । भगवत्प्रेमका उनके जीवनमें उत्तरोत्तर विकास हुआ । अन्त समयमें भगवान्के पार्षद सुनन्द एवं नन्द उन्हें लेने आये और वे कालके सिरपर पैर रखकर विमानपर आरूढ़ हो सदेह भगवद्धामको चले गये ।
हरिशरणम हरिशरणम हरिशरणम।