श्रीसंजयजी
श्रीमद्भगवद्गीतामें संजय प्रधान व्यक्ति हैं । संजयके मुखसे ही श्रीमद्भगवद्गीता धृतराष्ट्रने खुली और संजय विद्वान् गावल्गण नामक सूतके पुत्र थे । ये बड़े शान्त , शिष्ट , ज्ञान - विज्ञानसम्पन्न , सदाचारी , निर्भर सत्यवादी , जितेन्द्रिय , धर्मात्मा , स्पष्टभाषी और श्रीकृष्ण के परम भक्त तथा उनको तत्व से जाननेवाले हैं ।
अर्जुनके साथ संजयकी लड़कपनसे मित्रता थी ; इसीसे अर्जुनके उस अन्तःपुरमें , जहाँ अभिमन्यु और नकुल सहदेवका भी प्रवेश निषिद्ध था , संजयको प्रवेश करनेका अधिकार था । जिस समय संजय कौरवोंकी ओरसे पाण्डवोंके यहाँ गये थे , उस समय अर्जुन और भगवान् श्रीकृष्ण अन्तःपुरमें थे । वहीं देवी द्रौपदी और महाभागा सत्यभामाजी भी थीं । संजयने वापस जाकर वहाँका वर्णन सुनाते हुए धृतराष्ट्रसे कहा था- ' मैंने अर्जुनके अन्तःपुरमें जाकर देखा कि भगवान् श्रीकृष्ण अपने दोनों चरण अर्जुनकी गोदमें रखे हुए हैं तथा अर्जुनके चरण द्रौपदी और सत्यभामाकी गोदमें हैं । अर्जुनने बैठनेके लिये एक सोनेका पादपीठ ( पैर रखनेकी चौकी ) मेरी ओर सरका दी । मैं उसे हाथसे स्पर्श करके जमीनपर बैठ गया । उन दोनों महापुरुषोंको इस प्रकार अत्यन्त प्रेमसे एक आसनपर बैठे देखकर मैं समझ गया कि ये दोनों जिनकी आज्ञामें रहते हैं , उन धर्मराज युधिष्ठिरके मनका संकल्प ही पूरा होगा । '
महाभारत युद्ध आरम्भ होनेसे पूर्व त्रिकालदर्शी भगवान् व्यासने धृतराष्ट्रके पास जाकर युद्धका अवश्यम्भावी होना बतलाते हुए यह कहा कि ' यदि तुम युद्ध देखना चाहो तो मैं तुम्हें दिव्य दृष्टि देता हूँ । " धृतराष्ट्रने अपने कुलका नाश देखनेकी अनिच्छा प्रकट की , पर श्रीवेदव्यासजी जानते थे कि इससे युद्धकी बातें जाने - सुने बिना रहा नहीं जायगा । अतएव वे संजयको दिव्य दृष्टि देकर कहने लगे कि ' युद्धकी सब घटनाएँ संजयको मालूम होती रहेंगी , वह दिव्य दृष्टिसे सर्वज्ञ हो जायगा और प्रत्यक्ष परोक्ष या दिन - रातमें जहाँ जो कोई घटना होगी - यहाँतक कि मनमें चिन्तन की हुई भी सारी बातें संजय जान सकेगा । ' ( महा ० भीष्म ० अ ० २ ) तदनुसार संजयने पहले दोनों ओरकी सेनाओंका वर्णन करके फिर गीता सुनाना आरम्भ किया । गीता भीष्मपर्वके २५ वैसे ४२ वें अध्यायतक है । इसके बाद जब कौरवोंके प्रथम सेनापति भीष्मपितामह दस दिनोंतक घमासान युद्ध करके एक लाख महारथियोंको अपार सेनासहित वध करनेके उपरान्त अर्जुनके द्वारा आहत होकर शरशय्यापर पड़ गये , तब संजयने आकर यह समाचार धृतराष्ट्रको सुनाया , तब भीष्मके लिये शोक करते हुए धृतराष्ट्रने संजयसे युद्धका सारा हाल पूछा ।
श्री महर्षि व्यास , संजय , विदुर और भीष्म आदि कुछ ही ऐसे महानुभाव थे , जो भगवान् श्रीकृष्णके यथार्थ स्वरूपको पहचानते थे । धृतराष्ट्रके पूछनेपर संजयने कहा था कि ' मैं स्त्री - पुत्रादिके मोहमें पड़कर अविद्याका सेवन नहीं करता , मैं भगवान्के अर्पण किये बिना ( वृथा ) धर्मका आचरण नहीं करता , मैं शुद्ध भाव और भक्तियोगके द्वारा ही जनार्दन श्रीकृष्णके स्वरूपको यथार्थ जानता हूँ । ' भगवान्का स्वरूप और पराक्रम बतलाते हुए संजयने कहा- ' उदारहृदय श्रीवासुदेवके चक्रका मध्यभाग पाँच हाथ विस्तारवाला है , परंतु भगवान्के इच्छानुकूल वह चाहे जितना बड़ा हो सकता है । वह तेज पुंजसे प्रकाशित चक्र सबके सारासाम बलकी थाह लेनेके लिये बना है । वह कौरवोंका संहारक है और पाण्डवोका प्रियतम है । महाबलवान श्रीकृष्णने लीलासे ही भयानक राक्षस नरकासुर , शंखसुर , अभिमानी कंस और शिशुपालका वध कर दिय था । परम ऐश्वर्यवान् सुन्दर श्रेष्ठ श्रीकृष्ण मनके संकल्पसे ही पृथ्वी , अन्तरिक्ष और स्वर्गको अपने वश कर सकते हैं । एक ओर सारा जगत् हो और दूसरी ओर अकेले श्रीकृष्ण हों तो साररूपमें वही उस सब अधिक ठहरेंगे । वे अपनी इच्छामात्र से ही जगत्को भस्म कर सकते हैं ; परंतु उनको भस्म करनेमें सारा वि भी समर्थ नहीं है
यतः धर्मो सत्यं यतो भवति गोविन्दो यतो हीरार्जवं यतः । कृष्णस्ततो जयः ॥
यतः ततो ' जहाँ सत्य , धर्म , ईश्वरविरोधी कार्यमें लज्जा और हृदयकी सरलता होती है , वहीं श्रीकृष्ण रहते है ,वहीं निःसन्देह विजय है । ' सर्वभूतात्मा पुरुषोत्तम श्रीकृष्ण लीलासे पृथ्वी , अन्तरिक्ष और स्वर्गका संचालन किया करते हैं , वे श्रीकृष्ण सब लोगौंको मोहित करते हुए से पाण्डवोंका बहाना करके तुम्हारे अधर्मी मूर्ख पुत्रोंको भस्म करना चाहते हैं । भगवान् श्रीकृष्ण अपने प्रभावसे काल - चक्र , जगत् - चक्र और युग - चक्रको सदा घुमाया ( बदला ) करते हैं । मैं यह सत्य कहता हूँ कि भगवान् श्रीकृष्ण ही काल , मृत्यु और स्थावर जंगमरूप जगत्के एकमात्र अधीश्वर हैं । जैसे किसान अपने ही बोये हुए खेतको ( पक जानेपर ) काट लेता है , इसी प्रकार महायोगेश्वर श्रीकृष्ण समस्त जगत्के पालनकर्ता होनेपर भी स्वयं उसके संहारके लिये कर्म करते हैं । वे अपनी महामायाके प्रभावसे सबको मोहित किये रहते हैं , परंतु जो उनकी शरण ग्रहण कर लेते हैं , वे मायासे कभी मोहको प्राप्त नहीं होते ।
ये त्वामेव प्रपद्यन्ते न ते मुह्यन्ति मानवाः ।
इसके बाद धृतराष्ट्रने भगवान् श्रीकृष्णके नाम और उनके अर्थ पूछे । तब परम भागवत संजयने कहा ' भगवान् श्रीकृष्णके नाम - गुण अपार हैं । मैं जो कुछ सुना - समझा हूँ , वही संक्षेप कहता हूँ । श्रीकृष्ण मायासे आवरण करते हैं और सारा जगत् उनमें निवास करता है तथा वे प्रकाशमान हैं- इससे उनको ' वासुदेव ' कहते हैं । अथवा सब देवता उनमें निवास करते हैं , इसलिये उनका नाम ' वासुदेव ' है । सर्वव्यापक होनेके कारण उनका नाम ' विष्णु ' है । ' मा ' यानी आत्माकी उपाधिरूप बुद्धि - वृत्तिको मौन , ध्यान या योगसे दूर कर देते हैं , इससे श्रीकृष्णका नाम ' माधव ' है । मधु अर्थात् पृथ्वी आदि तत्त्वोंके संहारकर्ता होनेसे या वे सब तत्त्व इनमें लयको प्राप्त होते हैं , इससे भगवान्को ' मधुहा ' कहते हैं । मधु नामक दैत्यका वध करनेवाले होनेके कारण श्रीकृष्णका नाम ' मधुसूदन ' है । ' कृषि ' शब्द सत्तावाचक है और ' ण ' सुखवाचक है , इन दोनों धातुओंके अर्थरूप सत्ता और आनन्दके सम्बन्धसे भगवान्का नाम ' कृष्ण ' हो गया है । अक्षय और अविनाशी परम स्थानका या हृदयकमलका नाम है पुण्डरीक । भगवान् वासुदेव उसमें विराजित रहते हैं और कभी उसका क्षय नहीं होता , इससे भगवान्को ' पुण्डरीकाक्ष ' कहते हैं । दस्युओंका दलन करते हैं , इससे भगवान्का नाम ' जनार्दन ' है । वे सत्त्वसे कभी च्युत नहीं होते और सत्त्व उनसे कभी अलग नहीं होता , इससे उनको ' सात्त्वत ' कहते हैं । वृषभका अर्थ वेद है और ईक्षणका अर्थ है ज्ञापक अर्थात् वेदके द्वारा भगवान् जाने जाते हैं , इसलिये उनका नाम ' वृषभेक्षण ' है । वे किसीके गर्भसे जन्म ग्रहण नहीं करते , इससे उनको ' अज ' कहते हैं । इन्द्रियों में स्वप्रकाश हैं तथा इन्द्रियोंका अत्यन्त दमन किये हुए हैं , इसलिये भगवान्का नाम ' दामोदर ' है । हर्ष , स्वरूप सुख और ऐश्वर्य - तीनों ही भगवान् श्रीकृष्णमें हैं , इसीसे उनको ' हृषीकेश ' कहते हैं । अपनी दोनों विशाल भुजाओंसे उन्होंने स्वर्ग और पृथ्वीको धारण कर रखा है , इसलिये ये ' महाबाहु ' कहलाते हैं । वे कभी अधःप्रदेशमें क्षय नहीं होते , यानी संसारमें लिप्त नहीं होते , इसलिये उनका नाम ' अधोक्षज ' है । नरोंके आश्रय होनेके कारण उन्हें ' नारायण ' कहते हैं । वे सब भूतोंके पूर्ण कर्ता है । और सभी भूत उन्होंमें लयको प्राप्त होते हैं , इसलिये उनको ' सर्व ' कहा जाता है । श्रीकृष्ण सत्यमें हैं और सत्य उनमें है तथा वे गोविन्द व्यावहारिक सत्यकी अपेक्षा भी परम सत्यरूप हैं , इससे उनका नाम ' सत्य ' है । चरणोंद्वारा विश्वको व्याप्त करनेवाले होनेसे ' विष्णु ' और सबपर विजय प्राप्त करनेके कारण भगवान्को ' जिष्णु ' कहते हैं । शाश्वत और अनन्त होनेसे उनका नाम ' अनन्त ' है और गो यानी इन्द्रियोंके प्रकाशक होनेसे ' गोविन्द ' कहे जाते हैं । वास्तवमें तत्त्वहीन ( असत्य ) जगत्को भगवान् अपनी सत्ता स्फूर्विसे तत्व ( सत्य ) -सा बनाकर सबको मोहित करते हैं । "
यह संजयकी श्रीकृष्णभक्ति और श्रीकृष्ण तत्त्व - ज्ञानका एक उदाहरण है ।
हरिशरणम हरिशरणम हरिशरणम
BHOOPAL Mishra
Sanatan vedic dharma karma
मित्र
संजय ने श्रीकृष्ण से प्रेम कर दिव्य दृष्ट प्राप्त कर लिया ,और संसार सागर से मुक्त हो गए।