Sr Yamunacharya ji श्री यमुनाचार्य जी महाराज

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              श्री राममिश्र जी महाराज 


श्रीसम्प्रदाय के आचार्य श्रीराममिश्रजी श्रीयामुनाचार्यजीके पितामह श्रीनाममुनिजीके अत्यन्त प्रिय कृपापात्र पूर्व विश्वासरात्र शिष्य थे । यहाँ तक कि श्रीनाथमुनिजीने अपने अन्तिम समयमें इन्हींको श्रीसामुनाचार्यजीकी जिम्मेदारी दी क्योंकि यामुनाचार्यजीके पिता ईश्वरमुनिका पहले ही परमधामगमन हो चुका था । श्रीमिजी बड़े ही विद्वान , और सदाचारी थे , वे सबमें सर्वव्यापी परमात्माका दर्शन करते थे । 

                   श्री यमुनाचार्यजी महाराज 

श्रीयामुनाचार्य महान भक्त , भगवान्‌के परम विश्वासी और विशिष्टाद्वैत सिद्धान्तके प्रचारक थे । आपका इम संवत् १०१० वि ० में मदुरामें हुआ था । श्रीवैष्णवसम्प्रदायके आचार्य नाथमूर्तिक पुत्र ईश्वरमुनि आ पिता थे । पिता की मृत्युके समय आपकी अवस्था मात्र दस सालकी थी । पितामहके संसले लेने आपका लन - पोषण दादी और माताकी देख - रेखमें हुआ । आप बाल्यावस्थासे ही अद्भुत प्रतिभाशाली और विद्वान थे । आपका स्वभाव बहुत मधुर , प्रेममय और उदार था । पाण्ड्यराजके महापडित कोलाहलको शास्त्र शास्त करनेके उपलक्ष्य में महारानीने आपको आधा राज्य सौंप दिया था , साथ ही आलबन्दार ' की उपाधिस विभूषित किया था । श्रीयामुनाचार्यजी और महापण्डित कोलाहलमें हुए शास्त्रार्थकी बड़ी रोचक कया है , जो इस प्रकार है -

राजा पाण्ड्य के राज्य में कोलाहल नामक एक विद्वान् थे , उन्होंने शास्त्रार्थमें अनेक था अतः उन्हें ' महापण्डित ' का राजसम्मान प्राप्त था । राजाको शास्त्रार्थ सुनने और कोलाहलकी विद्वान पण्डितोंको हराकर अपमानित करनेमें विशेष आनन्द आता था । इधर श्रीयामुनमुनिकी विद्वताकी भी ख्याति फैल रही थी , जो राजा पाण्ड्यके कानोंतक पहुँची । उन्हें अपने महापण्डितपर विश्वास था ही , आमः कौतूहलवशात् उन्होंने श्रीयामुनमुनिजीको कोलाहलसे शास्त्रार्थ करनेके लिये आमन्त्रित किया और आरके लिये पालकी भेजी । 

श्रीयामुनाचार्यजी जब पालकीपर बैठे आ रहे थे तो राजा - रानीने उन्हें महलके झरोखे देखा रानीको आचार्यश्रीके चेहरेपर दिव्य तेज दिखायी पड़ा । उन्होंने महाराजसे कहा कि ये कोई दिव्य महापुरुष हैं . कोलाहल पण्डित इनसे जीत नहीं पायेंगे । राजाको अपने राज - पण्डितकी विद्वत्ता और पाण्डित्यपर बहुत ग प , अतः उन्होंने रानीकी बातका प्रतिवाद करते हुए कहा कि महापण्डित कोलाहल इन्हें जरूर हरा देंगे । हनीने अपनी बातपर जोर देते हुए कहा - महाराज । यदि कोलाहल पण्डित इन्हें हरा देंगे तो मैं रानीके स्थानपर आपकी दासी बन जाऊँगी और यदि ये महापुरुष विजयी हुए तो आपको इन्हें अपना आधा राज्य देना होगा । राजाने शर्त स्वीकार कर ली । 

समयपर राजा पाण्ड्यका दरबार लगा । दोनों पण्डित आमने - सामने अपने - अपने आसनपर विराजमान गये । कोलाहलने घमण्डमें भरकर आचार्यश्रीसे कहा कि आप जो कुछ भी कहेंगे , मैं उसका खंडन का दूंगा । इसपर श्रीयामुनाचार्यजी महाराजने कहा कि मैं तीन बातें कह रहा हूँ , इनमेंसे यदि किसी एकका तुम खण्डन कर दोगे तो मैं तुम्हारा शिष्य हो जाऊँगा । यह कहकर उन्होंने कोलाहल पण्डित से निमनलिखित तीन बातें कही 1  ( ३ ) रानीजी बड़ी ही पतिव्रता और साधु स्वभाववाली है । तिम्नलिखित तीन बातें कहीं- ( १ ) तुम्हारी माता काकवन्ध्या है , ( २ ) राजा पाण्ड्य बड़े ही नीतिनिपुण और धर्मज्ञ है तथा।3  रानीजी बड़ी ही पतिव्रता और साधु स्वभाववाली है । यह सुनकर पण्डित कोलाहल अवाक् रह गये , उनको समझमें न आया कि इन बातोंको खण्डन मे करें ? क्योंकि वे अपनी माताके एकमात्र पुत्र थे , अत : माताके काकवध्या होनेवाली बात सत्य ही  शेष दो बातोंके खण्डन करनेका अर्थ था राजा - रानीपर दोष लगाना , यह भी उनके लिये सम्भव नहीं था ; अतः उन्होंने मौन रहकर हार स्वीकार कर ली । 

            यामुनाचार्य जब पैंतीस सालके हुए तो अपने देहावसान - कालमें नाथमुनिने अपने शिष्यप्रवर राममिश्रले कहा- ' ऐसा न हो कि यामुन राजकार्य में ही अपना अमूल्य समय बिता दें , विषय - भोगमें ही उनको । बीत जाय । ' नाथमुनिके देहावसानके बाद राममिश्र यामुनको उनकी सम्पत्तिका अधिकार सौंपने के लिये ले जा रहे थे । रास्तेमें श्रीरंगके मन्दिर में दर्शनके निमित्त आनेपर यामुनके हृदय में सहसा भक्तिका स्रोत उमड़ आया । उनके हृदयमें पूर्ण और अखण्ड वैराग्यका उदय हुआ , माया और राज्यभोगकी प्रवृत्तिका नाश हो गया । उन्होंने शुद्ध हृदयसे भगवान् श्रीरंगकी स्तुति की- ' परमपुरुष ! मुझ अपवित्र , उद्दण्ड , निष्ठुर और निर्लज्जको धिक्कार है , जो स्वेच्छाचारी होकर भी आपका पार्षद होनेकी इच्छा करता है । आपके पार्षदभावको बड़े - बड़े योगीश्वरोंके अग्रगण्य तथा ब्रह्मा , शिव और सनकादि भी पाना तो दूर रहा , मनमें सोच भी नहीं सकते । ' उन्होंने अत्यन्त सादगी और विनम्रतासे कहा कि ' आपके दास्यभावमें ही सुखका अनुभव करनेवाले सज्जनोंके घरमें मुझे कीड़ेकी भी योनि मिले , पर दूसरोंके घरमें मुझे ब्रह्माजीकी भी यौनि न मिले । ' वे भगवान् श्रीरंगके पूर्ण भक्त हो गये , उनके अधरोंपर भक्तिकी रसमयी वाणी विहार करने लगी ।

 श्रीयामुनाचार्यने भगवान्‌को पूर्ण पुरुषोत्तम माना , जीवको अंश और ईश्वरको अंशीके रूप में निरूपित किया । जीव और ईश्वर नित्य पृथक् हैं । उन्होंने कहा कि जगत् ब्रह्मका परिणाम है । ब्रह्म ही जगत्‌के रूपमें परिणत है । जगत् ब्रह्मका शरीर है । ब्रह्म जगत्के आत्मा हैं । आत्मा और शरीर अभिन्न हैं । इसलिये जगत् ब्रह्मात्मक है । ब्रह्म सविशेष- सगुण अशेष कल्याणगुणगणसागर सर्वनियन्ता हैं । जीव स्वभावसे ही उनका दास है , भक्त है ; भक्ति जीवका स्वधर्म है , आत्मधर्म है । भक्ति शरणागतिका पर्याय है । भगवान् अशरण शरण हैं । 

यामुनाचार्य श्रीरामानुजके परमगुरु थे । स्तोत्ररत्न , सिद्धित्रय , आगमप्रामाण्य और गीतार्थसंग्रह उनके ग्रन्थरत्न हैं । उनका आलवंदारस्तोत्र बड़ा ही मधुर है । यामुनाचार्यने आजीवन भगवान्से अनन्य भक्तिका ही वरदान माँगा । उनके लिये भगवान् ही परमाश्रय थे । उन्हींके चरणोंकी शरण लेनेमें उन्हें बन्धनमुक्ति दीख पड़ी । वे अपने समयके महान् दार्शनिक , अनन्य भक्त और विचारक थे । यामुनाचार्यने महाप्रयाणकालमें श्रीरामानुजाचार्यको याद किया , परंतु उनके पहुँचनेसे पहले ही वे दिव्यधामको पधार गये । उनको तीन अंगुलियाँ उठी रह गयीं । वे ही उनके मनमें रही तीन कामनाएँ थीं , जिनको श्रीरामानुजाचार्यने पूर्ण किया ।

  यामुनाचार्य जी एवं श्री कुरेशाचार्य महाराज 

  गोपुर है आरूढ ऊँच स्वर मंत्र उचारयो । सूते नर परे जागि बहत्तरि श्रवननि धारयो ॥ तितनेई गुरुदेव पधति भइँ न्यारी न्यारी । कुर तारक सिष्य प्रथम भक्ति बपु मंगलकारी ॥ कुपनपाल करुना समुद्र रामानुज सम नहिं बियो । हस आस्य उपदेस करि जगत उद्धरन जतन कियो ॥ ३१ ॥ सहस्र मुखवाले शेष भगवान्‌के अवतार श्रीरामानुजाचार्यजीने भक्तिपथका उपदेश देकर संसारके उद्धारका महान् प्रयत्न किया । गुरुदेवने मन्त्र देकर जिसे गुप्त रखनेके लिये कहा था , उसका श्रीरामानुजाचार्यजीने मन्दिर - द्वारके सबसे ऊँचे भागपर चढ़कर ऊँचे स्वरसे उच्चारण किया , ताकि सभी लोग श्रवण कर सकें । मन्त्रध्वनिको सुनकर सोये हुए लोग जग पड़े और बहत्तर भक्तोंने उसे सुनकर हृदयमें धारण कर लिया । इसलिये अलग - अलग बहत्तर पद्धतियाँ हुईं । इनके शिष्योंमें कुरुतारकजी प्रधान थे , जो जीवोंका मंगल करनेवाले और भक्तिके मूर्तिमान् स्वरूप थे । दीन एवं शरणागतोंका पालन करनेवाले करुणाके समुद्र श्रीरामानुजाचार्यके समान दूसरा कोई नहीं हुआ ॥ ३१ ॥

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