श्री श्रुतिधामजी महाराज
श्रीश्रुतिधामजी महाराज अविचल भक्ति एवं अखण्ड पाण्डित्यसे परिपूर्ण परम वैष्णव सन्त थे । आप आचार्य रामानुजजीके गुरुभाई थे और वेद - पुराण एवं इतिहास
के मर्मज्ञ विद्वान् थे । भक्तिभावसमन्वित सरस कथा - प्रवचनों के माध्यमसे जन - जनमें भक्ति - भावका प्रचार करना आपका जीवन - सिद्धान्त था । इसके लिये आप वैष्णव सन्तोंकी मण्डली लेकर सदैव विचरण किया करते थे । आप भगवद्भक्तोंको भगवान्का ही स्वरूप मानते थे और उनके प्रति उसी प्रकारकी आदर बुद्धि रखते थे । वैष्णव वेषके प्रति आपकी बड़ी ही निष्ठा भी , अतः आप सबको कंठी , माला , तिलक और छाप आदि वैष्णव चिहाँको धारण करनेका उपदेश करते थे । श्रुतिधामजी महाराज एक सिद्ध सन्त थे , परंतु उनकी सिद्धियाँ चमत्कार प्रदर्शन के लिये न होकर भावुक भक्तको भक्तिकी ओर उन्मुख करने के लिये होती थीं ।
एक बारकी बात है , आप सन्त - मण्डलीको लेकर तीर्थराज प्रयागमें त्रिवेणी स्नान के लिये गये थे । स्नानके बाद वहाँ त्रिवेणी तटपर ही सत्संग होने लगा । भक्तोंका एक बड़ा समाज आपके सत्संग जुट गया था । भगवत्त कथाओं के माध्यमसे ब्रह्म - निरूपण , धर्म एवं भक्तिपर सरस प्रवचन चल रहा था । महाराज श्री प्रवचनके माध्यमसे कर्म , ज्ञान और उपासनाकी त्रिवेणीका रहस्य समझा रहे थे कि किसी श्रद्धालुने प्रश्न किया- महाराज त्रिवेणी संगममें गंगाजी और यमुनाजीकी श्वेत और श्याम धाराओंक तो प्रत्यक्ष दर्शन होते हैं , परंतु सरस्वतीजीकी धाराके दर्शन नहीं होते , वह तो केवल कथाओं में सुननेकी ही बात है । दूसरे कथावाचक होते तो कथा - कहानियोंके माध्यमसे श्रद्धालु श्रोताओंकी जिज्ञासाको शान्त करने का प्रयास करते , परंतु श्रुतिधामजी महाराज तो साक्षात् भक्ति - विग्रह ही थे । उन्होंने ध्यानस्थ होकर माता गंगा , यमुना और सरस्वतीका आवाहन किया , फिर क्या था , अपने भक्तको भावनाको साकार रूप देनेके लिये तीनों देवियोंने प्रत्यक्ष होकर अपने दिव्य स्वरूपके दर्शन भक्त - मण्डलीको कराये , तत्पश्चात् उनकी जलधाराएँ भी स्पष्ट दृष्टिगोचर हुई सारा त्रिवेणीतट ' त्रिवेणीजीकी जय ' और ' श्रुतिधामजी महाराजकी जय ' से गूंज उठा । इस प्रकार श्रुति और शास्त्र में कही गयी बातोंकी सत्यताको श्रीधामजी महाराजने जन - जनके मनमें प्रतिष्ठापित किया ।
श्री श्रीतिउदधिजी महाराज
बुतिउदधिजी महाराज महान् त्यागी , विरक्त , वैष्णव सन्त थे । आप आचार्य श्री रामानुजजी महाराजके गुरुभाई थे । भगवद्भजन- चिन्तन करते हुए एकाकी भ्रमण करना आपका स्वभाव और भगवद्विमुखोंको भक्ति पथका पथिक बनाना जीवन - लक्ष्य था । Ć ( ब एक बार आप श्रीगंगाजी के दर्शन - स्नानके लिये जा रहे थे , मार्गमें एक राजाकी वाटिका पड़ती थी । शान्त , एकान्त स्थान देखकर वहाँ कुछ क्षण बैठकर आप भगवान्का ध्यान करने लगे । संयोगवश उसी रात राजाके महलमें चोरोंने सेंध लगायी थी और कुछ मालमत्ता लेकर चम्पत हो गये थे । सुबह होनेपर जब चोरीका ज्ञान हुआ तो राजमहल में हड़कम्प मच गया । चारों ओर सिपाही छोड़ दिये गये । उधर चोर भी डरके मारे भागे जा रहे थे , उन्हें भी पकड़े जानेपर मौतका खौफ सता रहा था । मार्गमें राजाकी वाटिका में श्रीश्रुतिउदधिजी महाराजको ध्यानस्थ देखकर उन लोगोंने एक मणिमाला निकालकर उनके गले में पहना दी और चोरीका कुछ माल भी वहीं रख दिया , जिससे सिपाही और राजकर्मचारी भ्रमित हो जायें । यह सब करके चोर वहाँसे चल दिये , उधर थोड़ी ही देरमें कुछ सिपाही और राजकर्मचारी चोरोंको खोजते हुए राजवाटिकातक आ पहुँचे । उन्हें दूरसे ही श्रीश्रुतिउदधिजीके गलेमें चमकती हुई मणिमाला दिखायी पड़ी , यह देखकर वे लोग शीघ्रतासे उनके समीप गये । वहाँ आस - पास कुछ और भी चोरीका माल पड़ा दिखायी दिया । उधर श्रीश्रुतिउद्धिजी महाराज तो पूरी तरह ध्यानमग्न थे , उन्हें दीन - दुनियाकी कोई खबर ही नहीं थी । अब क्या था , अविवेकी राजकर्मचारियों और सिपाहियोंने श्री श्रुतिउदधिजी महाराजको ही चोर समझ लिया और बाँधकर राजाके पास ले चले ।
सन्त तो नित्यमुक्त होते हैं , उनके लिये इस प्रकारके लौकिक बन्धनकी भला क्या सत्ता थी , परंतु श्रुतिउदधिजी महाराजने इसे भी अपने आराध्य प्रभुकी लीला ही समझा और निश्चिन्त भावसे चल पड़े राजाको अज्ञान और अहंकारके बन्धनसे मुक्त करने ।सिपाहियोंने बरामद माल राजाके पास रखकर सारी बतायी , राजा भी अविवेकी ही था उसने बिना सोचे - विचारे उदधिजी महाराजको चोरीके आरोपमें कारागारमें निरूद्ध करा दिया । संत के लिये क्या उनके लिये तो कुटिया और कारागारमें कोई भेद ही नहीं था , वे वहाँ बैठकर भगवान का भजन करने लगे । उन्हें इस घटनासे किसी प्रकारका खेद या रोष नही था , परंतु राजाका यह अन्याय सन्तोंके परम आराध्य परमात्मप्रभु से न देखा गया । उन्होंने राजाके मस्तक में पीड़ा उत्पन्न कर दी । राजाने अनेक प्रकारके उपचार किये , परंतु सन्त - अपमानजनित प्रभुद्वारा दण्डस्वरूप दी गयी वह पीड़ा किंचित भी शान्त नहीं हुई । तब प्रभु - प्रेरणासे किसी मन्त्रीने राजाको सलाह दी कि ' महाराज ! जिसे चोर समझकर आपने कारागारमें बन्द करा दिया है , वे कोई चोर नहीं , बल्कि परम तपस्वी भगवद्धक सन्त है । आप उन्हें तुरंत कारागारसे मुक्त कराइये । ' राजाको भी समझमें यह बात आ गयी और वह ' त्राहि माम् ' करता हुआ सन्तके चरणोंमें जा पड़ा । श्री महाराज परम सन्त मे , उन्हें कहाँसे किसी भी प्रकारका राजाके पति क्रोध नहीं था , उन्होंने राजाके सिरपर हाथ रखा , इससे उसके न केवल मस्तक की पीड़ा शान्त हो गयी , बल्कि उसके मस्तिष्क के बन्द ज्ञान - कपाट भी खुल गये । उसने सपरिवार श्रीतिउदधिजी महाराजका शिष्यत्व स्वीकार कर लिया । इस प्रकार दधिजी महाराजने अनेक भगवद्विमुखजनों को प्रभु - भक्तिका उपदेश दे उन्हें भगवत्सम्मुख किया और उनका परम कल्याण साधन किया ।
श्री लालाचार्य जी महाराज
( कोउ ) मालाधारी मृतक बह्यो सरिता में आयो । दाह कृत्य ज्यों बंधु न्योति सब कुटुंब बुलायो । नाम सकोचहिं बिप्र तबहिं हरिपुर जन आए । जेंवत देखे सबनि जात काहू नहिं पाए ॥ लच्छधा प्रचुर भई महिमा जगति । लालाचारज ( श्री ) आचारज जामात की कथा सुनत हरि होइ रति ॥ ३३ ॥
श्रीरामानुजाचार्यजीके दामाद लालाचार्यजी की कथा सुनते ही भगवान में विशेष प्रीति होती है । एक बार कोई तुलसीकण्ठो धारण किये हुए मृत शरीर नदी बहता हुआ आया । लालाचार्यजीने उसे निकालकर उसका अपने भाई के समान दाह संस्कार किया । तेरहवें दिन भोजन लिये ब्राह्मणको तथा कुटुंम्बियों निमंत्रण देकर बुलवाया । अज्ञात सबका भण्डारा जानकर ब्राह्मण नाक-भौंह
सिकोड़करने लगे और भोजन करने कोई नहीं आया । तब वैकुण्ठ धाम। से पार्षद आये, जिन्हे भौजन करते तो सभी लोगोंने देखा , परंतु जाते समय वे आकासे चले गये । किसीको मिले नहीं उन्हें कोई न देख पाया । इस चमत्कारसे लालाचार्यजीको महिमा संसार में लाखों गुना बढ गई ॥ ३३ ॥ श्री लालाचार्य जी महाराज का संक्षिप्त जीवन इस पर प्रकार है-
परम वैष्णव सन्त लालाचार्यजी महाराज आचार्य रामानुजजीके जामाता थे । वैष्णव वेशधारी के प्रति उनकी अत्यन्त निष्ठा थी । बोलालाचार्थजी महाराजके इस दिव्य भावको उनको सहधर्मिणी तो जानती थी परंतु साधारण लोग भला इसे क्या समझें कि केवल तुलसीमाला धारण करनेमात्रसे ही वैष्णव ब्रह्माजीद्वारा भी पूज्य हो जाता है , फिर मनुष्योंकी तो बात ही क्या है
मालाधारकमात्रोऽपि वैष्णवो भक्तिवर्जितः । मानुषैः ॥ पूजनीय प्रयत्नेन ब्रह्मणा किन्नु मानुषे ।।
एक दिन श्री लालाचार्य जी महाराजको पत्नी जल भरनेके लिये नदी तट पर गयी हुई थीं , उनके साथ उनकी कुछ सहेलियाँ भी थी जो श्रोलाचार्यजीको वैष्णवनिष्ठाके कारण उनका मजाक उड़ाया करती थीं । जिस समय वे लोग जल भर रही थी , उसी समय किसी वैष्णव सन्तका शव बहता हुआ उधर आया , उसके शरीर पर वैष्णव चिह्न अंकित थे और वह कण्ठी - माला धारण किये हुए था । सहेलियोंने व्यंग्य करते हुए । श्रोलालाचार्यजी महाराज की पत्नीसे कहा - ' इन्हें देखकर ठीकसे पहचान लो , तुम्हारे जेठ हैं या देवर ! ' यह कहकर खिलखिलाती हुई चल दी । श्रोलालाचार्यजी महाराजकी पत्नीने घर आकर श्रीलालाचार्यजीसे यह बात बतायी सुनकर श्री लालाचार्य जी करुण क्रन्दन करने लगे । उनके मनमें ठीक वैसे ही करुण भाव उत्पन्न हुए जैसे अपने अग्रज या अनुजके शरीर शान्त होनेपर होते हैं । अन्तमें यह सोचकर अपने मनको शान्त किया कि मेरे ये भाई भगवद्भक थे - वैष्णव सन्त थे , अतः इन्हें भगवद्धामकी प्राप्ति हुई है । तत्पश्चात् उनका शव का अन्तिम क्रिया करने के उद्देश्यसे वे नदीके किनारे आये और विधि - विधानपूर्वक उनकी क्रिया की ।
श्रीप्रियादासजी महाराज इस घटनाका अपने एक कवित्तमें इस प्रकार वर्णन करते हैं -
आचारज को जामात बात ताकी सुनौ नीके पायो उपदेश सन्त बन्धु कर मानिये । कोर्जे कोटि गुनी प्रीति ऐपै न बनति रीति तातें इति करौ याते घटती न आनिये ॥ मालाधारी साधु तन सरिता में बह्यो आयो ल्यायो घर फेरिकै विमान शव जानिये । गावत बजावत लै नीर तीर दाह कियो हियो दुख पायो सुख पायो समाधानिये ॥
त्रयोदशके दिन श्रीलालाचार्यजीने उन वैष्णव सन्तके निमित्त ब्राह्मण भोजनका आयोजन किया और उसके हेतु स्थानीय ब्राह्मणोंको आमन्त्रण दिया , परंतु कोई भी ब्राह्मण उनके यहाँ भोजन करने न आया । उन ब्राह्मणने आपसमें तय किया कि यह लालाचार्य पता नहीं किस जातिका शव उठा लाया और उसके त्रयोदशाहमें हम लोगोंको खिलाकर भ्रष्ट करना चाहता है , अतः इसके यहाँ किसी भी ब्राह्मणको नहीं जाना चाहिये तथा जो ब्राह्मण परिचयके आयें , उन्हें भी सब बातें बताकर रोक देना है ।भक्तमालके टीकाकार श्रीप्रियादासजी इस घटनाका इन शब्दोंमें वर्णन करते हैं-
कियो सो महोच्छौं ज्ञाति विप्रनको न्योतो दियो लियो आये नाहिं कियो शंका दुखदाइये । भये इक ठरि माया कीने सब बोरे कछु कहें बात और मरी देह वही आइये ॥ याते नहीं खात वाकी जानत न जाति पाँति बड़ी उतपात घर ल्याइ जाइ दाहिये । मग अवलोकि उत पर्यो सुनि शोक हिये जिये आइ पूछें गुरु कैसे कै निवाहिये ॥ १११ ॥
ब्राह्मणोंकी इस दुरभि सन्धिका ज्ञान जब लालाचार्यजी को हुआ , तो वे बहुत ही दुखी और चिन्तित हुए । उन्होंने ये सब बातें आचार्यश्री रामानुजजीसे निवेदन कीं । आचार्यश्रीने कहा कि तुम्हें इस विषयमें किसी प्रकार की चिन्ता नहीं करनी चाहिये । वे ब्राह्मण अज्ञानी हैं और उन्हें वैष्णव - प्रसादके माहात्म्यका ज्ञान ही नहीं है । यह कहकर उन्होंने दिव्य वैष्णव पार्षदों का आवाहन किया , वैष्णव - प्रसादकी महिमा जाननेवाले के दिव्य पार्षद ब्राह्मण वेशमें उपस्थित होकर श्रीलालाचार्यजीके घरकी और उन्मुख हुए । उन्हें देखकर वहाँके स्थानीय ब्राह्मणांने उन्हें रोकना चाहा , परंतु उनके दिव्य तेजसे अभिभूत होकर खड़े - के - खड़े रह गये और आपसमें विचार किया कि अभी जब ये लोग भोजन करके बाहर आयेंगे तो हम लोग इनकी सबको ज्ञान है ? हँसी उड़ायेंगे कि कहो , किसके श्राद्धके ब्राह्मण भोजनमें आप गये थे ? क्या उसके कुल - गोत्रका भी आप सबको ज्ञान है ।
श्रीप्रियादासजी महाराज इस प्रसंगका अपने कवित्तमें इस प्रकार वर्णन करते हैं चले श्रीआचारज पै बारिज बदन देखि करि साष्टांग बात कहि सो जनाइये । जाओ निहशक वे प्रसाद को न जाने रङ्क जाने जे प्रभाव आवँ येगि सुखदाइये ।। देखे नभ भूमि द्वार ऐहें निरधार जन वैकुण्ठ निवासी पाँति ढिग है के आइयै इन्हें अय जान देवी जनि कछु कहो अहो गहो करी हाँसी जब घर जाय खाइये ।। ११२ ।।
इधर ब्राह्मण लोग ऐसा सोच रहे थे , उधर ब्राह्मणवेशधारी दिव्य पार्षदोंने श्रीलालाचार्यजीके आँगन में जाकर वैष्णव प्रसाद पाया और पुनः आकाशमार्गसे वैकुण्ठधामके लिये प्रस्थान कर गये । ब्राह्मन उन्हें जब आकाशमार्गसे जाते देखा तो उनकी आँखें खुल गयीं । उन्हें अपनी भूलका बहुत पछतावा हुआ वे लोग आकर श्रीलालाचार्यजी महाराजके चरणोंमें गिर पड़े और क्षमा माँगते हुए रोने लगे । सन्त श्रीलालाचार्यजी महाराज तो परम वैष्णव थे , उन्हें उन लोगोपर किंचित् रोष था ही नहीं । वे बोले- आप सब ब्राह्मण हैं , इस प्रकार कहकर मुझे लज्जित न करें । आप सबकी कृपासे मुझे आज दिव्य वैष्णव पार्षदंकि दर्शन हुए , अतः मैं तो स्वयं आपका कृतज्ञ हूँ । ब्राह्मणोंको अब श्रीलालाचार्यजीके साधुत्व और सिद्धित्वमें रंचमात्र भी सन्देह नहीं रह गया । उन सबने श्रीलालाचार्यजीका शिष्यत्व ग्रहण किया और वैष्णव दीक्षा प्राप्त की ।
श्रीप्रियादासजी महाराज श्रीलालाचार्यजीकी इस वैष्णवनिष्ठाका निम्न कवित्तॉमें इस प्रकार वर्णन करते-
आये देखि पारषद गयो गिरि भूमि सद हद करी कृपा यह जानि निज जन को । पायो लै प्रसाद स्वाद कहि अहलाद भयो नयो लयो मोद जान्यो साँचो सन्तपन को ॥ विदा है पधारे नभ मग में सिधारे विप्र देखत विचारे द्वार व्यथा भई मन को । गयो अभिमान आनि मन्दिर मगन भये नये दृग लाज बीनि यीनि लेत कन को ।। ११३ ।। पाँइ लपटाइ अंग धूरि में लुटाय कहँ करो मनभायो और दीन बहु भाख्यो है । कही भक्तराज तुम कृपा मैं समाज पायो गायौ जो पुराणन में रूप नैन चाख्यो है ॥ छाड़ो उपहास अब करो निजदास हमें पूजे हिये आस मन अति अभिलाख्यो है ।
मित्र
भारतवर्ष मे कैसे कैसे महापुरुष हुए है ।कैसे कैसे अभी भी हैं ,और आगे भी होंगे। विशेष कहने क्या लाभ ।मै तो इन महापुरूष के तरफ इशारा ही कर सकता हुं । बांकी आप खुद ज्ञानी है ।
आपका दासानुदास
हरिशरणम हरिशरणम हरिशरणम
BHOOPAL MISHRA
SANATAN VEDIC DHARMA KARMA
bhupalmishra35620@gmail.com