August ji

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                          महर्षि अगस्त्य 

वेदोंके मन्त्रद्रष्टा ऋषि हैं । इनकी उत्पत्तिके सम्बन्धमें विभिन्न प्रकारकी कथाएँ मिलती हैं । कहीं मित्रावरुणके द्वारा वसिष्ठके साथ घड़ेमॅसे पैदा होनेकी बात आती है तो कहीं पुलस्त्यकी पत्नी  भक्ति तथा ज्ञान के प्रकाशक आचार्य इविकि गर्भसे विवके साथ इनकी उत्पत्तिका वर्णन आता है । किसी - किसी प्रत्यके अनुसार स्वायम्भुव पुलस्त्यतनय दत्तोलि ही अगस्त्य के नाम से प्रसिद्ध हुए । ये सभी बातें कल्पभेदसे ठीक उतरती हैं । विशाल जीवनकी समस्त घटनाओंका वर्णन नहीं किया जा सकता । यहाँ संक्षेपत : दो - चार घटनाओं का उल्लेख किया जाता है । 

एक बार विन्ध्याचलने गगनपथगामी सूर्यका मार्ग रोक लिया । इतना ऊँचा हो गया कि सूर्यक आने - जाने का स्थान ही न रहा । सूर्य महर्षि अगस्त्यके शरणागत हुए । अगस्त्यने उन्हें आश्वासन दिया और स्वयं विध्याचलके पास उपस्थित हुए । विन्ध्याचलने बड़ी श्रद्धा - भक्तिसे उन्हें नमस्कार किया । महर्षि अगस्त्यने कहा- ' भैया , मुझे तीर्थो पर्यटन करनेके लिये दक्षिण दिशामें जाना आवश्यक है । परंतु तुम्हारी इतनी ऊँचाई लाँधकर जाना बड़ा कठिन प्रतीत होता है , इसलिये कैसे जाऊँ ? ' उनकी बात सुनते हो विन्ध्याचल उनके चरणोंमें लोट गया । बड़ी सुगमतासे महर्षि अगस्त्यने उसे पार करके कि अब जबतक मैं न लौहूँ तुम इसी प्रकार पड़े रहना । विन्ध्याचलने बड़ी नम्रता और प्रसन्नता के साथ उनकी आज्ञा शिरोधार्य की । तबसे महर्षि अगस्त्य लौटे ही नहीं और विन्ध्याचल उसी प्रकार पड़ा हुआ है । अगस्त्यने जाकर उज्जयिनी नगरीके शूलेश्वरतीर्थकी पूर्व दिशामें एक कुण्डके पास शिवजीकी आराधना की । भगवान् शिवने प्रसन्न होकर उन्हें प्रत्यक्ष दर्शन दिया । आज भी भगवान् शंकरकी मूर्ति वहाँ अगस्त्येश्वरके नामसे प्रसिद्ध है । 

एक बार भ्रमण करते - करते महर्षि अगस्त्यने देखा कि कुछ लोग नीचे मुँह किये हुए कुपैमें लटक रहे हैं । पता लगानेपर मालूम हुआ कि ये उन्हींक पितर हैं और उनके उद्धारका उपाय यह है कि वे संतान उत्पन्न करें । बिना ऐसा किये पितरोंका कष्ट मिटना असम्भव था । अतः उन्होंने विदर्भराजसे पैदा हुई अपूर्व सुन्दरी और परम पतिव्रता लोपामुद्राको पत्नीके रूपमें स्वीकार किया । उस समय इल्वल और वातापी नामके दो दैत्योंने बड़ा उपद्रव मचा रखा था । वे ऋषियोंको अपने यहाँ निमन्त्रित करते और वातापी स्वयं भोजन बन जाता और जब ऋषिलोग खा - पी चुकते तब इल्वल बाहरसे उसे पुकारता और वह उनका पेट फाड़कर निकल आता । इस प्रकार महान् ब्राह्मणसंहार चल रहा था । भला , महर्षि अगस्त्य इसे कैसे सहन कर सकते थे ? वे भी एक दिन उनके यहाँ अतिथिके रूप में उपस्थित हुए और फिर तो सर्वदाके लिये उसे पचा गये । इस प्रकार लोकका महान् कल्याण हुआ। 

 एक बार जब इन्द्रने वृत्रासुरको मार डाला तब कालेय नामके दैत्योंने समुद्रका आश्रय लेकर ऋषि मुनियोंका विनाश करना शुरू किया । वे दैत्य दिनमें तो समुद्र में रहते और रातमें निकलकर पवित्र जंगलोंमें हनेवाले ऋषियोंको खा जाते । उन्होंने वसिष्ठ , च्यवन , भरद्वाज - सभीके आश्रमोंपर जा - जाकर हजारोंकी संख्या में ऋषि - मुनियाँका भोजन किया था । अब देवताओंने महर्षि अगस्त्यकी शरण ग्रहण की , तब उनकी से और लोगों की व्यथा और हानि देखकर उन्होंने अपने एक चुल्लूमें ही सारे समुद्रको पी लिया । तब जाकर कुछ दैत्योंका वध किया और कुछ भागकर पाताल चले गये ।

   एक बार ब्रह्महत्या के कारण इन्द्रके स्थानच्युत होनेके कारण राजा नहुष इन्द्र हुए थे । इन्द्र होनेपर अधिकारके मदसे मत्त होकर उन्होंने इन्द्राणीको अपनी पत्नी बनानेकी चेष्टा की , तब बृहस्पतिकी सम्मतिसे लिने एक ऐसी सवारीसे आनेकी बात कही , जिसपर अबतक कोई सवार न हुआ हो । मदमत्त नहुषने सवारी ढोने के लिये ऋषियोंको ही बुलाया । ऋषियोंको तो सम्मान - अपमानका कुछ खयाल था ही नहीं । सवारीमें जुत गये । जब सवारीपर चढ़कर नहुष चले तब शीघ्रातिशीघ्र पहुँचनेके लिये हाथमें कोड़ा लेकर ' जल्दी चलो । जल्दी चलो । ( सर्प , सर्प ) ' कहते हुए उन ब्राह्मणोंको विताड़ित करने लगे । यह बात महर्षि अगस्त्यसे देखी नहीं गयी । वे इसके मूलमें नहुषका अधःपतन और ऋषियोंका कष्ट देख रहे थे । उन्होंने नहुषको उसके पापोंका उचित दण्ड दिया । शाप देकर उसे एक महाकाय सर्प बना दिया और इस प्रकार समाजकी मर्यादा सुदृढ़ रखी तथा धनमद और पदमदके कारण अन्धे लोगोंकी आँखें खोल दीं । 

भगवान् श्रीराम वनगमनके समय इनके आश्रमपर पधारे थे और इन्होंने बड़ी श्रद्धा , भक्ति एवं प्रेमसे उनका सत्कार किया और उनके दर्शन , आलाप तथा संसर्गसे अपने ऋषिजीवनको सफल किया । साथ ही ऋषिने उन्हें कई प्रकारके शस्त्रास्त्र दिये और सूर्योपस्थानकी पद्धति बतायी । लंकाके युद्धमें उनका उपयोग करके स्वयं भगवान् श्रीरामने उनके महत्त्वकी अभिवृद्धि की । प्रेमलक्षणा भक्तिके मूर्तिमान् स्वरूप भक्त सुतीक्ष्ण इन्हींके शिष्य थे । उनकी तन्मयता और प्रेमके स्मरणसे आज भी लोग भगवान्‌की ओर अग्रसर होते हैं । लंकापर विजय प्राप्त करके जब भगवान् श्रीराम अयोध्याको लौट आये और उनका राज्याभिषेक हुआ तब महर्षि अगस्त्य वहाँ आये और उन्होंने भगवान् श्रीरामको अनेकों प्रकारकी कथाएँ सुनायीं । वाल्मीकीय राम के उत्तरकाण्डकी अधिकांश कथाएँ इन्हींके द्वारा कही हुई हैं । इन्होंने उपदेश और सत्संकल्पके द्वारा अनेकोंका कल्याण किया । इनके द्वारा रचित अगस्त्यसंहिता नामका एक रामोपासना - सम्बन्धी बड़ा सुन्दर ग्रन्थ है । 


                                 महर्षि पुलस्त्य 

महर्षि पुलस्त्य भी पूर्वोक्त ऋषियोंकी भाँति ब्रह्माके मानसपुत्र हैं । ये भी अपनी तपस्या , ज्ञान और दैवी सम्पत्तिके द्वारा जगत्के कल्याणसम्पादनमें लगे रहते हैं । इनका प्रभाव इतना अधिक है कि जब एक बार अपनी दुष्टताके कारण रावणको कार्तवीर्य सहस्रार्जुनके यहाँ बन्दी होना पड़ा था तब इन्होंने उनसे कहा कि इस बेचारेको मुक्त कर दो और इनकी आज्ञा सुनते ही वह सहस्रार्जुन जिसके सामने बड़े - बड़े देवता और वीर पुरुष नतमस्तक हो जाते थे , इनकी आज्ञाका उल्लंघन नहीं कर सका । इनके तपोबलके सामने बरबस उसका सिर झुक गया । पुलस्त्यकी सन्ध्या प्रतीची आदि कई स्त्रियाँ थीं और दत्तोलि आदि कई पुत्र थे । यही दत्तोलि स्वायम्भुव मन्वन्तरमें अगस्त्य नामसे प्रसिद्ध हुए । इन्हीं की एक पत्नी हविर्भूसे विश्रवा हुए थे , जिनके पुत्र कुबेर , रावण आदि हुए । ये योगविद्याके आचार्य माने जाते हैं । ऋषि पुलस्त्यने ही देवर्षि नारदको वामनपुराणकी कथा सुनायी है । जब पराशर क्रुद्ध होकर राक्षसोंके नाशके लिये एक महान् यज्ञ कर रहे थे , तब वसिष्ठके परामर्शसे पुलस्त्यका अनुरोध मानकर उन्होंने यज्ञ बन्द कर दिया , जिससे महर्षि पुलस्त्य उनपर अत्यन्त प्रसन्न हुए और उन्हें अपनी कृपा और आशीर्वादसे समस्त शास्त्रोंका पारदर्शी बना दिया । भगवान्‌के अवतार ऋषभदेवने बहुत दिनोंतक राज्यपालन करनेके पश्चात् अपने ज्येष्ठ पुत्र भरतको राज्य देकर जब वनगमन किया तब उन्होंने महर्षि पुलस्त्यके आश्रम में रहकर ही तपस्या की थी । ब्रह्माके सर्वतत्त्वज्ञ पुत्र ऋभुसे तत्त्वज्ञान प्राप्त करनेवाले निदाघ इन्हीं महर्षि पुलस्त्यके पुत्र थे । ये अब भी जगत्की रक्षा - दीक्षामें तत्पर हैं और पुराणों में इनकी पर्याप्त चर्चा है । संसारमें यत्किंचित् सुख - शान्तिका दर्शन हो रहा है , उसमें इनका बहुत बड़ा हाथ है । 

हरिशरणम हरिशरणम हरिशरणम 

BHOOPAL Mishra 

Bhupalmishra35620@gmail.com 

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