Durvasha ji दुर्वासा जी

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 श्रीदुर्वासाजी महर्षि 

अत्रिजीके तपसे सन्तुष्ट होकर भगवान् शिव ही दुर्वासारूपसे उनके पुत्र बने थे । रुद्रावतार थे अतः स्वभावमें रौद्रता स्वाभाविक थी , परंतु थे परम समर्थ । पुराणों में आपकी बड़ी विलक्षण कथाएँ मिलत हैं । पूर्वमें श्रीअम्बरीषजी एवं द्रौपदीजीके प्रसंगमें इनका स्मरण किया जा चुका है । एक प्रसंग यहाँ भी दिय जा रहा है । एक बार ये यह कहते हुए घूम रहे थे कि मैं दुर्वासा हूँ , दुर्वासा मुझे निवास करने के लिये एक स्थान चाहिये । परंतु याद रखना- मुझे तनिकसे भी अपराधपर क्रोध आ जाता है । भला , जानबूझकर कौन विपत्ति बुलाने लगा ? तीनों लोकोंमें किसीने भी अपने यहाँ रखनेका साहस नहीं किया । अन्तमें घूमते- घूमते श्रीद्वारका पहुँचे । सबके परमाश्रय भगवान् श्रीकृष्णने इन्हें आदरपूर्वक बुलाकर अपने निजसदनमें वास दिया । कभी तो ये हजारों मूर्तियोंका भोजन अकेले ही खा जाते थे , कभी एक बालककी तरह थोड़ा पाकर ही रह जाते थे । कभी दिनमें बाहर निकल जाते तो दिनभर लौटते ही नहीं । भोजन धरा ही रह जाता था । कभी आधी रातको भोजन माँगते । सर्वसमर्थ प्रभुने सब व्यवस्था की । एक दिन इन्होंने अपने ठहरनेके स्थानमें आग लगा दी । सब कुछ जलकर भस्म हो गया अपने दौड़े - दौड़े श्रीकृष्णके पास आकर बोले- मैं अभी - अभी खीर खाना चाहता हूँ । श्रीकृष्णका संकेत पाते ही महारानी श्रीरुक्मिणीजी तुरंत स्वर्णथालमें खीर परोसकर लायीं । दुर्वासाजी थोड़ी - सी खीर खाकर श्रीकृष्णसे बोले- अब इस जूठी खीरको तुरंत अपने अंगोंमें पोत लो और रुक्मिणीजीको भी पोत दो । भगवान्ने वैसा ही किया । 

तदनन्तर मुनिजीने श्रीरुक्मिणीजीको एक रथमें जोतकर , उसपर स्वयं सवार होकर , जिस तरह सारथी घोड़ेको चाबुक मारता है , उसी तरह कोड़े मारते हुए रथ चलाने लगे । रथ राजमार्गसे जा रहा था । भयवश किसीको कुछ कहनेका साहस नहीं हो रहा था । श्रीरुक्मिणीजी अत्यन्त श्रमित होकर जब पृथ्वीपर गिर पड़ों तो आप रथसे कूदकर दक्षिण दिशाकी ओर भागने लगे । पीछे - पीछे श्रीकृष्ण भी दौड़े और कहते जा रहे थे कि ' भगवन् ! प्रसन्न होइये , प्रसन्न होइये । ' तब दुर्वासा खड़े हो गये और बोले- वासुदेव ! तुमने  कोधको जीत लिया है । अब मैं तुमको प्रसन्न होकर वर देता हूँ कि तुम सम्पूर्ण विश्वको प्रिय होओगे , तुम्हारी अक्षयकीर्ति होगी । तुमने पूरे शरीरमें खीर लगायी है , अतः तुम्हारा शरीर समस्त अस्त्र - शस्त्रोंसे अभेद्य रहेगा । किंतु तुमने पैरके तलवेमें खीर क्यों नहीं लगायी ? बस , केवल ये तुम्हारे पादतल निर्भय नहीं बन सके । तत्पश्चात् श्रीरुक्मिणीजीसे बोले- कल्याणी | तुमको रोग तथा जरा नहीं स्पर्श करेगी । तुम्हारी अंगकान्ति कभी म्लान नहीं होगी । इतना कहकर महर्षि अन्तर्धान हो गये । script async src="https://pagead2.googlesyndication.com/pagead/js/adsbygoogle.js?client=ca-pub-8514171401735406" crossorigin="anonymous"> श्रीरुक्मिणीजीको साथ लेकर श्रीकृष्ण घर आये तो देखा कि मुनिके द्वारा जलायी अथवा नष्ट की हुई सभी वस्तुएँ सुरक्षित हैं । ऐसे ही आपके अनेकों चरित्र हैं । 

अट्ठासी हजार ऋषिगण

 ये ऋषिगण श्रीशौनकजीके साथ रहते थे । ये सभी ऊध्वरेता ब्रह्मवादी थे । सूतजीके मुखसे इन लोगोंने पुराणोंका श्रवण किया था । ये ऋषिगण हजारों वर्षोंका श्रवण सत्र करते थे । कलियुगको आया देखकर इन ऋषियोंने श्रीशौनकजीको अपना प्रधान बनाकर नैमिषारण्य में दीर्घकालीन सत्र किया और भगवान्‌की कथाओंका आनन्द लिया । ये लोग हवन आदि नित्यकर्म करके कथा - श्रवणके लिये बैठ जाते और प्रायः सारा समय श्रीसूतजीके मुखारविन्दसे भगवत्कथामृतका श्रवणपुटपान करनेमें ही व्यतीत करते थे । पुराणोंमें आये विविध विषयोंका मनुष्यमात्रको ज्ञान करानेके लिये ही इन करुणापरायण ऋषियोंने यह उपक्रम किया था ।

 श्रीजाबालिजी

 ये एक ब्रह्मर्षि हैं । ये धर्म और नीतिमें बड़े ही निपुण थे , चक्रवर्ती महाराजाधिराज श्रीदशरथजी इनसे मन्त्रणा लिया करते थे । ये उनके यहाँ मन्त्रि पदपर प्रतिष्ठित थे । श्रीमद्वाल्मीकि रामायणमें वर्णन आता है कि जब श्रीभरतलालजी श्रीरामजीको मनाने चित्रकूट गये थे तो ये साथ थे । वहाँपर इन्होंने बड़े ही चातुर्यपूर्ण ढंगसे श्रीरामजीके श्रीमुखसे परमार्थका विवेचन सुननेकी लालसासे स्वार्थको प्राधान्य देते हुए श्रीरामसे घर लौटनेका आग्रह किया है । नीति - प्रीति परमार्थ स्वार्थ सुजान श्रीरामजीने मुनिके भावको जानकर बड़े ही शास्त्रानुमोदित ढंगसे परमार्थका निरूपण किया है ।

 महर्षि जमदग्नि 

विश्वामित्रजीके पिताका नाम गाधि था । गाधि बड़े ही धर्मात्मा राजा थे । उनके सत्यवती नामकी एक कन्या थी । कन्या जब विवाहयोग्य हुई तो महर्षि ऋचीक महाराजके पास आये । ऋचीकमुनिने राजासे सत्यवतीकी याचना की । अरण्यवासी वृद्ध ऋषिको देखकर राजा दुखी हुए । अपनी प्यारी कन्याको ऋषिको कैसे दें ? न दें तो ऋषि शाप दे देंगे । अतः उन्होंने कहा - ' भगवन् ! हमारे वंशमें ऐसी प्रथा है कि कन्याके पतिसे कुछ शुल्क लेते हैं , आप यदि एक हजार श्यामकर्ण सफेद घोड़े हमें दें तो आपके साथ हम अपनी कन्याका विवाह कर दें । ' ऋषि राजाके अभिप्रायको समझ गये , वे योगबलसे वरुणके पास गये और उनसे एक हजार श्यामकर्ण घोड़े लाकर राजाको दे दिये । राजाने विधिपूर्वक सत्यवतीका ऋचीक महामुनिके साथ विवाह कर दिया । 

महाराज गाधिके कोई पुत्र नहीं था । सत्यवतीकी माताने अपनी लड़कीसे कहा- ' तेरे पति सर्वसमर्थ ऋषि हैं , उनसे ऐसा वरदान माँग कि तेरे भाई हो जाय । ' सत्यवतीने अपनी माताकी प्रार्थना ऋचीकमुनिसे क्षात्रधर्मवाली शक्ति स्थापित की और अपनी पत्नीके लिये ब्रह्मशक्ति दोनों चरु वे अपनी पत्नीको देकर कहीं और अपने भी एक पुत्र हो- ऐसी इच्छा प्रकट की । ऋषिने दो चरु मन्त्रबलसे तैयार किये । एकमें गये । माताने समझा कन्यावाला चरु अच्छा होगा , अतः उसने अपनी कन्यावाला चरु खा लिया और  कन्याने मातावाला । ऋषिको जब मालूम हुआ तो उन्होंने कहा- ' तेरी माताके ब्राह्मण तेजवाला पुत्र होगा । और तेरे पुत्र होना चाहिये क्षत्रियकर्मवाला किंतु पुत्र ऐसा न होकर पौत्र ऐसा होगा । ' माताके गर्भसे जो पुत्र हुआ , वह विश्वामित्र मुनि हुए , जो क्षत्रिय होकर भी ब्राह्मण हुए और सत्यवतीके महर्षि जमदग्नि हुए उनके पुत्र परशुरामजी ब्राह्मण होकर भी क्षत्रियकर्मवाले हुए । 

script async src="https://pagead2.googlesyndication.com/pagead/js/adsbygoogle.js?client=ca-pub-8514171401735406" crossorigin="anonymous"> महर्षि जमदग्नि सदा तपस्यामें ही लगे रहते थे । वैदिक कर्मोको करते रहना ही उनका कार्य था । एक बार सहस्रार्जुन शिकार खेलते हुए महर्षि ग्निके आश्रमपर आ पहुॅचे । राजाको देखकर ऋषि शास्त्रकी विधिसे उनका सत्कार किया और सेनासहित उन्हें भोजनके लिये निमन्त्रित किया । महर्षि जमदग्निरे अपनी तपस्याके प्रभावसे कामधेनुद्वारा सम्पूर्ण सेनाको भाँति - भाँतिके भोजनोंसे सन्तुष्ट किया । कामधेनुको ऐसी करामात देखकर राजाने उसे महर्षिसे माँगा । ऋषिने कहा- ' राजन् ! मेरे समस्त यज्ञ - यागके कार्य इसी कामधेनुपर निर्भर हैं । इसे मैं देकर कर्महीन बन जाऊँगा । ' राजाने नहीं माना , वे गौको जबरदस्ती लेकर चले गये । महर्षि चुपचाप बैठे रहे । जब इनके पुत्र परशुरामजीने यह सुना तो वे फरसा लेकर माहिष्मती नगरीमें गये और सहस्रार्जुनको मारकर गौ ले आये और आकर पितासे सब हाल सुनाया । इस बातको सुनकर महर्षि जमदग्नि बड़े दुखी हुए । उन्होंने अत्यन्त दुःखके साथ कहा

 राम राम महाबाहो भवान् पापमकारषीत् । अवधीन्नरदेवं यत् सर्वदेवमयं वृथा ॥ वयं हि ब्राह्मणास्तात क्षमयार्हणतां गताः । यया लोकगुरुर्देवः पारमेष्ठ्यभियात् पदम् ॥

 हे महाबाहो परशुराम ! तुमने यह अच्छा नहीं किया कि सर्वदेवमय राजाका वध कर डाला । हम ब्राह्मणोंका एकमात्र धन क्षमा ही है । बेटा ! क्षमाके ही कारण हम ब्राह्मण जगत्पूज्य हैं । script async src="https://pagead2.googlesyndication.com/pagead/js/adsbygoogle.js?client=ca-pub-8514171401735406" crossorigin="anonymous"> इस क्षमा के ही गुणके कारण लोकपितामह ब्रह्मा जगद्गुरु होकर परमेष्ठी - पदको प्राप्त हुए हैं । 

परम क्षमाशील महर्षि जमदग्नि सुखपूर्वक अपने आश्रममें रहने लगे । उस समयके प्रायः समस्त राजा दुष्ट हो गये थे । राजाओंके रूपमें सभी असुर उत्पन्न हुए थे । सहस्रबाहुके दुष्ट पुत्रोंने तपस्यामें लगे हुए महर्षि जमदग्निका सिर काट लिया और इससे वे दुष्ट प्रसन्न हुए । ऋषिके लिये इसमें दुःखकी कोई बात नहीं थी । वे स्वर्गमें जाकर सप्तर्षियों के साथ बड़े सुखसे रहने लगे । 

जमदग्नि सप्तर्षियोंमेंसे ही एक ऋषि हैं । लेनेके लिये उन्होंने कई बार क्षत्रियवंशका नाश किया । पिताकी मृत्युकी बात सुनकर परशुरामजी अपने क्रोधको नहीं रोक सके और पिताकी मृत्युका बदला आदर्श हैं । वे क्षमाकी तो मूर्ति ही थे । महर्षि जमदग्निकी क्षमा , कार्यतत्परता और अतिथिसत्कार ऐसे गुण हैं , जो समस्त मानवजातिके लिये आदर्श है । वे क्षमा की मुर्ति ही थे ।

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