Radha ji -श्री राधा जी एवम अष्ट सखी (भाग 2)

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        श्री राधा जी आठ सखियाँ 



श्रीराधाकिशोरीकी सखियाँ पाँच प्रकारकी मानी जाती हैं - सखी , नित्यसखी , प्राणसखी , प्रियसखी और परमप्रेष्ठसखी । कुसुमिका , विन्ध्या , धनिष्ठा आदि तो सखी कहलाती हैं । कस्तूरी , मणिमंजरिका आदि नित्यसखी कही जाती हैं । शशिमुखी , वासन्ती , लासिका आदि गणनामें हैं । कुरंगाक्षी , मंजुकेशी , माधवी , मालती आदि प्रियसखी कही जाती हैं तथा श्रीललिता , विशाखा , चित्रा , इन्दुलेखा , चम्पकलता , रंगदेवी , तुंगविद्या , सुदेवी- ये आठ परमप्रेष्ठसखीकी गणनामें हैं । ये आठों सखियाँ ही अष्टसखीके नामसे विख्यात हैं ।

 हृदयसे जुड़ी हुई अनन्त धमनियोंकी भाँति श्रीराधाकी समस्त सखियाँ राधा हत्सरोवरसे निरन्तर प्रेमरस लेती हैं । लेकर उस रसको सर्वत्र फैलाती रहती हैं तथा साथ ही अपना प्रेमरस भी राधा - हृदयमें उड़ेलती रहती हैं । इस रसविस्तारके कार्यमें श्रीललिता आदि अष्टसखियोंका सबसे प्रमुख स्थान है । 

।      श्रीकृष्णचन्द्रकी नित्यकैशोरलीलामें श्रीललिताकी आयु चौदह वर्ष तीन मास बारह दिनकी रहती है । श्रीललितामें यह नित्य दिव्य आवेश रहता है कि इस समय मेरी आयु इतनी हुई है । इसी प्रकार उस लीलामें श्रीविशाखा चौदह वर्ष दो मास पन्द्रह दिन , श्रीचित्रा चौदह वर्ष एक मास उन्नीस दिन , श्रीइन्दुलेखा चौदह वर्ष दो मास बारह दिन , श्रीचम्पकलता चौदह वर्ष दो मास चौदह दिन , श्रीरंगदेवी चौदह वर्ष दो मास आठ दिन , श्रीतुंगविद्या चौदह वर्ष दो मास बीस दिन और श्रीसुदेवी चौदह वर्ष दो मास आठ दिनकी रहती हैं । अवश्य ही जब श्रीराधाकिशोरीकी लीलाका प्रपंचमें प्रकाश होता है , वे अवतरित होती हैं , तब ये भी उसी प्रकार अवतरित होती हैं इनका जन्म होता है , कौमार आता है , पौगण्ड आता है , फिर कैशोरसे विभूषित होती हैं । 

।       इन आठ सखियोंका जीवन चरित्र श्रीराधामहारानीकी लीलामें सर्वथा अनुस्यूत रहता है । जो राधाभावसिन्धुका कोई सा एक कण पा लेते हैं , वे ही इन सखियोंके दिव्य भुवनपावन चरित्रके सम्बन्धमें यत्किंचित् जान पाते हैं । वह भी एक - सा नहीं , जो जैसे पात्र हों । हमारे लिये तो इतना ही पर्याप्त है कि श्रीराधाकिशोरीको स्मरण करते हुए हम इनकी वन्दना कर लें

 गोरोचनारुचिमनोहरकान्तिदेहां मायूरपुच्छतुलितच्छविचारुचेलाम् । राधे तव प्रियसखीं च गुरुं सखीनां ताम्बूलभक्तिललितां ललितां नमामि ॥

        हे राधे ! गोरोचनके समान जिनके श्रीअंगोंकी मनोहर कान्ति है , जो मयूरपिच्छके समान चित्रित साड़ी धारण करती हैं , तुम्हारी ताम्बूलसेवा जिनके अधिकारमें है , इस सेवासे जो अत्यन्त ललित ( सुन्दर ) हो रही हैं , जो सखियोंकी गुरुरूप हैं , तुम्हारी उन प्यारी सखी श्रीललिताको मैं प्रणाम कर रहा हूँ । 

सौदामिनीनिचयचारुरुचिप्रतीकां तारावलीललितकान्तिमनोज्ञचेलाम् । इल श्रीराधिके तव चरित्रगुणानुरूषां सद्गन्धचन्दनरतां विषये विशाखाम् ॥

          श्रीराधिके । मानो सौदामिनी - समूह एकत्र हो , इस प्रकार तो जिनके अंगोंका सुन्दर वर्ण है , तारिका श्रेणीकी सुन्दर कान्ति जिनकी मनोहर साड़ीमें भरी हुई है , सुगन्धित द्रव्य , चन्दन आदिसे जो तुम्हारे लिये अंगराग प्रस्तुत करती हैं , उनसे तुम्हारा अंगविलेपन करती हैं तथा चरित्रमें , गुणमें जो तुम्हारे समान हैं , तुम्हारी उन विशाखा [ सखी ] का मैं आश्रय ग्रहण कर रहा हूँ । 

काश्मीरकान्तिकमनीयकलेवराभां सुस्निग्धकाचनिचयप्रभचारुचेलाम् । श्रीराधिके तव मनोरथवस्त्रदाने चित्रां विचित्रहृदयां सदयां प्रपद्ये ॥

 श्रीराधिके । केशरकी कान्ति - जैसी जिनके कमनीय अंगोंकी शोभा है , सुचिक्कण काँचसमूहकी प्रभावाली सुन्दर साड़ी धारण किये रहती हैं , तुम्हारी रुचिके अनुसार तुम्हें वस्त्र पहनानेमें जो लगी हुई हैं , जिनके हृदयमें अनेकों विचित्र भाव भरे हैं । जो करुणासे भरी हैं , तुम्हारी उन चित्रा [ सखी ] - की मैं शरण ले रहा हूँ । 

 नृत्योत्सवां हि हरितालसमुचलाभो सहाडिमीकुसुमकान्तिमनोजचेलाम् । वन्दे मुदा रुचिविनिर्जितचन्द्ररेखां श्रीराधिके तव सखीमहमिन्दुलेखाम् ॥

 श्रीराधिके । जिनके अंगोंकी आभा समुज्वल हरिताल जैसी है , जो दाडिम - पुष्पोंकी कान्तिवाली सुन्दर साड़ीमें विभूषित हैं , जिनका मुख अत्यन्त प्रसन्न है , प्रसन्नमुखको कान्तिसे जो चन्द्रकलाको भी जीत से रही है , जो नृत्योत्सवके द्वारा तुम्हें सुखी करती हैं , तुम्हारी उन इन्दुलेखा सखीकी मैं वन्दना करता हूँ । 

चापाख्यपक्षिरुचिरच्छविचारुचेलाम् । सर्वान् गुणांस्तुलयितुं दधतीं विशाखा राधेऽच चम्पकलतां भवर्ती प्रपद्ये ॥ 

श्रीराधे । जिनके अंगोंकी आभा चम्पकपुष्प - जैसी है , जो नीलकण्ठ पक्षीके रंगकी साड़ी पहनती हैं , जिनके हाथ में रत्ननिर्मित चामर है , सभी गुणोंमें जो विशाखाके समान हैं , तुम्हारी उन [ सखी ] चम्पकलताकी मैं शरण ले रहा हूँ । 

सहलचामरकरां वरचम्पकाभ सदपद्यकेशरमनोहरकान्तिदेहां प्रोद्यन्जवाकुसुमदीधितिचारुचेलाम् । प्रायेण चम्पकलताधिगुणां सुशीलां राधे भजे प्रियसखीं तव रङ्गदेवीम् ॥

 राधे । जिनके अंगोंको छवि सुन्दर पद्मपरागके समान है , जिनकी सुन्दर साड़ीकी कान्ति पूर्णविकसित जवाकुसुम - जैसी है , जिनमें गुणोंकी इतनी अधिकता है कि चम्पकलतासे भी बढ़ी चढ़ी हैं , उन अत्यन्त सुन्दर शीलवाली तुम्हारी प्यारी सखी रंगदेवीका मैं भजन करता हूँ ।

 सच्चन्द्रचन्दनमनोहरकुङ्कुमाभां पाण्डुच्छविप्रचुरकान्तिलसहुकूलाम् । सर्वत्र कोविदतया महितो समज्ञां राधे भजे प्रियसखी तव तुविद्याम् ॥

 राधे कर्पूर- चन्दनमिश्रित कुङ्कुमके समान जिनका वर्ण है , पीतवर्ण कान्तिपूर्ण वस्त्रसे जो सुशोभित हैं , सर्वत्र जिनकी बुद्धिमत्ताका आदर होता है , उन सुवशमयी तुम्हारी प्रियसखी तुंगविद्याका मैं भजन करता हूँ

 । प्रोत्सप्तशुद्धकनकच्छविचारुदेहां प्रोद्यत्प्रवालनिचयप्रभचारुचेलाम् । L सर्वानुजीवनगुणोलभक्तिदक्षां श्रीराधिके तव सखीं कलये सुदेवीम् ॥ 

श्रीराधिके उत्तप्त विशुद्ध स्वर्ण - जैसी सुन्दर जिनकी देह है , चमकते हुए मूंगे के रंगकी जो साड़ी धारण करती है , तुम्हें जल पिलाने को सुन्दर सेवायें जो निपुण हैं , तुम्हारी उन सुदेवी सखीका में ध्यान कर रहा हूँ ।

 श्रीकृष्ण के व्रजसखा 

ब्रजभूमि प्रेमका दिव्य धाम है । वहाँ निवास करनेवाले सभी लोग अपने पूर्वजन्ममें अनेक प्रकारके जप तप , भजन - ध्यान करके परमात्माके समीप रहनेका अधिकार प्राप्त कर चुके थे । इसीलिये उन लोगोंने व्रजको प्रेम - भूमिमें परब्रह्म परमेश्वर श्रीकृष्णको सुहृद्के रूपमें प्राप्त किया । बजके गोप , गोपियाँ , गोपकुमार , गायें , बनके पशु - पक्षी - सभी प्रेमके मूर्तिमान् विग्रह हैं । व्रजके गोपकुमार तो सख्यभक्तिके अनुपम उदाहरण है । सुबल , सुभद्र , भद्र , मणिभद्र , वरूपप , तोककृष्ण , श्रीदामा आदि सहस्सों व्रजसखाओंके श्रीकृष्ण ही जीवन थे । उनके श्रीकृष्ण हो प्राण तथा सर्वस्व थे । वे सभी श्रीकृष्णकी प्रसन्नता के लिये उनके साथ दौड़ते , कूदते , गाते नाचते और भाँति - भौतिकी क्रीड़ाएँ करते थे श्याम गाते तो वे तालियाँ बजाते , कन्हैया नाचते तो वे प्रशंसा करते श्रीकृष्णको नजरों से दूर होते ही उनके प्राण तड़पने लगते थे । श्रीकृष्णका ये विभिन्न वनपुष्पोंसे शृंगार करते । श्रीकृष्ण थक जाते तो वे उनके चरण दबाते । व्रजसखाओंका खेलना , झगड़ना तथा रूठना सब कुछ मोहनको प्रसन्नता के लिये ही होता था । श्रीकृष्ण के चेहरेपर क्षोभकी हलकी - सी छाया गोपबालकोंसे प्रे सहन नहीं होती थी । भगवान् श्रीकृष्ण दूसरोंके लिये चाहे कितने भी ऐश्वर्यशाली रहे हों , किंतु अपने इन बालसखाओंके लिये सदैव प्राणप्रिय , स्नेहमय सखा ही रहे । सखाओंका मान रखना , उनकी हर तरहसे सुरक्षा करना श्रीकृष्णका सदाका व्रत रहा है । बहुत दिनोंतक कष्ट उठाकर जिन्होंने अपनी इन्द्रियों और अन्तःकरणको वंशमें कर लिया है , उन योगियोंके लिये भी भगवान् श्रीकृष्णकी चरणरज मिलना दुर्लभ है । वही भगवान् अपने व्रजसखाओंके साथ नित्य क्रीड़ा करते थे । एक दिन अघासुर नामक महान् दैत्य कंसके भेजनेपर व्रजभूमिमें आया । उससे श्रीकृष्ण और ग्वालबालोंकी सुखमयी क्रीड़ाएँ देखी न गयीं । अघासुर पूतना और वकासुरका छोटा भाई था । वह श्रीकृष्ण , श्रीदामा आदि ग्वाल - बालोंको देखकर मन - ही मन सोचने लगा कि ' यही मेरे सगे भाई - बहनको मारनेवाला है , आज मैं इसको इसके सखाओंके साथ यमलोक पहुँचा दूँगा । ' ऐसा निश्चय करके वह दुष्ट दैत्य अजगरका रूप धारण करके मार्गमें लेट गया । उसका अजगर - शरीर एक योजन लम्बे पर्वतके समान विशाल और मोटा था । उसने गुफाके समान अपना मुँह फाड़ रखा था । भगवान् श्रीकृष्णके बालसखा अघासुरको वृन्दावनका कोई कौतुक समझकर उसके मुखमें घुस गये । भगवान् श्रीकृष्ण सबको अभय देनेवाले हैं । जब उन्होंने देखा कि मेरे प्यारे सखा जिनका एकमात्र रक्षक मैं हूँ , मृत्युरूप अघासुरके मुखमें प्रवेश कर गये , तब भगवान् भी उस दैत्यके मुखमें चले गये । भगवान् श्रीकृष्णने अघासुरके पेटमें अपने शरीरको इतना बढ़ाया कि वह दुष्ट दैत्य स्वयं मृत्युका ग्रास बन गया और अपने सखाओंके साथ भगवान् सहज ही बाहर निकल आये । इसी प्रकार व्योमासुर जब गोपवालक बनकर भगवान् श्रीकृष्णके बालसखाओंको गुफामें बन्द करने लगा , तब उन्होंने घूंसों और थप्पड़ोंसे उसका अन्त कर दिया । श्यामसुन्दरने अपने इन सखाओंके लिये दावाग्निपान किया । कालियनागके विषसे दूषित यमुना - जलको शुद्ध करनेके लिये उन्होंने महानागके गर्वको चूर करके उसे वहाँसे अन्यत्र भेजा । भगवान् श्रीकृष्ण लोकदृष्टिमें मथुरा भले ही चले गये , किंतु अपने गोपसखाओंके लिये तो उन्होंने वृन्दावनका कभी त्याग ही नहीं किया । शास्त्र कहता है - ' वृन्दावनं परित्यज्य पदमेकं न गच्छति । ' 

श्रीकृष्णके षोडश सखा

 रक्तक पत्रक और पत्रि सबही मन भावैं । मधुकंठौ मधुबर्त रसाल बिसाल सुहावैं ॥ प्रेमकंद मकरंद सदा - आनँद चंद्रहासा । पयद बकुल रसदान सारदा बुद्धिप्रकासा ॥ सेवा समय बिचारि कै चारु चतुर चित की लहैं । ब्रजराज सुवन सँग सदन बन अनुग सदा तत्पर रहें ॥ २३ ॥ रक्तक , पत्रक और पत्री - ये सबके मनको प्रिय लगते हैं । मधुकण्ठ , मधुवर्त , रसाल , विशाल , प्रेमकन्द , मकरन्द , सदानन्द , चन्द्रहास , पयद , बकुल , रसदान , शारदा और बुद्धिप्रकाश- ये सुन्दर , सुशील एवं परम चतुर सखागण भगवान्की इच्छाके अनुसार जिस सेवाका जो समय है एवं जब जो सेवा उचित है , उसको विचारकर करते हैं । ये उनके प्यारे सोलह सखा हैं । व्रजमण्डलके राजा नन्दजीके पुत्र श्रीकृष्णके साथ घर में तथा वनमें उनके ये सोलह सखा सेवामें सदा तत्पर रहते हैं । मैं इनकी चरण - रजका अर्थी हूँ ॥ २३ ॥  श्रीकृष्ण सखाओंकी सेवा रक्तक आदिका सखारूपमें संग रहकर सेवा करना तो प्रसिद्ध ही है । वनमें ये अन्य रूपोंसे भी प्यारे श्यामसुन्दरकी सेवा करते हैं । जैसे रक्तक लाल चन्दन , कुंकुम , केशर बनकर , पत्रक तमालवृक्ष , पलाशवृक्ष चनकर , पत्रि रंग - बिरंगकी चिड़िया बनकर तथा ताल आदिके वृक्ष बनकर , मधुकण्ठ कोयल बनकर , मधुवर्त भ्रमर बनकर , रसाल आम्र - कटहल बनकर , विशाल सभी सुख एवं सुखदायक वस्तुओंका विस्तार बनकर या बड़े - बड़े शालके वृक्ष बनकर अथवा शाल - दुशाले बनकर , प्रेमकन्द कन्दविशेष बनकर , मकरन्द पुष्परस , कुन्दपुष्प बनकर , सदानन्द आनन्द प्रकाश वस्तु बनकर , चन्द्रहास चन्द्रमाकी किरण बनकर , पयद मेघ बनकर , बकुल मौलसिरीका पेड़ बनकर , रसदान रसमय पदार्थ बनकर , शारदा शांखाहुली जड़ी बनकर एवं बुद्धिप्रकाशश ब्राह्मी बूटी बनकर सेवा करते हैं ।

                          सप्तद्वीप के भक्त 

जंबू और पलच्छ सालमलि बहुत राजरिषि । कुस पबित्र पुनि क्रौंच कौन महिमा जानै लिखि ॥ साक बिपुल बिस्तार प्रसिध नामी अति पुहकर । पर्बत लोकालोक ओक टापू कंचनधर ॥ हरिभृत्य बसत जे जे जहाँ तिन सों नित प्रति काज । सप्त दीप जे ते मेरे सिरताज ॥ २४ ॥ 

 जम्बूद्वीप , प्लक्षद्वीप और शाल्मलिद्वीपमें बहुत से ऋषिराज भक्त हैं । कुशद्वीप और क्रौंचद्वीप - ये अति पवित्र हैं । यहाँके भक्तोंकी महिमा कौन जान सकता है । शाकद्वीप और पुष्करद्वीप - इनका बहुत विस्तार उ है और इनके नाम बहुत प्रसिद्ध हैं । लोकालोक पर्वत , सुवर्णमयी भूमि एवं अन्य द्वीपसमूहोंमें जो भगवान्के सेवक निवास करते हैं , उनसे हमारा नित्य ही प्रयोजन है । सातों द्वीपोंमें जो भगवान्के दास हैं , वे मेरे सिरके मुकुट हैं ॥ २४ ॥ 

श्रीप्रियव्रतके रथके पहियेसे जो लीकें बनीं , वे ही सात समुद्र हुए और उनसे एक ही भूमण्डल सप्तद्वीपों में विभक्त हो गया । ( छ ० १० में श्रीप्रियव्रतजीका प्रसंग वर्णित है ) इनका वर्णन इस प्रकार है 

                  जम्बूद्वीप 

              इसका विस्तार एक लाख योजन है । इसमें ग्यारह सौ योजन ऊँचा और इतने ही विस्तारवाला विशाल जामुनका वृक्ष है , अतः इस द्वीपका नाम भी जम्बूद्वीप पड़ गया । वह अपने ही समान परिमाण और विस्तारवाले खारे जलके समुद्रसे परिवेष्टित है । श्रीप्रियव्रतजीके पुत्र आग्नीध्रजी इसके अधिपति हुए । 

                           प्लक्षद्वीप 

इसका विस्तार दो लाख योजन है । यह खारे समुद्रको चारों ओरसे परिवेष्टित किये हैं । इसमें ग्यारह सौ योजन ऊँचा और इतने ही विस्तारवाला सुवर्णमय प्लक्ष ( पाकर ) का वृक्ष है । इसी कारण इसका नाम प्लक्षद्वीप हुआ । यह अपने ही समान परिमाण और विस्तारवाले इक्षुरसके समुद्रसे घिरा हुआ है । श्रीप्रियव्रतजीके पुत्र इध्मजिद्दजी इसके अधिपति हैं । क्रमश 

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हरिशरणम हरिशरणम हरिशरणम 

BHOOPAL Mishra 

Sanatan vedic dharma karma 

Bhupalmishra35620@gmail.com 

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