8 .श्रीकृष्णावतारकी कथा - '
परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम् । धर्मसंस्थापनार्थाय सम्भवामि युगे युगे ॥ ' ' साधु- पुरुषोंके परित्राण , दुष्टोंके विनाश और धर्मसंस्थापनके लिये मैं युग - युगमें प्रकट होता हूँ ' - अपने इस वचनको पूर्ण चरितार्थ करते हुए अखिलरसामृतसिन्धु , षडैश्वर्यवान् , सर्वलोकमहेश्वर स्वयं भगवान् श्रीकृष्ण भाद्रपदकी कृष्णाष्टमीकी अर्धरात्रिको कंसके कारागारमें परम अद्भुत चतुर्भुज नारायणरूपसे प्रकट हुए । वात्सल्यभावभावितहृदया माता देवकीकी प्रार्थनापर भक्तवत्सल भगवान्ने प्राकृत शिशुका - सा रूप धारण कर लिया । श्रीवसुदेवजी भगवान्के आज्ञानुसार शिशुरूप भगवान्को नन्दालयमें श्रीयशोदाके पास सुलाकर बदलेमें यशोदात्मजा जगदम्बा महामायाको ले आये । गोकुलमें नन्दबाबाके घर ही जातकर्मादि महोत्सव मनाये गये ।
भगवान् श्रीकृष्णकी जन्मसे ही सभी लीलाएँ अद्भुत और अलौकिक हैं । पालनेमें झूल रहे थे उसी समय लोकबालघ्नी रुधिराशना पिशाचिनी पूतनाके प्राणोंको दूधके साथ पी लिया । शक भंग किया तृणावर्त , बकासुर एवं बरसादुरको पीस डाला । सपरिवार धनुकापुर और अनछुड़ाया । इसके बाद गोपियोंने भगवान्को पतिरूपसे प्राप्त करने के लिये व्रत किया और भगवान् श्रीकृष्णन्हें पर दिया । भगवानून यज्ञ - पत्त्तनियो पर कृपा की । गोवर्धन - धारणा करतेयर इन्द्र और कामधेनुने आकर भगवान्का यज्ञाभिषेक किया । शरदऋतुकी रात्रियोग ब्रज - सुन्दरियांक साथ राय क्रीड़ा की दुष्ट शंख यक्ष , अरिष्ट और केशीका वध किया । तदनन्तर अजीमथुरा वृन्दावन आये और उनके साथ भगवान् श्रीकृष्ण तथा बलरामजीने मथुरा के लिये प्रस्थान किया । श्रीबलराम और श्यामने मधुरामें जाकर वहाँकी सजावट देखी और कुवलयापीढ़ हाथी , गुष्टिक , चाणूर एवं कंस आदिका संहार किया । माँ देवकी एवं पिता वसुदेवको कारागारसे मुक्त कराया तथा राजा उग्रसेनको भी कारागारसे मुक्त कराकर राजसिंहासन पर बैठाया । फिर वे सान्दीपनि गुरुके यहाँ विद्याध्ययन करके उनके मृत - पुत्रीको लौटा लाये । जिस समय भगवान् श्रीकृष्ण मथुरा में निवास कर रहे थे , उस समय उन्होंने उद्धव और बलरामजीके साथ यदुवंशियाँका सब प्रकार से प्रिय और हित किया । जरासंध कई बार बड़ी बड़ी सेनाएँ लेकर आया और भगवान्ने उनका उद्धार करके पृथ्वीका भार हलका किया । कालयवनको मुचुकुन्दसे भस्म करा दिया । द्वारकापुरी बसाकर रातों - रात सबको यहाँ पहुँचा दिया । स्वर्गसे कल्पवृक्ष एवं सुधर्मा सभा ले आये । भगवान्ने दल के दल शत्रुओंको युद्धमै पराजित करके श्रीरुक्मिणीका हरण किया बाणासुरके साथ युद्धके प्रसंगमें महादेवजीपर ऐसा बाण छोड़ा कि वे ऊँभाई लेने लगे और इधर बाणासुरकी भुजाएँ काट डाली । प्राग्ज्योतिषपुरके राजा भौमासुरको मारकर सोलह हजार कन्याएँ , ग्रहण की । शिशुपाल , पौण्ड्रक , शाल्य , दुष्ट दन्तवक्त्र , मुर , पंचजन आदि दैत्योंकि बल - पौरुषको चूर्णकर उनका वध किया । महाभारत युद्धमें पाण्डवोंको निमित्त बनाकर पृथ्वीका बहुत बड़ा भार उतार दिया और अन्त में ब्राह्मणकि शापके बहाने उद्दण्ड हो चले यदुवंशका संहार करवाया । श्रीउद्धवजीकी जिज्ञासापर सम्पूर्ण आत्मज्ञान और धर्मनिर्णयका निरूपण किया । इस प्रकार भगवान् श्रीकृष्णकी अनन्त अद्भुत अलौकिक लीलाएँ हैं , जो जगत्के प्राणियोंको पवित्र करनेवाली हैं ।
( ९ ) श्रीबुद्ध - अवतारकी कथा -
बौद्धधर्मक प्रवर्तक महाराज शुद्धोदनके यशस्वी पुत्र गौतम बुद्धके रूप में ही श्रीभगवान् अवतरित हुए थे , ऐसी प्रसिद्धि विश्रुत है , परंतु पुराणवर्णित भगवान् बुद्धदेवका प्राकट्य गयाके समीप कीकट देशमें हुआ था । उनके पुण्यात्मा पिताका नाम ' अजन ' बताया गया है । यह प्रसंग पुराणवर्णित बुद्धावतारका ही है । दैत्योंकी शक्ति बढ़ गयी थी । उनके सम्मुख देवता टिक नहीं सके , दैत्योंक भयसे प्राण लेकर भागे । दैत्योंन देवधाम स्वर्गपर अधिकार कर लिया । वे स्वच्छन्द होकर देवता अंकि वैभवका उपभोग करने लगे , किंतु उन्हें प्रायः चिन्ता बनी रहती थी कि पता नहीं , कब देवगण समर्थ होकर पुनः स्वर्ग छीन लें । सुस्थिर साम्राज्यकी कामनासे दैत्योंने सुराधिप इन्द्रका पता लगाया और उनसे पूछा - ' हमारा अखण्ड साम्राज्य स्थिर रहे , इसका उपाय बताइये । देवाधिप इन्द्रने शुद्ध भावसे उत्तर दिया - सुस्थिर शासनके लिये यज्ञ एवं वेदविहित आचरण आवश्यक है । " दैत्योंने वैदिक आचरण पूर्व महायज्ञका अनुष्ठान प्रारम्भ किया । फलतः उनकी शक्ति उत्तरोत्तर बढ़ने लगी स्वभावसे ही उद्दण्ड और निरंकुश दैत्योंका उपद्रव बढ़ा । जगत्में आसुरभावका प्रसार होने लगा । असहाय और निरुपाय दुखी देवगण जगत्पति श्रीविष्णुके पास गये । उनसे करुण प्रार्थना की ।
श्रीभगवान्ने उन्हें आश्वासन दिया । रखते थे । श्रीभगवान्ने बुद्धका रूप धारण किया । उनके हाथमें मार्जनी थी और वे मार्गको बुहारते हुए उसपर चरण रखते थे ।
इस प्रकार भगवान् बुद्ध दैत्योंके समीप पहुँचे और उन्हें उपदेश दिया- ' यज्ञ करना पाप है । यज्ञसे जीवहिंसा होती है । यज्ञकी प्रज्वलित अग्रिमें ही कितने जीव भस्म हो जाते हैं । देखो , मैं जीवहिंसासे बचनेके लिये कितना प्रयत्नशील रहता हूँ । पहले झाडू लगाकर पथ स्वच्छ करता हूँ , तब उसपर पैर रखता हूँ । ' संन्यासी बुद्धदेवके उपदेशसे दैत्यगण प्रभावित हुए । उन्होंने यज्ञ एवं वैदिक आचरणका परित्याग कर दिया ।
परिणामतः कुछ ही दिनोंमें उनकी शक्ति क्षीण हो गयी । फिर क्या था , देवताओंने उन दुर्बल एवं प्रतिरोधहीन दैत्यॉपर आक्रमण कर दिया । असमर्थ दैत्य पराजित हुए और प्राणरक्षार्थ यत्र - तत्र भाग खड़े हुए । देवताओंका स्वर्गपर पुनः अधिकार हो गया । इस प्रकार संन्यासीके वेषमें भगवान् बुद्धने त्रैलोक्यका मङ्गल किया । कलियुगमें बौद्धधर्मके प्रवर्तकके रूपमें गौतम बुद्धने जन्म लिया । श्रीबुद्धजीका बचपनका नाम सिद्धार्थ था । ये स्वभावसे बड़े दयावान् थे । किसीका किंचिन्मात्र भी दुःख देख लेते तो विकल हो जाते । यही कारण है कि उनके पिता राजा शुद्धोदनकी ओरसे राज्यमें ऐसी व्यवस्था थी कि कोई दुःखमय प्रसंग इनके दृष्टिपथ में न आने पाये । परंतु यह सब होनेपर भी दैवयोगसे एकदिन सहसा एक रुग्ण पुरुषको , कुछ ही दिन बाद एक अत्यन्त वृद्ध पुरुषको , पश्चात् एक मृतकको देखकर इनकी आत्मा सिहर उठी और उसी दिनसे ये जगत्से उदास हो गये । इनकी यह उदासीनता माता - पिताको खली और इन्हें जगत् - प्रपंचमें फँसानेके लिये अत्यन्त रूपवती यशोधरा नामकी कन्यासे विवाह कर दिया और समयपर सिद्धार्थके राहुल नामका एक पुत्र भी उत्पन्न हुआ । परंतु उदासीनता मिटी नहीं बल्कि बढ़ती ही गयी । परिणामस्वरूप अपनी प्रिय पत्नी यशोधरा , नवजात पुत्र राहुल , स्नेहमूर्ति पिता महाराज शुद्धोदन तथा वैभवसम्पन्न राज्य - इन सबको ठुकराकर युवावस्थामें ही गौतम घरसे निकल पड़े । केवल तर्क- पूर्ण बौद्धिक ज्ञान उन्हें सन्तुष्ट करने में समर्थ नहीं था । उन्हें तो रोगपर , बुढ़ापेपर और मृत्युपर विजय पानी थी । उन्हें शाश्वत जीवन - अमरत्व अभीष्ट था । प्रख्यात विद्वानों , उद्भट शास्त्रज्ञोंके समीप वे गये , किंतु वहाँ उनको सन्तोष नहीं हुआ । आश्रमोंसे , विद्वानोंसे निराश होकर वे गयाके समीप वनमें आये और तपस्या करने लगे । जाड़ा , गर्मी और वर्षामें भी बुद्धजी वृक्षके नीचे अपनी वेदिकापर स्थिर बैठे रहे । उन्होंने सब प्रकारका आहार बन्द कर दिया था । दीर्घकालीन तपस्याके कारण उनके शरीरका मांस और रक्त सूख गया , केवल हड्डियाँ , नसें और चर्म ही शेष रहा । गौतमका धैर्य अविचल था । कष्ट क्या है , इसे वे अनुभव ही नहीं करते थे । किंतु उन्हें अपना अभीष्ट प्राप्त नहीं हो रहा था । सिद्धियाँ मँडराती , परंतु एक सच्चे साधक , सच्चे मुमुक्षुके लिये सिद्धियाँ बाधक हैं , अतः गौतमने उनपर दृष्टिपात ही नहीं किया । एक दिन जहाँ गौतम तपस्या कर रहे थे , उस स्थानके समीपके मार्गसे कुछ स्त्रियाँ गाती - बजाती निकलीं । वे जब गौतमकी तपोभूमिके पास पहुँचीं । तब एक गीत गा रही थीं , जिसका आशय था ' सितारके तारोंको ढीला मत छोड़ो नहीं तो वे बेसुरे हो जायेंगे , परंतु उन्हें इतना खींचो भी मत कि वे टूट जायँ । ' गौतमके कानों में वह संगीत - ध्वनि पड़ी । उनकी प्रज्ञामें सहसा प्रकाश आ गया – साधनाके लिये केवल कठिन तपस्या ही उपयुक्त नहीं है , संयमित भोजन एवं नियमित निद्रादि व्यवहार भी आवश्यक हैं । इस प्रकार सम्यक बोध प्राप्त कर लेने पर गौतमका नाम ' गौतम बुद्ध पड़ा तत्वज्ञान होने के बाद भगवान बुद्ध वाराणसी चले आये और अपना सर्वप्रथम उपदेश उन्होंने ' सारनाथ ' में दिया । उपदेश- सत्य , अहिंसा , अस्तेय , अपरिग्रह , महाचर्य , नृत्य- मानादि त्याग , सुगन्ध - माला - त्याग , असमय भोजन- त्याग , कोमल शब्या - त्याग , कामिनी कंचनका त्यागमे दस सूत्र आपने दुःख एवं निर्वाण प्राप्तिमें परमोपयोगी बताये हैं । ' धम् शरणं गच्छामि बुद्धं शरणं गच्छामि , संधे शरणं गच्छामि'- यह बुद्धजीका शरणागति
( १० ) कल्कि अवतारकी कथा -
कलियुगके अन्त में जब सत्पुरुषों के घर भी भगवान्को कथायें बाधा होगी , ब्राह्मण , क्षत्रिय और वैश्म पाखण्डी हो जायेंगे और शुद्ध राजा होंगे , यहाँ तक कि कहीं भी स्वाहा स्वधा और वषट्कारको ध्यान नहीं सुनायी पड़ेगी । राजा लोग प्रायः लुटेरे हो जायेंगे , तब कलियुगका शासन करनेके लिये भगवान् बालकरूपमें संभल ग्राममें विष्णुशके घरमें अवतार ग्रहण करेंगे । परशुरामजी उनको वेद पढ़ायेंगे । शिवजी शस्त्रास्त्रों का संधान सिखायेंगे , साथ ही एक घोड़ा और एक खड्ग देंगे । तब कल्कि भगवान् ब्राह्मणों की सेना साथ लेकर संसार में सर्वत्र फैले हुए ग्लेच्छोंका नाश करेंगे । पापी दुष्टोंका नाश करके वे सत्ययुगके प्रवर्तक होंगे । ये ब्राह्मणकुमार बड़े ही बलवान , बुद्धिमान और पराक्रमी होंगे । धर्मके अनुसार विजय प्राप्तकर वे चक्रवर्ती राजा होंगे और इस सम्पूर्ण जगत्को आनन्द प्रदान करेंगे । ( महाभारत , वनपर्व )
( ११ ) श्रीव्यासजीके अवतारकी कथा -
चेदि देशके राजा वसुपर अनुग्रह करके देवराज इन्द्रने एक दिव्य विमान दिया था , जिसपर बैठकर वे आकाशमें सबके ऊपर विचरते थे अतः उनका नाम उपरिचर वसु पड़ गया था । एकबार राजा उपरिचर वसु अपनी ऋतुस्नाता पत्नी गिरिकाको , जिसने पुत्रोत्पत्तिको कामनासे उचित समयपर समागमकी प्रार्थना की थी , उसे छोड़कर मृगयाके लिये बनमें चले गये । बनमें ऋतुराज वसन्तकी अद्भुत शोभा देखकर राजाको कामोद्दीपन हुआ , जिससे उनका वीर्य स्खलित हो गया । राजाने यह विचारकर कि मेरा वीर्य भी व्यर्थ न जाय और रानीका ऋतुकाल भी व्यर्थ न हो , अतः वटपत्र पुटकमें रखकर एक बाज पक्षीके द्वारा उस वीर्यको रानीके पास भेजा । संयोगवश मार्गमें एक दूसरे बाजसे संघर्ष हो जाने के कारण वह वीर्य यमुना नदी में गिर गया , जिसे ब्रह्माजीके शापसे मछलीरूपधारिणी अधिका नामकी अप्सरा पी गयी और कालान्तरमें जब मत्साजीबी मल्लाहोंके जालमें वह मछली फैंसी और मछुआने उसके पेटको चीरा तो उसमें अत्यन्त सुन्दर एक पुत्र और एक कन्यारत्नको पाया । महुओंने उन दोनों सन्तानोंको राजा उपरिचर वसुको निवेदन किया राजाने पुत्र तो स्वयं ले लिया , जो आगे चलकर मलय नामक बड़ा धर्मात्मा राजा हुआ । कन्याके शरीरसे मछलीकी गन्ध आती थी , अत : उसे दासराज नामक मल्लाहको सौंप दिया । वह रूपके साथ - साथ सत्यसे युक्त थी । अतः उसका सत्यवती नाम पड़ा । एक बार तीर्थयात्रा के उद्देश्य से विचरनेवाले महर्षि पराशरने उसे देखा तो शुभ संयोग देखकर बुद्धिमान् पराशर ने उसके साथ समागमकी इच्छा प्रकट की । सत्यवतीने संकुचित होकर अपने कन्यात्व के दूषित होने , दिन होने के कारण नदीके आर - पार दोनों तटोंपर उपस्थित लोगोंद्वारा देखे जाने तथा अपने शरीरसे मछलीकी सी दुर्गन्ध निकलनेकी बात कही । समर्थ ऋषिने तीनों कठिनाइयाँ तत्काल दूर कर दीं । आशीर्वाद दिया तुम्हारा कन्या - भाव सुरक्षित रहेगा । शरीरसे सुन्दर सुगन्धि निकलेगी , जो एक योजनतक फैलेगी और कुहराको सृष्टिकर चारों ओर अंधेरा कर दिया । जब तो वरदान पाकर प्रसन्न हुई सत्यवतीने उन अद्भुतकर्मा महर्षि पराशर के साथ समागम किया और तत्काल ही एक शिशुको जन्म दिया । यही शिशु पराशरजी से उत्पन्न होनेसे पाराशर्य , यमुनाजीके द्वीप ( जलसे घिरे भूभाग ) में उत्पन्न होनेसे द्वैपायन , वेदोंका व्यास ( विस्तार ) करनेसे वेदव्यास नामसे विख्यात हुआ । इन्होंने मातासे कहा - ' आवश्यकता पड़नेपर तुम मेरा स्मरण करना , मैं अवश्य दर्शन दूंगा । इतना कहकर माताकी आज्ञा ले श्रीव्यासजीने तपस्या में मन लगाया श्रीव्यासजीने देखा कि प्रत्येक युगमें धर्मका एक - एक पाद लुप्त होता जा रहा है । मनुष्योंकी शक्ति और आयु क्षीण हो चली है , यह सब देख - सुनकर उन्होंने वेद और ब्राह्मणोंपर अनुग्रह करने की इच्छासे वेदोंका व्यास ( विस्तार ) किया । वेदमें सबका अधिकार न होनेसे सर्वसाधारणको वेद - तात्पर्य सुलभ करानेको दृष्टिसे , आपने पाँचवें वेदतुल्य महाभारत ( इतिहास ग्रन्थ ) की रचना की । फिर वेदोंका अर्थ स्पष्ट करनेके लिये ही महापुराणोंकी रचना की । परंतु मनमें जैसी शान्ति चाहिये वैसी शान्ति नहीं होनेसे , अपनेको अकृतार्थ - सा मानकर , खिन्नताको प्राप्त श्रीव्यासजीने देवर्षि नारदजीकी प्रेरणासे श्रीमद्भागवत महापुराणकी रचनाकर परम विश्राम पाया । परमहंसाचार्य श्रीशुकदेवजी आपके पुत्र हैं ।
( १२ ) श्रीपृथुजीके अवतारकी कथा -
महाराज ' अङ्ग ' की पत्नी सुनीया जो साक्षात् मृत्यु कन्या थीं , उससे ' वेन ' नामक पुत्र हुआ , जो अपने नाना मृत्युके स्वभावका अनुसरण करने के कारण अत्यन्त क्रूरकर्म करनेवाला हुआ । फलस्वरूप उसकी दुष्टतासे उद्विग्न होकर राजर्षि अंग नगर छोड़कर चले गये । राजाके अभाव में राज्यमें अराजकता न फैल जाय , इसलिये ऋषियोंने और कोई उपाय न देखकर वेनको अयोग्य होनेपर भी राजपदपर अभिषिक्त कर दिया । स्वभावसे क्रूर ऐश्वर्य पाकर उत , विवेकशून्य वेन जब धर्म एवं धर्मात्मा पुरुषोंको विनष्ट करनेपर ठुल गया और ऋषसाने भी दो दूर रहा , उल्टे उनकी अवहेलना की , तब क्षुब्ध ऋषियने क्रोध करके हुंकारमात्र वेनको मार डाला डु कोई राजा नहीं होनेके कारण लोकमें लुटेरॉके द्वारा प्रजाको बहुत कष्ट होने लगा । यह देखकर ऋषियों बेनके शरीरका मन्थन किया । प्रथम जाँचका मन्थन किया तो उसमें से एक बौना पुरुष , कुरुकाला कलूटा उत्पन्न हुआ और जब उसने पूछा कि मैं क्या करूँ ? तो ऋकहा- " निषद " ( बैठ ) इसने वह निषाद कहलाया । फिर वेनकी भुजाओंका मन्थन किया तो एक स्त्री - पुरुषका जोड़ा हुआ । पुरुषको ' पृथु ' नामसे एवं स्त्रीको ' अचि ' नामसे सम्बोधित किया।ऋषको श्रीजीके हत्याने बिना किसी रेखासे कटा हुआ चक्रका एवं पाँवमें कमलका चिह्न देखकर बड़ा हर्ष हुआ कि युके रूप बीहरिके अंशने ही संसारको रक्षाके लिये अवतार लिया है और आर्थिक रूपने निरन्तर भावको सेवा रहनेवाली श्रीलक्ष्मीजी ही प्रकट हुई हैं । य सुन्दर वस्त्र और आभूषणोंसे अलंकृत महाराज का विधिवत् राज्याभिषेक हुआ । उस समय अनेक अलंकारों से सजी हुई महारानी अर्थिके साथ वे दूसरे अग्निदेव सदृश जान पड़ते थे । लोगोंने उन्हें तरह - तरह के उपहार भेंट किये । इसके पश्चात् सूत प्रजाका रक्षक उद्घोषित किया । और बन्दीजनोंने स्तुति की ब्राह्मणोले मृत्युलोको वेनके अत्याचार से उत्पीड़ित पृथ्वीने समस्त औषधिको अपने लिया लिया था और चूंकि बहुत समय बीत गया था अतः वे औषधियों पृथ्वीके उदरमें जीर्ण हो गयी थीं । यही कारण है कि जब राज्य हुआ तब भी पृथ्वी रसा होकर भी रसहीना हो बनीरहरू सूखकर कोटे हो गये थे । उन्होंने अपने स्वामी के पास आकर कहा । र भो लक्ष्यकर बाण चढ़ाया पृथ्वी प्रथम तो डरकर गोरूप धारणकर भागीरंतु कहाँ भी बचा देखकर श्रीजीकी शरण में आ गयी तब ने पृथ्वी संकेतसे पारिथ्वीका दोहन किया , जिससे पुनः सभी अन्न और औषधियाँ प्रकट हो गयीं । प्रजा सुख - चैनसे रहने लगी । परम धर्मात्मा श्रीपृथुजीने सौ अश्वमेधयज्ञ करनेका संकल्पकर निन्यानबे यज्ञ पूर्ण होनेपर जब सौवें अश्वमेधयज्ञका प्रारम्भ किया तो इन्द्रने अपना सिंहासन छीने जानेके भयसे बहुत विघ्न किया । तब इन्द्रका वध करनेके लिये उद्यत श्रीपृथुजीको याजकोंने यज्ञमें क्रोधको अनुचित बताकर स्वयं मन्त्रबलसे बलपूर्वक इन्द्रको अग्निमें हवनकर देनेका निश्चय किया । तब लोकस्रष्टा जगत् - पितामह ब्रह्माजीने ब्राह्मणोंको समझाकर रोका । श्रीपृथुजीका सौ यज्ञ करनेका जो आग्रह था , उससे निवृत्तकर इन्द्रसे सन्धि करा दी । महाराज पृथुके निन्यानबे यज्ञोंसे ही यज्ञभोक्ता यज्ञेश्वर भगवान् विष्णुको भी बड़ा सन्तोष हुआ । वे देवराज इन्द्रको साथ लेकर श्रीपृथुजीके सामने प्रकट हुए । अपने ही कर्मसे लज्जित इन्द्र श्रीपृथुजीके चरणोंमें गिरना ही चाहते थे कि श्रीपृथुजीने उन्हें हृदयसे लगा लिया । भगवान्का दर्शनकर श्रीपृथुजी निहाल हो गये । आँखों में प्रेमात्रु , शरीरमें रोमांच , हृदयमें उमड़ा हुआ अनन्त आनन्द - सागर , यह थी उस समय श्रीपृथुजीकी अवस्था । उन्होंने हाथ जोड़कर भगवान्की स्तुति की । भगवान्ने श्रीपृथुजीके गुणोंकी सराहना करते हुए , वर माँगनेको कहा । तब श्रीपृथुजी बोले न कामये नाथ तदप्यहं क्यचिन्न यत्र युष्पच्चरणाम्बुजासवः । महत्तमान्तर्हृदयान्मुखच्युतो विधत्स्व कर्णायुतमेष मे वरः ॥ ( भागवत ) मुझे तो उस मोक्षपदकी भी इच्छा नहीं है , जिसमें महापुरुषोंके हृदयसे उनके मुखद्वारा निकला हुआ आपके चरण - कमलोंका मकरन्द नहीं है , जहाँ आपकी कीर्ति - कथा सुननेका सुख नहीं मिलता है । इसलिये मेरी तो यही प्रार्थना है कि आप मुझे दस हजार कान दे दीजिये , जिनसे मैं आपके लीला - गुणोंको सुनता ही रहूँ । इस प्रकार प्रार्थना करनेपर उनको अपनी भक्तिका वर प्रदानकर भगवान् अन्तर्धान हो गये । बहुत कालतक धर्मपूर्वक प्रजाका पालनकर श्रीपृथुजी सनत्कुमारजीके उपदेशोंका स्मरणकर कि ' अब मुझे अन्तिम पुरुषार्थ मोक्षके लिये प्रयत्न करना चाहिये ' पृथ्वीका भार पुत्रोंको सौंपकर अपनी पत्नीसहित तपोवनको चले गये और वहाँ जाकर भगवान् सनत्कुमारने जिस परमोत्कृष्ट अध्यात्मयोगकी शिक्षा दी थी , उसीके अनुसार पुरुषोत्तम श्रीहरिकी आराधना करने लगे और अन्तमें भगवान्के श्रीचरण - कमलोंका चिन्तन करते हुए ब्रह्मस्वरूपमें लीन हो गये । यह देखकर महाराज पृथुकी पतिव्रता पत्नी अर्चिने चिता बनायी और अपने पतिके साथ सती हो गयीं । परम साध्वी अर्थिको इस प्रकार अपने पति वीरवर पृथुका अनुगमन करते देख सहस्रों वरदायिनी देवियोंने अपने - अपने पतियोंके साथ उनकी स्तुति की । वहाँ देवताओंके बाजे बजने लगे । देवांगनाओंने पुष्पवृष्टि की । रज्जयतीति यः स्वनाम सफलीकृतः । दुदोह वसुधां बीजं तस्मै श्रीपृथवे नमः ॥
( १३ ) श्रीहरि - अवतारकी कथा –
त्रिकूटाचल पर्वतपर जब ग्राहने गजको पकड़ा था तब उसकी आवाणीको सुनकर भगवान् श्रीहरि प्रगट हुए । इन्होंने ही ग्राहको मारकर गजेन्द्रकी रक्षा की तथा लोगोंके बड़े - बड़े संकट हरण करके ' श्रीहरि ' यह नाम चरितार्थ किया कथा इस प्रकारसे है क्षीरसागर में त्रिकूट नामका एक प्रसिद्ध , सुन्दर एवं श्रेष्ठ पर्वत था । वह दस हजार योजन ऊँचा था । उसकी लम्बाई - चौड़ाई भी चारों ओर इतनी ही थी । उस पर्वतराज त्रिकूटकी तराईमें भगवान् वरुणका ऋतुराज नामका उद्यान था , जिसके चारों ओर वृक्षोंके झुण्ड शोभा दे रहे थे । वहीं एक विशाल सरोवर था । उस पर्वतके बोर - जंगलमें बहुत सी हथिनियोंकि सहित एक गजेन्द्र निवास करता था जो बड़े - बड़े शक्तिशाली हाथियोंका सरदार था । एक दिन वह अपनी हथिनियंकि साथ वनको रौंदता हुआ उसी पर्वतपर विचर रहा था । मदके कारण उसके नेत्र विह्वल हो रहे थे । बहुत कड़ी धूपके कारण वह व्याकुल हो गया । वह साथियोसहित प्याससे सन्तप्त होकर जलकी खोजमें फिर रहा था कि उसे दूर ही से कमलके परागसे सुवासित वायुकी सुगन्ध मिली , जिसके सहारे वह उसी सरोवरपर पहुंचा और स्नानकर श्रम मिटाया , प्यास बुझायी , फिर उसमें गृहस्थोंकी भाँति क्रीड़ा करने लगा । जिस समय वह इतना उन्मत्त हो रहा था , उसी समय एक बलवान् ग्राहने क्रोधमें भरकर उसका पैर पकड़ लिया । हाथी और हथिनियोंने शक्तिभर सहायता की , पर वे गजेन्द्रको बाहर निकालने में असमर्थ ही रहे । गजेन्द्र और ग्राह अपनी - अपनी पूरी शक्ति लगाकर भिड़े हुए थे । कभी गजेन्द्र ग्राहको बाहर खींच लाता तो कभी ग्राह गजेन्द्रको भीतर खींच ले जाता । इस प्रकार एक हजार वर्ष बीत गये । अन्त गजेन्द्रका उत्साह , बल तथा शक्ति क्षीण हो गयी और ग्राहका बल , उत्साह और शक्ति बढ़ गयी । गजेन्द्र प्राण संकटमें पड़ गये । वह अपनेको छुड़ानेमें सर्वथा असमर्थ हो गया । बहुत देरतक अपने छुटकारेके उपायपर विचार करता हुआ वह इस निर्णयपर पहुँचा - ' जब मेरे बराबरवाले हाथी भी मुझे न छुड़ा सके , तब ये बेचारी हथिनियाँ कब छुड़ा सकती हैं ? ग्राहका मुझे ग्रस लेना विधाताकी फाँसी है । अतएव अब मैं सम्पूर्ण विश्वके एकमात्र आश्रय परब्रह्मकी शरण लेता हूँ , जो प्रचण्ड कालरूपी सर्पसे भयभीत प्राणियोंकी रक्षा करता है । तथा मृत्यु भी जिसके भयसे दौड़ती रहती है । यथा यः कश्चनेशो बलिनोऽन्तकोरगात् प्रचण्डवेगादभिधावतो भृशम् । भीतं प्रपन्नं परिपाति यद्धवान्मृत्युः प्रधावत्यरणं तमीमहि ॥ ( श्रीमद्रा ०८॥२॥२३ ) ऐसा निश्चयकर उसने सूंडमें एक सुन्दर कमलका पुष्प लेकर ( जो उस सरोवरमें खिला हुआ था ) सूँडको ऊपर उठाकर बड़े कष्टके साथ पुकारकर कहा- ' नारायण ! जगद्गुरो ! भगवन् ! आपको मेरा नमस्कार है । पुकारनेके साथ ही भगवान् गरुड़को छोड़कर तत्काल वहाँ पहुँचे और दोनोंको सरोवरसे निकालकर ग्राहका मुँह चक्रसे फाड़कर गजको छुड़ा दिया । भगवान्का स्पर्श होते ही गजेन्द्र के अज्ञानबन्धन कट गये और वह भगवान्की भाँति चतुर्भुज़रूप हो गया , अर्थात् उसे सारूप्य मुक्ति प्राप्त हुई । भगवान् उसे अपना पार्षद बनाकर अपने साथ ही ले गये । '
( १४ ) श्रीहंस - अवतारकी कथा-
एक बार सनकादिक परमर्पियोंने अपने पिता श्रीब्रह्माजीसे पूछा- पिताजी ! चित्त गुणों अर्थात् विषयोंमें घुसा ही रहता है और गुण भी चित्तकी एक - एक वृत्तिमें प्रविष्ट रहते ही हैं अर्थात् चित्त और गुण आपसमें मिले - जुले ही रहते हैं । ऐसी स्थितिमें जो पुरुष इस संसार सागरसे पार होकर मुक्तिपद प्राप्त करना चाहता है , वह इन दोनोंको एक - दूसरेसे कैसे अलग कर सकता है ? यद्यपि श्रीब्रह्माजी देवशिरोमणि , स्वयम्भू और सब प्राणियोंके जन्मदाता हैं तो भी कर्म - प्रवण बुद्धि होनेसे इस प्रश्नका समुचित समाधान न कर सके । अतः इस प्रश्नका उत्तर देनेके लिये उन्होंने भक्ति - भावसे भगवान्का चिन्तन किया । तब भगवान् हंसका रूप धारण करके उनके सामने प्रकट हुए और श्रीसनकादिक तथा ब्रह्माजीसे वंदित होकर , सनकादिके यह पूछनेपर कि आप कौन है ? भगवान् बोले- ब्राह्मणो ! यदि परमार्थरूप वस्तु नानात्वसे सर्वथा रहित है , तब आत्माके सम्बन्धमें आप लोगोंका ऐसा प्रश्न कैसे युक्तिसंगत हो सकता है ? देवता , श्रील मनुष्य , पशु पक्षी आदि सभी शरीर " के कारण अभिन्न ही है और परमार्थ भी है । ऐसी स्थितियों आप कौन है ? आप लोगका यह प्रश्न ही केवल वाणीका व्यवहार है । विवापूर्वक नहीं है अत : निरर्थक है मगये , वाणी , दृष्टिी तथा अन्य इन्द्रियाँसे जो कुछ भी ग्रहण किया जाता है , यह सब में ही हूँ । मुझसे भिन्न और कुछ नहीं है । यह सिद्धान्त आप लोग विचार द्वारा लीजिये । पुत्रो । यह चित्त चिन्तन करते करते विषयाकार हो जाता है और विषय विनमें प्रविष्ट हो जाते है , यह बात सत्य है तथापि विषय और चित- ये दोनों ही मेरे स्वस्यभूत जीवके देह है - उपाधि है । अर्थात् आत्माका ति और विषय के साथ कोई सम्बन्ध ही नहीं है । इसलिये बार - बार विषयोंका सेवन करते रहने से जोचित विषयोंग आसक हो गया है और विषय भी चितम प्रविष्ट हो गये हैं , इन दोनों को अपने वास्तविक रूपये अभिन्न मुझ परमात्माका साक्षात्कार करके त्याग देना चाहिये । इस प्रकार भगवान्ने सनकादि मुनियोंकि संशय मिटा दिये और भली भाँति उनके द्वारा पूजित और बन्दित होकर श्रीब्रह्माजी और सनकादिककि सामने हो अदृश्य होकर अपने धामको चले गये ।
( १५ ) मन्यन्तरायतारों की कथा-
सतयुग , त्रेता , द्वापर और कलियुग - ये चारों युग जब एक हजार बार व्यतीत होते हैं तो उस कालको कल्प कहते हैं । एक कल्प अर्थात् एक हजार चतुर्युगीकाल श्रीब्रह्माजीका एक दिन होता है । श्रीब्रह्माजीके एकदिन में अर्थात् एक कल्पमें चौदह मनु होते हैं । प्रत्येक मनु इकहत्तर मुंगी कुछ अधिक कालतक अपना अधिकार भीगते हैं । इन मन्वन्तरीमें भगवान् सत्त्वगुणका आश्रय से अपनी मनु आदि मूर्तियोंकि द्वारा पौरुष प्रकट करते हुए इस विश्वका पालन करते हैं । विश्वव्यवस्थाका संचालन करते हुए अपने - अपने मन्वन्तर में बड़ी सावधानीसे सबके सब मनु पृथ्वीपर चारों चरणोंसे परिपूर्ण धर्मका अनुष्ठान स्वयं करते हैं तथा प्रजासे करवाते हैं । जब एक मनुकी अवधि पूरी हो जाती है तो उनके साथ ही साथ उस समयके इन्द्र , सप्तर्षि , मनुपुत्र और भगवदवतार तथा देवता - ये छहों पहलेकी जगह नये - नये होते हैं । अब चौदह मनुओंका संक्षिप्त वर्णन करते हैं । १. स्वायम्भुव मनु - मरीचि आदि महान् शक्तिशाली ऋषियोंसे भी सृष्टिका अधिक विस्तार नहीं होते देख श्रीब्रह्माजी मन - ही - मन चिन्ता करने लगे - ' अहो ! बड़ा आश्चर्य है , मेरे निरन्तर प्रयत्न करनेपर भी प्रजाकी वृद्धि नहीं हो रही है । मालूम होता है इसमें दैव ही कुछ विघ्न डाल रहा है । जिस समय श्रीब्रह्माजी इस प्रकार दैवके विषयमें विचार कर रहे थे , उसी समय अकस्मात् उनके शरीरके दो भाग हो गये । उन दोनों विभागों में से एक स्त्री - पुरुषका जोड़ा प्रकट हुआ । उनमें से जो पुरुष था , वह सार्वभौम सम्राट् स्वायम्भुव मनु हुए और जो स्त्री थी , वह उनकी महारानी शतरूपा हुई । तबसे मिथुन धर्मसे प्रजाकी वृद्धि होने लगी । महाराज स्वायम्भुवमनुने शतरूपासे पाँच सन्तान उत्पन्न को श्रीप्रियव्रत और उत्तानपाद - ये दो पुत्र और आकृति , प्रसूति और देवहूति - तीन कन्याएँ थीं । मनुजीने आकृतिका विवाह रुचि प्रजापतिसे , देवहूतिका विवाह कर्दम प्रजापतिसे तथा प्रसूतिका विवाह दक्ष प्रजापतिसे किया इन तीनों कन्याओंकी सन्ततिसे सारा संसार भर गया । २. स्यारोचिष मनु- ये अग्निके पुत्र थे ३. उत्तम मनु- ये प्रियव्रतके पुत्र थे । ४. तामस मनु ये तीसरे मनु उत्तमके सगे भाई थे । ५. रैवत मनु- ये चौथे मनु तामसके सगे भाई थे । ६. चाक्षुष मनु मे चक्षुके पुत्र थे ७ वैवस्वत मनु- विवस्वान् ( सूर्य ) के पुत्र यशस्वी श्राद्धदेव ही सातवें वैवस्वत मनु है । यह वर्तमान मन्वन्तर ही उनका काल है । ८. सावणि मनु- आठवें मन्यन्तरमें सूर्यकी पत्नी छाया देवीके पुत्र सावणि मनु होंगे । ९ . दक्षसावर्णि- वरुणके पुत्र दक्षसावण नौवें मनु होंगे । १०. ब्रह्मसावर्णि उपश्लोकके पुत्र ब्रह्मसावर्णि दसवें मनु होंगे । ११. धर्मसावर्णि- ये ग्यारहवें मनु होंगे । १२. रुद्रसावर्णि ये बारहवें मनु होंगे । १३. देवसावर्णि- ये तेरहवें मनु होंगे । १४. इन्द्रसावर्णि- ये चौदहवें मनु होंगे । ये चौदह मन्वन्तर भूत , वर्तमान और भविष्य - तीनों ही कालमें चलते रहते हैं और समस्त भूमण्डलका शासन करते हुए सनातन धर्मकी रक्षा करते हैं ।
( १६ ) श्रीयज्ञ - अवतारकी कथा -
श्रीस्वायम्भुव मनुकी पुत्री आकृति , जो रुचि प्रजापतिसे व्याही गयी थीं । उन रुचि प्रजापतिने आकूतिके गर्भसे एक पुरुष और स्त्रीका जोड़ा उत्पन्न किया । उनमें जो पुरुष था , वह साक्षात् यज्ञ - स्वरूपधारी भगवान् विष्णु थे और जो स्त्री थी , वह भगवान्से कभी भी अलग न रहनेवाली लक्ष्मीजीकी अंशरूपा ' दक्षिणा ' थीं । मनुजी अपनी पुत्री आकूतिके उस परम तेजस्वी पुत्रको बड़ी प्रसन्नतासे अपने घर ले आये और दक्षिणाको रुचि प्रजापतिने अपने पास रखा । जब दक्षिणा विवाहके योग्य हुई तो उसने यज्ञभगवान्को ही पतिरूपमें प्राप्त करनेकी इच्छा की । तब भगवान् यज्ञपुरुषने उससे विवाह किया । इससे दक्षिणाको बड़ा सन्तोष हुआ । भगवान् यज्ञपुरुषने दक्षिणासे सुयम नामक देवताओंको उत्पन्न किया और तीनों लोकोंके बड़े - बड़े संकट दूर किये वर्णन आया है - जब स्वायम्भुव मनुने समस्त कामनाओं और भोगोंसे विरक्त होकर राज्य छोड़ दिया और अपनी पत्नी शतरूपाके साथ तपस्या करने वनको चले गये और वनमें जाकर सुनन्दा नदीके तटपर एक पैरसे खड़े रहकर सौ वर्षतक घोर तपस्या की उस समय एक बार जब स्वायम्भुव मनु एकाग्रचित्तसे भगवान्की स्तुति कर रहे थे , तो भूखे असुर और राक्षस उन्हें नींदमें अचेत होकर बड़बड़ाते जानकर खा डालनेके लिये टूट पड़े । यह देखकर अन्तर्यामी भगवान् यज्ञपुरुष अपने पुत्र ' याम ' नामक देवताओंके साथ वहाँ आये , उन्होंने उन्हें खा डालनेके निश्चयसे आये असुरोंका संहार कर डाला और फिर वे इन्द्रके पदपर प्रतिष्ठित होकर स्वर्गका शासन करने लगे । ( १७ ) श्रीऋषभ - अवतारकी कथा -
महाराज नाभिके कोई सन्तान नहीं थी , इसलिये उन्होंने अपनी पत्नी मेरुदेवीके सहित पुत्रकी कामनासे एकाग्रतापूर्वक भगवान् यज्ञपुरुषका यजन किया । भक्तवत्सल भगवान् उनके विशुद्ध भावसे सन्तुष्ट होकर यज्ञमें प्रकट हुए । सभीने सिर झुकाकर अत्यन्त आदरपूर्वक प्रभुकी पूजा की और ऋषियोंने उनकी स्तुतिकर यह वर माँगा कि हमारे यजमान ये राजर्षि नाभि सन्तानको ही परम पुरुषार्थ मानकर आपके ही समान पुत्र पानेके लिये आपकी आराधना कर रहे हैं । आप इनके मनोरथको पूर्ण करें । भगवान् बोले - मुनियो । मेरे समान तो मैं ही हूँ , क्योंकि मैं अद्वितीय हूँ । तो भी ब्राह्मणोंका वचन मिथ्या नहीं होना चाहिये , द्विजकुल मेरा ही तो मुख है । इसलिये मैं स्वयं ही अपनी अंशकलासे आग्नीध्रनन्दन नाभिके यहाँ आकर अवतार लूंगा ; क्योंकि अपने - समान मुझे कोई और दिखायी नहीं देता । यह कहकर भगवान् अन्तर्धान हो गये और यथासमय महाराज नाभिकी पत्नी मेरुदेवीके गर्भसे ऊर्ध्वरेता मुनियोंका धर्म प्रकट करनेके लिये शुद्ध सत्त्वमय विग्रहसे प्रकट हुए । नाभिनन्दनके अंग जन्मसे ही भगवान् विष्णुके वज्र - अंकुश आदि चिन्हों से युक्त थे । सभी श्रेष्ठ सद्गुणों से युक्त होनेके कारण महाराज नाभिने उनका नाम ऋषभ ( श्रेष्ठ ) रखा । राजा नाभिने यह देखा कि ऋषभदेव प्राणिमात्रको अत्यन्त प्रिय लगते हैं और राज्य कार्य सँभालनेयोग्य भी हो गये हैं , तब उन्होंने इन्हें धर्म मर्यादाकी रक्षाके लिये राज्याभिषिक्त कर दिया और स्वयं पत्नी मेरुदेवीके सहित बदरिकाश्रम चले गये और वहाँ भगवान्की आराधना करते हुए भगवत्स्वरूपमें लीन हो गये । भगवान् ऋषभदेव सर्वधर्मविज्ञाता होकर भी ब्राह्मणोंकी बतलायी हुई विधिसे साम , दानादि नीतिके अनुसार ही पुत्रवत् प्रजाका पालन करते थे । एक बार इन्द्रने ईर्ष्यावश इनके राज्य में वर्षा नहीं की तो योगेश्वर भगवान् ऋषभने अपनी योगमायाके प्रभावसे अपने वर्ष अजनाभखण्डमें खूब जल बरसाया आपने लोगोंकोगृहस्थधर्मकी शिक्षा देनेके लिये देवराज इन्द्रकी कन्या जयन्तीसे विवाह किया और उसके गर्भसे अपने ही समान गुणवाले सौ पुत्र उत्पन्न किये । भगवान् ऋषभदेवजीके सौ पुत्रोंमें भरत सबसे बड़े थे और थे बड़े भगवद्भक्त श्रीऋषभदेवजीने पृथ्वीका पालन करनेके लिये उन्हें राजगद्दीपर बैठा दिया और स्वयं उपशमशील निवृत्तिपरायण महामुनियाँको भक्ति , ज्ञान और वैराग्यरूप परमहंसोचित शिक्षा देनेके लिये बिलकुल विरक्त हो गये । निरन्तर परमानन्दका अनुभव करते हुए दिगम्बररूपसे इतस्ततः भ्रमण करते हुए भगवान् ऋषभदेवका शरीर कुटकाचलके वनोंमें घूमते हुए प्रबल दावाग्निकी लाल - लाल लपटोंमें लीन हो गया ।
१८ श्रीहयग्रीव -
अवतारकी कथा सृष्टि रचनामें अत्यन्त व्यस्त श्रीब्रह्माजीके देखते - देखते मधु और कैटभ नामके दैत्योंने वेदोंको हर लिया और तुरंत रसातलमें जा पहुँचे । वेदोंका हरण हो जानेपर ब्रह्माजीको बड़ा खेद हुआ । उनपर मोह छा गया तब वह यह विचार करते हुए कि वेद ही तो मेरे नेत्र हैं , वेद ही मेरे परम बल हैं , वेद ही मेरे परम गुरु तथा वेद ही मेरे सर्वोत्तम उपास्य देव हैं , मैं वेदोंकि बिना संसारको उत्तम सृष्टि कैसे कर सकता हूँ ? वे भगवान् श्रीहरिकी शरण गये और उन्होंने हाथ जोड़कर भगवान्की स्तुति की । ब्रह्माजीकी स्तुतिको सुनकर भक्तवत्सल भगवान् वेदोंकी रक्षा करनेके लिये हयग्रीवरूप धारण करके रसातलमें जा पहुँचे और वहाँ जाकर परमयोगका आश्रय ले शिक्षाके नियमानुसार उदात्त आदि स्वरोंसे युक्त उच्च - स्वरसे सामवेदका गान करने लगे । उन दोनों असुरोने वह शब्द सुनकर वेदोंको कालपाशसे आबद्ध करके रसातलमें फेंक दिया और स्वयं उसी ओर दौड़े जिधरसे ध्वनि आ रही थी । इसी बीचमें हयग्रीवरूपधारी भगवान् श्रीहरिने रसातलमें पड़े हुए उन सम्पूर्ण वेदॉको ले लिया तथा ब्रह्माजीको पुनः वापस दे दिया और फिर वे अपने आदिरूपमें आ गये । इधर वेदध्वनिके स्थानपर आकर मधु और कैटभ दोनों दानवोंने जब कुछ नहीं देखा तब वे बड़े वेगसे फिर वहीं लौट आये , जहाँ उन वेदोंको नीचे डाल रखा था । वहाँ देखनेपर उन्हें वह स्थान सूना ही दिखायी दिया । तब वे बलवानोंमें श्रेष्ठ दोनों दानव पुनः उत्तम वेगका आश्रय लेकर रसातलसे शीघ्र ही ऊपर उठे तो आकर देखते हैं कि आदिकर्ता भगवान् योगनिद्राका आश्रय लेकर शेषशय्यापर सो रहे हैं । उन्हें देखकर वे दोनों दानवराज ठहाका मारकर हँसने लगे और उन्होंने भगवान्को जगाया । फिर तो उन दोनों असुरोंका भगवान्से युद्ध आरम्भ हो गया । भगवान् मधुसूदनने ब्रह्माजीका मान रखनेके लिये तमोगुण और रजोगुणसे आविष्ट शरीरवाले उन दोनों दैत्यों मधु और कैटभको मार डाला । इस प्रकार भगवान् पुरुषोत्तमने हयग्रीवरूप धारणकर ब्रह्माजीका शोक दूर किया ( महाभारत ) एक अन्य कथाके अनुसार दितिपुत्र हयग्रीव नामक दैत्यने देवीकी आराधनाकर उन्हें सन्तुष्टकर अमर होनेका वर माँगा । ' जातस्य हि ध्रुवो मृत्युः ' देवीके ऐसा कहनेपर हयग्रीवने कहा - अच्छा तो हयग्रीवके ही द्वारा मारा जाऊँ । भगवान्की माया जगन्मोहिनी जगदम्बा इस दैत्यको यह वरदान देकर अन्तर्धान हो गयीं । दैत्यने सोचा हयग्रीव तो एक मैं ही हूँ , मैं भला अपनेको क्यों मारने लगा और दूसरा मुझे मार सकता नहीं , अतः उन्मत्त होकर अपने अत्याचारसे पृथ्वीको व्याकुल करने लगा । तब अकारणकरुण , करुणावरुणालय भगवान्ने हयग्रीव - अवतार धारणकर इस दैत्यका वध किया ।
हरिशरणम हरिशरणम हरिशरणम।
BHOOPAL Mishra
Sanatan vedic dharma karma
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