Angera ji Maharaj श्री अंगिरा जी

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 श्री अंगिराजी।    श्री अंगिरा  जी महाराज 

  महर्षि अगिरा भी ब्रह्माके एक मानसपुत्र और प्रजापति हैं । इनकी तपस्या और उपासना इतनी तीव्र थी कि इनका तेज और प्रभाव अग्निको अपेक्षा भी अधिक बढ़ गया । उस समय अग्निदेव भी जलमें रहकर तपस्या करते थे । जब उन्होंने देखा कि अगिराके तपोबलके सामने मेरी तपस्या और प्रतिष्ठा तुच्छ हो रही है , तब बड़े सन्ताप और ग्लानिके साथ वे महर्षि अंगिराके पास आये । महर्षि अंगिराने उनके विवादका अनुभव करके कहा- ' आपके सन्तप्त होने का कोई कारण नहीं है , आप बड़ी प्रसन्नता के साथ लोगों का कल्याण करें । '

 अग्निाकर कहा- ' भेरी कीर्ति नष्ट हो रही है । अब मुझे कोई अग्नि कहकर सम्मान नहीं करेगा । आप प्रथम अग्नि हैं और मैं द्वितीय अग्नि हूँ । उस समय महर्षि अंगिराने कहा- आप अग्निके रूप में देवताओंको भोजन पहुँचायें और स्वर्ग चाहनेवालों को उनका मार्ग बतायें तथा अपनी दिव्य ज्योतिद्वारा मुमुक्षुओंका अन्तःकरण शुद्ध करें मैं आपको पुत्र के रूप में वरण करता हूँ । ' अग्निदेवने बड़ी प्रसन्नता के साथ उनकी बात स्वीकार की और बृहस्पति नामसे उनके पुत्र के रूप में प्रसिद्ध हुए । 

कहीं - कहीं ऐसी कथा भी आती है कि अंगिरा अग्निके हापुण्यास आरोष शुकदेव शौनक आदि - इन परमभागको मैं नमस्कार करता हूँ । पुत्र हैं । यह बात कल्पभेदों ही बन सकती है । इनकी पत्नी दक्षप्रजापतिकी पुत्री स्मृति थीं , जिनसे अनेकों पुत्र और कन्याएँ उत्पन्न हुई । 

शिवपुराणमें ऐसी कथा आती है कि युग युगमें भगवान शिव व्यासावतार ग्रहण करते हैं । उनमें वाराहकल्प में वेदोंके विभाजक , पुराणोंके प्रदर्शक और ज्ञानमार्गक उपदेशक अंगिरा ही व्यास थे । वाराहकल्पके नवें द्वापर में महादेवने ऋषभ नामसे अवतार ग्रहण किया था । उस समय उनके पुत्ररूपमें महर्षि अंगिरा थे । एक बार भगवान् श्रीकृष्णाने व्याप्रपाद ऋषिके आश्रमपर महर्षि अंगिरासे पाशुपतयोगकी प्राप्तिक लिये बड़ी दुष्कर तपस्या की थी । इनके पुत्रोंमें बृहस्पति - जैसे ज्ञानी और अनेको मन्त्रद्रष्टा थे । ये बहुधा देवर्षि नारदके साथ विचरते रहते हैं और वृत्रासुरके पूर्वजन्ममें जबकि वह चित्रकेतु था , इन्होंने उसकी इच्छा पूर्ण करनेके लिये उसे पुत्र प्रदान किया और पुत्रके मर जानेपर उसे संसारसे वैराग्यका उपदेश करके भगवत्प्राप्तिका मार्ग बताया , जिससे चित्रकेतुको भगवत्प्रेमकी प्राप्ति हुई । अभी थोड़े दिन हुए महर्षि अंगिरारचित एक ' भक्तिदर्शन प्राप्त हुआ है । उसमें भक्तिशास्त्रकी बड़ी ही मार्मिक और पूर्ण व्याख्या हुई है । एक महर्षि अंगिराकी स्मृति भी है , जिसमें धर्म - कर्मका बड़ा सुन्दर निरूपण हुआ है । संक्षेपमें महर्षि अंगिरा सप्तर्षियों में एकके रूपमें जगत्का धारण करते हैं तथा ज्ञान , भक्ति और कर्मके विस्तारके द्वारा सुप्त जीवोंको जाग्रत् करके भगवान्‌की ओर अग्रसर करते हैं । पुराणों में इनका चरित्र भी विस्तारसे मिलता है । 

श्री श्रृंगी ऋषिजी

 इनके जन्मको कथा इस प्रकारसे है कि एक बार विभाण्डकमुनि एक कुण्डमें समाधि लगाये बैठे थे । उसी समय उर्वशी अप्सरा उधरसे आ निकली । उसे देखकर उनका वीर्य स्खलित हो गया , जिसे जलके साथ एक प्यासी मृगी पी गयी । उस मृगीसे इनका जन्म हुआ । माताके समान इनके सिरपर भी एक सींग थी , अतः इनका नाम ऋष्यशृंग पड़ा । ये सदा बनमें अपने पिता विभाण्डकके पास रहनेके कारण किसी स्त्री अथवा पुरुषको नहीं जानते थे । इस प्रकार इन्हें ब्रह्मचर्यपूर्वक रहने , अग्नि और पिताकी सेवा करते बहुत काल बीत गया । उसी समय अंगदेशमें रोमपाद नामक प्रतापी राजा हुए उनके राज्यमें बड़ा भयानक दुर्भिक्ष पड़ा । प्रजा भूखों मरने लगी । राजाने सुविज्ञ वेदज्ञ ब्राह्मणोंसे अपने कर्मोंका , जिसके कारण राज्यमें वर्षा नहीं हो रही है , प्रायश्चित्त पूछा । उन ब्राह्मणोंने राजाको यह उपाय बताया कि आप जैसे बने तैसे विभाण्डकमुनिके पुत्र ऋष्यश्रृंगको यहाँ ले आइये और उनका सत्कार करके यथाविधि उनके साथ अपनी कन्या शान्ताका विवाह कर दीजिये । 

राजा चिन्तित हुए कि ऋषिको कैसे यहाँ लाया जाय ? बहुत सोच - विचारकर उन्होंने अपने पुरोहित और मन्त्रियों से कहा कि आप लोग जाकर ऋषिकुमारको ले आयें । परंतु उन लोगोंने निवेदन किया कि हम लोग वहाँ जानेमें विभाण्डकऋषिके शापसे डरते हैं । अतः स्वयं न जाकर किसी अन्य उपायसे उनको यहाँ ले आयेंगे , जिससे हमको दोष न लगे । मन्त्री और पुरोहितोंने निर्विघ्न कृतकार्य होनेका यह उपाय बताया कि रूपवती वेश्याएँ सत्कारपूर्वक भेजी जायँ । वे अपने कौशलसे उन्हें ले आयेंगी । राजाने वैसा ही उपाय करनेको कहा । वेश्याएँ भेजी गयीं । आश्रमके निकट पहुँचकर वे धीर ऋषिपुत्रके दर्शनका प्रयत्न करने लगीं । ऋष्यश्रृंगने आजतक स्त्री , पुरुष , नगर या राज्यके अन्य जीवोंको कभी नहीं देखा था । दैवयोगसे वे एक दिन उस जगह पहुँचे , जहाँ वेश्याएँ टिकी हुई थीं । तब मधुर स्वरसे गाती हुई वे सब उनके पास आकर बोलीं कि आप कौन हैं ? और किसलिये इस निर्जन वनमें अकेले फिरते हैं ? उन्होंने अपना पूरा परिचय दिया और उनको अपने आश्रमपर लिवा ले जाकर अर्ध्य - पाद्य , फल - मूलसे उनका सत्कार किया । वेश्याओंने भी उनको तरह - तरहको मिठाइयाँ यह कहकर खिलाय कि ये हमारे यहाँके फल हैं , इनको चखिये । फिर  उनका आलिंगनकर वे विभाण्डकजीके भयसे झूठ - मूठ व्रतका बहाना बनाकर वहाँसे चली आयीं । वेश्याओं के जानेसे ऋष्यशृंगजी उदास हो गये ।

 दूसरे दिन वे फिर वहाँ पहुँचे , जहाँ पहले दिन मनको मोहनेवाली उन वेश्याओंसे भेंट हुई थी । इनको देखकर वेश्याएँ प्रसन्न हुई और इनसे बोलीं कि आइये , आप हमारा भी आश्रम देखिये , यहाँकी अपेक्षा वहाँ इससे भी उत्तम फल मिलेंगे और अधिक उत्तम सत्कार होगा । ये वचन सुनकर वे साथ चलनेको राजी हो गये और वेश्याएँ उनको अपने साथ ले आयीं । उन महात्माके राज्यमें आते ही सहसा जलकी बहुत वर्षा हो गयी , जिससे प्रजा सुखी हुई । वर्षा होनेसे राजा जान गये कि मुनि आ गये । राजाने उनके पास जाकर दण्डवत् प्रणामकर उनका अर्घ्य पाद्यादिद्वारा यथाविधि पूजन किया और उनसे वर माँगा कि वे एवं उनके पिता छलपूर्वक लाये जानेके कारण राजापर कोप न करें । फिर राजा उन्हें अपने रनिवासमें ले गये । और अपनी पुत्री शान्ताका विवाह उनसे कर दिया । ऋष्यशृंग वहीं शान्ताके साथ रहने लगे । 

अंगनरेश रोमपादजी श्रीअयोध्यानरेश महाराज दशरथजीके मित्र थे । श्रीवसिष्ठजीकी आज्ञाके अनुसार राजा दशरथ पुत्रेष्टियज्ञ कराने के लिये ऋष्यश्रृंगको लेने अंगदेश गये । श्रीरोमपादजीने मित्रभावसे उनका सत्कार किया और उनके अभिप्रायको जानकर ऋष्यशृंगसे शान्तासहित उनके साथ जानेका अनुरोध किया । वे राजी हो गये और उनके साथ श्रीअयोध्या आकर मंगलमुहूर्तमें पुत्रेष्टियज्ञका शुभारम्भ किया गया , जिसमें अग्निदेवने साक्षात् प्रकट होकर दिव्य चरु प्रदान किया , जिसको पाकर रानियोंने गर्भ धारण किया । यथा ' संगी रिषिहि बसिष्ठ बोलावा । पुत्रकाम सुभ जग्य करावा ॥ भगति सहित मुनि आहुति दीन्हें प्रगटे अगिनि चरू कर लीन्हें ॥ 

' श्रीमाण्डव्यजी 

महात्मा माण्डव्यके शापसे साक्षात् धर्मराज ही विदुररूपमें उत्पन्न हुए थे । कथा इस प्रकार है- एक बार राजपुरुषोंद्वारा पीछा किये जानेपर बहुतसे चोर चोरीका माल महर्षि माण्डव्यजीके आश्रम में रखकर स्वयं भी वहीं छिप गये । मुनि ध्यानस्थ थे । उन्हें इस बातकी किंचित् जानकारी नहीं थी । अतः राजपुरुषोंके पूछने पर उन्होंने कुछ नहीं कहा , तब उन राजपुरुषोंने आश्रममें खोज बीन प्रारम्भ की तो चोर एवं चोरीका माल , दोनों ही बरामद हुए । फिर तो उनका मुनिपर भी सन्देह हो गया और चोरोंके साथ उन्हें भी राजाके सम्मुख पेश किया गया । राजाने शूलीपर चढ़ा देनेका हुक्म दे दिया । अन्य चोर तो तत्काल मृत्युको प्राप्त हो गये परंतु महामुनि माण्डव्य शूलीके अग्रभागपर बैठे हुए तप ही करते रहे । बहुत दिनोंतक इस प्रकार तपोधन मुनिको शूलीपर बैठे देखकर राजकर्मचारियोंने जाकर राजासे यह सब समाचार निवेदन किया । राजा तत्काल ही दौड़े आये और विविध प्रकारसे अनुनय - विनयकर अपराधके लिये क्षमा याचना करते हुए मुनिको शूलीसे उतार दिया । शूलकी किंचित् अणी शरीरमें प्रविष्ट हो गयी थी जो निकालनेका प्रयत्न करनेपर भी नहीं निकल सकी तो उसे उतना काट दिया गया । शूलकी अणीको शरीरमें धारण करनेसे आगे चलकर इनका नाम अणीमाण्डव्य पड़ गया ।

 एक बार महर्षिने धर्मराजके पास जाकर उन्हें उलाहना देते हुए कहा- मैंने अनजानेमें कौन - सा ऐसा पाप किया है , जिसके फलका भोग मुझे इस रूपमें प्राप्त हुआ ? मुझे शीघ्र इसका रहस्य बताओ और फिर मेरी तपस्याका फल देखो । धर्मराजने कहा- आपने बाल्यावस्थामें एक पतिंगेके पुच्छभागमें सींक चुभो दिया था , उसीका यह फल मिला । ऋषिने कहा- एक तो बाल्यावस्था में धर्मशास्त्रका ज्ञान नहीं होता , दूसरे तुमने थोड़े - से अपराधमें मुझे बहुत बड़ा दण्ड दिया है , अतः मैं तुम्हें शाप दूँगा । धर्मराजने कहा कि यदि आप  मुझे शाप ही देना चाहते हैं तो कृपाकर राजा , दासीपुत्र एवं चाण्डाल होनेका शाप न दीजियेगा । मुनिने क्रुद्ध होकर कहा- तुम तीनों हो जाओ । इसी शापके फलस्वरूप धर्मराजने राजा युधिष्ठिर , दासीपुत्र विदुर एवं श्वपच भक्तके रूपमें जन्म लेकर मुनिके शापको सफल किया । 


श्रीविश्वामित्रजी 

उद्यमेन हि सिद्ध्यन्ति कार्याणि न मनोरथैः । न हि सुप्तस्य सिंहस्य प्रविशन्ति मुखे मृगाः ॥ " 

महर्षि विश्वामित्रजीके समान सतत लगनके पुरुषार्थी ऋषि शायद ही कोई और हों , इन्होंने अपने पुरुषार्थसे क्षत्रियत्वसे ब्रह्मत्व प्राप्त किया । राजर्षिसे ब्रह्मर्षि बने , सप्तर्षियोंमें अग्रगण्य हुए और वेदमाता गायत्रीके द्रष्टा ऋषि हुए ।

 प्रजापतिके पुत्र कुश हुए । इन्हींके वंशमें एक महाराज गाधि हुए , उन्हींके पुत्र महाराज विश्वामित्र हैं । कुशवंशमें पैदा होनेसे इन्हें कौशिक भी कहते हैं । पहले ये एक बड़े धर्मात्मा प्रजापालक राजा थे । एक बार सेना साथ लेकर ये जंगलमें शिकारके लिये गये । वहाँपर ये भगवान् वसिष्ठके आश्रमपर पहुँचे । भगवान् वसिष्ठने इनकी कुशलक्षेम पूछी और सेनासहित आतिथ्य सत्कार स्वीकार करनेकी प्रार्थना की ।

 विश्वामित्रजीने कहा - ' भगवन् । हमारे साथ हजारों - लाखों सैनिक हैं , आप अरण्यवासी ऋषि हैं , आपने जो फल - फूल दिये , उसीसे हमारा सत्कार हो चुका हम इसी सत्कारसे सन्तुष्ट हैं । 

 महर्षि वसिष्ठने उनसे बहुत आग्रह किया , उनके आग्रहसे इन्होंने सेनासहित आतिथ्य ग्रहण करनेकी स्वीकृति दे दी । वसिष्ठजीने अपने योगबलसे कामधेनुकी सहायतासे समस्त सैनिकोंको भाँति - भाँतिके पदार्थोंसे खूब ही सन्तुष्ट किया । कामधेनुके ऐसे प्रभावको देखकर विश्वामित्रजी चकित हो गये । उनकी इच्छा हुई कि यह धेनु हमें मिल जाय । उन्होंने इसके लिये भगवान् वसिष्ठसे प्रार्थना की । वसिष्ठजीने कहा- ' इसीके द्वारा मेरे यज्ञ - याग , अतिथिसेवा आदि सब कार्य होते हैं , इसे मैं नहीं दूंगा । ' इसपर विश्वामित्रजी जबरदस्ती कामधेनुको ले चले । वसिष्ठजी सब चुपचाप शान्तिपूर्वक देखते रहे । कामधेनुने आज्ञा चाही कि वह अपनी रक्षा स्वयं कर ले । तब उन्होंने स्वीकृति दे दी । कामधेनुने अपने प्रभावसे लाखों सैनिक पैदा किये । विश्वामित्रजीकी सेना भाग गयी । वे पराजित हो गये । इससे उन्हें बड़ी ग्लानि हुई । उन्होंने कहा ' क्षत्रियबल- शारीरिक बलको धिक्कार है , ब्रह्मबल ही सच्चा बल है । ' यह सोचकर उन्होंने राज - पाट छोड़ दिया और घोर तपस्या करने लगे । तपस्यामें भाँति - भाँतिके विघ्न होते हैं । सबसे पहले कामके विघ्न हुए । मेनका अप्सराने उनकी तपस्यामें विघ्न डाला , जब उन्हें होश हुआ तो पश्चात्ताप करते हुए फिर जंगलमें चले गये । वहाँ जाकर घोर तपस्यामें तल्लीन हो गये । कामके बाद क्रोधने विघ्न डाला । त्रिशंकु राजाको गुरु वसिष्ठका शाप था , आपने भगवान् वसिष्ठके वैरको याद करके उसे यज्ञ करनेके लिये कह दिया । सभी ऋषियोंको बुलाया । सब ऋषि उनके तपके प्रभावको सुनकर आ गये , किंतु भगवान् वसिष्ठजीके सौ पुत्र नहीं आये । इसपर क्रोधके वशीभूत होकर इन्होंने उन सबको मार डाला । इतनेपर भी वसिष्ठजीने उनसे कुछ नहीं कहा । तब तो उन्हें अपनी भूल मालूम हुई । ओहो ! यह तो मेरी तपस्यामें बड़ा विघ्न हुआ । तपस्वीको क्रोध करना घोर पाप है , वे सब छोड़कर फिर तपस्यामें रत   पश्चात् उन्हें बोध हुआ कि- ' काम और क्रोध हो तपस्यामें बड़े विघ्न हैं । जिन्होंने काम - क्रोधको जीत लिया वही ब्रह्मर्षि है , वही महर्षि है , उसे ही सच्चा ज्ञान है । मैंने भगवान् वसिष्ठका कितना अनिष्ट किया , उनकी कामधेनुको भी जबरदस्ती लेने लगा । तब भी वे चुप रहे । उनके पुत्रोंको मार दिया , तब भी वे कुछ नहीं बोले । मुझमें यही दोष है , मैं भी वैसा ही बनूँगा , अब काम - क्रोधके वशीभूत न हूँगा । ' ऐसा निश्चय करके वे काम - क्रोधको जीतकर बड़ी तत्परतासे तप करने लगे । 

उनके घोर तपसे भगवान् ब्रह्माजी प्रसन्न हुए । वे इनके पास आये और वरदान माँगनेको कहा । इन्होंने कहा - ' यदि आप मुझे योग्य समझें तो ब्रह्मर्षि बननेका आशीर्वाद दें और स्वयं भगवान् वसिष्ठ अपने मुँहसे मुझे ब्रह्मर्षि कह दें । 

इनकी तपस्यासे वसिष्ठजी पहले ही प्रसन्न हो चुके थे । उन्हें पता चल चुका था कि विश्वामित्रजीने तपस्याके प्रभावसे काम - क्रोधको जीत लिया है , इसलिये ब्रह्माजीके कहनेपर उन्होंने बड़े ही आदरसे विश्वामित्रजीको ब्रह्मर्षिकी उपाधि दी । उन्हें गलेसे लगाया , उनके तपकी सच्ची लगनकी - सतत उद्योगकी प्रशंसा की और सप्तर्षियोंमें उन्हें स्थान दिया । उसीके प्रभावसे ये जगत्पूज्य हुए ।

 दशरथजीके यहाँसे भगवान् श्रीरामजीको ले आये , उन्हें सब प्रकारकी विद्याएँ दीं , मिथिला ले जाकर श्रीसीताजीसे विवाह कराया और अन्तमें त्रैलोक्यको कँपानेवाले रावणका वध कराया । महर्षि विश्वामित्रजीका समस्त जीवन तपस्या और परोपकारमें ही व्यतीत हुआ । 

श्रीदुर्वासाजी 

थे महर्षि अत्रिजीके तपसे सन्तुष्ट होकर भगवान् शिव ही दुर्वासारूपसे उनके पुत्र बने थे । रुद्रावतार थे , अतः स्वभावमें रौद्रता स्वाभाविक थी ; परंतु थे परम समर्थ । पुराणों में आपकी बड़ी विलक्षण कथाएँ मिलती हैं । पूर्वमें श्रीअम्बरीषजी एवं द्रौपदीजीके प्रसंगमें इनका स्मरण किया जा चुका है । एक प्रसंग यहाँ भी दिया जा रहा है । एक बार ये यह कहते हुए घूम रहे थे कि मैं दुर्वासा हूँ , दुर्वासा । मुझे निवास करनेके लिये एक स्थान चाहिये । परंतु याद रखना- मुझे तनिकसे भी अपराधपर क्रोध आ जाता है । भला , जानबूझकर कौन विपत्ति बुलाने लगा ? तीनों लोकोंमें किसीने भी अपने यहाँ रखनेका साहस नहीं किया । अन्तमें घूमते घूमते श्रीद्वारका पहुँचे । सबके परमाश्रय भगवान् श्रीकृष्णने इन्हें आदरपूर्वक बुलाकर अपने निजसदन में वास दिया । कभी तो ये हजारों मूर्तियोंका भोजन अकेले ही खा जाते थे , कभी एक बालककी तरह थोड़ा पाकर ही रह जाते थे । कभी दिनमें बाहर निकल जाते तो दिनभर लौटते ही नहीं । भोजन धरा ही रह जाता था । कभी आधी रातको भोजन माँगते । सर्वसमर्थ प्रभुने सब व्यवस्था की । एक दिन उन्होंनेहो गये । बहुत दिनकी घोर तपस्या के 

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