आचार्य श्री विष्णुस्वामी जी महाराज
धर्मराज युधिष्ठिरके संवत् २५०० व्यतीत होनेपर अर्थात् विक्रमसे ६०० वर्षपूर्व द्रविडदेशके एक क्षत्रिय राजाके मन्त्री भक्त ब्राह्मणने भगवान्की बड़ी आराधना करके विष्णुस्वामीको पुत्रके रूपमें प्राप्त किया था । कोई - कोई इनका समय विक्रमके बाद भी मानते हैं । भगवद्विभूतिस्वरूप होनेके कारण बचपन में ही इनमें अलौकिक गुण प्रकट हुए थे । इनकी जैसी अद्भुत प्रतिभा थी , वैसा ही सुन्दर शरीर भी था । यज्ञोपवीत संस्कारके अनन्तर थोड़े ही दिनोंमें इन्होंने सम्पूर्ण वेद - वेदांग , पुराणादिका यथावत् ज्ञान प्राप्त कर लिया । ' यो यदंशः स तं भजेत् ' के नियमानुसार अब ये परम सुखके अन्वेषणकी ओर अग्रसर हुए । इन्होंने मर्त्यलोकसे लेकर ब्रह्मलोकतकपर विचार किया , परंतु इन्हें इनके अभीष्ट वस्तुके दर्शन नहीं हुए । इनकी उपासना बहुत दिनोंतक बड़ी श्रद्धा - भक्तिके साथ एक - सी चलती रही ; परंतु अभिलाषा पूर्ण न हुई ।
अब इन्होंने भगवद्वियोगमें अन्न - जलका त्याग कर दिया , परंतु भगवत्सेवा पूर्ववत् चलती रही । छः दिन बीत गये , शरीर शिथिल पड़ गया , परंतु उत्साहमें न्यूनता नहीं आयी । सातवें दिन इनकी विरह - व्यथा इतनी तीव्र हो गयी कि इन्हें एक - एक क्षण कल्पके समान जान पड़ने लगा , जीना भारस्वरूप हो गया । तब इन्होंने अपने शरीरको विरहाग्निमें जला देनेका निश्चय किया । इसी समय इनका हृदय प्रकाशसे भर गया औरत किया । उस समय इनको को हुई है । पूर्ण हृदय इन्होंने सिखद एवं खोरसे अनुधारा बहाते हुए वहीं सोने ये भइन्हें चित्र करकमलों एवं इनके सिर तथा पीपर हाथ फेरकर किया । थोड़ी देर को इनके मनमें उपनिषदोंके अभिप्रायके सम्बन्ध उसका निवारण करनेके लिये भगवान् इन्हें अपने तत्वका रहस्य सन्देहको अंकि इन्होंने स्थान हो मत दो कि मुझ पुरुषोत्तम भगवाजो तुम्हारे सकाररूपये साक्षात् प्रत्यक्ष होकर बात कर रहा हूँ , अतिरिक्त भी कोई दूसरा तत्त्व है । इससे सरकाररूपो एक अद्वितीय त्रिविषय अनिर्वचनीय परम तत्त्व में हूँ । माया जगद आदि कुछ नहीं , सब मैं हो हूँ । धर्म देखते हैं , सब मुझमें हैं । मैं हो सगुण - निर्गुण साकार - निराकार , सविशेष - निर्विशेष सब कुछ है । अत : यह शंका छोड़कर सर्वभाव से हो भजन करो । "
इसके पश्चात् विविष्णुस्वामी से भगवान्की बहुत देरतक बातचीत होती रही । इन्होंने आग्रह किया कि अब आप अन्तर्धान न हो , सर्वदा मुझे दर्शन दिया करें या अपने साथ ले चलें । भगवान्को तो इनसे का प्रचार कराना था अतः एक मूर्ति बनानेवालेको बुलाकर दर्शन दिया और वैसी हो मूर्ति बनाकर स्थापित करके अर्चा- सेवा करने का आदेश दिया और स्वयं उसमें प्रवेश कर गये । विष्णुस्वामी उस विग्रहको साक्षात् भगवमानकर अर्था - पूजा करते हुए आनन्दसे जीवन बिताने लगे । ये श्रीकृष्ण तवास्मि ' इस मन्त्रका जप करते थे ।
भगवदर्शन और भगवदादेशके बाद विष्णुस्वामी भक्तिके प्रचार - प्रसारमें संलग्न हो गये । एक बारको बात है , अपने बहुत - से शिष्योंको साथ लेकर आप भक्तिका प्रचार करते हुए भगवान् जगन्नाथजीका दर्शन करने उनके धाम श्रीजगन्नाथपुरी आये । उस समय महाप्रभु जगन्नाथस्वामीका फूल - डोल महोत्सव चल रहा या भक्त दर्शनार्थियोंकी अपार भीड़ लगी थी । आप गरुडस्तम्भके पास खड़े होकर प्रभुको मनोरम शोकोके दर्शन करने लगे , परंतु दर्शनार्थियोंके बढ़ते जन सैलाबमें आपको वहाँ खड़े रह पाना सम्भव न लगा तो मन्दिर के द्वारसे हटकर आप उसके पृष्ठभागमें चले गये और वहाँ बैठकर प्रभुको उसी मनोरम झाँकीका ध्यान करने लगे , जिसका उन्हें गरुडस्तम्भके पाससे दर्शन हुआ था ।
जितनी उत्सुकता भक्तको भगवान्का दर्शन करनेकी होती है , उतनी ही उत्सुकता भगवान्को भी अपने भक्तके दर्शनको होती है ; वे तो अपने भक्तोंके पीछे - पीछे उनकी पादरेणुके लिये दौड़ते हैं । भा मुख्य द्वारसे हटकर मन्दिरके पीछे की ओर बैठना भगवान् जगन्नाथजीके लिये असा हो गया और उन्होंने उनके लिये मन्दिर के पृष्ठभागमें भी द्वार बनाकर अपना दर्शन सुलभ कर दिया । भगवान्को अहेतुकी कृपाका दर्शनकर स्वामी भावविभोर हो गये , उनका भक्त हृदय भगवत्प्रेमसे गद्गद हो उठा । उधर दर्शनार्थियोंको जब यह हुआ कि मन्दिर के पृष्ठभागमें भी एक द्वार खुला है और उससे भी भगवान्के दर्शन हो सकते हैं , तो वहाँ भी सहस्रों की संख्या जनसमुदाय पहुँच गया । अब विष्णुस्वामी इधर भी अत्यन्त भीड़ - भाड़ देख कुछ तो एकान्त दर्शन और कुछ भक्तोंपर कृपा करनेके उद्देश्यसे मन्दिरके दक्षिणकी ओर जाकर बैठ गये और वहाँ अपने महाभुका ध्यान करने लगे , फिर क्या था ? मन्दिरके दक्षिण भागमें भी एक द्वार प्रकट हो गया । और विष्णुस्वाभी वहाँकी प्रभुके दर्शन करने लगे । उधर मन्दिरके दक्षिणद्वारसे भी दर्शन होनेको सूचना जब दर्शनार्थियों में पहुंची तो उभी जनसमुदाय भगवान जगनाथ के दर्शन करने पहुंच गया । अब विष्णुस्वामीजी उठकर मन्दिर के उत्तर भागकी ओर चले गये तो उधर भी द्वार प्रकट हो गया , इन आश्चर्यमयी घटनाओंको देख लोगोंका ध्यान विष्णुस्वामीजीकी ओर गया और उन्हें यह विश्वास हो गया कि ये उच्च श्रेणीके सिद्ध सन्त महापुरुष हैं तथा इन्होंके लिये स्वयं भगवान्ने ही अपने मन्दिरमें चारों ओर द्वार प्रकट कर दिये हैं । तब वहाँका असंख्य जनसमुदाय इनके प्रति श्रद्धावनत हो उठा और उन्होंने भी उन सबको प्रभुकी भक्तिका उपदेश दे कृतकृत्य कर दिया ।
भगवत्प्रेरणासे भक्तिकी संवर्द्धना करते - करते इनकी वृद्धावस्था आ गयी , तब इन्होंने शास्त्रमर्यादाके रक्षणके लिये त्रिदण्डसंन्यास ग्रहण किया और भगवच्चिन्तन करते - करते ये भगवान्की नित्यलीलामें प्रवेश कर गये ।
शुद्धाद्वैतसिद्धान्तके मूल प्रवर्तकाचार्य श्रीविष्णुस्वामीजी हैं और इस सिद्धान्तके विशेष प्रचारक तथा प्रसारक श्रीवल्लभाचार्य महाप्रभुजी हैं । यह भक्तिमार्ग पुष्टिमार्ग भी कहलाता है ।
हरिशरणम हरिशरणम हरिशरणम
BHOOPAL MISHRA
SANATAN VEDIC DHARMA KARMA
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