Madhwacharya ji आचार्य श्री मध्वाचार्य जी महाराज

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                  श्री मध्वाचार्य जी महाराज



 श्रीभगवान् नारायणकी आज्ञासे स्वयं वायुदेवने ही भक्ति - सिद्धान्तकी रक्षाके लिये मद्रास प्रान्तके मंगलूर जिलेके अन्तर्गत उडूपाक्षेत्रसे दो - तीन मील दूर वेललि ग्राममें भार्गवगोत्रीय नारायणभट्टके अंशसे तथा माता वेदवतीके गर्भसे विक्रम - संवत् १२ ९ ५ की माघ शुक्ला सप्तमीके दिन आचार्य मध्वके रूपमें अवतार ग्रहण किया था । कई लोगोंने आश्विन शुक्ला दशमीको इनका जन्मदिन माना है , परंतु वह इनके वेदान्त - साम्राज्यके अभिषेकका दिन है , जन्मका नहीं । इनके जन्मके पूर्व पुत्रप्राप्तिके लिये माता - पिताको बड़ी तपस्या करनी पड़ी थी । बचपनसे ही इनमें अलौकिक शक्ति दीखती थी । इनका मन पढ़ने - लिखनेमें नहीं लगता था ; अतः यज्ञोपवीत होनेपर भी ये दौड़ने , कूदने - फाँदने , तैरने और कुश्ती लड़नेमें ही लगे रहते थे । अत : बहुत से लोग इनके पितृदत्त नाम वासुदेवके स्थानपर इन्हें ' भीम ' नामसे पुकारते थे । ये वायुदेवके अवतार थे , इसलिये नाम भी सार्थक ही था । परंतु इनका अवतार - उद्देश्य खेलना - कूदना तो था नहीं ; अतः जब वेद - शास्त्रों की ओर इनकी रुचि हुई , तब थोड़े ही दिनोंमें इन्होंने सम्पूर्ण विद्या अनायास ही प्राप्त कर ली । जब इन्होंने संन्यास लेनेकी इच्छा प्रकट की , तब मोहवश माता - पिताने बड़ी अड़चनें डालीं ; परंतु इन्होंने उनकी इच्छाके अनुसार उन्हें कई चमत्कार दिखाकर , जो अबतक एक सरोवर और वृक्षके रूपमें इनकी जन्मभूमिमें विद्यमान हैं और एक छोटे भाईके जन्मकी बात कहकर , ग्यारह वर्षकी अवस्थामें अद्वैतमतके संन्यासी अच्युतपक्षाचार्यजीसे संन्यास ग्रहण किया । यहाँपर इनका संन्यासी नाम ' पूर्णप्रज्ञ ' हुआ । संन्यासके पश्चात् इन्होंने वेदान्तका अध्ययन आरम्भ किया । इनकी बुद्धि इतनी तीव्र थी कि अध्ययन करते समय ये कई बार गुरुजीको ही समझाने लगते और उनकी व्याख्याका प्रतिवाद कर देते । सारे दक्षिण देशमें इनकी विद्वत्ताकी धूम मच गयी ।

 एक दिन इन्होंने अपने गुरुसे गंगास्नान और दिग्विजय करनेके लिये आज्ञा माँगी । ऐसे सुयोग्य शिष्यके विरहकी सम्भावनासे गुरुदेव व्याकुल हो गये । उनकी व्याकुलता देखकर अनन्तेश्वरजीने कहा कि भक्तोंके उद्धारार्थ गंगाजी स्वयं सामनेवाले सरोवरमें परसों आयँगी , अतः वे यात्रा न कर सकेंगे । सचमुच तीसरे दिन उस तालाबमें हरे पानीके स्थानपर सफेद पानी हो गया और तरंगें दीखने लगीं । अतएव आचार्यकी यात्रा नहीं हो सकी । अब भी हर बारहवें वर्ष एक बार वहाँ गंगाजीका प्रादुर्भाव होता है । वहाँ एक मन्दिर भी है ।

 कुछ दिनोंके बाद आचार्यने यात्रा की और स्थान - स्थानपर विद्वानोंके साथ शास्त्रार्थ किये । इनके शास्त्रार्थका उद्देश्य होता भगवद्भक्तिका प्रचार , वेदोंकी प्रामाणिकताका स्थापन , मायावादका खण्डन और मर्यादाका संरक्षण । एक जगह तो इन्होंने वेद , महाभारत और विष्णुसहस्रनामके क्रमशः तीन , दस और सौ अर्थ हैं - ऐसी प्रतिज्ञा करके और व्याख्या करके पण्डितमण्डलीको आश्चर्यचकित कर दिया । गीताभाष्यका निर्माण करनेके पश्चात् इन्होंने बदरीनारायणकी यात्रा की और वहाँ महर्षि वेदव्यासको अपना भाष्य दिखाया । कहते हैं कि दुखी जनताका उद्धार करनेके लिये उपदेश , ग्रन्थनिर्माण आदिकी इन्हें आज्ञा प्राप्त हुई । बहुत से नृपतिगन इनके शिष्य हुए , अनेक विद्वानोंने पराजित होकर इनका मत स्वीकार किया । इन्होंने अनेक प्रकारकी योगसिद्धियों प्राप्त की थीं और इनके जीवनमें समय - समयपर वे प्रकट भी हुई । इन्होंने अनेक मूर्तियोंकी स्थापना की और इनके द्वारा प्रतिष्ठित विग्रह आज भी विद्यमान हैं । श्रीबदरीनारायण में व्यासजीने इन्हें शालग्रामकी तीन मूर्तियाँ भी दी थीं , जो इन्होंने सुब्रह्मण्य , उडूपि और मध्यतलमें पधरायीं । 

द्वैतवादके आचार्यों में श्रीमन्मध्वाचार्यका विशिष्ट स्थान है । आपके अनुसार समस्त पदार्थोंका मूल कारण परमात्मा हैं । उन्हींसे सारा जगत् आविर्भूत हुआ है । परमात्मा और जीवात्मा दोनों अनादि हैं और इन दोनोंमें भेद है । परमात्मा स्वतन्त्र हैं और जीवात्मा परतन्त्र । आपके अनुसार श्रीहरि ही सर्वोत्तम हैं , उनकी महिमा जानते हुए अपने स्त्री - सुतादि परिवारकी अपेक्षा अधिक एवं दृढ़तर स्नेह भगवान्पर रखना ही भक्ति है । भगवान् श्रीहरिकी इसी भक्तिका प्रचार करते हुए वे एक बार अपने सहस्त्रों शिष्योंके साथ पांचाल राज्य में गये । मार्गमें शिष्यगण पीछे रह गये थे , इसीलिये आचार्यश्री एक शिलापर बैठकर विश्राम करने लगे । थोड़ी ही देरमें वे भगवान् श्रीहरिके ध्यानमें मग्न हो गये और उन्हें बाह्य जगत्का किंचित् भी ज्ञान न रहा । उधरसे ही पांचालनरेशकी सवारी आनी थी , अतः सैनिक उन्हें वहाँसे हटाने लगे ; परंतु समाधि अवस्थामें होनेके कारण आचार्य श्रीको सैनिकोंके क्रिया - कलापोंका कोई ज्ञान ही नहीं था । इतनेमें हाथीपर सवार राजा भी वहाँ पहुँच गये । एक साधुवेशधारीको मार्गमें बैठे देखकर और सैनिकोंद्वारा हटानेपर भी न हटनेपर उन्हें अपना अपमान लगा । उन्होंने क्रोधमें आकर महावतको आज्ञा दी कि ' इस पाखण्डीको हाथीसे कुचल दो । ' फिर क्या था , राजाकी सेनाके हाथी और घुड़सवार आचार्यश्रीको कुचलनेके लिये आगे बढ़े ; परंतु सब के सब मूर्तिवत् स्तम्भित खड़े रह गये । एक पग भी आगे न बढ़ सके । यह देख पांचालनरेश हाथीसे कूदकर उनके चरणोंमें प्रणत हो गये और अपने सम्पूर्ण समाजसहित उनकी शिष्यता ग्रहण की ।

 एक बार किसी व्यापारीका जहाज द्वारकासे मलाबार जा रहा था । तुलुबके पास वह डूब गया । उसमें गोपीचन्दनसे ढकी हुई एक भगवान् श्रीकृष्णकी सुन्दर मूर्ति थी । मध्वाचार्यको भगवान्‌की आज्ञा प्राप्त हुई और उन्होंने मूर्तिको जलसे निकालकर उडूपिमें उसकी स्थापना की । तभीसे वह रजतपीठपुर अथवा उडूपि मध्वमतानुयायियोंका तीर्थ हो गया । एक बार एक व्यापारीके डूबते हुए जहाजको इन्होंने बचा दिया । इससे प्रभावित होकर वह अपनी आधी सम्पत्ति इन्हें देने लगा ; परंतु इनके रोम - रोममें भगवान्का अनुराग और संसारके प्रति विरक्ति भरी हुई थी । ये भला , उसे क्यों लेने लगे । इनके जीवनमें इस प्रकारके असामान्य त्यागके बहुत से उदाहरण हैं । कई बार लोगोंने इनका अनिष्ट करना चाहा और इनके लिखे हुए ग्रन्थ भी चुरा लिये , परंतु आचार्य इससे तनिक भी विचलित या क्षुब्ध नहीं हुए , बल्कि उनके पकड़े जानेपर उन्हें क्षमा कर दिया और उनसे बड़े प्रेमका व्यवहार किया । ये निरन्तर भगवच्चिन्तनमें संलग्न रहते थे । बाहरी काम - काज भी केवल भगवत् सम्बन्धसे ही करते थे । इन्होंने उडूपिमें और भी आठ मन्दिर स्थापित किये , जिनमें श्रीसीताराम , द्विभुज कालियदमन , चतुर्भुज कालियदमन , विट्ठल आदि आठ मूर्तियाँ हैं । आज भी लोग उनका दर्शन करके अपने जीवनका लाभ लेते हैं । ये अपने अन्तिम समयमें सरिदन्तर नामक स्थानमें रहते थे । यहींपर उन्होंने परम धामको यात्रा की । देहत्यागके अवसरपर पूर्वाश्रमके सोहन भट्टको- अब जिनका नाम पद्मनाभतीर्थ हो गया था श्रीरामजीकी मूर्ति और व्यासजीकी दी हुई शालग्रामशिला देकर अपने मतके प्रचारकी आज्ञा कर गये । इनके शिष्योंके द्वारा अनेक मठ स्थापित हुए तथा इनके द्वारा रचित अनेक ग्रन्थोंका प्रचार होता रहा ।

 श्रीमदाचार्यके बनाये अनेक ग्रन्थ हैं , जिनमें गीताभाष्य , दशोपनिषद्भाष्य , ब्रह्मसूत्रतात्पर्यबोधक अनुव्याख्यान , ब्रह्मसूत्र - अणुभाष्य , भागवत - भारत - गीतातात्पर्यनिर्णय , श्रीकृष्णामृतमहार्णव आदि मुख्य हैं । 

हरिशरणम हरिशरणम हरिशरणम हरिशरणम 

BHOOPAL MISHRA 

SANATAN VEDIC DHARMA KARMA 

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