Bhakt piplad_ भक्त पिप्पलाद जी महाराज

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              श्रीपिप्पलादजी 

  ये महर्षि दधीचिके पुत्र थे । जिस समय देवताओंकी याचनापर श्रीदधीचिजीने अपनी अस्थियाँ उनको प्रदान की , ऋषि - पत्नी सुवर्चा उस समय आश्रमसे कहीं बाहर गयी हुई थीं । जब वे आश्रममें आयी और देवताओंकी स्वार्थपरतासे पतिकी मृत्युका समाचार उन्होंने सुना तो उन्हें बड़ा दुःख हुआ और उस पतिव्रता ने पति

लोक जानेका विचारकर पवित्र लकड़ियोंद्वारा एक चिता तैयार की । उसी समय श्रीशिवजीकी प्रेरणास आकाशवाणी हुई कि- प्राज्ञे । ऐसा साहस मत करो , तुम्हारे उदरमें मुनिका तेज वर्तमान है । तुम उसे यत्नपूर्वक पहले उत्पन्न करो , पीछे तुम्हारी जैसी इच्छा हो , वैसा करना ; क्योंकि शास्त्रका ऐसा आदेश है कि गर्भवतीको सती नहीं होना चाहिये । उसे सुनकर वह मुनिपत्नी क्षणभरके लिये विस्मयमें पड़ गयी । परंतु उस सती साध्वी सुवर्चाको तो पतिलोककी प्राप्ति ही अभीष्ट थी , अतः उसने अपने उदरको विदीर्णकर दिव्य स्वरूपधारी अपने पुत्रको पीपलके समीप रख दिया और स्वयं स्वामीमें चित्त लगाकर अग्निको प्रणामकर चितामें प्रवेश किया और पतिसहित दिव्यलोकको चली गयीं । 

पीपलके वृक्षोंने उस बालकका पालन किया था , इसलिये आगे चलकर वह पिप्पलाद नामसे प्रसिद्ध हुआ । ये भगवान् शिवके अंशसे प्रादुर्भूत हुए थे । पिप्पलादजीने उसी अश्वत्थके नीचे लोकोंकी हितकामनासे महान् तप किया था । वह स्थल आज भी पिप्पलतीर्थ एवं अश्वत्थतीर्थके नामसे प्रसिद्ध है । (प्रश्नोपनिषद् में वर्णन आता है कि भरद्वाजपुत्र सुकेशा , शिविकुमार सत्यकाम , गर्गगोत्रोत्पन्न सौर्यायणी , कोसलदेशीय आश्वलायन , विदर्भनिवासी भार्गव और कत्यऋषिके प्रपौत्र कबन्धी- ये सबके सब परब्रह्मकी खोज करते हुए हाथमें समिधा लेकर भगवान् पिप्पलाद ऋषिके पास गये । तब श्रीपिप्पलादजीने उन लोगोंको श्रद्धापूर्वक ब्रह्मचर्यका पालन करते हुए तप करनेको कहा । 

आपका कथन है — ' तेषामेवैष ब्रह्मलोको येषां तपो ब्रह्मचर्यं येषु सत्यं प्रतिष्ठितम् । 

अर्थात् जिनमें तप और ब्रह्मचर्य है , जिनमें सत्य प्रतिष्ठित है ; उन्हींको ब्रह्मलोक मिलता है । 


                            श्रीनिमिजी

 ये महाराज इक्ष्वाकुके पुत्र थे और महर्षि गौतमके आश्रमके समीप वैजयन्त नामक नगर बसाकर वहाँका राज्य करते थे । एक बार निमिने एक सहस्र वर्षमें समाप्त होनेवाले एक यज्ञका आरम्भ किया और उसमें श्रीवसिष्ठजीको ऋत्विजके रूपमें वरण किया । श्रीवसिष्ठजीने कहा कि पाँच सौ वर्षके यज्ञके लिये इन्द्रने मुझे पहले ही वरण कर लिया है । अतः इतने समयतक तुम ठहर जाओ । राजाने कुछ उत्तर नहीं दिया , इससे वसिष्ठजीने यह समझकर कि राजाने उनका कथन स्वीकार कर लिया है , इन्द्रका यज्ञ कराने चले गये । विचारवान् निमिने यह सोचकर कि शरीर तो क्षणभंगुर है , अतः विलम्ब करना उचित नहीं है , उसी समय महर्षि गौतमादि अन्य होताओंद्वारा यज्ञ प्रारम्भ कर दिया । इन्द्रका यज्ञ समाप्त होते ही , ' मुझे निमिका यज्ञ कराना है ' इस विचारसे वसिष्ठजी तुरंत ही आ गये । राजा उस समय सो रहे थे । यज्ञमें अपने स्थानपर सम्पूर्ण कर्मका भार गौतमको सौंपा है , इसलिये यह देहहीन हो जाय । 

गौतमको होताका कर्म करते देखकर वसिष्ठजीने सोते हुए राजाको शाप दे दिया कि इसने मेरी अवज्ञा करके वसिष्ठजीने शाप दिया है , यह जानकर राजा निमिने भी उनको शाप दे दिया कि गुरुने मुझसे बिना बातचीत किये अज्ञानतापूर्वक मुझ सोये हुए को शाप दिया है , इसलिये उनकी भी देह नष्ट हो जायगी । उसे यज्ञकी समाप्तितक सुरक्षित रखा । इस प्रकार शाप देकर राजाने शरीर छोड़ दिया । महर्षि गौतम आदिने निमिके शरीरको तैल आदिमें रखकर उसे यज्ञ की समाप्ति तक सुरक्षित रखा। 

 यज्ञकी समाप्तिपर जब देवतालोग अपना भाग ग्रहण करनेके लिये आये तब ऋत्विजोंने कहा कि यजमातको वर दीजिये । देवताओंके पूछनेपर कि क्या वर चाहते हो , निमिने सूक्ष्म शरीरके द्वारा कहा कि देह धारण करनेपर उससे वियोग होनेमें बहुत दुःख होता है । इसलिये मैं देह नहीं चाहता । समस्त प्राणियोंकि नेत्रोंपर मेरा निवास हो । देवताओंने यही वर दिया । तभीसे लोगों की पलकें गिरने लगीं । 

देवताओने आशीर्वाद दिया कि राजा निमि बिना शरीरके ही प्राणियोंकि नेत्रॉपर अपनी इच्छाके अनुसार निवास करें । वे वहाँ रहकर सूक्ष्म शरीरसे भगवान्‌का चिन्तन करते रहें । पलक उठने और गिरनेसे उनके अस्तित्वका पता चलता रहेगा । इसके बाद महर्षियोंने यह सोचकर कि राजाके न रहनेपर लोगोंमें अराजकता फैल जायगी । निमिके शरीरका मन्थन किया , उस मन्थनसे एक कुमार उत्पन्न हुआ । जन्म लेनेके कारण उसका नाम ' जनक ' हुआ - विदेहसे उत्पन्न होनेके कारण ' वैदेह ' और मन्थनसे उत्पन्न होनेके कारण उसी बालकका नाम ' मिथिल ' हुआ । उसीने मिथिलापुरी बसायी । यथा - ' जन्मना जनकः सोऽभूद् वैदेहस्तु विदेहजः । मिथिलो मथनाज्जातो मिथिला येन निर्मिता ॥ ' ( भा ० ) इस वंशके सभी राजा आत्मविद्याश्रयी अर्थात् ब्रह्मनिष्ठ होते आये हैं । मुनियोंके आशीर्वादसे यह वंश सदासे योगी , जानी और भक्त रहा है । इसी कुलमें श्रीशीरध्वज जनकके यहाँ आदिशक्ति श्रीसीताजीने अवतार लिया था । 

श्रीभरद्वाजजी 

श्रीभरद्वाजजी श्रीरामचरणकमलानुरागी संत थे । इनकी भगवद्भक्ति लोकप्रसिद्ध है । भगवद्भक्तिका इन्हें आदिलोत कहें तो अत्युक्ति न होगी । श्रीरामायणजीकी कथाका प्रचार तो इनके ही द्वारा हुआ । ये श्रीगंगा यमुनाजीके परम पावन संगमपर प्रयागराजमें रहते थे 

भरद्वाज मुनि वसहि प्रयागा तिन्हहि रामपद अति अनुरागा ॥

 प्रत्येक मकरमें समस्त ऋषि कल्पवास करने आते थे और इन्होंक आश्रममें आकर ठहरते थे । एक बार याज्ञवल्क्य ऋषिको इन्होंने आग्रहपूर्वक कुछ दिनके लिये और रख लिया । रखा था भगवत्कथा सुननेके लिये । इसलिये उनकी विधिवत् पूजा करके बोले 

राम बड़ मोरें करगत बेदतत्त्व सबु तोरें ॥ नाथ एक संसठ कहत सो मोहि लागत भय लाजा जाँ न कहठँ बड़ होड़ अकाजा ॥ अवधेस कुमारा । तिन्ह कर चरित विदित संसारा ॥ नारि बिरह दुखु लहेड अपारा भवठ रोषु रन रावनु मारा ॥ कोठ जपत जाहि कि अपर प्रभु सोइ बिवेकु कहहु तुम्ह राम त्रिपुरारि । सत्यधाम सर्वग्य तुम्ह कह हु  बिवेकु  बिचारी। ।

याज्ञवल्क्यजी सुनकर हँस पड़े । महामुनि भरद्वाज और उन्हें सन्देह । यह तो असम्भव है । जगत्के हितके लिये ये रामकथा सुनना चाहते हैं , जिससे सभी रामकथाको बार - बार सुनें । अतः वे हँसकर बोले ' चतुराई तुम्हारि मैं जानी' 

चाहहु सुनै राम गुन गुढ़ा । कीहिहु प्रस्न मनहुँ अति मूढा ॥ 

तब याज्ञवल्क्यजीने समस्त कथा सुनायी । वही रामसुरसरिधारा श्रीरामायण हुई , जो त्रैलोक्यको पावन करनेमें समर्थ हुई । 

भगवान् श्रीरामचन्द्रजी वनवासके समय सर्वप्रथम इन्हींके आश्रमपर आये । इन्होंने प्रार्थना की कि चौदह वर्षतक यहीं रहिये । भगवान्ने कहा - ' यहाँसे अवध समीप है , रोज भीड़ लगी रहेगी । ' इनकी आज्ञा लेकर  भगवान् इनके बताये हुए स्थान चित्रकूटपर चले गये । 

भरतजी जब श्रीरामजीकी खोजमें आये तो इन्होंने उनका इतना भारी स्वागत - सत्कार किया कि वे आश्चर्य में पड़ गये । श्रीरामजीसे भी अधिक इन्होंने उनका सत्कार किया और स्पष्ट कह दिया 

सुनहु भरत हम झूठ न कहहीं । उदासीन तापस बन रहहीं ॥   सब साधन कर सुफल सुहावा ।  लखन राम सिय दरसनु पावा ।।

तेहि फल कर फलु दरस तुम्हारा ।सहित पयाग सुभाग हमारा ॥ 

भरतजी लज्जित हुए । मुनिने उनपर अनन्त प्रेम दरसाया- ' राम तें अधिक राम कर दासा । ' महामुनि भरद्वाज श्रोत्रिय ब्रह्मनिष्ठ ऋषि थे । इनकी एक कन्या याज्ञवल्क्यजीको विवाही थी , दूसरी विश्रवामुनिको , जिनके पुत्र कुबेरजी हुए । ये अद्वितीय रामानुरागी थे ।

हरिशरणम हरिशरणम हरिशरणम 
सनातन वैदिक धर्म कर्म 
BHOOPAL MISHRA 
bhupalmishra35620@gmail.com

 

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