श्री उद्धव जी

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श्रीउद्धवजी उद्धवजी भगवान्‌के सखा - भक्त थे । अक्रूरके साथ जब भगवान् व्रजसे मथुरा आ गये और कंस मारकर सब यादवोंको सुखी बना दिया , तब भगवान्ने एकान्तमें अपने प्रिय सखा उद्धवको बुलाकर कह ' उद्धव ! व्रजकी गोपांगनाएँ मेरे वियोगमें व्याकुल होंगी , उन्हें जाकर तुम समझा आओ । उन्हें मेरा स सुना आओ कि मैं तुमसे अलग नहीं , सदा तुम्हारे ही साथ हूँ । ' उद्धवजी अपने स्वामीकी आज्ञा पा नन्दके व्रजमें गये । वहाँ चारों ओरसे उन्हें व्रजवासियोंने घेर लिया और लगे भाँति - भाँतिके प्रश्न करने ; आँसू बहाने लगा , कोई मुरली बजाते - बजाते रोने लगा , कोई भगवान्‌का कुशल- समाचार पूछने ल उद्धवजीने सबको यथायोग्य उत्तर दिया और सबको धैर्य बँधाया । 3 एकान्तमें जाकर उन्होंने गोपियोंको अपना ज्ञान - सन्देश सुनाया । उन्होंने कहा- ' भगवान् वासुदेव   एक जगह नहीं हैं , वे तो सर्वत्र व्यापक हैं । उनमें भगवत् बुद्धि करो , सर्वत्र उन्हें देखो । ' गोपियोंने रो रोते कहा- ' उद्धवजी ! तुम ठीक कहते हो , किंतु हम गँवारी वनचरी इस गूढ़ ज्ञानको भला कैसे सह सकती हैं ? हम तो उन श्यामसुन्दरकी भोली - भाली सूरतपर ही अनुरक्त हैं । उनका वह हास्ययुक्त मुखारबिन्द वह काली काली घुंघराली अलकावली , वह वंशीकी मधुर ध्वनि हमें हठात् अपनी ओर खींच रही है । वृन्दावनकी समस्त भूमिपर उनकी अनन्त स्मृतियाँ अंकित हैं । तिलभर भी जमीन खाली नहीं , जहाँ उनकी कोई मधुर स्मृति न हो । हम इन यमुनापुलिन , वन , पर्वत , वृक्ष और लताओंमें उन श्यामसुन्दरको देखती हैं । इन्हें देखकर उनकी स्मृति मूर्तिमान् होकर हमारे हृदयपटलपर नाचने लगती है । उनके ऐसे अलौकिक प्रेमको देखकर उद्धवजी अपना समस्त ज्ञान भूल गये और अत्यन्त करुणाके स्वरमें कहने लगे क्या वन्दे नन्दब्रजस्त्रीणां पादरेणुमभीक्ष्णशः । भुवनत्रयम् ॥ पुनाति हरिकथोद्गीतं यासां ( श्रीमद्भा ० १०।४७६३ ) ' मैं इन व्रजांगनाओंकी चरणधूलिकी भक्तिभावसे वन्दना करता हूँ , जिनके द्वारा गायी हुई हरि - कथा तीनों भुवनोंको पावन करनेवाली है । ' ब्रजमें जाकर उद्धवजी ऐसे प्रभावित हुए कि वे सब ज्ञान - गाथा भूल गये । भगवान्के द्वारका पधारनेपर ये भी उनके साथ गये । यदुवंशियोंके मन्त्रिमण्डलमें इनका भी एक प्रधान स्थान था । इनकी भगवान्‌में अनन्य भक्ति थी । जब इन्होंने समझा कि भगवान् अब इस लोककी लीलाका संवरण करना चाहते हैं , तब ये एकान्तमें जाकर बड़ी दीनताके साथ कहने लगे नाहं क्षणार्धमपि केशव तवाधिकमलं नाथ त्यक्तुं समुत्सहे स्वधाम नय मामपि ॥ ( श्रीमद्भा ० ११।६।४३ ) ' हे भगवन् ! हे नाथ ! मैं आपके चरणोंसे आधे क्षणके लिये भी अलग होना नहीं चाहता । मुझे भी आप अपने साथ ले चलिये । ' भगवान्ने कहा - ' उद्धव ! मैं इस लोकसे इस शरीरद्वारा अन्तर्हित होना चाहता हूँ । मेरे अन्तर्हित होते ही यहाँ घोर कलियुग आ जायगा । इसलिये तुम बदरिकाश्रमको चले जाओ और वहाँ तपस्या करो । तुम्हें कलियुगका धर्म नहीं व्यापेगा । ' भगवान्‌की ऐसी ही मर्जी है , यह समझकर उद्धवजी चले तो गये , किंतु उनका मन भगवान्को लीलाओंमें ही लगा रहा । जब सब यादव प्रभासक्षेत्रको चले गये तो भगवान्‌की अन्तिम लीलाको देखने उद्धवजी भी प्रभासमें पहुँचे । तबतक समस्त यदुवंशियोंका संहार हो चुका था । उद्धवजी ढूँढते - ढूँढ़ते भगवान्के पास पहुँचे । भगवान् सरस्वती नदीके तटपर एक अश्वत्थवृक्षके नीचे विराजमान थे , उद्धवजीने रोते - रोते उन्हें प्रणाम किया । दैवयोगसे पराशरके शिष्य मैत्रेयजी भी वहाँ आ गये । दोनोंको भगवान्ने इस समस्त जगत्को सृष्टि , स्थिति , प्रलयका ज्ञान कराया और इस अन्तिम ज्ञानको विदुरजीके प्रति उपदेश करनेके लिये भी भगवान् मैत्रेयजीको आज्ञा कर गये । भगवान्की आज्ञा पाकर उद्धवजी बदरिकाश्रमको चले । भगवान् अपने परमधामको पधारे । उद्धवजीके हृदयमें भगवान्का वियोग भर रहा था , अतः उन्हें कुछ भी अच्छा नहीं लगता था । वे खूब रोते थे । किंतु रोना भी किसी सुहृदयके सामने हो तो हृदय हलका होता है । दैवयोगसे उद्धवजीको विदुरजी मिल गये । रो पड़े और रोते - रोते बोले विदुरजीने पूछा - ' यदुवंशके सब लोग कुशलपूर्वक तो हैं ? ' यदुकुलका नाम सुनते ही उद्धवजी ढाह बाँधकर रो पङे और रोते रोते बोले--कृष्णद्युमणिनिम्लोचे गीर्णेष्वजगरेण हा किं नु नः कुशलं ब्रूयां गृहेष्वहम् ॥ दुर्भगो बता नितरामपि । ये संवसन्तो न विदुर्हरिं मीना इवोडुपम् ॥ ( श्रीमद्भा ० ३।२।७-८ ) ' कृष्णरूपी सूर्यके अस्त होनेपर , कालरूपी सपके ग्रसे जानेपर हे विदुरजी ! हमारे कुलकी अब कुशल क्या पूछते हो ? यह पृथ्वी हतभागिनी है और उनमें भी ये यदुवंशी सबसे अधिक भाग्यहीन हैं , जो दिन रात पासमें रहनेपर भी भगवान्‌को नहीं पहचान सके , जैसे समुद्रमें रहनेवाले जीव चन्द्रमाको नहीं पहचान सकते । इसके बाद उद्धवजीने यदुवंशके क्षयकी सब बातें सुनायीं । उद्धवजी परम भागवत थे , ये भगवान्‌के अभिन्नविग्रह थे । इनके सम्बन्ध में भगवान्ने स्पष्ट कहा है मयि ज्ञानं ★ मदाश्रयम् । अस्माल्लोकादुपरते अर्हत्युद्धव नोद्धवोऽण्वपि एवाद्धा सम्प्रत्यात्मवतां वरः ॥ यद्गुणैर्नार्दितः प्रभुः । अतो मद्वयुने लोकं ग्राहयन्निह तिष्ठतु ॥ ( श्रीमद्भा ० ३।४।३०-३१ ) ' मेरे इस लोकसे चले जानेके पश्चात् उद्धव मेरे ज्ञानकी रक्षा करेंगे । उद्धव मुझसे गुणोंमें तनिक भी कम नहीं हैं , अतः वे ही सबको इसका उपदेश करेंगे । ' जिनके लिये भगवान् ऐसा कहते हैं , उनके भगवत्प्रेमके सम्बन्धमें क्या कहा जा सकता है । 
हरिशरणम हरिशरणम हरिशरणम। 

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