Nibkarkacharya ji आचार्य श्री निनिमबार्काचार्य जी महाराज

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   आचार्य श्री निम्बार्काचार्य जी महाराज 



  प्रमुख चार सम्प्रदायोमेसे एक सम्प्रदाय है हैताद्वैत या निम्बार्क सम्प्रदाय निश्चितरूपसे यह बहुत प्राचीनकाल से चला आ रहा है । बीनाचार्यजीने परम्पराप्राप्त इस मतको अपनी प्रतिभाशे करके लोक प्रचलित किया , इसीसे इस हैताद्वैत मतकी निम्बार्क सम्प्रदाय के नाम से प्रसिद्धि हुई ।

 भक्तोंके मतसे द्वापर में और सम्प्रदाय के कुछ विद्वानों के मतसे विक्रमकी पाँचवीं शताब्दीमें श्रीनिम्बार्काचार्यजीका हुआ । दक्षिण भारतमें बैदूर्यपत्तन परम पवित्र तीर्थ है । इसे दक्षिणकाशी भी कहते हैं । यही स्थान काजीको जन्मभूमि है । यहीं अरुणमुनिजीका अरुणा श्रम था । श्रीअरुणमुनिजीकी पत्नी जयन्तीदेवीकी गोदमें जिस दिव्य कुमारका आविर्भाव हुआ , उसका नाम पहले नियमानन्द हुआ और यही आगे निचार्यजीके नामसे प्रख्यात हुए ।

 श्रीनिम्बार्काचार्यजीके जीवनवृत्तके विषय में इससे अधिक ज्ञात नहीं है । वे कब गृह त्यागकर व्रजमें आये , इसका कुछ पता नहीं है । ब्रजमें श्रीगिरिराज गोवर्धनके समीप ध्रुवक्षेत्र में उनकी साधना - भूमि है । एक दिन समीपके स्थानसे एक दण्डी महात्मा आचार्यके समीप पधारे । दो शास्त्रज्ञ महापुरुष परस्पर मिले तो शास्त्रचर्चा चलनी स्वाभाविक थी । समयका दोमेंसे किसीको ध्यान नहीं रहा । सायंकालके पश्चात् आचार्यने अतिथि यतिसे प्रसाद ग्रहण करनेके लिये निवेदन किया । सूर्यास्त होनेके पश्चात् नियमतः यतिजी भिक्षा ग्रहण नहीं कर सकते थे । उन्होंने असमर्थता प्रकट की । परंतु आचार्यजी नहीं चाहते थे कि उनके यहाँ आकर एक विद्वान् अतिथि उपोषित रहें । आश्रमके समीप एक नीमका वृक्ष था , सहसा उस वृक्षपरसे चारों ओर प्रकाश फैल गया । ऐसा लगा , जैसे नीमके वृक्षपर सूर्यनारायण प्रकट हो गये हैं । कोई नहीं कह सकता कि आचार्यके योगबलसे भगवान् सूर्य वहाँ प्रकट हो गये थे या श्रीकृष्णचन्द्रका कोटिसूर्यसमप्रभ सुदर्शन चक्र , जिसके आचार्य मूर्त अवतार थे , प्रकट हो गया था । अतिथिके प्रसाद ग्रहण कर लेनेपर सूर्यमण्डल अदृश्य हो गया । इस घटनासे आचार्य निम्बादित्य या निम्बार्क नामसे विख्यात हुए । आचार्यका वह आश्रम ' निम्बग्राम ' कहा जाता है । यह गोवर्धनके समीपका निम्बग्राम है , माटके समीपका नीमगाँव नहीं । वे यतिजी उस समय जहाँ आश्रम बनाकर रहते थे , वहाँ आज यतिपुरा नामक ग्राम है । 

भक्तमालके टीकाकार श्रीप्रियादासजी महाराज इस घटनाका अपने एक कवित्तमें इस प्रकार वर्णन करते हैं

 निम्बादित्य नाम जाते भयो अभिराम कथा आयो एक दण्डी ग्राम न्यौतो करि आये हैं । पाक को अबार भई सन्ध्या मानि लई जती रती हूँ न पाऊँ वेद वचन सुनाये हैं ॥ आँगन में नींब तापै आदित दिखायौ ताहि भोजन करायो पाछे निशि चिन्ह पाये हैं । प्रगट प्रभाव देखि जान्यो भक्ति भाव जग दांव पाइ नांव परयो हरयो मन गाये हैं ॥ १०६ ॥ 

श्रीनिम्बार्काचार्यजीका वेदान्तसूत्रोंपर भाष्य ' वेदान्तसौरभ ' और ' वेदान्तकामधेनु ' अथवा ' दशश्लोक' ये दो ग्रन्थ ही उपलब्ध हैं । ये दोनों ही ग्रन्थ अत्यन्त संक्षिप्त हैं । इनके अतिरिक्त कृष्णस्तवराज , वेदान्ततत्त्वबोध , वेदान्तसिद्धान्तप्रदीप , स्वधर्माध्वबोध , ऐतिह्मतत्त्वसिद्धान्त , राधाष्टक आदि कई ग्रन्थ आचार्यके लिखे बताये जाते हैं । श्रीनिम्बार्काचार्यजीके शिष्योंमें एक नाम श्रीऔदुम्बराचार्यजीका भी प्राप्त होता है । इनके उत्पत्तिकी कथा बड़ी ही विलक्षण सुननेमें आती है । कहा जाता है कि श्रीनिम्बार्काचार्यजी महाराज भक्तिका प्रचार करते - करते किसी ऐसे देशमें पहुँच गये , जहाँके लोग भगवद्भक्तिसे विमुख थे । उन लोगोंने आचार्य श्री के साधुवेशको देखकर उनके साथ उद्दण्डतापूर्ण व्यवहार करना शुरू कर दिया , परंतु उनकी आशाके विपरीत आचार्यश्री शान्त ही रहे और तनिक भी क्रोधित नहीं हुए । आचार्यश्रीने वहीं स्थित एक गूलरके वृक्षके नीचे आसन लगा लिया और ध्यानस्थ हो गये । दुष्टजनोंको अब और अच्छा मौका मिल गया था ; वे तरह - तरहके उपद्रव करते रहे । सहसा एक गूलरका फल वृक्षसे टूटकर आचार्य श्रीके चरणोंपर गिरा और उनके श्रीचरणोंसे स्पर्श होते ही एक दिव्य मानवाकृतिमें परिवर्तित हो गया तथा आचार्य श्रीकी वन्दना करते हुए उनके चरणों में प्रणिपात करने लगा ।

 इस अलौकिक घटनाको देखकर उन भगवद्विमुख दुष्टजनोंके होश उड़ गये । उन्होंने समझ लिया कि ये कोई सिद्ध महापुरुष हैं , इनकी हँसी उड़ाना या इन्हें किसी प्रकारसे अपमानित करना उचित नहीं है । इस घटनाकी ख़बर शीघ्र ही जंगलकी आगकी तरह चारों तरफ फैल गयी और उस भगवद्भक्तिविमुख देशके लोग भी आचार्य श्रीके शिष्य हो गये । उदुम्बर ( गूलर ) फलसे उत्पन्न होनेके कारण उस दिव्य पुरुषका आचार्य श्रीने औदुम्बराचार्य नाम रखा और उसे भक्तितत्त्वका उपदेश देकर भगवद्विमुख जीवोंका उद्धार करनेका आदेश दिया । श्रीनिम्बार्काचार्यजी तथा उनकी परम्पराके अधिकांश आचार्योंकी यह प्रधान विशेषता रही है कि उन्होंने दूसरे आचार्योंके मतका खण्डन नहीं किया है । श्रीदेवाचार्यजीने ही अपने ग्रन्थों में अद्वैतमतका खण्डन किया है । श्रीनिम्बार्काचार्यजीने प्रस्थानत्रयीके स्थानपर प्रस्थानचतुष्टयको प्रमाण माना और उसमें भी चतुर्थ प्रस्थान श्रीमद्भागवतको परम प्रमाण स्वीकार किया अनेक वीतराग , भावुक भगवद्भक्त इस परम्परामें सदा ही रहे हैं।                         

।               श्री सम्प्रदाय के आचार्य 

 बिष्वकसेन मुनिबर्य सुपुनि सठकोप प्रनीता । बोपदेव भागवत लुप्त उधरयौ नवनीता ॥ मंगल मुनि श्रीनाथ पुंडरीकाच्छ परम जस । राममिश्र रस रासि प्रगट परताप परांकुस ॥ जामुन मुनि रामानुज तिमिर हरन उदय भान । सँप्रदाय सिरोमनि सिंधुजा रच्यो भक्ति बित्तान ॥३० ॥ समुद्रसुता श्रीलक्ष्मीजीने सभी सम्प्रदायों में श्रेष्ठ श्रीसम्प्रदायको भक्तिके मण्डपके समान बनाया , जिसके नीचे ( पास ) आकर त्रयतापसे तपे प्राणियोंने शरण पायी । भगवान्‌के पार्षद श्रीविष्वक्सेनजी श्रीलक्ष्मीजीके अनुयायी हुए । पश्चात् मुनिश्रेष्ठ श्रीशठकोपजी , जिनके द्वारा पवित्र श्रीसम्प्रदाय परिवर्धित हुआ । फिर श्रीबोपदेवजी हुए , जिन्होंने श्रीमद्भागवतरूपी मक्खनको प्रकट किया । पश्चात् मंगलकारी श्रीनाथमुनि , उसके बाद परम यशस्वी श्रीपुण्डरीकाक्षजी , तदनन्तर भक्तिरसके समूह श्रीराममिश्रजी हुए । फिर परांकुशाचार्यजी , जिनका प्रताप संसारमें प्रकट है । उनके बाद श्रीयामुनाचार्यजी और फिर अज्ञानरूपी अन्धकारको हरनेवाले सूर्यके समान श्रीराम हुए ॥ ३० ॥ श्रीसम्प्रदायके इन आचार्योमेंसे कुछका संक्षिप्त विवरण इस प्रकार है 

         श्री विष्वक्सेन जी महाराज 

श्रीविष्वक्सेनजी श्रीभगवान्के प्रधान पार्षद हैं तथा पंचरात्रादि आगमरूप भी कहे गये हैं ' विष्वक्सेनस्तन्त्रमूर्तिर्विदितः पार्षदाधिपः ॥ '

              भगवान् विष्णुके पार्षदों में इनका वही स्थान है , जो शिवगणोंमें श्रीगणेशजीका । इस सम्प्रदायकी आद्यप्रवर्तिका भगवती लक्ष्मीने सर्वप्रथम  सम्प्रदायके आचार्य इकोलोरायण मन्त्रको दोशा दी थी । विष्वक्सेनजी भगवान् विष्णुके निर्माल्यधारी कहे जाते हैं । वे है । उनके हाथों शेख , चक्र , गदा और पद्म रहते हैं । वे श्वेत पचपर विराजमान रहते हैं । ' ' भोजनसे उनकी पूजा होती है । ये भगवान् विष्णुको पूजा - सपयामें सदा संलग्न रहते हैं । भगवान् विष्णुके विशेष पूजनमें इनका भी साथ में पूजन होता है । भगवन्दकोपर इनका बड़ा ही अनुग्रह रहता है । 

                 श्री शठकोपाचार्य जी महाराज 

तमिल वैष्णव सन्तोंमें महात्मा शठकोपका स्थान बहुत ऊँचा और आदरके योग्य गिना जाता है । इनका तमिल नाम नम्मालवार है और तमिल इन्हें जन्मसिद्ध वैष्णवमानते हैं । इनके प्रसिद्ध नाम शठकोपन और भारन भी है । ये भगवान् विष्णुके प्रमुख पार्षद विष्वक्सेनके अवतार माने जाते हैं । कोपके पिता का नाम करिमारन था । ये पाण्ड्यदेशके राजाके यहाँ किसी ऊँचे पदपर थे और आगे चलकर कुरुगनाडु नामक छोटे राज्य के राजा हो गये , जो पाण्डयदेशके ही अधीन था । शठकोपका जन्म अनुमानतः तिरुक्कुरुकूर नामक नगरमें हुआ था , जो तिरुनेलवेली जिलेमें ताम्रपर्णी नदीके तटपर अवस्थित था । इनके सम्बन्ध में यह कथा प्रचलित है कि जन्मके बाद दस दिनतक इन्हें भूख , प्यास कुछ भी नहीं लगी । यह देखकर इनके माता - पिताको बड़ी चिन्ता हुई । वे इसका रहस्य कुछ भी नहीं समझ सके । अन्तमें यही उचित समझा गया कि इन्हें भगवान्के मन्दिरमें ले जाकर वहाँ छोड़ दिया जाय । बस , इस निर्णय के अनुसार इन्हें स्थानीय मन्दिरमें एक इमलीके वृक्षके नीचे छोड़ दिया गया । सबसे लेकर सोलह वर्षकी अवस्थातक बालक नम्मालवार उसी इमलीके पेड़के कोटरमें योगको प्रक्रियासे ध्यान और भगवान् श्रीहरिके साक्षात्कारमें लगे रहे । नम्मालवारको ख्याति दूर - दूरतक फैल गयी । तिरुक्कोईलूर नामक स्थानके एक ब्राह्मण , जो मधुर कविके नामसे विख्यात थे , उस स्थानपर जा पहुँचे , जहाँ ये बालक भक्त अपने भगवान् श्रीनारायणका ध्यान कर रहे थे । 

इतिहास यह है कि जब नम्मालवारजी ध्यानमें मग्न थे , दयामय भगवान् नारायण उनके सामने प्रकट हुए और उन्हें ' ॐ नमो नारायणाय इस अष्टाक्षर मन्त्रकी दीक्षा दी । बालक शठकोप पहलेसे ही विशेष शक्तिसम्पन्न थे और अब तो वे महान् आचार्य तथा धर्मके उपदेष्टा हो गये । कहते है कि नम्मालवार पैंतीस वर्षकी अवस्थातक इस मर्त्यलोकमें रहे और इसके बाद उन्होंने अपने भौतिक विग्रहको त्याग दिया । कहा जाता है , इनके जीवनका अधिकांश भाग राधाभाव में बीता । वे सर्वत्र सब समय सारी परिस्थितियों और घटनाओंमें अपने इष्टदेवमें ही रमे रहते । ये भगवान्के विरहमें रोते , चिल्लाते नाचते गाते और मूर्छित जाते थे । इसी बीचमें इन्होंने कई भक्तिभावपूर्ण धार्मिक ग्रन्थोंकी रचना की , जो बड़े विचारपूर्ण , गम्भीर और भगवत्प्रेरित जान पड़ते हैं । इनके प्रधान ग्रन्थोंके 

नाम तिरुविरुत्तम् , तिरुवाशिरियम् , पेरिय तिरुबन्त और तिरुवाय्मोलि हैं

  महात्मा शठकोपके ये चार ग्रन्थ चार वेदोंके तुल्य माने जाते हैं । इन चारोंमें भगवान् श्रीहरिकी लीलाओंका वर्णन है और ये चारों के चारों भगवत्प्रेमसे ओतप्रोत हैं । ग्रन्थकारने अपनेको प्रेमिकाके रूपमें व्यक्त किया है और श्रीहरिको प्रियतम माना है । तिरुविरुत्तम्‌में आदिसे अन्ततक यही भाव भरा हुआ है । इनके ग्रन्थोंमेंसे अकेले तिरुवाय्मोलिमें , जिसका अर्थ है पवित्र उपदेश , हजारसे ऊपर पेद हैं । दक्षिणके वैष्णवोंके प्रधान ग्रन्थ दिव्यप्रबन्धम्के चतुर्थांशमें इसीके पद संगृहीत हैं । मन्दिरोंमें धार्मिक साहित्य में तिरुवाय्मोलिका अपना निराला ही स्थान है । वहाँ इसके पाठका महत्त्व उतना ही माना जाता है , जितना वेदाध्ययन और वेदपाठका ; क्योंकि इसमें वेदका सार भर दिया गया है ।  

                   श्री बोपदेव जी महाराज 

 श्रीनाभादासजीने श्रीसम्प्रदायके आचार्योंमें श्रीबोपदेवजीका नाम बड़े ही आदरभावसे लिया है और इन्हें लुप्त भागवतका उद्धारकर्ता बताया है । बोपदेवजी महान् भगवद्भक्त तथा परम वैष्णव सन्त थे । इनका समय हेमाद्रि देवगिरिके राजा रामचन्द्रके मन्त्री थे । मन्त्रिप्रवर हेमाद्रिकी प्रसन्नता के लिये श्रीबोपदेवने भागवत तेरहवीं शती है । ये धर्मशास्त्रके महान् निबन्ध ग्रन्थ ' चतुर्वर्गचिन्तामणि ' के प्रणेता हेमाद्रिके सभासद् थे और धर्मप्रधान अनेक ग्रन्थोंकी रचना की । भागवततत्वका वर्णन करनेके लिये उन्होंने जिन तीन ग्रन्थोंका निर्माण किया , उनके नाम हैं — ‘ परमहंसप्रिया ' , ' हरिलीलामृत ' और ' मुक्ताफल ' । हरिलीलामृतका ही दूसरा नाम भागवतानुक्रमणिका है । इसमें सम्पूर्ण भागवतका सारांश आ गया है । परमहंसप्रिया- इनके द्वारा की गयी । भागवतको संस्कृत टीका है । इन्हीं ग्रन्थोंके आधारपर कुछ लोगोंने यह धारणा बना ली है कि श्रीमद्भागवत बोपदेवकी रचना है , व्यासदेवजीकी नहीं । वस्तुतः श्रीमद्भागवत अठारह पुराणोंके कर्ता भगवान् वेदव्यासजीको S F E S ही रचना है । श्रीबोपदेवजी भगवान्के परम भक्त थे । भगवान्के मंगलमय नाम तथा उनके गुणों एवं लीलाओंके चिन्तनमें ये सदा निमग्न रहते थे । इनका पाण्डित्य महान् था । इनकी रचना कवित्तकल्पद्रुमके वर्णनसे पता चलता है कि ये द्रविड़ ब्राह्मण थे और इनके पिताका नाम धनेश्वर था । बोपदेवजीने २६ ग्रन्थोंकी रचना की है । भागवतधर्मक प्रचार - प्रसार तथा भगवद्भक्तिकी प्रतिष्ठामें इनका महान् योगदान है । ये भगवत्प्रेमी सच्चे सन्त थे ।

         श्री नाथमुनि  जी महाराज 

 श्रीसम्प्रदायके आचार्यों में परिगणित मुनित्रयमें श्रीनाथमुनिजीका अत्यन्त विशिष्ट स्थान है । आप वेदशास्त्र - पुराणादिके प्रकाण्ड विद्वान् , सिद्ध और जीवन्मुक्त महात्मा थे । आपका जन्म द्रविड़देशके चिदम्बरम् क्षेत्रके तिरुनारायणपुरम् ( कारटुमन्नार , वर्तमान वीरनारायणपुरम् ) में हुआ था । आपके पिताका नाम श्रीईश्वरभट्टर था । आपका विवाह वंगीपुराचार्यकी पुत्री अरविन्दजासे हुआ , जिससे ईश्वरमुनिका जन्म हुआ । ईश्वरमुनिके पुत्र श्रीयामुनाचार्यजी हुए , जिन्हें श्रीसम्प्रदायके आचार्यों में अत्यन्त महत्त्वपूर्ण स्थान प्राप्त है । श्रीनाथमुनिको ब्रजभूमि और यमुनातट विशेष प्रिय था , इसीलिये उन्होंने अपने पौत्रका नाम यामुन रखा । श्रीनाथमुनिने उत्तर भारतके अनेक तीर्थोंकी यात्रा की और व्रजकी प्रेमलक्षणा नारदीय भक्तिका दक्षिण में व्यापक प्रचार किया । आपने आलवारोंके प्रबन्धोंकी खोजके लिये भी अनेक यात्राएँ कीं । आप सिद्धयोगी थे , समाधि अवस्थामें आपको श्रीशठकोपाचार्यजीका साक्षात्कार हुआ था और उनके कृपाप्रसादसे चार हजार दिव्य प्रबन्धोंकी आपको प्राप्ति हुई थी । समाधि अवस्थामें ही आपने श्रीशठकोपजीसे वैष्णवी दीक्षा प्राप्त की और रहस्यार्थसहित मन्त्रोंका ज्ञान प्राप्त किया । आपके ही प्रयत्नोंसे श्रीरंगम्में भगवान्के मन्दिरमें आलवार भक्तोंके पद्योंके संगीतमय गायनका प्रारम्भ हुआ । 

      श्री पुण्डरीकाक्ष जी महाराज 

 श्रीपुण्डरीकाक्षजी महाराज परम वैष्णव अमानी सन्त थे । आप श्रीनाथमुनिके प्रिय शिष्य थे । ' गुन तुम्हार समुझइ निज दोषा ।'- यह आपके जीवनका सिद्धान्त था । आप कहते थे कि दूसरोंके दोषोंको छिपाने और अपने दोषोंको प्रकट करनेसे मानसिक दुर्बलताएँ दूर होती हैं तथा निजधर्ममें दृढ़ता होती है । श्रीनाथमुनिके शिष्य और प्रकाण्ड विद्वान् श्रीश्रीराममिश्रजी आपके समकालीन ही थे और आपमें बड़ा आदरभाव रखते थे । जीवनकी अनेक समस्याओंका समाधान पानेके लिये श्रीमिश्रजी श्रीपुण्डरीकाक्षजी के पास आते थे और उनसे भक्तिपूर्ण सम्यक् समाधान प्राप्त करते थे ।

मित्र 

मेरा यह दुस्साहस भारतवर्ष के महापुरुषों के प्रति श्रद्धा विश्वास ही कारण है । दुसरी कारण यह है कि -आज भारत के ही लोग जिनके पूर्वज आतताईयों का शिकार होकर धर्म परिवर्तन कर लिए, अर्थात भटक कर दुराचारी पंथ को अपनाकर संसार मे उपहास का पात्र बन रहे है उनके रक्षा के लिए यह दुस्साहस करना पर रहा है । 

अर्थात आज जिस तरह से हमारे विद्यालय, महाविद्यालय मे अविद्या की शिक्षा दी जा रही है ।उससे अपने  भविष्य को परिचित कराने का भी दुस्साहस सामिल समझना चाहिए।  भारत मे आज भी कैसे कैसे महापुरुष पैदा हो रहे है ।और स्वतन्त्रा के बावजूद भी हम कितने परतंत्र है ।यह सब सच को सामने लाने के लिए ही ऐसा दुस्साहस कर रहा हुं । इसे अन्यथ न लें ।  हां प्रचार प्रसार के लिए शेयर का अनुरोध तो कर ही सकते है ।

आपका दासानुदास 

BHOOPAL MISHRA 

SANATAN VEDIC DHARMA KARMA 

bhupalmishra35620@gmail.com 

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