Bhagwan k 24 Avtar ki Katha 3rd

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 ( १ ९ ) ध्रुववरदेन. ( श्रीहरि ) के अवतारकी कथा-

 स्वायम्भुव मनुके पुत्र उत्तानपाद थे , जिनकी दो रानियाँ थीं- एक सुनौति , दूसरी सुरुचि छोटी रानी सुरुचिपर राजाका बड़ा प्रेम था , उससे उत्तम नामक पुत्र हुआ और सुनीतिसे ध्रुवजी हुए । राजा प्रायः सुरुचिके महलमें रहते थे । एकदिन राजा उत्तानपाद सुरुचिके पासीराम जस ( SO ) 12 परी म्हारी कारी तोए नान हमारी गवारी न्यारी वे कोय मान आदेश दि ध्रुवने  पुत्र उत्तमको गोदमें बिठाकर प्यार कर रहे थे , उसी समय ध्रुवजी बालकोंके साथ खेलते - खेलते वहाँ पहुँच गये और पिताकी गोद में बैठना चाहे परंतु सुरुचिके भयसे राजाने इनकी ओर देखा भी नहीं ये बालक थे , इससे सिंहासनपर स्वयं चढ़ सकते नहीं थे , अतः इन्होंने कई बार पिताको पुकारा , परंतु राजाने ध्यान नहीं दिया । तब सुरुचि राजाके समीप ही बड़े अभिमानपूर्वक बोली - ' वत्स ! तू राजाकी गोदमें सिंहासनपर बैठनेको इच्छा करता है , तू उसके योग्य नहीं है । तू यह इच्छा न कर , क्योंकि तू हमारे गर्भसे नहीं उत्पन्न हुआ । तू राजसिंहासनका अधिकारी तभी होता जब हमारे उदरसे तेरा जन्म होता । तू बालक है , नहीं जानता है कि तू अन्य स्त्रीका पुत्र है । जा पहले तपके द्वारा भगवान्को सन्तुष्टकर , उनसे वर माँग कि मेरा जन्म सुरुचिसे हो , तब हमारा पुत्र होकर राजाके आसनका अधिकारी हो सकता है । अभी तेरा या तेरी माँका इतना पुण्य नहीं है । अपने और अपनी माताके विषय में ऐसे निरादरभरे और हृदयमें बिंधनेवाले विषैले वचन सुन ध्रुवजी स्तब्ध से रह गये और लम्बी - लम्बी श्वासें भरने लगे । राजा यह सब देखते - सुनते रहे , परंतु कुछ न बोले । बालक ध्रुव चीख मारकर रोते , ऊर्ध्वं श्वास लेते , ओठ फड़फड़ाते हुए अपनी माँके पास आये । माँने यह दशा देख तुरंत गोदमें उठा लिया । संगके बालकोंने समस्त वृत्तान्त सुनाया । तब वह बोली - वत्स ! तू किसीके अमंगलकी इच्छा न कर , कोई दुःख दे तो उसे सह लेना चाहिये । सुरुचिके वचन बहुत उत्तम और सत्य हैं । वस्तुतः हम दुर्भगा , हतभाग्या ही हैं । ध्रुवने पूछा - माँ मैं और उत्तम दोनों समानरूपसे राजकुमार हैं , तब उत्तम क्यों उत्तम है और क्यों मैं अधम हूँ ? राजसिंहासन क्यों उत्तमके योग्य है और क्यों मेरे योग्य नहीं है ? सुनीतिने उत्तर दिया- बेटा ! सुरुचि और उसके पुत्र उत्तमने पूर्वजन्ममें बड़ा भारी पुण्य किया है , इसीसे वे राजाके विशेष प्रेमभाजन हैं , राजसिंहासनासीन होनेके अधिकारी हैं । पुण्यसे ही राजसिंहासन मिलता है । यदि तुझे भी राजसिंहासनपर बैठनेकी इच्छा है तो विमाताने जो यथार्थ बात कही है , उसीका द्वेषभाव छोड़कर पालन कर और श्रीअधोक्षज भगवान्के चरण कमलोंकी आराधना कर देख उन श्रीहरिके चरण कमलोंकी आराधना करनेसे ही श्रीब्रह्माजीको भी वह सर्वोत्तम पद प्राप्त हुआ है , जिसकी मुनिजन भी वन्दना करते हैं । माताके ऐसे मोहतमनाशक वचन सुन बालक ध्रुव यही निश्चयकर , माताको प्रणामकर और आशीर्वाद लेकर चल दिये । श्रीनारदमुनिने जब यह सब सुना तो बड़े विस्मित हुए कि ' अहो ! क्षत्रियोंका कैसा अद्भुत तेज है ? वे थोड़ा - सा भी मान भंग नहीं सह सकते । पाँच वर्षका बालक इसको भी सौतेली माँका कटु वचन नहीं भूलता है । ' प्रथम तो श्रीनारदजीने इन्हें आकर समझाया - बुझाया कि घर लौट चलो , हम तुम्हें आधा राज्य दिला देंगे । भगवान्‌की आराधना क्या खेल है ? योगी - मुनिसे भी पार नहीं लगता । ( इत्यादि वचन परीक्षार्थ कहे ) ध्रुवजीने उत्तर दिया- ' मैं घोर क्षत्रिय स्वभावके वशमें हूँ । सुरुचिके वचनरूपी बाणों से मेरे हृदयमें छिद्र हो गया है । आपके वचन इसीसे उसमें नहीं ठहरते हैं । आपने कृपा करके दर्शन दिया तो अब ऐसी कृपा करिये कि मैं शीघ्र ही श्रीहरिको सन्तुष्टकर वह पद प्राप्त कर लूँ , जो त्रिलोकीमें सबसे श्रेष्ठ है तथा जिसपर मेरे बाप - दादे और दूसरे कोई भी आरूढ़ नहीं हो सके हैं । ' देवर्षिने कृपा करके द्वादशाक्षर मन्त्र ( ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ) का उपदेश किया और मधुवनमें जाकर आराधना करनेका आदेश दिया । ध्रुवने मधुवनमें पहुँचकर आराधना आरम्भ कर दी । आराधनाकालमें ध्रुवने शरीर निर्वाहार्थ तीन - तीन रात्रिके अन्तरसे केवल कैथा और बेर खाकर एक मास व्यतीत किया । दूसरे महीने में छः छः दिनके अन्तरसे सूखे पत्ते और घास खाकर भगवद्भजन किया । तीसरेमें नौ - नौ दिनपर केवल जल पीकर आराधना करते  रहे । चौथे महीनेमें बारह - बारह दिनके अनन्तर केवल वायु पीकर भगवद् - ध्यान करते रहे । पाँचवे महीनेमें तो उन्होंने श्वास लेना भी बन्द कर दिया । भगवान्‌की अतिशय प्रबल मायाने इसी बीच विविध विघ्न किये , परंतु ध्रुवकी ध्रुवनिष्ठाके सामने उसे पराजित ही होना पड़ा । ध्रुवके तपसे तप्त देवताओंने भगवान् श्रीहरिसे पुकार की भगवान् तो ऐसे महाभागवतका दर्शन करनेके लिये लालायित ही रहते हैं , वे गरुड़पर आरूढ़ होकर मधुवनमें आ गये । प्रभुका दर्शन पाकर बालक ध्रुवको परम आनन्द हुआ , वह प्रेमसे अधीर हो उठा , उसने पृथ्वीपर दण्डके समान पड़कर उन्हें प्रणाम किया हाथ जोड़े हुए , सिर झुकाये , विनयावनत बालक ध्रुव प्रभुके सामने खड़े होकर स्तुति करना चाहकर भी नहीं कर पाते थे । सर्वान्तर्यामी श्रीहरिने कृपा करके अपने वेदमय शंखको उनके कपोलसे हुआ दिया । ध्रुवको तत्काल दिव्य वाणी प्राप्त हो गयी और वे भगवान्‌की स्तुति करने लगे । इस प्रकार भगवान्ने ध्रुवको वर देनेके लिये श्रीहरि अवतार लिया । 

( २० ) श्रीधन्वन्तरि अवतारकी कथा -

 क्षीरसागरका मन्थन होनेपर आप अमृत कलश लेकर प्रकट हुए । दैत्योंद्वारा छीने गये यज्ञोंके भाग तथा अमृत देवताओंको आपकी ही कृपासे मिला । आपने संसारको आयुर्वेद विद्या देकर अनन्त रोगोंसे मुक्त किया । अमृत - वितरण हो जानेपर देवराज इन्द्रने इनसे देववैद्यका पद स्वीकार करनेकी प्रार्थना की । इन्होंने इन्द्रके इच्छानुसार अमरावती में निवास करना स्वीकार कर लिया । कुछ समय बाद पृथ्वीपर अनेक व्याधियाँ फैलीं । तब इन्द्रकी प्रार्थनासे भगवान् धन्वन्तरिने काशिराज दिवोदासके रूपमें पृथ्वीपर अवतार धारण किया लोक - कल्याणार्थ विविध व्याधियोंको नष्ट करनेके लिये स्वयं भगवान् विष्णु धन्वन्तरिके रूपमें कार्तिक कृष्ण त्रयोदशीको प्रकट हुए थे । साक्षात् विष्णुके अंशसे प्रकट होनेसे ये भी श्रीहरिके समान श्याम एवं दिव्य थे । ( २१ ) श्रीबदरीपति ( नर - नारायण ) अवतारकी कथा- दक्षकन्या धर्मकी पत्नी मूर्तिके गर्भसे भगवान् नर - नारायणके रूपमें प्रकटे । उन्होंने आत्मतत्वका साक्षात्कार करानेवाले उस भगवदाराधनरूप कर्मका उपदेश किया , जो वास्तवमें कर्म - बन्धनसे छुड़ानेवाला और नैष्कर्म्य स्थितिको प्राप्त करानेवाला है । उन्होंने स्वयं भी वैसे ही कर्मका अनुष्ठान किया । वे आज भी बदरिकाश्रममें उसी कर्मका आचरण करते हुए विराजमान हैं । इन्द्रने यह आशंका करके कि ये अपने घोर तपके द्वारा मेरा पद छीनना चाहते हैं , उनका तप भ्रष्ट करनेके लिये सदल - बल कामदेवको भेजा । उनकी महिमा न जाननेके कारण गर्वमें आकर कामदेव वहाँ पहुँचकर अप्सरागण , वसन्त , मन्द - सुगन्ध वायु और स्त्रियोंके कटाक्षरूपी बाणों से उन्हें बेधनेकी चेष्टा करने लगा । इन्द्रकी कुचाल जानकर , कुछ भी विस्मय न करते हुए आदिदेव नारायणने उन भयसे काँपते हुए कामादिसे हँसकर कहा- हे मदन । हे मन्दमलय मारुत । हे देवांगनाओ । डरो मत । हमारा आतिथ्य स्वीकार करो उसे ग्रहण किये बिना ही जाकर हमारा आश्रम सूना मत करो । अभयदायक दयालु भगवान्के ऐसा कहनेपर लज्जासे सिर झुकाये हुए देवगणने करुण स्वरसे उनकी स्तुति की । तत्पश्चात् भगवान्ने बहुत सी ऐसी रमणियाँ प्रकट कीं , जो अद्भुत रूप - लावण्यसे सम्पन्न और वस्त्रालंकारों से सुसज्जित थीं तथा भगवान्‌की सेवा कर रही थीं । साक्षात् लक्ष्मीके समान रूपवती स्त्रियों को देखकर उनके रूप - लावण्यकी महिमासे कान्तिहीन हुए देवगण उनके अंगकी दिव्य गन्धसे मोहित हो गये । अब उनका गर्व चूर - चूर हो गया तब अत्यन्त दीन हुए उन अनुचरोंसे भगवान् हँसकर बोले- इनमें से किसी एकको , जो तुम्हारे अनुरूप हो स्वीकार कर लो । वह स्वर्गलोककी भूषण होगी । देवगणने ' जो आज्ञा ' कहकर उनको प्रणाम किया और उर्वशी नामक अप्सराको साथ लेकर स्वर्गलोकमें इन्द्रके पास चले गये । जैमिनीय भारतमें लिखा है - सहस्रकवची दैत्यने तपस्याद्वारा सूर्यभगवान्‌को प्रसन्न किया और वर माँगा कि मेरे शरीरमें एक हजार कवच हों । जब कोई एक हजार वर्ष युद्ध करे , तब कहीं एक कवच टूट सके , पर कवच टूटते ही शत्रु मर जाय । उसीको मारनेके लिये नर - नारायणका अवतार हुआ था । एक भाई हजार वर्षतक युद्ध करता और एक कवच तोड़कर मृतक - सा बन जाता , तब दूसरा भाई उसे मन्त्रसे जिलाकर और स्वयं एक हजार वर्ष युद्ध करके दूसरा कवच तोड़कर मृतक - सा बन जाता तब पहला भाई इनको जिलाता और स्वयं युद्ध करता । इस तरहसे लड़ते - लड़ते जब एक कवच रह गया , तब दैत्य भागकर सूर्यमें लीन हो गया और तब नर - नारायण भगवान् बदरिकाश्रममें जाकर तप करने लगे । वही असुर द्वापरमें कर्ण हुआ , जो गर्भसे ही कवच धारणकर पैदा हुआ तब नर - नारायणने ही अर्जुन और कृष्ण हो उसे मारा ।

 ( २२ ) श्रीदत्तात्रेय अवतारकी कथा - 

महर्षि अत्रिकी तपस्यासे चित्रकूटमें माता अनसूयाके गर्भसे भगवान् दत्तात्रेयरूपमें प्रकट हुए । वर देते समय भगवान्ने कहा था कि मैंने अपनेको तुम्हें ( दत्त ) दे दिया , अतः इनका दत्त नाम पड़ा । भगवान् दत्तात्रेयके चरणोंकी सेवासे राजा यदु तथा सहस्रार्जुन आदिने योग भोग तथा मोक्षकी भी सिद्धियाँ प्राप्त की थीं । ( २३ ) श्रीकपिल - अवतारकी कथा - महर्षि कर्दमकी धर्मपत्नी देवहूतिके गर्भसे विन्दुसरोवरके निकट नौ बहनोंके बाद भगवान् कपिलदेव प्रकट हुए । इनके केश सुवर्णके समान कपिल वर्णके थे , इसीलिये इनका नाम कपिल हुआ । इन्होंने अपनी माताको आत्मज्ञानका उपदेश दिया , जिससे वे भगवान्के वास्तविक स्वरूपको समझकर स्वल्प समयमें ही , मोक्षपदको प्राप्त कर लीं । श्रीकपिलदेवजी माताको उपदेश देकर उनकी अनुमति लेकर बिन्दुसरसे समुद्रतटपर जा विराजे जहाँ अश्वमेधयज्ञके अश्वको खोजते हुए राजा सगरके साठ हजार पुत्र भागवत - अपराधरूप पापसे भस्म हो गये । आपकी कृपासे ही गंगाजी धरातल पर आर्यों और उन सगर - पुत्रोंका तो उद्धार हुआ ही आज भी जगत्का कल्याण हो रहा है । आज भी गंगा सागर - संगममें श्रीकपिलभगवान् विराजमान हैं । आपने ऋषियोंको सांख्यशास्त्रका उपदेश दिया । आप सांख्ययोगके आचार्य हैं । 

( २४ ) श्रीसनकादि - अवतारकी कथा - 

सृष्टिके आरम्भ में श्रीब्रह्माजीने लोकोंको रचनेकी इच्छासे तप किया । ब्रह्माके अखण्ड तपसे प्रसन्न होकर भगवान्ने तप अर्थवाले ' सन् ' नामसे युक्त होकर सनक , सनन्दन , सनातन और सनत्कुमाररूपसे अवतार ग्रहण किया । इस अवतारके द्वारा भगवान्ने पहले कल्पके भूले हुए आत्मज्ञानको ऋषियोंके प्रति यथावत् उपदेश किया । इन्होंने आदिराज पृथुको भी उपदेश दिया था । सृष्टिके आरम्भमें उत्पन्न होनेसे ये बहुकालीन हैं । परंतु सदा पाँच वर्षके बालकके रूपमें ही रहते हैं , जिससे मायाका विकार न उत्पन्न हो सके । ये सदा मनसे अपने ब्रह्म स्वरूप में लीन रहते हैं और जीवन्मुक्त हैं । इनको उत्पन्न करके ब्रह्माजीने जब यह आज्ञा दी कि जाकर प्रजासृष्टिकी रचना करो । तब इन्होंने प्रपंच विस्तारका अनौचित्य एवं वैराग्यपूर्वक भगवद्भजनका औचित्य दिखाकर ब्रह्माजीको निरुत्तरकर वनकी राह लो । आप अखण्ड ऊर्ध्वरेता ब्रह्मचारी हैं और अपने तपसे समस्त लोकोंका सदा कल्याण करते हैं । 

हरिशरणम हरिशरणम हरिशरणम। 
BHOOPAL Mishra 
Sanatan vedic dharma karma 

Bhupalmishra35620@gmail.com 

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