जगज्जननी श्री राधा जी
गोलोकमें आविर्भाव कल्पका आरम्भ है । आदिपुरुष श्रीकृष्णचन्द्र गोलोकके सुरम्य रासमण्डलमें विराजित हैं । गोलोकविहारीका अनन्त ऐश्वर्य झाँक रहा है , झाँककर देख रहा है - आज अभिनय आरम्भ होनेका समय हुआ या नहीं ? अभिनयके दर्शक चतुर्भुज श्रीनारायण , पंचवक्त्र महेश्वर , चतुर्मुख ब्रह्मा , सर्वसाक्षी धर्म , वागधिष्ठात्री सरस्वती , ऐश्वर्यकी अधिदेवी महालक्ष्मी , जगज्जननी दुर्गा , जपमालिनी सावित्री - ये सभी तो रंगमंचपर आ गये हैं , लीलासूत्रधार श्रीगोविन्द भी उपस्थित हैं ; पर सूत्रधारके प्राणसूत्र जिनके हाथ हैं , वे अभी नहीं आयो हैं । देववृन्द आश्चर्य - विस्फारित नेत्रोंसे मंच - रासमण्डलकी ओर देखने लगते हैं ।
किंतु अब विलम्ब नहीं । देवोंने देखा - गोलोकविहारी श्रीगोविन्द श्रीकृष्णचन्द्र के वामपाश्र्वमें एक कम्पन - सा हुआ , नहीं - नहीं , ओह ! एक कन्याका आविर्भाव हुआ है ; अतीत , वर्तमान , भविष्यका समस्त सौन्दर्य पुंजीभूत होकर सामने आ गया है । आयु सोलह वर्षकी है ; सुकोमलतम अंग यौवनभारसे दबे जा रहे हैं ; बन्धुजीव - पुष्प - जैसे अरुण अधर हैं ; उज्ज्वल दशनोंकी शोभाके आगे मुक्तापंक्तिकी अमित शोभा तुच्छ , हेय बन जा रही है , शरत्कालीन कोटि राकाचन्द्रोंका सौन्दर्य मुखपर नाच रहा है ; ओह ! उस सुन्दर सीमन्त ( माँग ) की शोभा वर्णन करनेकी सामर्थ्य किसमें है ? चारु पंकजलोचनोंका सौन्दर्य कौन बताये ? सुठाम नासा सुन्दर चन्दन- चित्रित गण्डयुगल- इनकी तुलना किससे करें ? कर्णयुगल रत्नभूषित हैं ; मणिमाला , हीरक - कण्ठहार , रत्न केयूर , रत्नकंकण- इनसे श्रीअंगोंपर एक किरणजाल फैला है । भाल पर सिन्दूरविन्दु कितना मनोहर है । मालतीमाला - विभूषित , सुसंस्कृत केशपाश , उनमें सुगन्धित कबरीभारकी सुषमा कैसी निराली है ! स्थलपद्मोंकी शोभा तो सिमटकर इन युगल चरणतलों में आ गयी है , चरणविन्यास हंसको लज्जित कर रहा है ; अनेक आभरणोंसे विभूषित श्रीअंगोंसे सौन्दर्यकी सरिता प्रवाहित हो रही है । रूपधर्षित हुए देववृन्द इस सौन्दर्यको देखते ही रह जाते हैं ।
श्रीकृष्णचन्द्रके वामपार्श्वसे आविर्भूत यह कन्या , यह सुन्दरी ही श्रीराधा हैं । ' राधा ' नाम इसलिये हुआ कि' रास ' मण्डलमें प्रकट हुईं तथा प्रकट होते ही पुष्प चयनकर श्रीकृष्णचन्द्रके चरणोंमें अर्घ्य समर्पित करनेके लिये ' धावित ' हुई - दौड़ीं ।
उसी समय इन्हीं श्रीराधाके रोमकूपों से लक्षकोटि गोपसुन्दरियाँ प्रकट हुईं । वास्तवमें तो यह आविर्भावकी लीला प्रपंच की दृष्टिसे ही हुई । अन्यथा प्रलय , सृजन , फिर संहार , फिर सृष्टि - इस प्रवाहसे उस पार श्रीराधाकी , राधाकान्तकी लीला , उनका नित्य निकुंजविहार तो अनादिकालसे सपरिकर नित्य दो रूपोंमें प्रतिष्ठित रहकर चल रहा है एवं अनन्तकालतक चलता रहेगा । प्रलयकी छाया उसे छू नहीं सकती , सृजनका कम्पन उसे उद्वेलित नहीं कर सकता । श्रीराधाका यह आविर्भाव तो प्रपंचगत कतिपय बड़भागी ऋषियोंकी चित्तभूमिपर कल्पके आरम्भ में उस लीलाका उन्मेष किस क्रमसे हुआ , इसका एक निदर्शनमात्र है । अब रासेश्वरी श्रीराधाके भारतवर्ष में अवतरित होनेकी भूमिका कैसे बनी ; उनके नित्य रासकी , नित्य निकुंजलीलाकी एक झाँकीका दर्शन करते हैं ।
अवतरण
नृगपुत्र राजा सुचन्द्रका एवं पितरोंकी मानसी कन्या सुचन्द्रपत्नी कलावतीका पुनर्जन्म हुआ । सुचन्द्र तो वृषभानु गोपके रूपमें उत्पन्न हुए एवं कलावती कीर्तिदा गोपीके रूपमें यथासमय दोनोंका विवाह होकर पुनर्मिलन हुआ । एक तो राजा सुचन्द्र हरिके अंशसे ही उत्पन्न हुए थे ; उसपर उन्होंने पत्नीसहित दिव्य द्वादश वर्षोतक तप करके ब्रह्माको सन्तुष्ट किया था । इसीलिये कमलयोनिने ही यह वर दिया था - ' द्वापरके अन्तमें स्वयं श्रीराधा तुम दोनोंकी पुत्री बनेंगी । ' उस वरकी सिद्धिके लिये ही सुचन्द्र वृषभानु गोप बने हैं । इन्हीं वृषभानुमें इनके जन्मके समय सूर्यका भी आवेश हो गया ; क्योंकि सूर्यने तपस्याकर श्रीकृष्णचन्द्रसे एक कन्या - रत्नकी याचना की थी तथा श्रीकृष्णचन्द्रने सन्तुष्ट होकर ' तथास्तु ' कहा था । इसके अतिरिक्त नित्यलीलाके वृषभानु एवं कीर्तिदा- ये दोनों भी इन्हीं वृषभानु गोप एवं कीर्तिदामें समाविष्ट हो गये , क्योंकि स्वयं गोलोकविहारिणी राधाका अवतरण होने जा रहा है । अस्तु , इस प्रकार योगमायाने द्वापरके अन्तमें रासेश्वरीके लिये उपयुक्त क्षेत्रकी रचना कर दी ।धीरे - धीरे वह निर्दिष्ट समय भी आ पहुँचा । वृषभानुके व्रजकी गोपसुन्दरियोंने एक दिन अकस्मात् देखा - कीर्तिदा रानीके अंग पीले हो गये हैं ; गर्भके अन्य लक्षण भी स्पष्ट परिलक्षित हो रहे हैं । फिर उनके हर्षका पार नहीं । कानों - कान यह समाचार वृषभानु - व्रजमें सुखस्रोत बनकर फैलने लगा । सभी उत्कण्ठापूर्वक प्रतीक्षा करने लगे ।
वह मुहूर्त आया । भाद्रपदकी शुक्ला अष्टमी है ; चन्द्रवासर है , मध्याह्न है । कीर्तिदा रानी रत्नपर्यंकपर विराजित हैं । एक घड़ी पूर्वसे प्रसवका आभास - सा मिलने लगा है । वृद्धा गोपिकाएँ उन्हें घेरे बैठी हैं । इस समय आकाश मेघाच्छन्न हो रहा है । सहसा प्रसूतिगृहमें एक ज्योति फैल जाती है इतनी तीव्र ज्योति कि सबके नेत्र निमीलित हो गये । इसी समय कीर्तिदा रानीने प्रसव किया । प्रसवमें केवल वायु निकला ; इतने दिन उदर तो वायुसे ही पूर्ण था । किंतु इससे पूर्व कि कीर्तिदा रानी एवं अन्य गोपिकाएँ आँख खोलकर देखें , उसी वायुकम्पनके स्थानपर एक बालिका प्रकट हो गयी । सूतिकागार उस बालिकाके लावण्य प्लावित होने लगा । गोपसुन्दरियोंके नेत्र खुले , उन्होंने देखा - शत - सहस शरच्चन्द्रोंकी कान्ति लिये एक बालिका कीर्तिदाके सामने लेटी है , कीर्तिदा रानीने प्रसव किया है । कीर्तिदा रानीको यह प्रतीत हुआ- मेरे । सद्यः प्रसूत इस कन्याके अंगोंमें मानो किसी दिव्यातिदिव्य शतमूली - प्रसूनकी आभा भरी हो , अथवा रक्तवर्णकी तडिल्लहरी ही बालिकारूपमें परिणत हो गयी हो । आनन्दविवशा कीर्तिदा रानी कुछ बोलना चाहती हैं , पर बोल नहीं पातीं । मन - ही - मन दो लक्ष गोदानोंका संकल्प करती हैं ।
संयोगकी बात ! आज ही कुछ देर पहलेसे करभाजन , शृंगी , गर्ग एवं दुर्वासा- चारों वहाँ आये हुए हैं । गोपोंकी प्रार्थनापर वृषभानुको आनन्दमें निमग्न करते हुए वे श्रीराधाके ग्रह - नक्षत्रका निर्णय कर रहे हैं -
करभाजन श्रृंगी जु गर्गमुनि लगन नछत सुदि भार्दी सुभ मास , प्रीति जोग , यल बल सोध री । भए अचरज ग्रह देखि परस्पर कहत सबन प्रति बोध री ॥ अष्टमी अनुराधा के सोध री । बालव करनँ , लगन धनुष घर बोध री ॥
बालकका नाम रखा गया- ' राधा ' । ' राधिका ' नाम वृषभानु एवं कीर्तिदा दोनोंने मिलकर रखा लोहितवर्ण विद्युत् लहरी - सी अंगप्रभा होनेके कारण राधा- राधिका नाम जगत्में विख्यात हुआ ।
इस प्रकार अयोनिसम्भवा श्रीराधा भूतलपर श्रीवृषभानु एवं कीर्तिदा रानीकी पुत्री के रूप में प्रकट हुई ।
देवर्षिको दर्शन
वीणाकी झनकारपर हरि - गुण - गान करते हुए देवर्षि नारद ब्रजमें घूम रहे हैं । कुछ देर पहले ब्रजेश्वर नन्दके घर गये थे । वहाँ नन्दनन्दन श्रीकृष्णचन्द्रके उन्होंने दर्शन किये दर्शन करनेपर मनमें आया जब स्वयं गोलोकविहारी श्रीकृष्णचन्द्र भूतलपर अवतरित हुए हैं तो गोलोकेश्वरी श्रीराधा भी कहीं - न - कहीं गोपीरूपमें अवश्य आयी हैं । उन्हीं श्रीराधाको ढूँढ़ते हुए देवर्षि व्रजके प्रत्येक गृहके सामने ठहर ठहरकर आगे बढ़ते जा रहे हैं । देवर्षिका दिव्य ज्ञान कुण्ठित हो गया है , सर्वज्ञ नारदको श्रीराधाका अनुसंधान नहीं मिल रहा है ; मानो योगमाया देवर्षिको निमित्त बनाकर राधादर्शनकी यह साधना जगत्को बता रही हों पहले श्रीकृष्णचन्द्र के दर्शन होते हैं , उनके दर्शनोंसे श्रीराधाके दर्शनकी इच्छा जाग्रत् होती है , फिर श्रीराधाको पानेके लिये व्याकुल होकर व्रजकी गलियोंमें भटकना पड़ता है । अस्तु , घूमते हुए देवर्षि वृषभानु प्रासाद के सामने आकर खड़े हो जाते हैं । वह विशाल मन्दिर देवर्षिको मानो अपनी ओर आकर्षित कर रहा हो । देवर्षि भीतर प्रवेश कर जाते हैं । वृषभानु गोपकी दृष्टि उनपर पड़ती है । वे दौड़कर नारदजीके चरणोंमें लोट जाते हैं ।
विधिवत् पाद्य - अर्ध्यसे पूजा करके देवर्षिको प्रसन्न अनुभवकर वृषभानु गोप अपने सुन्दर पुत्र श्रीदामको गोदमें उठा लाते हैं , लाकर मुनिके चरणोंमें डाल देते हैं । बालकका स्पर्श होते ही मुनिके नेत्रोंमें स्नेहानु भर आता है ; उत्तरीयसे अपनी आँखें पोंछकर उसे उठाकर वे हृदयसे लगा लेते हैं तथा गद्गद कण्ठसे बालकका भविष्य बतलाते हैं - ' वृषभानु ! सुनो , तुम्हारा यह पुत्र नन्दनन्दनका , बलरामका प्रिय सखा होगा । '
तो क्या रासेश्वरी श्रीराधा यहाँ भी नहीं हैं ? वृषभानु उन्हें तो लाया नहीं ? -यह सोचकर निराश से हुए देवर्षि चलनेको उद्यत हुए । उसी समय वृषभानुने कहा- ' भगवन् । मेरी एक पुत्री है ; सुन्दर तो वह इतनी है मानो सौन्दर्यकी खानि - कोई देवपत्नी इस रूपमें उतर आयी हो । पर आश्चर्य यह है कि वह अपनी आँखें सदा निमीलित रखती है ; हमलोगोंकी बातें भी उसके कानोंमें प्रवेश नहीं करतीं , उन्मादिनी - सी दीखती है ; इसलिये हे भगवत्तम ! श्रीचरणोंमें मेरी यह प्रार्थना है कि एक बार अपनी सुप्रसन्न दृष्टि उस बालिकापर भी डालकर उसे प्रकृतिस्थ कर दें । '
आश्चर्यमें भरे नारद वृषभानुके पीछे - पीछे अन्तःपुरमें चले जाते हैं । जाकर देखा - स्वर्णनिर्मित सजीव सुन्दरतम प्रतिमा - सी एक बालिका भूमिपर लोट रही है । देखते ही नारदका धैर्य जाता रहा , अपनेको वे किसी प्रकार भी संवरण न कर सके ; वे दौड़े तथा बालिकाको उठाकर उन्होंने अंकमें ले लिया । एक परमानन्द सिन्धुकी लहरें देवर्षिको लपेट लेती हैं , उनके प्राणों में अननुभूतपूर्व एक अद्भुत प्रेमका संचार हो जाता है , वे बालिकाको क्रोड़में धारण किये मूर्च्छित हो जाते हैं । दो घड़ीके लिये तो उनकी यह दशा है , मानो उनका शरीर एक शिलाखण्ड हो । दो घड़ीके पश्चात् जाकर कहीं बाह्यज्ञान होता है तथा बालिकाका अप्रतिम सौन्दर्य निहारकर विस्मयकी सीमा नहीं रहती । वे मन - ही - मन सोचने लगते हैं - ' ओह ! ऐसे सौन्दर्यके दर्शन मुझे तो कभी नहीं हुए । मेरी अबाध गति है , सभी लोकोंमें स्वच्छन्द विचरता हूँ ; ब्रह्मलोक स्द्रलोक , इन्द्रलोक - इनमें कहीं भी इस शोभासागरका एक विन्दु भी मैंने नहीं देखा ; महामाया भगवती शैलेन्द्रनन्दिनीके दर्शन मैंने किये हैं , उनका सौन्दर्य चराचर मोहन है ; किंतु इतनी सुन्दर तो वे भी नहीं । लक्ष्मी , सरस्वती , कान्ति , विद्या आदि सुन्दरियाँ तो इस सौन्दर्यपुंजकी छाया भी नहीं छू पातीं । विष्णुके हर विमोहन उस मोहिनी रूपको भी मैंने देखा है , पर इस अतुल रूपकी तुलनामें वह भी नहीं बालिकाको देखते ही श्रीगोविन्द - चरणाम्बुजमें मेरी जैसी प्रीति उमड़ी , वैसी आजतक कभी नहीं हुई । बस , बस , यही श्रीराधा है ; निश्चय हो यही श्रीरासेश्वरी हैं।- देवर्षिका अन्तर हृदय आलोकित हो उठा । '
वृषभानु कुछ क्षणके लिये तुम बाहर चले जाओ ; बालिकाके सम्बन्ध में कुछ करना चाहता हूँ गद्गद कण्ठसे देवर्षिने धीरे - धीरे कहा सरलमति वृषभानु देवर्षिको प्रणामकर बाहर चले आये । एकान्त करनारदने श्रीराधाका स्तवन आरम्भ किया - ' देवि महायोगमयि महाप्रभामयि ! मायेश्वरि मेरे महान् सौभाग्यसे , न जाने किन अनन्त शुभ कर्मोंसे रचित सौभाग्यका फल देने तुम मेरे दृष्टिपथमें उतर आयी हो । "
' देवि ! तुम्हीं ब्रह्म हो ; सच्चिदानन्द ब्रह्मके सत् - अंशमें स्थित सन्धिनी शक्तिकी चरम परिणति- विशुद्ध तत्व तुम्हीं हो ; विशुद्ध सत्त्वमयी तुममें ही चिदंशकी संवित् शक्ति , संवित्को चरम परिणति विद्यात्मिका परा शक्ति - ज्ञानशक्तिका भी निवास है ; तुम्हीं आनन्दांशकी हादिनी शक्ति , हादिनीकी भी चरम परिणति महाभावरूपिणी हो ; आश्चर्यवैभवमयि तुम्हारी एक कलाका भी ज्ञान ब्रह्म रुद्रतकके लिये कठिन है , फिर योगीन्द्रगणके ध्यानपथमें तो तुम आ ही कैसे सकती हो । मेरी बुद्धि तो यह कह रही है कि इच्छाशक्ति , ज्ञानशक्ति क्रियाशक्ति - ये सभी तुम ईश्वरीके अंशमात्र हैं । श्रीकृष्णचन्द्रको आनन्दरूपिणी शक्ति तुम्हों हो , तुम्हीं उनकी प्राणेश्वरी हो - इसमें कोई संशय नहीं निश्चय ही तुम्हारे ही साथ श्रीकृष्णचन्द्र वृन्दावन में करते हैं । ओह देवि जब तुम्हारा कौमार रूप हो ऐसा विश्वविमोहन है , तब वह तरुण रूप कितना को विलक्षण होगा ।
कहते - कहते नारदका कण्ठ रूद्ध होने लगता है । प्राणों में श्रीराधाके तरुणरूपको देखने की प्रबल उत्कण्डा भर जाती है । वे वहॉपर टैगे मणिपालनेपर श्रीराधाको लिटा देते हैं तथा उनकी ओर देखते हुए बारम्बार प्रणाम करने लगते हैं , तरुणरूपसे दर्शन देनेके लिये प्रार्थना करते हैं । नारदके अन्तर्हृदयमें मानो कोई कह देता है-- देवर्षे ! श्रीकृष्णको वन्दना करो , तभी श्रीकृष्णप्रियतमाके नेत्र तुम्हारी ओर फिरेंगे । देवर्षि कृष्णचन्द्र जय - जयकार कर उठते हैं -
जय कृष्ण मनोहारिन् जय वृन्दावनप्रिय जय भूभङ्गललित जय वेणुरवाकुल ॥
जय बर्हकृतोत्तंस जय गोपीविमोहन । जय कुङ्कुमलिप्ताङ्ग जय रत्नविभूषण ॥
- बस , इसी समय दृश्य बदल जाता है । मणिपालनेपर विराजित वृषभानुकुमारी अन्तर्हित हो जाती तथा नारदके सामने किशोरी श्रीराधाका आविर्भाव हो जाता है । इतना ही नहीं , दिव्य भूषण - वसनसे ज्जित अगणित सखियाँ भी वहाँ प्रकट हो जातीं हैं , श्रीराधाको घेर लेती हैं । वह रूप ! वह सौन्दर्य ! - रदके नेत्र निमेषशून्य एवं अंग निश्चेष्ट हो जाते हैं , मानो नारद सचमुच अन्तिम अवस्थामें जा पहुँचे हों । राधाचरणाम्बुकणिकाका स्पर्श कराकर एक सखी देवर्षिको चैतन्य करती है और कहती है - ' मुनिवर्य ! अनन्त सौभाग्यसे श्रीराधाके दर्शन तुम्हें हुए हैं । महाभागवतोंको भी इनके दर्शन दुर्लभ हैं । देखो , ये अब तुम्हारे सामनेसे फिर अन्तर्हित हो जायँगी , प्रदक्षिणा करके नमस्कार कर लो । जाओ । गिरिराज परिसरमें , कुसुमसरोवरके तटपर एक अशोकलता फूल रही है , उसके सौरभसे वृन्दावन सुवासित हो रहा है , वहाँ उसके नीचे हम सबोंको अर्द्धरात्रिके समय देख पाओगे । '
श्रीराधाका वह कैशोररूप अन्तर्हित हो गया । बाल्यरूपसे रत्नपालनेपर वे पुनः प्रकट हो गयीं । द्वारपर खड़े वृषभानु प्रतीक्षा कर रहे थे । जय - जयकारकी ध्वनि सुनकर आश्चर्य कर रहे थे । अश्रुपूरित कण्ठसे देवर्षिने पुकारा , वे भीतर आ गये । देवर्षि बोले- ' वृषभानु ! इस बालिकाका यही स्वभाव है ; देवताओंकी सामर्थ्य नहीं कि वे इसका स्वभाव बदल दें । किंतु तुम्हारे भाग्यकी सीमा नहीं ; जिस गृहमें तुम्हारी पुत्रीके चरणचिह्न अंकित हैं , वहाँ लक्ष्मीसहित नारायण , समस्त देव नित्य निवास करते हैं । ' यह कहकर स्खलित गतिसे नारद चल पड़ते हैं । वीणामें राधायशोगानकी लहरी भरते , आँसू बहाते हुए वे अशोकवनकी ओर चले गये ।
उसी दिन कीर्तिदा रानीकी गोदमें पुत्रीको देखकर प्रेमविवश हुए वृषभानु लाड़ लड़ाने लगे । नारदके गानका इतना - सा अंश वृषभानुके कानमें प्रवेश कर गया था ‘ जय कृष्ण मनोहारिन् ! ' जानकर नहीं , लाड़ लड़ाते समय यों ही उनके मुखसे निकल गया - जय कृष्ण मनोहारिन् ! बस , भानुकुमारी श्रीराधा आँखें खोलकर देखने लगीं । वृषभानुके हर्षका पार नहीं , कीर्तिदा आनन्दमें निमग्न हो गयीं ; उन्हें तो पुत्रीको प्रकृतिस्थ करनेका मन्त्र प्राप्त हो गया । इससे पूर्व जब - जब नन्दगेहिनी यशोदा कीर्तिदासे मिलने आयी हैं , तब - तब भानुकुमारीने आँखें खोल - खोलकर देखा है ,
श्रीकृष्णचन्द्र - मिलन
एक दिनकी बात है , भाण्डीर वनमें एक वटके नीचे ब्रजेश्वर नन्द श्रीकृष्णचन्द्रको गोदमें लिये खड़े हैं । अचानक काली घटाएँ घिर आती हैं । वनमें अन्धकार छा जाता है । वायु बड़े वेगसे बहने लगती है । तरु - लताएँ काँप उठती हैं । कदम्ब - तमालपत्र छिन्न हो - होकर गिरने लगते हैं । नन्दबाबाको चिन्ता हो रही है कि श्रीकृष्णकी रक्षा कैसे हो ?
गोपोंका गोचारण निरीक्षण करने वे आ रहे थे । श्रीकृष्णचन्द्र साथ चलनेके लिये मचल गये ; किसी प्रकार नहीं माने , रोने लगे । इसीलिये वे उन्हें साथ ले आये थे । यहाँ वनमें आनेपर गोरक्षकोंको तो उन्होंने दूसरे बनकी गायें एकत्रकर वहाँ ले आनेके लिये भेज दिया , स्वयं उन गायोंकी सँभालके लिये खड़े रहे । इतनेमें यह झंझावात प्रारम्भ हो गया । कोई गोरक्षक भी नहीं कि उसे गायें सँभलाकर वे भवनकी ओर जायँ ; तथा यों ही गायोंको छोड़ भी दें तो जायँ कैसे ? बड़ी - बड़ी बूँदें जो आरम्भ हो गयी हैं । अतः कोई भी उपाय न देखकर ब्रजेश्वर एकान्त मनसे नारायणका स्मरण करने लगते हैं ।
मानो कोटि सूर्य एक साथ उदय हुए हों , इस प्रकार दिशाएँ उन्द्रासित हो जाती हैं ; तथा वह झंझावात तो न जाने कहाँ चला गया ! नन्दराय आँखें खोलकर देखते हैं - सामने एक बालिका खड़ी है । ' हैं हैं ! वृषभानुकुमारी ! तू यहाँ इस समय कैसे आयी , बेटी ! ' ब्रजेश्वरने अचकचाकर कहा । किंतु दूसरे ही क्षण अन्तर्हृदयमें एक दिव्य ज्ञानका उन्मेष होने लगता है , मौन होकर ये वृषभानुनन्दिनीकी ओर देखने लगते हैं - कोटि चन्द्रोंकी द्युति मुखमण्डलपर झलमल- झलमल कर रही है , नौलवसनभूषित अंग हैं ; अंगोंपर कांची , कंकण , हार , अंगद , अंगुरीयक मंजीर यथास्थान सुशोभित हैं ; चंचल कर्णकुण्डल तथा दिव्यातिदिव्य रत्नचूड़ामणिसे किरणें झर रही हैं ; अंगोंके तेजका तो कहना ही क्या है , भानुकुमारीकी अंगप्रभासे ही वन आलोकित हुआ है । नन्दरायको गर्गजीकी वे बातें भी स्मरण हो आय ; पुत्रके नामकरण संस्कारसे पूर्व उन्होंने एकान्तमें वृषभानुपुत्रीकी महिमा , श्रीराधातत्त्वकी बात बतलायी थी ; पर उस समय तो नन्दराय सुन रहे थे और साथ - ही - साथ भूलते जा रहे थे , इस समय उन सबकी स्मृति हो आयी , सबका रहस्य सामने आ गया । अंजलि बाँधकर नन्दरायने श्रीराधाको प्रणाम किया और बोले - ' देवि ! मैं जान गया , पुरुषोत्तम श्रीहरिकी तुम प्राणेश्वरी हो एवं मेरी गोदमें तुम्हारे प्राणनाथ स्वयं पुरुषोत्तम श्रीहरि ही विराजित हैं ; लो , देवि ! ले जाओ ; अपने प्राणेश्वरको साथ ले जाओ । किंतु । ' नन्द कुछ रुक - से गये ; श्रीकृष्णचन्द्र के भीति विजड़ित नयनोंकी ओर उनकी दृष्टि चली गयी थी । क्षणभर बाद बोले - ' किंतु देवि ! यह बालक तो आखिर मेरा पुत्र ही है न ! इसे मुझे ही लौटा देना ।'- नन्दरायने श्रीकृष्णचन्द्रको श्रीराधाके हस्तकमलॉपर रख दिया । श्रीराधा श्रीकृष्णचन्द्रको गोदमें लिये गहन वनमें प्रविष्ट हो गयीं ।
वृन्दावनकी भूमिपर गोलोकका दिव्य रासमण्डल प्रकट होता है । श्रीराधा नन्दपुत्रको लिये उसी मण्डपमें चली आती हैं । सहसा नन्दपुत्र श्रीराधाकी गोदसे अन्तर्हित हो जाते हैं । वृषभानुनन्दिनी विस्मित होकर सोचने लगती हैं — नन्दरायने जिस बालकको सौंपा था - वह कहाँ चला गया ? इतनेमें गोलोकविहारी नित्यकैशोरमूर्ति श्रीकृष्णचन्द्र दीख पड़ते हैं । अपने प्रियतमको देखकर वृषभानुनन्दिनीका हृदय भर आता है , प्रेमावेशसे वे विह्वल हो जाती हैं । श्रीकृष्णचन्द्र कहने लगते हैं — ' प्रिये ! गोलोककी वे बातें भूल गयी हैं या अभी भी स्मरण हैं ? मुझे भी भूल गयी क्या ? मैं तो तुम्हें नहीं भूला । तुम्हें भूल जाऊँ , यह मेरे लिये असम्भव है । मेरे प्राणोंकी रानी ! तुमसे अधिक प्रिय मेरे पास कुछ हो , तब तो तुम्हें भूलूँ । तुम्हीं बताओ , प्राणोंसे अधिक प्यारी वस्तुको कोई कैसे भूल सकता है ? "
इस प्रकार रसिकेश्वर राधानाथ अपनी प्रियाको अतीतकी स्मृति दिलाकर , स्वरूपकी स्मृति कराकर , उन्होंक नामकी सुधासे उनको सिक्तकर प्रियतमा श्रीराधाका आनन्दवर्द्धन करने लगते हैं । राधाभावसिन्धुमें भी तरंगें उठने लगती हैं , भावके आवर्त बन जाते हैं ; आवर्त राधानाथको रसके अतलतलमें डुबाने ही जा रहे थे कि उसी समय माला - कमण्डलु धारण किये जगद्विधाता चतुर्मुख ब्रह्मा आकाशसे नीचे उतर आते हैं ; राधा - राधानाथके चरणोंमें वन्दना करते हैं । पुष्कर - तीर्थमें साठ हजार वर्षोंतक विधाताने श्रीकृष्णचन्द्रकी आराधना की थी , राधाचरणारविन्द - दर्शनका वर प्राप्त किया था । उसी वरकी पूर्तिके लिये एवं राधानाथकी मनोहारिणी लीलामें एक छोटा - सा अभिनय करनेके लिये योगमायाप्रेरित वे ठीक उपयुक्त समयपर आये हैं ।
अस्तु , श्रीराधा एवं राधानाथको प्रणामकर दोनोंके बीचमें विधाता अग्नि प्रज्वलित करते हैं । अग्निमें विधिवत् हवन करते हैं । फिर विधाताके द्वारा बताये हुए विधानसे स्वयं रासेश्वर हवन करते हैं । इसके पश्चात् रासेश्वरी - रासेश्वर दोनों ही सात बार अग्नि - प्रदक्षिणा करते हैं , अग्निदेवको प्रणाम करते हैं । विधाताकी आज्ञा मानकर श्रीराधा एक बार पुनः हुताशन - प्रदक्षिणा करके श्रीकृष्णचन्द्र के समीप आसन ग्रहण करती हैं । ब्रह्मा श्रीकृष्णचन्द्रको श्रीराधाका पाणिग्रहण करने के लिये कहते हैं तथा श्रीकृष्णचन्द्र राधा - हस्तकमलको अपने हस्तकमलपर धारण करते हैं । हस्तग्रहण होनेपर श्रीकृष्णचन्द्रने सात वैदिक मन्त्रोंका पाठ किया । इसके पश्चात् श्रीराधा अपना हस्तकमल श्रीकृष्ण वक्षःस्थलपर एवं श्रीकृष्णचन्द्र अपना हस्तपदा श्रीराधाके पृष्ठदेशपर रखते हैं तथा श्रीराधा मन्त्र समूहका पाठ करती हैं । आजानुलम्बित दिव्यातिदिव्य पारिजातनिर्मित कुसुममाला श्रीराधा श्रीकृष्णचन्द्रको पहनाती हैं , एवं श्रीकृष्णचन्द्र सुन्दर मनोहर वनमाला श्रीराधाके गले में डालते हैं । यह हो जानेपर कमलोद्भव श्रीराधाको श्रीकृष्णचन्द्रके वामपार्श्वमें विराजितकर , दोनोंके अंजलि बाँधनेकी प्रार्थनाकर , दोनोंके द्वारा पाँच वैदिक मन्त्रोंका पाठ कराते हैं । अनन्तर श्रीराधा श्रीकृष्णचन्द्रको प्रणाम करती हैं , जैसे पिता विधिवत् कन्यादान करे , वैसे सारी विधि सम्पन्न करते हुए विधाता श्रीराधाको श्रीकृष्ण करकमलों में समर्पित करते हैं । आकाश दुन्दुभि , पटह , मुरज आदि देव - वाद्योंकी ध्वनिसे निनादित होने लगता है , आनन्दनिमग्न देववृन्द पारिजातपुष्पोंकी वर्षा करते हैं ; गन्धर्व मधुर गान आरम्भ करते हैं , अप्सराएँ मनोहर नृत्य करने लगती हैं । व्रजगोपोंके , व्रजसुन्दरियोंके सर्वथा अनजानमें ही इस प्रकार वृषभानुनन्दिनी एवं नन्दनन्दनकी विवाहलीला सम्पन्न हो गयी ।
भाण्डीर - वनके उन निकुंजोंमें रसकी तरंगिणी बह चली ; रासेश्वरी श्रीराधा , रासेश्वर श्रीकृष्ण- दोनों ही आनन्दविभोर होकर उसमें बह चले । जब इस स्रोतमें अन्य रसधाराएँ आकर मिलने लग- भावसन्धिका समय आया तो श्रीराधाको बाह्यज्ञान हुआ । वृषभानुनन्दिनी देखती हैं- मेरी गोदमें नन्दरायने जिस पुत्रको सौंपा था , वह तो है ; शेष सब स्मृतिमात्र । श्रीकृष्णचन्द्रकी वह कैशोर - मूर्ति अन्तर्हित हो गयी है , पुनः वे बालकरूप हो गये हैं ।
नन्दनन्दनको श्रीराधा यशोदारानीके पास ले जाती हैं । ' मैया ! वनमें झंझावात आरम्भ हो गया था ; बाबा बोले - ' तू इसे ले जा , घर पहुँचा दे । ' बड़ी वर्षा हुई है ; देखो , मेरी साड़ी सर्वथा भीग गयी है । मैं अब जाती हूँ ; घरसे आये मुझे बहुत देर हो गयी है , मेरी मैया चिन्तित होगी ; श्रीकृष्णको सँभाल लो'- यह कहकर वृषभानुनन्दिनीने श्रीकृष्णचन्द्रको यशोदारानीकी गोदमें रख दिया और स्वयं वृषभानुपुरकी ओर चल पड़ीं । यशोदारानीने देखा - साड़ी वास्तवमें सर्वथा आर्द्र है , प्रबल उत्कण्ठा हुई कि दूसरी साड़ी पहना दूँ , किंतु मैयाका शरीर निश्चेष्ट - सा हो गया- ओह ! कीर्तिदाकी पुत्री इतनी सुन्दर है । मैया इस सौन्दर्य प्रतिमाकी ओर देखती ही रह गयीं और प्रतिमा देखते ही देखते उपवनके लताजालमें जा छिपी ।
मैंने पुत्रको घर भेज दिया है । वहाँ भाण्डीरवनमें ब्रजेश्वर नन्दको इतनी ही स्मृति है कि वर्षाका ढंग हो रहा था , भानुकुमारीके साथ मैना पुत्र को भेज दिया है ।
क्रमश
हरिशरणम हरिशरणम हरिशरणम
BHOOPAL MISHRA
SANATAN VEDIC DHARMA KARMA
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