अठारह पुराण (संक्षिप्त परिचय )

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          अठारह पुराण (भारतवर्ष के प्राचीन इतिहास)

           

ब्रह्म , विष्णु , शिव , लिंग , पद्म , स्कन्द , वामन , मत्स्य , वराह , अग्नि , कूर्म , गरुड , नारद , भविष्य , ब्रह्मवैवर्त ण्डेय ब्रह्माण्ड - इन सभी पुराणोंमें विशेषतया श्रीमद्भागवत में स्वयं भगवान्‌के श्रीमुखसे परमधर्म कहा गया । है । श्रीमद्भागवत चतुःश्लोकी सभी वेदोंका सार है । अठारहों पुराण विस्तृत है , उदार हैं । इनके सुननेसे अन्तःकरण पवित्र होता है , इनमें अनेक प्रकारको कथाओंका वर्णन है , जिनसे इष्टदेवमें रूचि उत्पन्न होती है , ये ब्रह्मपुराण आदि सत्रह पुराण साधन हैं और श्रीमद्भागवत पुराण साध्य है , पुराणों में यह फलरूप है 

अष्टादश पुराण संस्कृत साहित्य में पुराणोंका एक विशेष स्थान है । वेदोंके बाद इन्हींको मान्यता है । महाभारत के साथ पंचम वेद कहा गया- 

' इतिहासपुराणं च पञ्चमो वेद उच्यते ॥ '

 समष्टिरूपमें पुराणोंको प्राचीन भारतको धार्मिक , दार्शनिक , ऐतिहासिक , सामाजिक और राजनीतिक संस्कृतिका लोकसम्मत विश्वकोष ही पुराणका शाब्दिक अर्थ तो ' प्राचीन कथा ' अथवा ' प्राचीन विवरण ' है , परंतु धर्मग्रन्थके रूपमें जिन पुणोंकी चर्चा आती है , उनके निम्नलिखित पाँच लक्षण हैं सर्गश्च प्रतिसर्गश्च वंशानुचरितं वंशो मन्वन्तराणि चा चैव पुराणं पञ्चलक्षणम् ॥ अर्थात् सर्ग ( सृष्टि ) , प्रतिसर्ग ( लय और पुनः सृष्टि ) , वंश ( देवताओंकी वंशावली ) , मन्वन्तर ( मनुओंके काल - विभाग ) और वंशानुचरित ( राजाओंके वंशवृत्त ) - ये पुराणके पाँच लक्षण हैं । पुराणों में १८ महापुराणों और १८ उपपुराणोंकी गणना होती है । निम्नलिखित श्लोकमें पुराणकी नामावली संक्षेपमें इस प्रकार वर्णित है 

मद्वयं भद्वयं चैव ब्रत्रयं अनापलिंगकुस्कानि पुराणानि पृथक् वचतुष्टयम् । पृथक् ।। ( श्रीमदेवी ०१।३।२ ) अर्थात् ' म ' वाले ( मत्स्यपुराण , मार्कण्डेयपुराण ) दो , ' भ ' वाले ( भविष्यपुराण तथा भागवत ) दो , ' ब्र ' वाले ( ब्रह्म , ब्रह्माण्ड और ब्रह्मवैवर्तपुराण ) तीन , ' व ' वाले ( वामन , वायु , विष्णु और वाराहपुराण ) चार , ' अ ' वाला ( अग्निपुराण ) , ' ना ' वाला ( नारदपुराण ) , ' प ' वाला ( पद्मपुराण ) , ' लिं ' वाला ( लिंगपुराण ) , ' ग ' वाला ( गरुडपुराण ) , ' कू ' वाला ( कूर्मपुराण ) और ' स्क ' वाला ( स्कन्दपुराण ) - ये पृथक् - पृथक् अठारह पुराण है । इनकी श्लोक - संख्या इस प्रकार वर्णित की गयी है चतुर्दशसहस्त्रं च मत्स्यमाद्यं प्रकीर्तितम् । तथा ग्रहसहस्रं तु मार्कण्डेयं महाद्भुतम् ॥ चतुर्दश सहस्त्राणि तथा पञ्चशतानि च । भविष्यं परिसंख्यातं मुनिभिस्तत्त्वदर्शिभिः ॥ अष्टादशसहस्त्रं वै पुण्यं भागवतं किल तथा चायुतसंख्याकं पुराणं ब्रह्मसंज्ञकम् ॥ 

 वैष्णवं परमं परमाद्भुतम् ॥ मतम् ॥ द्वादशैव सहस्राणि ब्रह्माण्डं च शताधिकम् तथाष्टादशसाहस्त्रे ब्रह्मवैवर्तमेव च ॥ अयुतं वामनाख्यं च वायव्यं षट्शतानि च । चतुर्विंशतिसंख्यातः सहस्त्राणि तु शौनक ॥ प्रयोविंशतिसाहस्रं परमाद्भुतम् । चतुर्विंशतिसाहस्रं वाराहूं षोडशैव सहस्त्राणि पुराणं चाग्निसंज्ञितम् । पञ्चविंशति साहस्त्रे नारदं पञ्चपञ्चाशत्साहस्त्रं पद्माख्यं विपुलं मतम् एकादशसहस्त्राणि लिंगाख्यं एकोनविंशत्साहस्त्रं गारुडं हरिभाषितम् । सप्तदशसहस्त्रं च पुराणं एकाशीतिसहस्त्राणि स्कन्दाख्यं परमाद्भुतम् । चातिविस्तृतम् ॥ कूर्मभाषितम् ॥ 

अर्थात आदिके मत्स्यपुराणमें चौदह हजार अत्यन्त अद्भुत मार्कण्डेयपुराणमें नौ हजार तथा भविष्यपुराणमें चौदह हजार पाँच सौ श्लोक संख्या तत्त्वदर्शी मुनियोंने बतायी है । पवित्र भागवतपुराण में अठारह हजार और ब्रह्मपुराणमें दस हजार श्लोक हैं । ब्रह्माण्डपुराणमें बारह हजार एक सौ तथा ब्रह्मवैवर्तपुराणमें अठारह हजार श्लोक हैं । वामनपुराणमें दस हजार तथा वायुपुराणमें चौबीस हजार छ सौ श्लोक हैं । परमविचित्र विष्णुपुराणमें तेईस हजार , वाराहपुराणमें चौबीस हजार , अग्निपुराणमें सोलह हजार तथा नारदपुराणमें पचीस हजार श्लोक कहे गये हैं । विशाल पद्मपुराणमें पचपन हजार और लिंगपुराणमें ग्यारह हजार श्लोक हैं । भगवान् श्रीहरिके द्वारा कहे हुए गरुडपुराणमें उन्नीस हजार तथा कूर्मपुराणमें सत्रह हजार श्लोक हैं । परम अद्भुत स्कन्दपुराणकी श्लोक संख्या इक्यासी हजार कही गयी है । प्रेम गय वेट ही 951 गी अ य उक्त पुराणों में मत्स्य , कूर्म , लिंग , शिव , स्कन्द तथा अग्नि - ये छः पुराण तामस ब्रह्माण्ड , ब्रह्मवैवर्त , मार्कण्डेय , भविष्य , वामन , ब्राह्म- ये छः पुराण राजस और विष्णु नारद , गरुड , पद्म , वाराह एवं भागवत पुराण सात्त्विक पुराण हैं । सात्त्विक पुराणोंमें भगवान् श्रीहरिका यश विशेष रूपसे वर्णित रहता है । इस आधारपर श्रीमद्भागवत अन्य पुराणोंसे श्रेष्ठ सिद्ध होता है ; क्योंकि उसका प्रत्येक स्कन्ध भगवान् श्रीहरिका अंग कहा गया है । कौशिकसंहितान्तर्गत श्रीमद्भागवत - माहात्म्यमें भगवान् श्रीहरिके अवयवोंकी भागवतके स्कन्धोंके साथ एकरूपता इस प्रकार दर्शायी गयी है ।

       पादादिजानुपर्यन्तं प्रथमस्कन्ध ईरितः । तदूर्ध्वं कटिपर्यन्तं द्वितीयस्कन्ध उच्यते ॥ तृतीयो नाभिरित्युक्तश्चतुर्थ उदरं मतम् पञ्चमो हृदयं प्रोक्तं षष्ठः कण्ठं सबाहुकम् ॥ सर्वलक्षणसंयुक्तं सप्तमो मुखमुच्यते । अष्टमश्चक्षुषी विष्णोः कपोलौ भुकुटिः परः ॥ दशमो ब्रह्मरन्धं च मन एकादशः स्मृतः । आत्मा तु द्वादशस्कन्धः श्रीकृष्णस्य प्रकीर्तितः ॥ 

अर्थात् श्रीभगवान्‌के श्रीविग्रहका पैरसे लेकर जानुपर्यन्त श्रीमद्भागवतका प्रथम स्कन्ध है , जानुसे कटिपर्यन्त दूसरा स्कन्ध , तीसरा स्कन्ध नाभि , चौथा स्कन्ध उदर , पाँचवाँ स्कन्ध हृदय , छठा स्कन्ध बाहुसहित कण्ठ , सातवाँ स्कन्ध मुख , आठवाँ स्कन्ध नेत्र , नवाँ स्कन्ध कपोल एवं ध्रुकुटि , दसवाँ स्कन्ध ब्रह्मरन्ध्र , ग्यारहवाँ स्कन्ध मन और बारहवाँ स्कन्ध आत्मा कहा गया है । पुराणोंके श्रवणकी बहुत महिमा है । पुराणोंका प्रतिपादन आख्यानशैलीमें है । इसीलिये ये परम रोचक और शीघ्र प्रभाव डालते हैं । पुराणोंमें वेदोंके ही अर्थोंका उपबृंहण हुआ है । 

' इतिहासपुराणाभ्यां वेदार्थ मुपबृंहयेत् । ' 

वेदमें जहाँ ' सत्यं वद ' आदि उपदेश आये हैं , पुराणोंने इन उपदेशोंको राजा हरिश्चन्द्र आदि आख्यानसे कथारूप में प्रस्तुत किया है । पुराण हमें सच्चे मित्रकी भाँति कल्याणकारी परामर्श प्रदान हैं । पुराण श्रीवेदव्यासजीकी कृतियाँ हैं । यह व्यासजीका लोकपर महान् अनुग्रह है । आत्मकल्याण तथा भगवत्प्राप्तिके साधनोंका जैसा समावेश पुराणोंमें हुआ है , वैसा वर्णन अन्यत्र नहीं मिलता । मुख्य तथा अवान्तररूपसे भगवच्चर्चा ही पुराणोंका अन्यतम प्रतिपाद्य है । आख्यानों , उपाख्यानों तथा गाथाओंके द्वारा पुराणों में उसी परम प्रभुकी महिमाका गान हुआ है । इनमें लौकिक तथा पारलौकिक ज्ञान - विज्ञानके सभी विषय भरे पड़े हैं । 

इस प्रकार श्रीमद्भागवतपुराण साक्षात् भगवान्‌का स्वरूप है , भगवान्‌की वाङ्मयी मूर्ति है । भागवतके श्रवण एवं पारायणकी अद्भुत महिमा है । शुकदेवजी इसकी अतुलनीय महिमाका बखान करते हुए कहते हैं - भागवत पुराणोंका तिलक और वैष्णवॉका धन है । इसमें परमहंसोंके प्राप्य विशुद्ध ज्ञानका ही वर्णन किया गया है तथा ज्ञान , वैराग्य और भक्तिके सहित निवृत्तिमार्गको प्रकाशित किया गया है , जो पुरुष भक्तिपूर्वक इसके श्रवण , पठन और मननमें तत्पर रहता है , वह मुक्त हो जाता है । यह भागवतशास्त्र भगवान् श्रीकृष्ण की प्राप्ति करानेवाला और नित्य प्रेमानन्दरूप फल प्रदान करनेवाला है - ' कृष्णप्राप्तिकरं शश्वत् प्रेमानन्दफलप्रदम् ॥ ' 

ब्रह्म , पद्म आदि सत्रह पुराणोंको साधनरूप और भागवतको साध्य एवं फलरूप बताया गया है । इसीसे भक्त - भागवतगणं इसकी भगवद्भावनासे श्रद्धा - भक्तिपूर्वक पूजा किया करते हैं । भगवान् वेदव्यास सदृश महापुरुषको जिसकी रचनासे ही परम शान्ति मिली , जिसमें ज्ञान - भक्तिका परम रहस्य बड़ी ही मधुरताके साथ अभिव्यक्त हुआ है , उस श्रीमद्भागवतके सम्बन्धमें क्या कहा जाय ? इसके प्रत्येक अंगसे भगवद्भावपूर्ण पारमहंस्य ज्ञान - सुधासरिताकी बाढ़ आ रही है - ' यस्मिन् पारमहंस्यमेकममलं ज्ञानं पर गीयते । ' भगवान्के मधुर प्रेमका छलकता हुआ सागर है श्रीमद्भागवत इसीसे भावुक भक्तगण इसमें सदा अवगाहन करते रहते हैं । परम मधुर भगवद् - रससे भरा हुआ - ' स्वादु स्वादु पदे पदे - ऐसा ग्रन्थ बस यही है । इसकी कहीं तुलना नहीं है । 

                            चतुःश्लोकी भागवत 

श्रीब्रह्माजीकी तपस्यासे प्रसन्न होकर भगवान्ने उन्हें अपना दर्शन दिया , अपने निर्गुण - सगुण स्वरूपोंका ज्ञान दिया , सृष्टि रचनेकी सामर्थ्य दी और सृष्टि करते हुए भी संसारमें लिप्त न हों , इसके लिये चतुःश्लोकोंका उपदेश दिया । जो इस प्रकार है

 ज्ञानं परमगुह्य मे यद् विज्ञानसमन्वितम् । सरहस्यं तदङ्गं च गृहाण गदितं मया ॥ यावानहं यथाभावो यद्रूपगुणकर्मकः । तथैव तत्त्वविज्ञानमस्तु ते मदनुग्रहात् ॥ अहमेवासमेवाग्रे नान्यद् यत् सदसत् परम् पश्चादहं यदेतच्च योऽवशिष्येत सोऽस्म्यहम् ॥ ॠतेऽर्थं यत्प्रतीयेत न प्रतीयेत चात्मनि । तद्विद्यादात्मनो मायां यथाभासो यथा तमः ॥ यथा महान्ति भूतानि भूतेषूच्चावचेष्वनु प्रविष्टान्यप्रविष्टानि तथा तेषु न तेष्वहम् ॥ एतावदेव जिज्ञास्यं तत्त्वजिज्ञासुनात्मनः । अन्वयव्यतिरेकाभ्यां यत् स्यात् सर्वत्र सर्वदा ॥ ( श्रीमद्भा ० २।९।३०-३५ )  

श्रीभगवान्ने कहा- हे ब्रह्माजी ! अनुभव , प्रेमाभक्ति तथा साधनोंसे युक्त अत्यन्त गोपनीय अपने स्वरूपका ज्ञान मैं तुम्हें कहता हूँ , तुम उसे सुनकर ग्रहण करो । जितना मेरा विस्तार है , मेरा जो लक्षण है , मेरे जितने और जैसे रूप , गुण और लीलाएँ हैं - मेरी कृपासे तुम उनका तत्त्व ठीक - ठीक वैसा ही अनुभव करो । सृष्टिके पूर्व केवल मैं - ही - मैं था । मेरे अतिरिक्त न स्थूल था न सूक्ष्म और न तो दोनोंका कारण अज्ञान । जहाँ यह सृष्टि नहीं है , वहाँ मैं ही मैं हूँ और इस सृष्टिके रूपमें जो कुछ प्रतीत हो रहा है , वह भी मैं ही हूँ और जो कुछ बच रहेगा , वह भी मैं ही हूँ । वास्तवमें न होनेपर भी जो कुछ अनिर्वचनीय वस्तु मेरे अतिरिक्त मुझ परमात्मामें दो चन्द्रमाओंकी तरह मिथ्या ही प्रतीत हो रही है अथवा विद्यमान होनेपर भी आकाश मण्डलके नक्षत्रों में राहुकी भाँति जो मेरी प्रतीति नहीं होती , इसे मेरी माया समझना चाहिये । जैसे प्राणियों के पंचभूतरचित छोटे - बड़े शरीरोंमें आकाशादि पंचमहाभूत उन शरीरोंके कार्यरूपसे निर्मित होनेके कारण प्रवेश करते भी हैं और पहलेसे ही उन स्थानों और रूपों में कारणरूपसे विद्यमान रहनेके कारण प्रवेश नहीं भी करते , वैसे ही उन प्राणियों के शरीरकी दृष्टिसे मैं उनमें आत्माके रूपमें प्रवेश किये हुए हूँ और आत्मदृष्टिसे अपने अतिरिक्त और कोई वस्तु न होनेके कारण उनमें प्रविष्ट नहीं भी हूँ । ' यह ब्रह्म नहीं , यह ब्रह्म नहीं- इस प्रकार निषेधकी पद्धतिसे और ' यह ब्रह्म है , यह ब्रह्म है - इस अन्वयकी पद्धतिसे यह सिद्ध होता है कि सर्वातीत एवं सर्वस्वरूप भगवान् ही सर्वदा और सर्वत्र स्थित हैं । वे ही वास्तविक तत्त्व हैं । जो आत्मा अथवा परमात्माका तत्त्व जानना चाहते हैं , उन्हें केवल इतना ही जाननेकी आवश्यकता है ।

हरिशरणम हरिशरणम हरिशरणम 

BHOOPAL MISHRA 

SANATAN VEDIC DHARMA KARMA 

bhupalmishra35620@gmail.com 

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