Param Bhagat sri Rukmangad ji

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                                 श्रीरुक्मांगदजी

 परमभागवत महाराज रुक्मांगद अयोध्याके महाराज ऋतध्वजके पुत्र थे । ये इक्ष्वाकुवंशमें बड़े ही प्रताप और धर्मात्मा राजा हुए हैं । इनकी सन्ध्यावली नामकी पत्नी थी , उसके गर्भसे राजकुमार धर्मांगदका जन हुआ । कुमार धर्मांगद पिताके समान ही धर्मात्मा और पितृभक्त थे । महाराज रुक्मांगदको एकादशीव्रता इष्ट था । उन्होंने अपने समस्त राज्यमें घोषणा करा दी थी कि जो एकादशीव्रत न करेगा , उसे राज्य ओरसे दण्ड दिया जायगा । अतः उनके राज्यमें छोटे - छोटे बच्चों , अति वृद्धों और गर्भिणी स्त्रियोंको छोड़कर सभी एकादशीव्रत करते थे । एकादशीव्रतके प्रतापके उनके राज्यमें कोई भी यमपुरीको नहीं जाता था । यमराजको बड़ी चिन्ता हुई , वे प्रजापति भगवान् ब्रह्माके पास गये और यमपुरीके उजाड़ होनेका संवाद सुनाया । ब्रह्माजीने कुछ सोचकर उत्तर दिया कि अच्छा हम इसका प्रबन्ध करेंगे । ब्रह्माजीने अपनी इच्छासे एक मोहिनी नामकी मायाकी स्त्री बनायी । उसने प्रतिज्ञा की कि मैं महाराज से एकादशीका व्रत छुड़वा दूँगी । ऐसी प्रतिज्ञा करके वह हिमालयके रमणीक प्रदेशमें चली गयी । इधर महाराज अपनी रानीको साथ लेकर हिमालयको राज्य करते - करते थक गये थे , वे अपने पुत्र धर्मांगदको राज्य देकर ओर तप करने चले गये । जाते हुए वे अपने पुत्रको आदेश दे गये कि एकादशीके व्रतका नियम इसी प्रकार चला रहे । पितृभक्त राजकुमारने पिताकी आज्ञा शिरोधार्य की और उसी प्रकार एकादशीका व्रत स्वयं करने लगा था । समस्त प्रजाके लोगोंसे कराने लगा । महाराज रुक्मांगद जंगलमें भी सदा एकादशीका व्रत करते थे । महाराज जहाँ तपस्या करते थे , वहाँ मोहिनी गयी और उसने अपने हाव - भाव , कटाक्षोंद्वारा महाराजको अपने वशमें कर लिय तथा अपनेको ब्रह्माजीकी पुत्री बताकर अपनी कुलीनताका भी परिचय दिया । महाराजने उससे विवाह करनेका प्रस्ताव किया । उसने कहा आप अपने नगरमें चलकर मुझसे विवाह कर लें , किंतु शर्त यह है कि मैं जो कुछ कहूँगी , वही आपको मानना पड़ेगा । महाराजने मोहवश यह शर्त स्वीकार कर ली । वे मोहिनीको साथ लेकर अपनी राजधानीमें लौट आये । उनके धर्मात्मा पुत्रने विधिवत् उनका स्वागत किया ।महाराजको मोहिनीने वशमें कर लिया था । अतः उन्होंने उसकी सब बातें मानकर उससे विवाह कर लिया । सन्ध्यावली बड़ी ही धर्मपरायणा पतिव्रता थीं । वे बड़ी श्रद्धासे महाराजकी तथा मोहिनीकी सेवा करने लगीं । उनके मनमें तनिक भी सौतियाडाह नहीं था । महाराज उनके इष्टदेव थे । महाराज जिन्हें मानते हैं , वह उनकी भी मान्य हैं । महाराज की जिसमें प्रसन्नता है , उसे करनेमें वे अपना सौभाग्य समझती थीं । इतना सब होनेपर भी महाराज एकादशीव्रतको सदा नियमपूर्वक करते थे । एकादशीका व्रत उन्होंने नहीं छोड़ा । एक दिन एकादशी आयी , महाराज व्रत रहे और विधिवत् रात्रिजागरण करनेको भी उद्यत हुए । मोहितीने कहा - महाराज ! मेरी एक बात आपको माननी होगी । GEE महाराजने कहा- ' मैं तुम्हारी सभी बातोंको मानता रहा हूँ और मानूँगा , बताओ कौन - सी बात है ? " मोहिनीने कहा- ' मेरी प्रार्थना यही है कि आप एकादशीका व्रत न करें , इसीमें मेरी प्रसन्नता है । " महाराज यह सुनते ही अवाक् रह गये , उन्होंने बड़े कष्टसे कहा - ' मोहिनी ! मैं तुम्हारी सभी बातें मान सकता हूँ , सब कुछ कर सकता हूँ , किंतु एकादशीव्रत छोड़नेके लिये मुझसे मत कह | एकादशीव्रतको छोड़ना मेरे लिये नितान्त असम्भव है । नरु मोहिनीने कहा - ' महाराज ! आप एकादशीव्रत रहेंगे तो मैं अभी मर जाऊँगी । मेरी यही इच्छा है , इसे आपको पूरा करना ही होगा । आप मुझसे विवाह के समय प्रतिज्ञा कर चुके हैं । ' महाराजने कहा- ' तुम इसके बदले और जो कुछ भी चाहो , माँग लो । बस , एकादशीव्रत छोड़नेको मत कहो । ' तब मोहिनीने कहा - ' अच्छा अपने इकलौते पुत्रका सिर दीजिये । ' महाराज बड़े दुखी हुए । धर्मांगदको जब यह बात मालूम हुई तो उन्होंने अपने पिताको बहुत समझाया कि ' इससे बढ़कर सौभाग्य मेरे लिये क्या होगा ? आप धर्मसंकटसे बच जायेंगे , माताकी इच्छापूर्ति होगी । यह शरीर तो कभी - न - कभी जाना हो है , यदि इसके द्वारा कोई महान् कार्य हो जाय तो इससे बढ़कर इसका सदुपयोग और हो ही क्या सकता है ? ' सन्ध्यावली रानीने भी पुत्रकी बातोंका अनुमोदन किया । पुत्रके कहनेपर महाराज ज्यों ही अपने इकलौते पुत्रका सिर काटनेवाले थे , त्यों ही भगवान् विमान लेकर आये और महाराजको सपरिवार अपने लोकको ले गये । द जिन्होंने सत्यकी रक्षाके लिये प्राणसे भी प्यारे अपने इकलौते पुत्रका सिर देनातक मंजूर कर लिया । किंतु एकादशीका व्रत नहीं छोड़ा , उनसे बढ़कर परमभागवत और कौन हो सकता है ? राजा रुक्मांगदको एकादशीव्रत क्यों इतना प्रिय था ? इस विषयमें भक्तमालके टीकाकार श्रीप्रियादासजी महाराज निम्न दो कवित्तोंमें इस प्रसंगका वर्णन करते हुए कहते हैं रुक्मांगद बाग शुभ गन्ध फूल पागि रह्यो करि अनुराग देववधू लेन आवहीं । रहि गई एक कांटा चुभ्यो पग बैंगन को सुनि नृप माली पास आये मुख पावहीं ॥ कहाँ ' को उपाइ स्वर्ग लोक को पठाइ दीजै ' करै एकादशी जल धेरै कर जावहीं व्रतको तो नाम यही ग्राम कोउ जानै नाहिं कीनो हो अजान काल्हि लावो गुनगावहीं ॥ ८३ ॥ फेरी नृप डाँड़ी सुनि बनिक की लौंड़ी भूखी रही ही कनौड़ी निशि जागी उन मारिये । राजा ढिग आनि करि दियो व्रत दान गई तिया यों उड़ानि निज लोक को पधारिये ॥  महिमा अपार देखि भूपने विचारी याको कोऊ अन्न खाय ताको बाँधि मारि डारिये । याही के प्रभाव भाव भक्ति विसतार भयो नयो चोज सुनो सब पुरी लै उधारिये ॥ भक्त राजा रुक्मांगदका बाग अनेक प्रकारके सुन्दर फूलोंकी उत्तम सुगन्धसे भरा हुआ था , इसमें प्रभावित होकर स्वर्गकी अप्सराएँ भी यहाँ आती थीं । दैवयोगसे एक दिन एक अप्सराके पैरमें बैंगन काँटा चुभ गया , इससे उसका पुण्य क्षीण हो गया । वह उड़कर स्वर्गको न जा सकी , बागमें ही रह गयी । प्रातःकाल बागके मालियोंसे यह समाचार सुनकर रुक्मांगदजी बागमें आये । अप्सराको चिन्तित देखकर राजाने पूछा- तुम्हें सुखी करनेका क्या उपाय किया जाय ? तब उसने कहा कि कल जिसने एकादशीका व्रत किया हो , वह हाथमें जल लेकर अपने व्रतके फलका संकल्प करके मुझे दे दे । तब मैं अपने लोकको जा सकती हूँ । राजाने कहा- व्रत करना तो दूर रहा , मेरे नगरमें तो कोई इसका नाम भी नहीं जानता है । तब अप्सराने कहा कि बिना जाने ही कोई भूखा रह गया हो , उसे ही लाकर संकल्प करा दो , उसीके फलसे चली जाऊँगी और कृतज्ञ होकर सदा आपका गुन गाऊँगी । राजाने अपने नगरमें ढिंढोरा पिटवाया कि कल जिसने अन्न - जल ग्रहण न किया हो , वह दरबारमें आये , उसे इनाम मिलेगा । इसे सुनकर एक बनियेकी दासी आयी , जिस बिचारीको विना अपराधके ही बनियेने मारा था । इससे वह ग्लानिवश दिन - रात भूखी - प्यासी और जागती ही रह गयी थी । राजाने उसीसे व्रतका संकल्प करा दिया । अप्सरा उड़कर अपने लोकको चली गयी । एकादशीव्रतको ऐसी अपार महिमाको देखकर राजाने विचार करके यह घोषणा की कि मेरे राज्यमें सभीको व्रत करना अनिवार्य है । यदि कोई अन्न खायेगा तो उसे बाँधकर मार डाला जायगा । इसके प्रभावसे राजा रुक्मांगदके राज्य में भाव - भक्तिका बहुत विस्तार हुआ । श्रीरुक्मांगदजीकी पुत्री 

 श्रीप्रियादासजीने श्रीरुक्मांगदजीकी पुत्रीकी एकादशी - निष्ठाका अपने एक कवित्तमें इस प्रकार वर्णन किया है एकादशी व्रत की सचाई लै दिखाई राजा सुता कि निकाई सुनौ नीके चित लाइकै । पिता घर आयो पति भूख ने सतायो अति माँगे तिया पास नहिं दियो यह भाइकै ॥ आजु हरिवासर सो तासर न पूजै कोऊ डर कहा मीच को यों मानी सुख पाइकै । तजे उन प्रान पाये बेगि भगवान् वधू हिये सरसान भई कह्यों पन गाइकै ॥ ८५ ।। कवित्तमें बताया गया है कि राजा रुक्मांगदजीकी पुत्रीको भी अपने पिताकी भाँति एकादशी व्रतमे अगाध निष्ठा थी । एक बार जब वह अपने पिताके ही घर थी , तब एक दिन उसका पति आया । व्रतका दिन था , इसलिये किसीने भोजन - पानादिकी बात भी नहीं पूछी । उसे भूखने बहुत सताया , व्याकुल होकर उसने अपनी स्त्रीसे भोजन माँगा । एकादशीव्रत होनेके कारण उसने भी कुछ खानेको नहीं दिया । तब उसके पतिने कहा- मुझसे भूख - प्यास सही नहीं जा रही है , मैं थोड़ी देरमें मर जाऊँगा । राजपुत्रीने कहा- आज तो एकादशी है , इसके समान प्राण त्यागनेका उत्तम दिन कोई नहीं है । इसलिये मृत्युका क्या भय ? यदि प्राण छूट भी जाय तो दुर्लभ वैकुण्ठकी प्राप्ति होगी । उधर भोजन न मिलनेसे उसके पतिने प्राण त्याग दिये । और शीघ्र ही वैकुण्ठधामको पहुँचकर वे भगवान्‌को प्राप्त हो गये । यह देखकर उसकी स्त्री का हृदय भक्ति से भर गया । उसने भी शरीर त्यागकर पति का अनुगमन किया ।

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