Kureshacharya ji Maharaj श्री कुरेशाचार्य जी महाराज (भारतवर्ष मे कैसे कैसे मानव हुए है)

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      श्री कुरेशाचार्य जी महाराज 

श्रीमदुरामानुजाचार्यजीके शिष्योंमें श्रीकूरेशजीका अत्यन्त विशिष्ट स्थान है । भोगोंके बीच रहते हुए भी निरासक्त रहना , अद्भुत मेधासम्पन्न होनेपर भी अहंकारका लेशमात्र भी न होना , अपने गुरुके प्रति सर्वस्व समर्पण करना और धर्मरक्षाहेतु प्राणोंको न्योछावर करनेके लिये तत्पर रहना - जैसे गुणोंका यदि एक साथ किसीमें दर्शन करना हो तो श्रीकूरेशाचार्यजी महाराज उसके अप्रतिम उदाहरण हैं । 

      श्रीकूरेशजी लक्ष्मी एवं सरस्वतीके वरद पुत्र थे । दोनोंकी उनपर अपार कृपा थी । कांचीपुरीसे दो कोस में दूर कूरपुर नामका एक राज्य था , कूरेशजी वहाँके राजा थे । सन्तों वैष्णवोंकी सेवा , दीनोंमें दीनदयालकादर्शन करना और अन्न - वस्त्रसे उनकी सेवा करना उनका जीवन - सिद्धान्त था । उनके राजद्वारपर प्रातः कालसे अर्धरात्रितक याचकोंको अन्न - वस्त्र वितरित होता और फाटक बन्द होनेसे पूर्व घण्टा - ध्वनि करके यह कहा जाता कि जो लोग अन्न - वस्त्र न प्राप्त कर सके हों , वे आकर प्राप्त कर लें । 

कहते हैं कि घण्टा - ध्वनि जब एक दिन कांचीपुरीमें सुनायी पड़ी तो माता लक्ष्मीने वरदराजभगवान्से उस ध्वनिके विषयमें पूछा , इसपर भगवान् वरदराजने माता लक्ष्मीको कुरेशजीकी दान - गाथा सुनायी । माता लक्ष्मीको कुरेशजीके कार्यसे बड़ी प्रसन्नता हुई , उन्होंने प्रभुसे ऐसे भक्तके दर्शन करनेकी इच्छा प्रकट की । भगवान् वरदराजने अपने पुजारी श्रीकांचीपूर्णजीको कूरेशजीको बुला लानेकी आज्ञा दी । 

भगवान् वरदराज की आज्ञा और माता लक्ष्मीकी इच्छा सुनकर कुरेशजी आनन्दमग्न हो गये , उन्होंने अपनी पत्नीसे कहा कि यह हम लोगोंका धन्यभाग है कि माता लक्ष्मीने हमें याद किया है । यह शरीर तो अत्यन्त पतित है । अतः इसे पावन करनेके लिये हमें सबसे पहले भगवान् रामानुजाचार्यजीसे दीक्षा लेनी चाहिये । यह निश्चयकर वे सपत्नीक श्रीरामानुजके दर्शनके लिये श्रीरंगम् चल दिये । उन्होंने अपनी सम्पूर्ण सम्पत्तिका दान कर दिया और अंकिचन होकर , एक साधारण वस्त्र पहनकर श्रीरंगम के लिये चल पड़े । रास्तेमें घना जंगल पड़ता था , कुरेशजीकी पत्नी भयभीत होने लगीं , इसपर कूरेशजीने कहा- देवि ! अंकिचनके लिये कहाँ भय है , लगता है तुम्हारे पास कुछ धन है , इसीलिये तुम भयभीत हो । कुरेशजीकी पत्नीने एक स्वर्णमुद्रा अपने पास छिपा रखी थी , उन्होंने उसे भी फेंक दिया और इस प्रकार सर्वस्व त्यागकर कूरेश दम्पती आचार्य रामानुजकी शरणमें पहुँच गये , फिर श्रीरामानुजजीने इन्हें नारायण - मन्त्रकी दीक्षा दी और वहाँ रहनेकी व्यवस्था कर दी । अब कूरेश दम्पतीका जीवन नये प्रकारका हो गया था , जो कल राजाके रूपमें महादानी थे , वे ही अब भिक्षा करके भोजन करते थे । एक दिन अतिवृष्टिके कारण ये भिक्षार्थ नहीं जा सके और भूखे ही भगवत्स्मरण करते रहे । उनकी पत्नीने पतिको भोजन कराना अपना धर्म समझकर भगवान् से प्रार्थना की , तुरंत ही भगवान्के भोगका थाल लेकर पुजारीजी वहाँ आ गये । वस्तुतः घट - घटवासी प्रभुने स्वयं ही पुजारीके अन्तःकरणमें इस बातकी प्रेरणा दी थी । भगवत्प्रसादका थाल देखकर कुरेशजीके मनमें आश्चर्यमिश्रित आनन्द हुआ , उन्होंने अपनी पत्नीसे पूछा कि यह थाल कैसे आया ? इसपर पत्नीने कहा - ' नाथ ! मैंने अपने पत्नी धर्म का निर्वाह करने के लिए प्रभु से प्रार्थना की थी ।इस पर कुरेशाचार्य ने समझाया ,इस प्रकार बार - बार भगवान्‌को कष्ट देना उचित नहीं है ।

किंवदन्ती है कि उस भगवत्प्रसाद के प्रभावसे कुरेशजीको दो पुत्ररत्नोंकी प्राप्ति हुई । दोनों ही पुत्र सर्वगुण सम्पन्न और भगवद्भक थे । श्रीरामानुजजीने बड़ेका नाम पराशरभट्ट और छोटेका श्रीराम नाम रखा । एक बारकी बात है , सर्वज्ञभट्ट नामक एक दिग्विजयी पण्डित अपने शास्त्र ज्ञानके अहंकारमें श्रीरंगपुरी आये और वहाँके विद्वानोंको शास्त्रार्थकी चुनौती दी । पराशरभट्ट उस समय बालक थे , वे धूलमें खेल रहे थे । अचानक उन्होंने एक अंजुलि धूल उठायी और दिग्विजयी पण्डितके पास जाकर कहा - पण्डितजी । मेरी अंजुलिमें धूलके कितने कण हैं ? पण्डितजी कुछ भी उत्तर न दे सके और हक्के - बक्के रह गये । इसपर बालक पराशरने कहा- जब इतना भी नहीं जानते तो अपना नाम सर्वज्ञ क्यों रखा है ? दिग्विजयी पण्डित बालक पराशरके चरणों में गिर गये और अहंकारशून्य होकर बोले - ' आप मेरे गुरु हैं । 

 आचार्य रामानुजजीने ब्रह्मसूत्रपर श्रीभाष्य लिखा है । उनके इस श्रीभाष्यलेखनमें श्रीकूरेशजीकी अद्भुत मेधाशक्तिकी दिग्दर्शना होती है । हुआ यूँ कि श्रीभाष्य लिखनेके लिये रामानुजजीको ' बोधायनवृत्ति को आवश्यकता थी । यह अत्यन्त दुर्लभ ग्रन्थ था , जो कि कश्मीरके शारदापीठमें ही प्राप्त हो सकता था । परंतु वहां कि अद्वैत समर्थक विद्वान् इसे देना नहीं चाहते थे , क्योंकि वे इस बात से भयभीत थे कि इस ग्रन्थके प्राप्त हो जानेपर आचार्य रामानुज हमारे अद्वैतमतका खण्डन करके अपने विशिष्टाद्वैत मतका प्रतिस्थापन करेंगे । अतः उन लोगोंने बहाना बनाया । स्वामीजी उदास हो गये , तब रात्रि में भगवती शारदा देवीने स्वयं वह ग्रन्थ लाकर रामानुजजी को दे दिया और कहा कि आपलोग यहाँसे चले जाइये , अन्यथा ये लोग इसे पुनः छीन लेंगे । भगवती शारदा देवीका आदेश स्वीकारकर रामानुजजी वहाँसे चल दिये । पुस्तककी सुरक्षाका भार उन्होंने कूरेशजीपर सौंप दिया , इधर कुछ दिन बाद शारदापीठके पण्डितोंने देखा कि बोधायनवृत्ति तो अपने स्थानपर है ही नहीं तो उन्हें यह शंका हुई कि रामानुज और उनके साथ आये हुए उनके शिष्य ग्रन्थको चुरा ले गये । अब क्या था , उन लोगोंने क्रुद्ध होकर रामानुजजीका पीछा किया और एक महीनेमें रामानुजजीतक पहुँच ही गये और उनसे ग्रन्थ छीन लिया । इससे रामानुजाचार्यजीको अत्यन्त वेदना हुई । उन्हें लगा कि उनका ब्रह्मसूत्रपर भाष्य करनेका संकल्प अधूरा ही रह जायगा । अपने गुरुदेवको इस प्रकार दुखी देखकर कुरेशजीने कहा- प्रभो ! आप दुखी न हों , कश्मीरसे चलते समय प्रत्येक रात्रिमें आपके सो जानेके पश्चात् मैं ग्रन्थका पाठ किया करता था ऐसा करते हुए एक माहमें मुझे पूरा ग्रन्थ कण्ठस्थ हो गया है । आप आज्ञा दें तो मैं उसे तुरंत ही लिख डालूँ । रामानुजाचार्यजीका हृदय कुरेशजीकी यह बात सुनकर गद्गद हो गया । उन्होंने कूरेशजीको अपने हृदयसे लगा लिया और कहा - वत्स ! तुम चिरंजीवी होओ , तुम गुरु - ऋणसे उऋण हो गये । इस प्रकार कूरेशजीकी दिव्य मेधा शक्ति श्रीभाष्यकी रचनामें आधारपीठिका बनी । 

                      चार महान संत

श्रुतिप्रज्ञा श्रुतिदेव रिषभ पुहकर इभ ऐसे । श्रुतिधामा श्रुति उदधि पराजित बामन जैसे ॥ ( श्री ) रामानुज गुरुबंधु बिदित जग मंगलकारी । सिवसंहिता प्रनीत ग्यान सनकादिक सारी ॥ इंदिरा पधति उदारधी सभा साखि सारँग कहैं । चतुर महँत दिग्गज चतुर भक्ति भूमि दाबे रहें ॥ ३२ ॥

 श्री श्रुतिप्रज्ञ , श्रीश्रुतिदेव , श्रीश्रुतिधाम तथा श्री श्रुतिउदधि - ये चार महान् सन्त चार दिग्गजोंके समान थे । ये भक्तिरूपी भूमिको अपने प्रभावसे अचल रखते थे अर्थात् कोई भी विधर्मी भक्तिका थोड़ा भी विरोध अथवा खण्डन करनेका साहस नहीं करता था । श्री श्रुतिप्रज्ञजी और श्री श्रुतिदेवजी- दोनों श्रीऋषभ और श्रीपुष्कर - इन दो दिग्गजोंके समान थे , श्रीश्रुतिधामजी और श्री श्रुतिउदधिजी- ये पराजित और वामन नामक दिग्गजोंके समान थे । ये चारों श्रीरामानुजाचार्यके गुरुभाई थे । ये अपनी भक्तिनिष्ठा और विद्वत्ताके कारण विश्वमें विख्यात थे एवं संसारका मंगल करनेवाले थे । शिवसंहितामें वर्णित ज्ञान - विज्ञानके तत्त्वको जाननेमें सनकादिकोंके समान थे । ये श्रीसम्प्रदाय में निष्ठावान् और उदार बुद्धिवाले थे । सन्तसभाके दर्शक - सत्संगी लोग इन्हें दिग्गज विद्वान् कहते थे ॥ ३२

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