Maharishi Lomas ji Maharaj

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     श्री लोमश जी महाराज 

ये चिरंजीवी महर्षि हैं ।  शरीरपर बहुतसे रोम होनेके कारण इनको लोमश कहते हैं । द्विपरार्ध व्यतीत होनेपर जब ब्रह्माकी आयु समाप्त होती है तो इनका एक रोम गिरता है । यद्यपि ब्रह्माजीको आयु बहुत बड़ी है । इनका एक कल्प ( हजार चतुर्युगी ) का दिन होता है और इतनी ही बड़ी रात्रि भी होती है । इस प्रकार तीस दिनका महीना और बारह महीनेके सालके हिसाबसे ब्रह्माजीकी सौ बरसकी आयु है , लेकिन श्रीलोमशजीकी दृष्टिमें मानो रोज - रोज ब्रह्माजी मरते ही रहते हैं । एक बार तो अपनी दीर्घायुष्यतासे अकुलाकर इन्होंने भगवान्से मृत्युका वरदान माँगा । प्रभुने उत्तर दिया कि यदि ' जल - ब्रह्म ' की अथवा ब्राह्मणकी निन्दा करो तो उस महापातकसे आप भले ही मर सकते हो , अन्यथा आपके यहाँ कालकी दाल नहीं गलनेवाली है । इन्होंने कहा कि अच्छा ! आश्रममें जाकर मैं वैसा ही करूँगा । मार्गमें इन्होंने थोड़ा सा जल देखा , जो कि शूकरके लोटनेसे अत्यन्त गँदला हो गया था । वहींपर इन्होंने देखा कि एक स्त्री , जिसके गोदमें दो बालक थे , पहले एक बालकको स्तनपान कराकर , फिर अपना स्तन धोकर तब दूसरे बच्चेको स्तन पिला रही है । श्रीलोमशजीने इसका कारण पूछा तो उसने कहा कि यह एक पुत्र तो ब्राह्मणके तेजसे है और दूसरा नीच जातिके मेरे पतिसे जन्मा है । अतएव मैंने ब्राह्मणोद्भव बालकको धोये स्तनका दूध पिलाया है । 

श्रीलोमशजीका नियम था कि वह नित्य ब्राह्मणका चरणोदक लेते थे । आज उन्होंने अभी नहीं लिया । था । दूसरा जल और दूसरा ब्राह्मण मिला नहीं , अतः उन्होंने उसी जलसे ब्रह्मवीर्यसे उत्पन्न उसी बालकका चरणामृत ले लिया । उसी समय प्रभु प्रकट हो गये और बोले कि तुमने जब ऐसे जलको भी आदर दिया और ऐसे ब्राह्मणके चरणसरोजकी भी भक्ति की तो तुम भला जल या विप्रके निन्दक कब हो सकते हो । मैं तुमसे अति प्रसन्न हूँ और आशीर्वाद देता हूँ कि विप्रप्रसादसे तुम चिरंजीव ही बने रहोगे । तभी तो कहा गया है कि- ' हरितोषन व्रत द्विज सेवकाई ॥ 

' ' पुन्य एक जग महुँ नहिं दूजा । मन क्रम बचन बिप्र पद पूजा ॥ '

        श्रीलोमशजी इतने दीर्घायु होकर भी शरीरकी क्षणभंगुरताका निरन्तर अनुसन्धान करते हुए सर्वथा अपरिग्रहपूर्वक सदा सर्वदा हरिचिन्तनमें तल्लीन रहते हैं । ब्रह्मवैवर्तपुराणमें एक कथा आती है कि एक बार देवराज इन्द्रने अपनेको अमर मानकर एक बड़ा विशाल महल बनवाना प्रारम्भ किया । बेचारा विश्वकर्मा पूरे सौ वर्षतक कन्नी - बसुली चलाता रहा , परंतु तब भी जब निर्माण कार्यका पर्यवसान उन्हें नहीं दीख पड़ा तो घबराकर वह मन - ही - मन ब्रह्माजीकी शरण गया । ब्रह्माजीने भगवान्‌से प्रार्थना की । भगवान् एक ब्राह्मण - बालकका रूप धारणकर इन्द्रके पास पहुँचे और पूछा देवेन्द्र ! आपके इस निर्माण कार्यमें कितने विश्वकर्मा लगे हैं और कबतक यह पूर्ण होगा ? इन्द्र तो आजतक एक ही विश्वकर्माको जानते थे । यह प्रश्न सुनकर कुछ चकराकर पूछा- क्या विश्वकर्मा भी कई हैं ? तब बालकरूपधारी भगवान्ने इन्द्रसे सृष्टिका आनन्त्य वर्णन करते हुए नीचे जाते हुए दो सौ गज लम्बे - चौड़े चौंटोंके समुदायकी ओर उनका ध्यान आकृष्ट किया और कहा कि ये सब पहले कभी इन्द्र हो चुके हैं । पुण्य क्षीण होनेपर अब इस गतिको प्राप्त हैं । इन्द्रके पाँवके नीचेकी जमीन खिसक गयी । भगवान् यह कह ही रहे थे कि महर्षि लोमश भी सिरपर चटाई रखे वहाँ आ पहुँचे । वस्तुतस्तु भगवान्ने उनका स्मरण किया था । इन्द्रने यथोचित सत्कार किया । तदनन्तर भगवान्ने जब मुनिसे सिरपर चटाई रखने एवं वक्षःस्थलपरके रोमरिक्त स्थानके रहस्यको जानने की इच्छा १८ ९ भक्ति तथा ज्ञान प्रकाशक आचार्य को तो मुक्नेि बड़ी शान्तिपूर्वक कहा- जोवन क्षणभंगुर है । इस पोड़ी सी आयुके लिये संग्रह परिग्रह तथा कुटिया आदि बनानेको कौन खटपन करे यह चटाई मुझे पर्याप्त छाया दे देती है । मैंने अपनी आँखों न जाने कितने और का विनाश देखा है । इनकी मृत्युपर मेरा एक रोम गिर जाता है । यही विचारकर मैं समस्त जगत्प्रपंचसे मुँह मोड़कर , भगवन्नामका एकमात्र सहारा लेकर , पर्यटन करता रहता हूँ । इन्द्रको अपनी भूल समझमें आ गयी और उन्होंने निर्माण कार्य बन्द कर दिया । 

एक बार बोलोमशजीने श्रीनारदजीसे पूछा- आप कहाँसे आ रहे हैं ? श्रीनारदजीने कहा- मैं नित्यप्रति भगवान् श्रीरामका दर्शन करने लोअयोध्या जाता हूँ । श्रीमद्‌गोस्वामी तुलसीदासजी ने भी लिखा है- ' 

नारदादि सनकादि मुनीसा । दरसन लागि कोसलाधीसा ॥ दिन प्रति सकल अजोध्या आवहिं देखि नगरु बिरागु बिसरावहिं ॥ 

 श्री लोमशजी काकभुसुण्डिजीकी तरह श्रीनारदजीको भी ब्रह्मानका उपदेश करने लगे । श्रीनारदजीको यह उपदेश नहीं रूचा भगवान् शिकायत की , तब भगवान ने इन्हें भी मार्कण्डेयजी की तरह मायाका दर्शन कराया । इन्होंने माया के प्रलय पयोधि मे डूबते उतराते बैकुण्ठ में पहुँचकर भगवान् विष्णुसे रक्षाको प्रार्थना की तो भगवान् विष्णुने कहा- हम तो एक ब्रह्माण्ड के पालक हैं और यह माया अनन्तकोटि ब्रह्माण्ड नायक  रामजी की  है , अतः आप श्रीरामजी की शरण ग्रहण करें । लोमशजो जिस भी ब्रह्माण्डमें पहुँचते वहाँ यही आदेश होता , तब भटकते - भटकते जब ने श्रीअयोध्याजी पहुंचे तो इन्होंने प्रथम सरजूजीमें स्नान किया , तब श्रीरघुनाथजीका दर्शन हुआ । ' नाहि चाहि ' कहकर ये चरणों में पड़े , तब मायासे छूटे । फिर तो इन्होंने खूब श्रीरामजीका यश गाया । जो लोगशरामायणके नामसे प्रसिद्ध है । 


                           श्रीभृगुजी 

भृगु ब्रह्माजीके मानसपुत्रोमेंसे एक हैं । ये एक प्रजापति भी हैं । चाक्षुष मन्वन्तरमें इनकी सप्तर्षियोंमें गणना होती है । इनकी तपस्याका अमित प्रभाव है । दक्ष की कन्या ख्यातिको इन्होंने पत्नीरूपसे स्वीकार किया । उनसे धाता - विधाता नामके दो पुत्र और ' श्री ' नामको एक कन्या हुई । इन्हों श्री का पाणिग्रहण भगवान् नारायणने किया था । इनके और बहुत सी संतान है , जो विभिन्न मन्वन्तरोग सप्तर्षि हुआ करते हैं । वाराहकल्पके दसवें द्वापर में महादेव ही भृगुके रूप में अवतीर्ण होते हैं । कहीं कहीं स्वायम्भुव मन्वन्तरके सप्तर्षियोंमें भी भृगुको गणना है । सुप्रसिद्ध महर्षि च्यवन इन्हीं के  पुत्र हैं । इन्होंने अनेकों यज्ञ किये कराये हैं और अपनी तपस्या के प्रभाव से अनेकोंको सन्तान प्रदान की है । ये श्रावण और भाद्रपद दो महीनों में भगवान् सूर्यके रथ पर निवास करते हैं । प्रायः सभी पुराणो मे  महर्षि भृगु की  चर्चा आयी है । उसका अशेषत : वर्णन तो किया ही नहीं जा सकता । हाँ , उनके जीवनकी एक बहुत प्रसिद्ध घटना , जिसके कारण सभी याद करते हैं , यहाँ दी जा रही है

एक बार सरस्वती नदी के तट पर ऋषिगण की भीङ थी ।

 उसमे बिवाद छिङ गया कि ब्रह्मा विष्ण  और महेश - इन तीनोंगें कौन बड़ा है ? इसका जब कोई सन्तोषजनक समाधान नही मिला, तब इस बात का पता लगाने के लिये महर्षि  भृगु ही चुने गए। ये  पहले ब्रह्म  के सभा मे  गये और वहाँ अपने पिताको न तो नमस्कार किया और न स्तुति की । अपने पुत्र की इस अवहेलना को देखकर ब्क्षब्रह्मा जी के मन बङा क्रोध आया।परन्त ा अपना पुत्र समझकर क्षमा कर दिया। 

इसके बाद ये कैलास पर्वत पर अपने बड़े भाई रुद्र देव के पास आए, अपने भाई को आते देखकर आलिंगन करने के लिये वे बड़े प्रेमसे आगे बड़े , परंतु तुम उन्मादी होउनसे मिलना अस्वीकार कर दिया । उन्हें बड़ा क्रोध आया और वे त्रिशूल उठाकर मारनेके लिये दौड़ पड़े अन्ततः पार्वतीने उनके चरण पकड़कर प्रार्थना की और क्रोध शान्त किया ।

 अब विष्णुभगवान्की बारी आयी । ये बेखटके वैकुण्ठमें पहुँच गये । वहाँ ब्राह्मण भक्तोंके लिये कोई रोक - टोक तो है नहीं । ये पहुँच गये भगवान्‌के शयनागारमें उस समय भगवान् विष्णु सो रहे थे और भगवती लक्ष्मी उन्हें पंखा झल रही थीं , उनकी सेवामें लगी हुई थीं । इन्होंने बेधड़क वहाँ पहुँचकर उनके वक्षःस्थलपर एक लात मारी । तुरंत भगवान् विष्णु अपनी शय्यापरसे उठ गये और इनके चरणोंपर अपना सिर रखकर नमस्कार किया और कहा ' भगवन् ! आइये , आइये , विराजिये , आपके आनेका समाचार न जाननेके कारण ही आपके स्वागतसे वंचित रहा । क्षमा कीजिये ! क्षमा कीजिये ! कहाँ तो आपके कोमल चरण और कहाँ यह मेरी वज्रकर्कश छाती ! आपको बड़ा कष्ट हुआ । ' यह कहकर उनके चरण अपने हाथों दबाने लगे । उन्होंने कहा- ' ब्राह्मण देवता ! आज आपने मुझपर बड़ी कृपा की । आज मैं कृतार्थ हो गया । अब ये आपके चरणोंकी धूलि सर्वदा मेरे हृदयपर ही रहेगी । ' कुछ समय बाद महर्षि भृगु वहाँसे लौटकर ऋषियोंकी मण्डलीमें आये और अपना अनुभव सुनाया । इनकी बात सुनकर ऋषियोंने एक स्वरसे यह निर्णय किया कि जो सात्त्विकताके प्रेमी हैं , उन्हें हमें भगवान्‌की स्मृति प्रदान करती है । एकमात्र भगवान् विष्णुका ही भजन करना चाहिये । महर्षि भृगुका साक्षात् भगवान्से सम्बन्ध है , इनकी स्मृति हमे भगवान की स्मृति प्रदान करती है ।

हरिशरणम हरिशरणम हरिशरणम 
BHOOPAL MISHRA 
SANATAN VEDIC DHARMA KARMA 
BHUPALMISHRA35620@GMAIL.COM 

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