MAHARISHI
Markandey ji
MAHARAJ
महर्षि मार्कण्डेय जी महाराज
मार्कण्डेयमुनि महर्षि मुकण्डुके पुत्र थे । ये भृगुकुलमें उत्पन्न हुए थे । यज्ञोपवीत - संस्कार हो जानेपर ये ब्रह्मचर्यव्रतको धारणकर वेदाध्ययन करने लगे और वेदपारंगत होकर तप और स्वाध्याय में लग गये । वे ब्रह्मचारी वेषमें रहकर अग्नि , सूर्य , गुरु , ब्राह्मण और आत्मामें श्रीहरिका पूजन करने लगे । वे प्रातःकाल और सायंकाल भिक्षा माँगकर लाते और गुरुको अर्पण करते और गुरुकी आज्ञा मिलने पर मौन होकर एक समय भोजन करते । गुरुकी आज्ञा न मिलने पर ये किसी - किसी दिन निराहार ही रह जाते थे । इस प्रकार मार्कण्डेयमुनिने दस करोड़ वर्षपर्यन्त श्रीहरिकी आराधना करके दुर्जेय कालको भी जीत लिया । उनके इस प्रकार मृत्युको जीत लेनेपर ब्रह्मा , शिव , भृगु , दक्ष और नारदादिको बड़ा आश्चर्य हुआ । इस प्रकार नैष्ठिक ब्रह्मचर्यव्रत धारणकर तथा इन्द्रियजयके द्वारा अन्तःकरणको रागादि दोषोंसे रहितकर भगवान् अधोक्षजका ध्यान करते हुए मुनिको छः मन्वन्तर ( १७०४ युगोंकी चौकड़ी ) का काल बीत गया । वैवस्वत नामक सातवें मन्वन्तरमें इस मन्वन्तरमेंके पुरन्दर नामक इन्द्रने इस भयसे कि ये कहीं मेरे पदको न छीन लें , इनके तपमें विघ्न करनेका निश्चय किया । उसने इन्हें तपसे डिगाने के लिये गन्धर्व , अप्सरा , कामदेव , वसन्त ऋतु , मलयानिल तथा लोभ और मदको भेजा । ये लोग हिमालयके उत्तरकी ओर पुष्पभद्रा नदीके तटपर अवस्थित मुनि मार्कण्डेयके आश्रम में पहुँचे और सब लोग मिलकर मुनिके ध्यानको भंग करनेकी चेष्टा करने लगे । परंतु इन सबके प्रयत्न भाग्यहीनके उद्योगकी भाँति सर्वथा निष्फल हुए और ये सब उन तेजस्वी मुनिके तेजसे जलने लगे । अन्ततः जिस प्रकार किसी विषधर सर्पको छेड़कर बालक भयसे पीछे हट जाते हैं , उसी प्रकार ये इन्द्र - दूत निराश होकर वहाँसे लौट गये । इन्द्र उन सबको हतप्रभ एवं म्लानमुख देखकर तथा उनसे उन ब्रह्मर्षिका प्रभाव सुनकर परम विस्मित हुए । ऋषिके तपसे प्रसन्न होकर भगवान् श्रीहरि उनपर अनुग्रह करनेके निमित्त नर - नारायणके रूपमें उनके सामने प्रकट हुए ।
उन तपोमूर्ति ऋषिप्रवरोंको देखते ही मुनि उनके चरणोंमें लोट गये और उनकी स्तुति करने लगे । भगवान् नारायण बोले- ' हे ऋषिश्रेष्ठ तुम्हारी निर्दोष भक्तिसे हम अत्यन्त प्रसन्न हुए हैं , अतः तुम हमसे इच्छित वर माँगो । ' ऋषि बोले- ' भगवन् । आपने कृपा करके मुझे अपने सुर - मुनिदुर्लभ दर्शनसे कृतार्थ किया , इससे बढ़कर मैं कौन - सा वर आपसे माँगूँ ? तथापि मेरी इच्छा है कि जिस आपकी मायासे यह सत् वस्तु भेदयुक्त प्रतीत होती है , उस मायाको मैं देखना चाहता हूँ । ' नर - नारायण ' तथास्तु ' कहकर बदरिकाश्रमको चले गये । इधर ऋषि यह सोचते हुए कि उस मायाका दर्शन मुझे कब होगा , अपने आश्रम में ही रहकर अग्नि , सूर्य , चन्द्रमा , जल , भूमि , वायु , आकाश और आत्मामें तथा अन्यत्र सब जगह सर्वव्यापी श्रीहरिका ध्यान करते हुए मानसिक उपचारोंसे उनका पूजन करने लगे ।
सायंकालका समय है । मुनि नदी तटपर सन्ध्या कर रहे हैं । इतनेमें वे क्या देखते हैं कि अकस्मात् वायु बड़े जोरसे चलने लगा । उस प्रचण्ड वायुके साथ ही आकाशमें भयानक मेघ घुमड़ आये और उनमें बिजलीकी चमकके साथ कड़कड़ाहटका शब्द होने लगा । देखते - देखते मूसलाधार वृष्टि शुरू हो गयी । इधर चारों समुद्र बड़े प्रचण्ड वेगके साथ भूमण्डलको ग्रास करते हुए दिखायी देने लगे और बात - की बातमें सर्वत्र जल - ही - जल हो गया । सप्तद्वीप , नवखण्ड तथा सप्त कुलाचलोंसहित समस्त पृथ्वीमण्डल ही नहीं , अपितु आकाश , स्वर्ग , तारागण और दिशाओंसहित सारी त्रिलोकी जलमग्न हो गयी । उस अनन्त महार्णवमें अकेले मार्कण्डेय ही रह गये । वे जटाओंको बिखेरकर बावले और अन्धेके समान इधर - उधर भटकने लगे । बड़े - बड़े मगर उनकी देहको नोचने लगे तथा वायुके प्रबल झकोरों एवं उत्ताल तरंगोंके थपेड़ोंसे उनका शरीर जर्जर हो गया । इधर भूख - प्यास उन्हें अलग सताने लगी । सर्वत्र घोर अन्धकार छा जानेके कारण उन्हें कुछ नहीं सूझता था । उन्हें कभी शोक होता , कभी मोह होता , कभी सुखकी अनुभूति होती और कभी मृत्युके समान कष्ट होता । इस प्रकार विष्णुकी मायासे मोहित हुए मुनिको उस समुद्रमें भ्रमण करते एक शंख वर्ष बीत गये । इस बीचमें उस महान् जलराशिके किसी कोनेमें पृथ्वीका कुछ भाग दिखलायी देने लगा और उसपर फलों और पत्तोंसे लदा हुआ वट ( बरगद ) का एक छोटा - सा पौधा दिखायी दिया । साथ ही उसके ईशानकोणकी शाखाके एक पर्णपुट ( दोने ) में सोया हुआ एक तेजस्वी बालक दीख पड़ा । उसके प्रकाशसे सभी दिशाएँ आलोकित हो उठीं । उसका मरकतमणिके सदृश श्यामवर्ण , शोभायमान मुखकमल , शंखके समान बल पड़ी हुई ग्रीवा , विशाल वक्षःस्थल , सुन्दर नासिका और धनुषके समान भौंहें मनको मोहे लेती थीं , उसके दोनों कानों में दाड़िमके फूल खोंसे हुए थे । वह अपने सुन्दर हाथोंसे अपना चरण पकड़कर उसका अँगूठा चूस रहा था ।
उस मनोहरमूर्ति बालकको देखकर मुनिको बड़ा आश्चर्य हुआ । उसके दर्शनमात्रसे उनकी सारी व्यथा दूर हो गयी और मारे आनन्दके उन्हें रोमांच हो आया । वे खिसककर उस बालकके समीप चले गये । ज्यों ही वे उसके समीप गये , उन्हें ऐसा प्रतीत हुआ , मानो उस बालकके श्वासके साथ वे उसके उदरके भीतर मच्छरकी भाँति खिंचे चले जा रहे हैं । थोड़ी ही देरमें उन्होंने अपनेको उस बालकके उदरके भीतर पाया । वहाँ उन्होंने सारे जगत्को उसी रूपमें पाया , जिस रूपमें उन्होंने प्रलयके पूर्व उसे बाहर देखा था । यह सब दृश्य देखकर उन्हें परम विस्मय हुआ । कुछ क्षणके अनन्तर वे उसी बालकके श्वासके द्वारा प्रेरित होकर बाहर निकल आये और पुनः उसी प्रलयसमुद्र में जा पड़े । बाहर निकलकर उन्होंने उस बालकको उसी अवस्थामें अपनी ओर प्रेमपूर्ण कटाक्षोंसे देखते हुए पाया । उसकी मन्द मुसकानसे आकर्षित होकर वे उसके समीप जाकर उसे आलिंगन करना ही चाहते थे कि वे योगाधिपति बालवेशधारी भगवान् एकाएक अन्तर्धान हो गये , उनके अन्तर्धान होते ही वह वटवृक्ष और वह प्रलयसमुद्र सारा - का - सारा क्षणभरमें विलीन हो गया और मुनि अपने आश्रममें पूर्ववत् स्थित हो गये । उन्होंने मन - ही - मन भगवान् नारायणकी मायाको प्रणाम किया और हृदयसे उन मायेश्वरकी शरण हो गये ।
एक समय मुनि समाधि लगाये अपने आश्रम में बैठे थे । इतनेमें देवाधिदेव भगवान् शंकर जगज्जननी पार्वती के साथ नन्दीपर सवार होकर आकाशमार्गसे उधरकी ओर निकले । मुनिको शान्तभावसे बैठे देखकर पार्वतीजी भगवान् शंकरसे बोलीं - ' भगवन् ! ये कोई महातपस्वी मुनि मालूम होते हैं । इन्हें सिद्धि प्रदान कीजिये , क्योंकि सारी तपस्याओंको सिद्ध करनेवाले आप ही हैं । ' शंकरजी बोले- ' हे पार्वति । ये मार्कण्डेय मुनि भगवान् पुरुषोत्तमके बड़े भक्त हैं , अतएव ये तपके द्वारा कोई सिद्धि नहीं चाहते । अधिक क्या कहें , इन्हें मोक्षकी भी परवा नहीं है , फिर सांसारिक सुखोंकी तो बात ही क्या है ? तथापि हे पार्वति ! हम चलकर थोड़ी देर इनसे वार्तालाप करें , क्योंकि साधुसमागमसे बढ़कर संसारमें कोई लाभ नहीं है । यह कहकर जगन्नियन्ता भगवान् शंकर मुनिके समीप गये । किंतु मुनिकी वृत्तियाँ ब्रह्ममें लीन होनेके कारण उनका बाह्यज्ञान लुप्त हो गया था , अतएव उन्हें जगदात्मा शिव - पार्वतीके आनेका पता नहीं लगा । यह देखकर भगवान् शंकर अपनी योगमायाके प्रभावसे मुनिकी हृदयगुहामें प्रविष्ट हो गये । मुनिने देखा कि उनके हृदयमें एकाएक एक पीली जटाओंवाली , त्रिशूल , धनुष - बाण तथा ढाल - तलवारसे सुसज्जित , शरीरमें व्याघ्रचर्म लपेटे , रुद्राक्षमाला , डमरू , नरकपाल और फरसा धारण किये , तीन नेत्र और दस भुजाओंवाली मूर्ति प्रकट हो गयी । इस विकराल मूर्तिको हृदयस्थित देखकर मुनिको बड़ा आश्चर्य हुआ और इसी आश्चर्यमें उनकी समाधि टूट गयी । मुनिने आँख खोलकर देखा तो सामने भगवान् रुद्र पार्वतीसहित अपने गणोंको साथ लिये खड़े हैं । मुनिने उन्हें साष्टांग प्रणाम किया और पार्वतीसहित उनकी भक्तिपूर्वक पूजा की । उनकी पूजासे प्रसन्न होकर भगवान् शंकर बोले - ' हे मुने ! हम तुम्हारी भक्तिसे बहुत प्रसन्न हैं , अतः हमसे इच्छित वर माँगो ब्रह्मा , विष्णु और मैं - तीनों ही वर देनेवालोंमें श्रेष्ठ हैं । तुम्हारी तरह जो लोग हम तीनोंकी समानभावसे भक्ति करते हैं तथा जो शान्त , निःसंग , निर्वैर , प्राणीमात्रके प्रति दया करनेवाले और सर्वत्र समदृष्टि रखनेवाले हैं , उनकी इन्द्रादि लोकपाल ही नहीं , अपितु हम तीनों भी वन्दना और सेवा - पूजन करते हैं ; क्योंकि आपलोग हम तीनोंमें , अपनेमें तथा जगत् के अन्य प्राणियों में अणुमात्र भी भेद नहीं देखते । अतएव हम लोग आप जैसे ब्राह्मणोंका भजन किया करते हैं । तीर्थ और देवता तो चिरकालपर्यन्त सेवा करनेपर फल देते हैं , किंतु आप - जैसे साधुपुरुष तो दर्शनमात्र से ही कृतार्थ कर देते हैं जो तुम्हारी भाँति चित्तको एकाग्र करके तप , स्वाध्याय और संयममें रत रहते हैं , उन ब्राह्मणोंको हम सदा नमस्कार किया करते हैं । आपसदृश महानुभावकि दर्शन अथवा नाम सुननेमात्रसे ही महापातकी और चाण्डाल भी शुद्ध हो जाते हैं । फिर जिन्हें आप लोगोंक साथ सम्भाषण आदिका सौभाग्य प्राप्त होता है , उनकी तो बात ही क्या है ?
' भगवान् शंकरके इन वचनोंको सुनकर ऋषि गद्गद हो गये । वे बोले - ' भगवन् ! मैं तो आपके दर्शनमात्रसे कृतार्थ हो गया और वरदान क्या माँगू ? तथापि आपसे मेरी यही प्रार्थना है कि मेरी भगवान् अच्युत और उनके भक्तों में तथा आपमें अनन्य भक्ति हो । ' शंकरजी बोले - ' हे विप्रवर तुम्हारी यह अभिलाषा पूर्ण हो । इस कल्पके अन्ततक तुम्हारी कीर्ति अटल रहेगी और तुम अजर , अमर होकर रहोगे तुम्हें त्रिकालविषयक ज्ञान , विज्ञान , वैराग्य और पुराणोंका आचार्यत्व प्राप्त होगा । ' यह कहकर भगवान् शंकर वहाँसे चले गये और महामुनि मार्कण्डेय योगका महान् सामर्थ्य तथा भगवान् जनार्दनकी एकान्त भक्ति प्राप्तकर भूलोकमें विचरने लगे और अब भी उसी प्रकार विचरते हैं । वे लोकमें ' चिरंजीव ' के नामसे विख्यात हुए ।
बृहन्नारदीयपुराण के अनुसार महर्षि मृकण्डुके तपसे प्रसन्न होकर भगवान् नारायणने ही पुत्ररूपमें उनके यहाँ जन्म ग्रहण किया था
हरिशरणम हरिशरणम हरिशरणम
BHOOPAL MISHRA
SANATAN VEDIC DHARMA KARMA
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