सत्यवादी राजा हरिश्चन्द्र जी महाराज
राजा हरिश्चन्द्र आदि परोपकारी भक्त। सुनो हरिश्चन्द कथा व्यथा बिन द्रव्य दियो तथा नहीं राखी बेच सुवतिया जन है । सुरथ सुधन्वा जू सों दोष के करत मरे शङ्ख औ लिखित विप्र भय मैलो मान है । इन्द्र औ अगिनि गये शिवि पै परीक्षा लैन काटिदियो मांस रीझ साँचो जान्यो पता है । भरत दधीच आदि भागवत बीच गाए सबनि सुहाये जिन दियो जन धन है ॥ या श्रोप्रियादासजी कहते हैं- अब सत्यवादी राजा हरिश्चन्द्रको कथा सुनिये - उन्होंने मनमें बिना किसी कष्टका अनुभव किये प्रसन्नतापूर्वक विश्वामित्रमुनिको अपना राज्यवैभव दान कर दिया । कुछ भी शोष नहीं रखा । पहले संकल्पको पूरा किया , सत्यका पालन करने में अपने मान किसी को नहीं रख छोड़कर काशीपुरीको चले गये । वहाँ उन्होंने अपने शरीरके साथ ही स्त्री - पुत्रको बेच दिया । सत्यको रक्षा करके भगवान्को प्रसन्न किया । [ सूर्यवंशमें त्रिशंकु नामके एक प्रसिद्ध चक्रवर्ती सम्राट् हो गये हैं , जिन्हें भगवान् विश्वामित्रने अपने योगबलसे सशरीर स्वर्ग भेजनेका प्रयत्न किया था । महाराज हरिश्चन्द्र उन्हीं त्रिशंकुके पुत्र थे । ये बड़े ही धर्मात्मा , सत्यपरायण तथा प्रसिद्ध दानों थे । इनके सत्यकी परीक्षाको गाथा पुराणोंमें प्रसिद्ध है । इनकी पत्नी शैब्या थी तथा पुत्रका नाम रोहित था ] सुरथ और सुधन्य दला बड़े भारी भक्त थे । शंख और लिखित दोनों ब्राह्मणोंके मन मलिन थे , उन्होंने दोनों को मिथ्या दोष लगाया और वे अपने पापसे मर गये । शरणागतरक्षक राजा शिक्षिके पास परीक्षा लेने के लिये इन्द्र और अग्निदेव बाज और कबूतर बनकर गये । शरणागत कबूतरकी रक्षा करते हुए प्रसन्न होकर उन्होंने बायको अपने शरीरका मांस काटकर दे दिया , तब दोनोंको विश्वास हुआ कि राजा अपने प्रपाका क सच्चा धर्मात्मा है । छप्पयमें आये शेष भरत और दधीचि आदि भक्तोको कथाएँ श्रीसद्भावसमें कह गयी हैं । जिन्होंने परोपकारमें अपना तन - मन और धन अर्पण किया , वे भक्त संसात्मे सभीको प्रिय हुए ॥
श्रीहरिश्चन्द्रजी। सूर्यवंशमें त्रिशंकु नामके एक प्रसिद्ध चक्रवर्ती सम्राट् हो गये हैं , जिन्हें मुनि विश्वामिने अपने योगबाल सशरीर स्वर्ग भेजनेका प्रयत्न किया था । महाराज हरिश्चन्द्र उन्हों त्रिशंकुके पुत्र थे । ये बड़े ही धमा सत्यपरायण तथा प्रसिद्ध दानी थे । इनके राज्यमें प्रजा बड़ी सुखी थी और महामारी आदि उप कभी नहीं होते थे । महाराज हरिश्चन्द्रके यशसे त्रिभुवन भर गया । देवर्षि नारदके मुझसे इसकी प्रशंसा सुनका देवराज इन्द्र ईष्यसि जल उठे और उनकी परीक्षाके लिये मुनि विश्वामित्रसे प्रार्थना की । इसको नाम प्रसन्न होकर मुनि परीक्षा लेनेको तैयार हो गये । सक महामुनि विश्वामित्र अयोध्या पहुँचे । राजा हरिश्चन्द्रसे बालों - हो- बालोंमें उन्होंने समस्त राज्य दारूसमेत लिया । महाराज हरिश्चन्द्र ही भूमण्डलके एकछत्र राजा थे । वह सारा राज्य तो मुनिको भेट हो चुकाब रहें तो कहीं रहें ? उन दिनों काशी ही एक ऐसा स्थान था , जिसपर किसी मनुष्यका अधिकार नहीं समझा जा था । वे रानी शैव्या और पुत्र रोहिताश्वके साथ काशीकी तरफ चल पड़े जाते समय मुनिने राजाले कहा कि बिन दक्षिणाके यज्ञ , दान और जप - तप आदि सब निष्फल होते हैं ; अत : आप इस बड़े भारी दानको सताके लिए एक हजार स्वर्णमुद्राएँ दक्षिणास्वरूप दीजिये । महाराजके पास अब रह ही क्या गया था । उन्होंने इसके लिए एक मासकी अवधि माँगी । विश्वामित्रने प्रसन्नतापूर्वक एक मासका समय दे दिया । महाराज हरिश्चन्द्र काशी पहुँचे और शैव्या तथा रोहिताश्वको एक ब्राह्मणके हाथ बेंचकर स्वयं एक चाण्डालके यहाँ बिक गये ; क्योंकि इसके सिवा अन्य कोई उपाय भी न था । इस प्रकार मुनिके ऋणसे होकर राजा हरिश्चन्द्र अपने स्वामीके यहाँ रहकर काम करने लगे । इनका स्वामी मरघटका मालिक थ उसने इन्हें श्मशानमें रहकर मुर्दोंके कफन लेनेका काम सौंपा । इस प्रकार राजा बड़ी सावधानीसे स्वामीका काम करते हुए श्मशानमें ही रहने लगे । इधर रानी शैब्या ब्राह्मणके घर रहकर उसके बर्तन साफ करती , घरमें झाडू - बुहारी देती और कुमार पुष्प वाटिकासे ब्राह्मणके देवपूजनके लिये पुष्प लाता । राजसुख भोगे हुए और कभी कठिन काम करनेका अभ्यास न होनेके कारण रानी शैब्या और कुमार रोहिताश्वका शरीर अत्यन्त परिश्रमके कारण इतना गया कि उन्हें पहचानना कठिन हो गया । इसी बीचमें एक दिन जबकि कुमार पुष्पचयन कर रहा था , एक पुष्पलताके भीतरसे एक काले विषधर सर्पने उसे डस लिया । कुमारका मृत शरीर जमीनपर गिर पड़ा । जय शैब्याको यह खबर मिली तो वह स्वामीके कार्यसे निपटकर विलाप करती हुई पुत्रके शवके पास गयी और उसे लेकर दाहके लिये श्मशान पहुँची । महारानी पुत्रके शवको जलाना ही चाहती थी कि हरिश्चन्द्रने आकर उससे कफन माँगा । पहले तो दम्पतीने एक - दूसरेको पहचाना ही नहीं , परंतु दुःखके कारण शैब्याके रोने चीखनेसे राजाने रानी और पुत्रको पहचान लिया । यहाँपर हरिश्चन्द्रकी तीसरी बार कठिन परीक्षा हुई । शैव्याके पास रोहिताश्वके कफनके लिये कोई कपड़ा नहीं था । परंतु राजाने रानीके गिड़गिड़ानेकी कोई परवा नहीं की । वे पिताके भावसे पुत्रशोकसे कितने ही दुखी क्यों न हों , पर यहाँ तो ये पिता नहीं थे । वे तो मरघटके स्वामीके नौकर थे और उनकी आज्ञा बिना किसी भी लाशको कफन लिये बिना जलाने देना पाप था । राज अपने धर्मसे जरा भी विचलित नहीं हुए । जब रानीने स्वामीको किसी तरह मानते नहीं देखा तो वह अपने साड़ीके दो टुकड़े करके उसे कफनके रूपमें देनेकी तैयार हो गयी । रानी ज्यों ही साड़ीके दो टुकड़े करनेको तैयार हुई कि वहाँ भगवान् नारायण एवं मुनि विश्वामित्रसहित ब्रह्मादि देवगण आ उपस्थित हुए और कहन स्वर्गके दिव्य भोगोंको भोगो । लगे कि हम तुम्हारी धर्मपालनकी दृढ़तासे अत्यन्त प्रसन्न हैं , तुम तीनों सदेह स्वर्गमें जाकर अनन्तकालतक इधर इन्द्रने रोहिताश्वके मृत शरीरपर अमृतकी वर्षा करके उसे जीवित कर दिया । कुमार सोकर उठे हुएकी भाँति उठ खड़े हुए । हरिश्चन्द्रने समस्त देवगणसे कहा कि जबतक मैं अपने स्वामीसे आज्ञा न ले लूँ , तबतक यहाँसे कैसे हट सकता हूँ ? इसपर धर्मराजने कहा - ' राजन् ! तुम्हारी परीक्षाके लिये मैंने हो चाण्डालका रूप धारण किया था । तुम अपनी परीक्षामें पूर्णत : उत्तीर्ण हो गये । अब तुम सहर्ष स्वर्ग ज सकते हो । ' इसपर महाराज हरिश्चन्द्रने कहा- ' महाराज ! मेरे विरहमें मेरी प्रजा अयोध्यामें व्याकुल हो रही । होगी । उनको छोड़कर में अकेला कैसे स्वर्ग जा सकता है ? यदि आप मेरी प्रजाको भी मेरे साथ स्वर्ग भेजनेको तैयार हों तो मुझे कोई आपत्ति नहीं , अन्यथा उनके बिना में स्वर्गमें रहनेकी अपेक्षा उनके साथ नरकमें रहना भी अधिक पसन्द करूंगा । ' इसपर इन्द्रने कहा- ' महाराज ! उन सबके कर्म तो अलग - अलग हैं , वे सब एक साथ कैसे स्वर्ग जा सकते हैं ? यह सुनकर हरिश्चन्द्रने कहा - ' मुझे आप मेरे जिन कमक कारण अनन्तकालके लिये स्वर्ग भेजना चाहते हैं , उन कर्मोका फल आप सबको समानरूपसे बाँट दें , फिर उनके साथ स्वर्गका क्षणिक सुख भी मेरे लिये सुखकर होगा । किंतु उनके बिना में अनन्तकालके लिये भी स्वर्गमें रहना नहीं चाहता । ' इसपर देवराज प्रसन्न हो गये और उन्होंने ' तथास्तु ' कह दिया । सब देवगण महाराज हरिश्चन्द्र एवं शैब्या तथा रोहिताश्वको आशीर्वाद एवं नाना प्रकारके वरदान देकर अन्तर्धान हो । गये । भगवान् नारायणदेवने भी उन्हें अपनी अचल भक्ति देकर कृतार्थ कर दिया ।इधर सब के सब अयोध्यावासी अपने स्त्री , पुत्र एवं भृत्योंसहित सदेह स्वर्ग चले गये । बादमें मुनि विश्वामित्रने अयोध्या नगरीको फिरसे बसाया और कुमार रोहितको अयोध्याके राजसिंहासनपर बिठाकर उसे समस्त भूमण्डलका एकछत्र अधिपति बना दिया ।
हरिशरणम हरिशरणम हरिशरणम
BHOOPAL Mishra
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