श्रीकश्यपजी. KASHYSP JI MAHARAJ

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                          श्रीकश्यपजी 



समस्त लोकोंके पितामह भगवान् ब्रह्माने ही इस चराचर सृष्टिको उत्पन्न किया है । सृष्टिक उन्होंने छ : मानसिक पुत्र उत्पन्न किये , जिनके नाम मरीचि , अत्रि , अंगिरा , पुलस्त्य , पुलह और ऋतु हैं । मरीचिके पुत्र कश्यप हुए । दक्षप्रजापतिने अपनी तेरह कन्याओं का विवाह इनके साथ कर दिया । उनके नाम ये है - अदिति , दिति , दनु , फाला , दनायु , सिंहिका , क्रोधा , प्राधा , विश्वा , वितता , पिता , मुनि और कद्दू ) इन सबकी हुई कि उन्होंसे यह सम्पूर्ण सृष्टि भर गयी अदितिसे समस्त देवता तथा बारह आदित्य हुए । सभी दैत्य दितिके पुत्र हैं । दनुके दानव हुए काला और दनायुके भी दानव ही हुए । सिंहिकासे सिंह व्याघ्र हुए । क्रोधाके क्रोध करनेवाले असुर हुए । विनताके गरुड , अरुण आदि पुत्र हुए । सर्प , नाग आदि हुए । मनुसे समस्त मनुष्य उत्पन्न हुए । इस प्रकार समस्त स्थावर जंगम , पशुपक्षी , देवता दैत्य , मनुष्य हम सब सगे भाई - भाई हैं । एक कश्यप भगवान्‌ की ही हम संतान है । वृक्ष , पशु , पक्षी हम सब कस्यप गोत्रीय  ही हैं । 

इन तेरह कन्याओंमें अदिति भगवान् कश्यप की सबसे प्यारी पत्नी थी । उन्होंसे इन्द्रादि समस्त देवता हुए और भगवान् वामनने भी इन्होंके यहाँ अवतार लिया । इनका तप अनन्त है , इनकी भगवद्भिक्त अटूट है । ये दम्पती भगवान्‌के परमप्रिय हैं । तीन बार भगवान्ने इनके घरमें अवतार लिया । अदिति और कश्यप के महातपके प्रभाव से ही जीवों को निर्गुण भगवान्‌ के सगुण रूपमें दर्शन हो सके । 

कस्यप अदिति महातप कीन्हा तिन्ह कहूँ मैं पूरब वर दीना ॥ 

भगवान् जिनके पुत्र बने , उनके विषयमें अधिक क्या कहा जा सकता है ? भगवान् कश्यपकी पुराणों मे बहुत - सी कथाएँ हैं ; उनमेंसे वामन , बलि , अदिति आदिके प्रसंगमें बहुत सी आ गयी हैं । अतः उनके सम्बन्ध में इतना ही कहना पर्याप्त होगा कि ये महानुभाव भगवान्‌को निर्गुण से सगुण साकार बनानेवाले हैं , तथा हम सब जीवोंके आदि पिता हैं । श्रीपर्वतजी शइनकी देवर्षियोंमें गणना है । महाभारतमें इनका और श्रीनारदजीका अनेक स्थलोंपर साथ - साथ वर्णन पाया जाता है । श्रीनारदजीकी ही तरह ये भी विचरणशील स्वभावके हैं । लिंगपुराण एवं अद्भुत रामायण में कथा आती है कि एक बार श्रीनारदजी और श्रीपर्वतजी- दोनों मित्र साथ - साथ विचरते हुए श्रीनगरके राजा अम्बरीषजीके यहाँ गये । राजाने इनका बड़ा स्वागत - सत्कार किया और अपनी लाडिली बेटी , जिसका नाम श्रीमती था , उसको बुलाकर मुनिके चरणों में प्रणाम कराकर , उसके भाग्यके सम्बन्ध में जिज्ञासा की । दोनों ही मुनि श्रीमतीके सुन्दर रूप एवं शुभ लक्षणोंपर मोहित होकर उसको पृथक् - पृथक् राजासे माँगने लगे । राजाका यह उत्तर मिलने पर कि कन्या जिसको जयमाल पहना दे , वही ले जाय ; दोनों पृथक् - पृथक् भगवान्‌के यहाँ गये और दोनोंने ही उनसे सब वृत्तान्त कहकर अपना - अपना मनोरथ प्रकट किया । नारदजीने पर्वतऋषिका मुख बन्दरका - सा और पर्वतने नारदमुनिका मुख लंगूरका - सा कर देनेके लिये पृथक् - पृथक् प्रार्थना की और साथ ही यह भी प्रार्थना की कि राजकुमारीको ही वह रूप दीख पड़े , दूसरेको नहीं । भगवान्ने दोनोंसे ' एवमस्तु ' कहा । तत्पश्चात् दोनों ही राजाके यहाँ गये । राजाने बुलाकर कहा कि दोनों ऋषियों में से जिसे चाहो , उसे जयमाल पहना दो । कन्या जयमाल लिये खड़ी है । उसे वहाँ एक बन्दर , एक लंगूर और एक सुन्दर धनुष - बाणधारी पुरुष दीख पड़े । ऋषि कोई न देख वह ठिठककर रह गयी । संकोचका कारण पूछे जानेपर उसे जो दीख था , वह उसने कह दिया और जयमाल धनुषधारी पुरुष ( भगवान् श्रीराम ) के गलेमें डाल दिया । भगवान् उसे लेकर अन्तर्धान हो गये । इस रहस्यको न समझकर दोनों ऋषि भगवान्के पास गये और उपालम्भ दिये । भगवान्ने कहा कि हम भक्तपराधीन हैं , तुम दोनों ही हमारे भक्त हो , अतः हमने दोनोंका कहा किया । ऋषियोंको जब यह मालूम हुआ कि ये ही कन्याको ले गये । दोनोंने ही उनको शाप दिया कि- ' मम अपकार कीन्ह तुम्ह भारी । नारि बिरहँ तुम्ह होब दुखारी ॥ कपि आकृति तुम्ह कीन्हि हमारी । करिहहिं कीस सहाय तुम्हारी ॥ ' बादमें जब इन्हें आत्मस्वरूपका ज्ञान हुआ है तो ये बहुत ही पश्चात्ताप किये हैं और भगवान्‌से शापके मिथ्या हो जानेकी प्रार्थना किये हैं । परंतु भगवान्ने शापको अपनी इच्छा कहकर दोनोंको समझा - बुझाकर विदा किया । 

                           श्रीपराशरजी          

ये ब्रह्मर्षि वसिष्ठजीके पौत्र , महर्षि शक्तिजीके पुत्र एवं भगवान् वेदव्यासजीके पिता हैं । इनकी माताका नाम अदृश्यन्ती था । इन्होंने बारह वर्षोतक माताके गर्भ में ही रहकर वेदाभ्यास किया था । इनके द्वारा रचित ' पराशरस्मृति ' में धर्माधर्म का बड़ा विवेकपूर्ण निर्णय किया गया है । धर्म के सम्बन्ध में इनका कथन है कि जो मनुष्य परम दुर्लभ मानव जन्म को पाकर भी कामपरायण हो दूसरोंसे द्वेष करता है और धर्मकी अवहेलना करता है , वह महान् लाभ से वंचित रह जाता है । यथा - '

 यो दुर्लभतरं प्राप्य मानुष्यं द्विषते नरः । धर्मावमन्ता कामात्मा भवेत् स खलु वंच्यते ॥ '

           भगवत्स्मरणकी महिमा वर्णन करते हुए कहते हैं कि - 

' प्रातर्निशि तथा सन्ध्यामध्याहनादिषु संस्मरन् । नारायणमवाप्नोति सद्यः पापक्षयान्नरः ॥ '

          पाप तत्काल क्षीण हो जाते हैं । 

प्रातः काल , सायंकाल , रात्रिमें अथवा मध्याहन में , किसी भी समय श्रीनारायणका स्मरण करनेसे पुरुषके समस्त पाप तत्काल क्षीण हो जाते हैं ।   

      

                          अठारह पुराण.  

 ब्रह्म बिष्नु सिव लिंग पद्म अस्कँद बिस्तारा । बामन मीन बराह अग्नि कूरम ऊदारा ॥

गरुड़ नारदी भविष्य हाबैवर्त श्रवन सुचि मार्केडेय ब्रांड कथा नाना उपजै रुचि ॥ सत परम धर्म श्रीमुख कथित चातुश्लोकी निगम साधन साध्य सत्रह पुरान फलरूपी श्रीभागवत ॥ १७ ॥ 

ब्रह्म , विष्णु , शिव , लिंग , पद्म , स्कन्द , वामन , मत्स्य , बराह , अग्नि , कूर्म , गरुड , नारद , भविष्य , ब्रह्मवैवर सभी पुराणों में विशेषतया श्री स्वयं भगवान श्रीमुख परमधर्म कहा श्लोकी सभी वेदोका सार है । अठारहों पुराण विस्तृत है , उदार हैं । इनके है । अन्तर आदि पुराण साधन हैं और श्रीमद्भागवत पुराण साध्य है , पुराणोंमें यह फलरूप है ॥ १७ ॥ 

संस्कृत साहित्यों में पुराणोंका एक विशेष स्थान है । वेदोंके बाद इन्हींकी मान्यता है । महाभारत के सा पुराणोंको पंचम वेद कहा गया ' इतिहासपुराणं च पञ्चमो वेद उच्यते ॥ ' समष्टिरूपपुराणोंको प्राची भारतको धार्मिक , दार्शनिक , ऐतिहासिक , सामाजिक और राजनीतिक संस्कृतिका लोकसम्मत विश्वकोष ही समझना चाहिए। 

 पुराणका शाब्दिक अर्थ तो ' प्राचीन कथा ' अथवा ' प्राचीन विवरण ' है , परंतु धर्मग्रन्थ के रूप में जिन पुराणोंकी चर्चा आती है , उनके निम्नलिखित पाँच लक्षण हैं 

 ( सृष्टि ) , प्रतिसर्ग ( लय और पुनः सृष्टि ) , वंश ( देवताओंकी वंशावली ) , मन्यन्त ( मनुओंके काल विभाग ) और वंशानुचरित ( राजाओंके वंशवृत्त ) --ये पुराणके पाँच लक्षण हैं । पुराणों १८ महापुराणों और १८ उपपुराणों की गणना होती है । निम्नलिखित श्लोकों पुराणकी नामावली संक्षेपर इस प्रकार वर्णित है 

   मद्वयं  भयद्वयं चैव अत्रयं  वचतुष्टयम् ।अनापलिंगकुस्कानि पुराणानि पृथक पृथक् ॥ 

 अर्थात् ' म' वाले ( मत्स्यपुराण , मार्कण्डेयपुराण ) दो , ' भ'' वाले ( भविष्यपुराण तथा भागवत ) दो , ' ब्र वाले ( ब्रह्म , ब्रह्माण्ड और ब्रह्मवैवर्तपुराण ) तीन ' व' वाले ( चामन , वायु , विष्णु और वाराहपुराण ) चार , अ' ' वाला ( अग्निपुराण ) , ' ना ' वाला ( नारदपुराण ) , ' प ' वाला ( पद्मपुराण ) , ' लि ' चाला ( लिंगपुराण ) , ' ग ' वाला ( गरुडपुराण ) , ' कू ' वाला ( कूर्मपुराण ) और ' स्क ' चाला ( स्कन्दपुराण ) -थे पृथक - पृथक अठारह पुराण हैं । चतुर्दशसहस्मयप्रकीर्तित तथा प्रहराहतु मार्कण्डेय महाद्भुतम् ॥ चतुर्दश सहवाशि तथा पञ्चशतानि च भविष्य परिसंख्यात मुनिभिस्तत्त्वदशभिः ॥अष्टादस शहस्पुत्रं वै पुण्यं भगवतं किल। तथा  चायुतसंख्याकं पुराणं ब्रह्मसंज्ञकम् ।। 

द्वादशैव सहस्त्राणि ब्रह्माण्डं च शताधिकम् । तथाष्टादशसाहस्त्र ब्रह्मवैवर्तमेव च ॥ अयुतं वामनाख्यं च वायव्यं षट्शतानि च । चतुर्विंशतिसंख्यातः सहस्त्राणि तु शौनक | त्रयोविंशतिसाहस्त्रं परमाद्भुतम् । चतुर्विंशतिसाहस्त्र षोडशैव सहस्त्राणि पुराणं चाग्निसंज्ञितम् । पञ्चविंशति साहस्त्रं नारदं पञ्चपञ्चाशत्साहस्त्रं पद्माख्यं विपुलं मतम् । एकादशसहस्त्राणि लिंगाख्यं एकोनविंशत्साहस्त्रं गारुडं हरिभाषितम् । सप्तदशसहस्त्रं च पुराणं एकाशीतिसहस्त्राणि स्कन्दाख्यं परमाद्भुतम् । वाराहं परमाद्भुतम् ॥ परमं मतम् ॥ चातिविस्तृतम् ॥ कूर्मभाषितम् ॥ ( श्रीमदेवी ० १ | ३ | ३-१२ ) 

अर्थात् आदिके मत्स्यपुराणमें चौदह हजार , अत्यन्त अद्भुत मार्कण्डेयपुराणमें नौ हजार तथा भविष्यपुराणमें चौदह हजार पाँच सौ श्लोक - संख्या तत्त्वदर्शी मुनियोंने बतायी है । पवित्र भागवतपुराणमें अठारह हजार और ब्रह्मपुराणमें दस हजार श्लोक हैं । ब्रह्माण्डपुराणमें बारह हजार एक सौ तथा ब्रह्मवैवर्तपुराणमें अठारह हजार श्लोक हैं । वामनपुराणमें दस हजार तथा वायुपुराणमें चौबीस हजार छ : सौ श्लोक हैं । परमविचित्र विष्णुपुराणमें तेईस हजार , वाराहपुराणमें चौबीस हजार , अग्निपुराणमें सोलह हजार तथा नारदपुराणमें पचीस हजार श्लोक कहे गये हैं । विशाल पद्मपुराणमें पचपन हजार और लिंगपुराणमें ग्यारह हजार श्लोक हैं । भगवान् श्रीहरिके द्वारा कहे हुए गरुडपुराणमें उन्नीस हजार तथा कूर्मपुराणमें सत्रह हजार श्लोक हैं । परम अद्भुत स्कन्दपुराणकी श्लोक संख्या इक्यासी हजार कही गयी है । उक्त पुराणोंमें मत्स्य , कूर्म , लिंग , शिव , स्कन्द तथा अग्नि - ये छः पुराण तामस ; ब्रह्माण्ड , ब्रह्मवैवर्त , मार्कण्डेय , भविष्य , वामन , ब्राह्म- ये छः पुराण राजस और विष्णु , नारद , गरुड , पद्म , वाराह एवं भागवत पुराण सात्त्विक पुराण हैं । सात्त्विक पुराणोंमें भगवान् श्रीहरिका यश विशेष रूपसे वर्णित रहता है । इस आधारपर श्रीमद्भागवत अन्य पुराणोंसे श्रेष्ठ सिद्ध होता है , क्योंकि उसका प्रत्येक स्कन्ध भगवान् श्रीहरिका अंग कहा गया है । कौशिकसंहितान्तर्गत श्रीमद्भागवत - माहात्म्यमें भगवान् श्रीहरिके अवयवोंकी भागवतके स्कन्धोंके साथ एकरूपता इस प्रकार दर्शायी गयी है

 पादादिजानुपर्यन्तं सप्तमो प्रथमस्कन्ध ईरितः । तदूर्ध्वं कटिपर्यन्तं द्वितीयस्कन्ध उच्यते ॥ तृतीयो नाभिरित्युक्तश्चतुर्थ उदरं मतम् । पञ्चमो हृदयं प्रोक्तं षष्ठः कण्ठं सबाहुकम् ॥ सर्वलक्षणसंयुक्तं मुखमुच्यते । अष्टमश्चक्षुषी विष्णोः कपोलौ भुकुटिः परः ॥ दशमो ब्रह्मरन्धं च मन एकादशः स्मृतः । आत्मा तु द्वादशस्कन्धः श्रीकृष्णस्य प्रकीर्तितः ॥

 अर्थात् श्रीभगवान्‌के श्रीविग्रहका पैरसे लेकर जानुपर्यन्त श्रीमद्भागवतका प्रथम स्कन्ध है , जानुसे कटिपर्यन्त दूसरा स्कन्ध , तीसरा स्कन्ध नाभि , चौथा स्कन्ध उदर , पाँचवाँ स्कन्ध हृदय , छठा स्कन्ध बाहुसहित कण्ठ , सातवाँ स्कन्ध मुख , आठवाँ स्कन्ध नेत्र , नवाँ स्कन्ध कपोल एवं भ्रुकुटि , दसवाँ स्कन्ध ब्रह्मरन्ध्र , ग्यारहवाँ स्कन्ध मन और बारहवाँ स्कन्ध आत्मा कहा गया है । 

पुराणोंके श्रवणकी बहुत महिमा है । पुराणोंका प्रतिपादन आख्यानशैलीमें है । इसीलिये ये परम रोचक और शीघ्र प्रभाव डालते हैं । पुराणोंमें वेदोंके ही अर्थोंका उपबृंहण हुआ है । ' इतिहासपुराणाभ्यां वेदार्थ मुपबृंहयेत् । ' वेदमें जहाँ ' सत्यं वद ' आदि उपदेश आये हैं , पुराणोंने इन उपदेशोंको राजा हरिश्चन्द्र आदिके आख्यानसे कथारूपमें प्रस्तुत किया है । पुराण हमें सच्चे मित्रकी भाँति कल्याणकारी परामर्श प्रदान करते हैं । पुराण श्रीवेदव्यासजीकी कृतियाँ हैं । यह व्यासजीका लोकपर महान् अनुग्रह है । आत्मकल्याण तथा भगवत्प्राप्तिके साधनोंका जैसा समावेश पुराणों में हुआ है , वैसा वर्णन अन्यत्र नहीं मिलता । मुख्य तथा अवान्तररूपसे भगवचर्चा ही पुराणोंका अन्यतम प्रतिपाद्य है । आख्यानों , उपाख्यानों तथा गाथाओंके द्वारा पुराणोंमें उसी परम प्रभुकी महिमाका गान हुआ है । इनमें लौकिक तथा पारलौकिक ज्ञान - विज्ञानके सभी विषय भरे पड़े हैं । 

इस प्रकार श्रीमद्भागवतपुराण साक्षात् भगवान्‌का स्वरूप है , भगवान्की वाङ्मयी मूर्ति है । भागवतके श्रवण एवं पारायणकी अद्भुत महिमा है । शुकदेवजी इसकी अतुलनीय महिमाका बखान करते हुए कहते हैं - भागवत पुराणोंका तिलक और वैष्णवोंका धन है । इसमें परमहंसोंके प्राप्य विशुद्ध ज्ञानका ही वर्णन किया गया है तथा ज्ञान , वैराग्य और भक्तिके सहित निवृत्तिमार्गको प्रकाशित किया गया है , जो पुरुष भक्तिपूर्वक इसके श्रवण , पठन और मननमें तत्पर रहता है , वह मुक्त हो जाता है । यह भागवतशास्त्र भगवान् श्रीकृष्णकी प्राप्ति करानेवाला और नित्य प्रेमानन्दरूप फल प्रदान करनेवाला है - ' कृष्णप्राप्तिकरं शश्वत् प्रेमानन्दफलप्रदम् ॥ ' ब्रह्म , पद्म आदि सत्रह पुराणोंको साधनरूप और भागवतको साध्य एवं फलरूप बताया गया है । इसीसे भक्त - भागवतगणं इसकी भगवद्भावनासे श्रद्धा - भक्तिपूर्वक पूजा किया करते हैं । भगवान् वेदव्यास - सदृश महापुरुषको जिसकी रचनासे ही परम शान्ति मिली , जिसमें ज्ञान - भक्तिका परम रहस्य बड़ी ही मधुरताके साथ अभिव्यक्त हुआ है , उस श्रीमद्भागवतके सम्बन्धमें क्या कहा जाय ? इसके प्रत्येक अंगसे भगवद्भावपूर्ण पारमहंस्य ज्ञान - सुधासरिताकी बाढ़ आ रही है - ' यस्मिन् पारमहंस्यमेकममलं ज्ञानं परं गीयते । ' भगवान्के मधुर प्रेमका छलकता हुआ सागर है श्रीमद्भागवत । इसीसे भावुक भक्तगण इसमें सदा अवगाहन करते रहते हैं । परम मधुर भगवद् - रससे भरा हुआ - ' स्वादु स्वादु पदे पदे'- ऐसा ग्रन्थ बस यही है । इसकी कहीं तुलना नहीं है ।

 चतुःश्लोकी भागवत

 श्रीब्रह्माजीकी तपस्यासे प्रसन्न होकर भगवान्ने उन्हें अपना दर्शन दिया , अपने निर्गुण - सगुण स्वरूपोंका ज्ञान दिया , सृष्टि रचनेकी सामर्थ्य दी और सृष्टि करते हुए भी संसारमें लिप्त न हों , इसके लिये चतुःश्लोकोंका उपदेश दिया । जो इस प्रकार है 

ज्ञानं परमगुहा मे यद् विज्ञानसमन्वितम् । सरहस्यं तदनं च गृहाण गदितं मया ॥ यावानहं यथाभावो यद्रूपगुणकर्मकः । तथैव तत्त्वविज्ञानमस्तु ते मदनुग्रहात् ॥ अहमेवासमेवाग्रे नान्यद् यत् सदसत् परम् पश्चादहं यदेतच्च योऽवशिष्येत सोऽस्म्यहम् ॥ ऋतेऽर्थ यत्प्रतीयेत न प्रतीयेत चात्मनि । तद्विद्यादात्मनो मायां यथाभासो यथा तमः ॥ यथा महान्ति भूतानि भूतेषूच्चावचेष्वनु । प्रविष्टान्यप्रविष्टानि तथा तेषु न तेष्वहम् ॥ एतावदेव जिज्ञास्यं तत्त्वजिज्ञासुनात्मनः । अन्वयव्यतिरेकाभ्यां यत् स्यात् सर्वत्र सर्वदा ॥  श्रीमद्भा ० २।९।३०-३५ 

 श्रीभगवान्ने कहा- हे ब्रह्माजी ! ] अनुभव , प्रेमाभक्ति तथा साधनोंसे युक्त अत्यन्त गोपनीय अपने स्वरूपका ज्ञान मैं तुम्हें कहता हूँ , तुम उसे सुनकर ग्रहण करो । जितना मेरा विस्तार है , मेरा जो लक्षण है , मेरे जितने और जैसे रूप , गुण और लीलाएँ हैं - मेरी कृपासे तुम उनका तत्त्व ठीक - ठीक वैसा ही अनुभव करो । सृष्टिके पूर्व केवल मैं - ही - मैं था । मेरे अतिरिक्त न स्थूल था न सूक्ष्म और न तो दोनोंका कारण अज्ञान । जहाँ यह सृष्टि नहीं है , वहाँ मैं ही मैं हूँ और इस सृष्टिके रूपमें जो कुछ प्रतीत हो रहा है , वह भी मैं ही हूँ और जो कुछ बच रहेगा , वह भी मैं ही हूँ । वास्तवमें न होनेपर भी जो कुछ अनिर्वचनीय वस्तु मेरे अतिरिक्त मुझ परमात्मामें दो चन्द्रमाओं की तरह मिथ्या ही प्रतीत हो रही है अथवा विद्यमान होनेपर भी आकाश मण्डलके नक्षत्रोंमें राहुकी भाँति जो प्रतीति नहीं होती , इसे मेरी माया समझना चाहिये । जैसे प्राणियोंके पंचभूतरचित छोटे - बड़े शरीरोंमें आकाश पंचमहाभूत उन शरीरोंके कार्यरूपसे निर्मित होनेके कारण प्रवेश करते भी हैं और पहलेसे ही उन स्थानों रूपों में कारणरूपसे विद्यमान रहनेके कारण प्रवेश नहीं भी करते , वैसे ही उन प्राणियोंके शरीरकी दृष्टिसे मैं आत्माके रूपमें प्रवेश किये हुए हूँ और आत्मदृष्टिसे अपने अतिरिक्त और कोई वस्तु न होनेके कारण प्रविष्ट नहीं भी हूँ । ' यह ब्रह्म नहीं , यह ब्रह्म नहीं ' — इस प्रकार निषेधकी पद्धतिसे और ' यह ब्रह्म है , यह है ' - इस अन्वयकी पद्धतिसे यही सिद्ध होता है कि सर्वातीत एवं सर्वस्वरूप भगवान् ही सर्वदा और सर्वत्र ि हैं । वे ही वास्तविक तत्त्व हैं जो आत्मा अथवा परमात्माका तत्त्व जानना चाहते हैं , उन्हें केवल इतना जानने की आवश्यकता है ।

हरिशरणम हरिशरणम हरिशरणम 

BHOOPAL Mishra 
Sanatan vedic dharma karma 
Bhupalmishra108.blogspot.com 

 


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