Padmavati ji,श्री पद्मावती जी (भारतवर्ष के दिव्य इतिहास)

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         श्री पद्मावती जी 

  Copy code snippet 2. श्रीपद्मावतीजी साक्षात् भगवती लक्ष्मीजीकी अंशस्वरूप ही थीं , पद्मसदृश कान्ति होनेके कारण उनके माता - पिताने उनका पद्मावती यह नाम रखा था । पद्मावतीजीका जन्म त्रिपुरा नामक नगर एक ब्राह्मणदम्पतीके घर हुआ था । आपके पिता पण्डित श्रीप्रभाकरजी महाराज भगवती लक्ष्मीक अनन्य आराधक थे । उनकी आराधनाके फलस्वरूप साक्षात् भगवती लक्ष्मीजी की उनकी कन्याके रूप अवतरित हुई थीं । पद्मावतीकी बाल लीलाएँ अत्यन्त दिव्य थी , उनके जन्म के साथ ही पण्डित श्री प्रभाकरजी महाराजका घर ऋद्धि - सिद्धियोंसे परिपूर्ण हो गया । बालिका पद्मावती जब पाँच वर्षकी हुई तो उन्होंने अपने पितासे काशी ले चलनेका आग्रह किया । उन्होंने यह भी बताया कि वे काशी में श्रीरामानन्दाचार्यजी महाराजके दर्शन करना चाहती हैं । माता - पिताने अपनी लाडली पुत्रीका आग्रह स्वीकारकर काशीपुरीकी यात्रा की और श्रीस्वामीजीके दर्शन किये तथा उन्हें अपनी पुत्रीकी इच्छा बतायी । श्रीस्वामीजी तो सिद्ध सन्त थे ही , उन्हें पद्मावती के साक्षात् स्वरूपको समझने में देर न लगी । उन्होंने पण्डित श्रीप्रभाकरजीको पद्मावतीको लानेकी अनुमति दे दी । 

पद्मावतीने श्रीस्वामीजीके दर्शनकर उनके चरणों में प्रणाम किया । उस समय उनके श्रीअंग पुलकायमान हो रहे थे । उन्होंने आचार्यश्रीसे दीक्षा देनेकी प्रार्थना की पद्मावतीकी विनंती मानकर , आचार्यश्रीने उन्हें मन्त्र - दीक्षा दी और उपासना - रहस्यका बोध कराया । 2. पद्मावतीके कहनेपर उनके माता - पिताने भी श्रीस्वामीजीसे दीक्षा ले ली । इस प्रकार पद्मावती अपने माता - पिता के साथ काशी में ही रहकर भगवदाराधन करने लगीं । पद्मावती जब आठ वर्षकी हुई तो उन्होंने अन्न - जलका परित्याग कर दिया और वे महान् तपस्यामें लीन हो गयीं । उस समय उनके इस महान् तपकी चर्चा काशी में सर्वत्र व्याप्त हो गयी । एक दिन श्रीपद्मावतीजी गुरुदेव श्रीस्वामी रामानन्दाचार्यजीके दर्शन करने गयीं । श्रीगुरुदेवने दर्शन देनेके बाद उनसे कहा कि अब तुम्हारा तप पूर्ण हो गया है , अब तुम अपने निजधामको जाओ । यह सुनकर पद्मावतीने आचार्यश्रीके चरणों में बार बार प्रणाम किया और उनकी स्तुतिकर सबके देखते - देखते दिव्य विमानपर बैठकर परमधामको चली गयीं । 

    श्री भवानन्द जी महाराज 

 श्रीभावानन्दजी महाराज परम सन्त श्रीज्ञानदेवजीके पिता थे । इनके गृहस्थाश्रमका नाम श्रीविठ्ठलपन्त था । इनके पूर्वज मिथिलाके निवासी थे , परंतु इनके पितामह भगवान् पुण्डरीकनाथजीके बड़े भक्त थे , अतः वे पण्ढरपुरके पास ही आलन्दी नामक ग्राममें बस गये । वहीं श्रीविठ्ठलपन्तजीका जन्म हुआ , जो बादमें स्वामी रामानन्दाचार्यजीसे दीक्षा लेकर भावानन्दके नामसे विख्यात हुए । आपके पितामह श्रीहरिनाथमिश्रजी और पिता श्रीरघुनाथमिश्रजी सद्गृहस्थ और परम भागवत थे , अत : वेद - शास्त्र आदिकी शिक्षा इन्हें घरपर ही प्राप्त हो गयी । इस प्रकार ज्ञान - भक्ति और वैराग्यके इनके संस्कार घरसे ही पुष्ट हो गये । कालान्तरमें आपका विवाह सिद्धोपन्त नामक एक कुलीन ब्राह्मणकी परम सुशीला कन्या रुक्मिणीसे हो गया । श्रीरुक्मिणीबाईजी परम पतिव्रता थीं , वे पतिके कार्यों , अतिथि अभ्यागतोंके सत्कार और गृहस्थ धर्मका सम्यक् रूपसे निर्वाह करती थीं । श्रीविठ्ठलपन्तजीकी साधुता देखकर एक कर्कोटकवंशीय नाग - दम्पतीने इन्हें पर्याप्त मात्रामें धन प्रदान किया , जिसका आपने साधु सन्त - सेवामें उपयोग किया । एक दिन आपके यहाँ एक सन्त आये , सत्संगके दौरान उन्होंने बताया कि काशीमें श्रीरामानन्दाचार्य नामके एक परम भागवत वैष्णव सन्त हैं , मैं उन्हींके दर्शन करने जा रहा हूँ । यह सुनकर आप भी काशी जानेके लिये तैयार हो गये । पत्नीको घर - गृहस्थी और अतिथि सेवाका कार्य सौंपकर स्वयं उन सन्त भगवान्‌के साथ काशीके लिये प्रस्थान कर गये । मार्गमें उन्हें अनुभूति हुई कि मेरे साथ चल रहे सन्त साक्षात् विश्वामित्रजी हैं और इनके साथ सुकुमार अवस्थाके श्याम - गौर दो किशोर श्रीराम लक्ष्मण हैं । फिर क्या था ! वहीं इनकी भावसमाधि लग गयी । समाधिसे जाग्रत् होनेपर उन्होंने देखा कि वहाँ न तो वे सन्त हैं । और न ही दोनों किशोर । फिर तो वे प्रभु - दर्शनके लिये व्याकुल हो गये और ' हा राम ' ' हा रघुनाथ ' कहते हुए करुण क्रन्दन करने लगे । 2. कहते हैं कि इनकी इस प्रकारको दशा देखकर दो बालक इनके पास आये और इन्हें खानेके लिये भगवत्प्रसाद दिया और फिर इन्हें मार्ग दिखाते हुए काशीके पंचगंगाघाटपर पहुँचा दिया , जहाँ स्वामी श्रीरामानन्दाचार्यजीका आश्रम था । उन बालकोंके प्रति आपका श्रीराम - लक्ष्मणका भाव था , अतः उनके चले जानेपर पुनः आप विरह - व्याकुल हो गये । उसी समय श्रीरामानन्दाचार्यजी महाराज के शंखकी दिव्य ध्वनि आपके कानों में पड़ी , जिसे श्रवणकर आपके अन्तःकरणमें ज्ञानका उदय हुआ और आपने स्वामी श्रीरामानन्दाचार्यजी महाराजकी शरण ग्रहण की । स्वामीजीने आपको राम मन्त्रकी दीक्षा देकर आपका नाम भावानन्द रख दिया ।

 स्वामीजी अपने शिष्योंसहित धर्म प्रचारार्थ सम्पूर्ण देशमें भ्रमण करते रहते थे । इसी क्रममें वे एक बार श्रीरामेश्वरम् धामकी यात्रापर निकले थे । संयोगसे एक दिन उन्होंने आलन्दी ग्राममें विश्राम किया । यह वही ग्राम था , जहाँ भावानन्दजीका गृहस्थाश्रमका घर था । स्वामीजीका आगमन जानकर गाँवके समस्त नर - नारी उनके दर्शनके लिये आये । उनमें श्रीभावानन्दजी महाराजकी पत्नी श्रीरुक्मिणीबाई भी थीं । उन्होंने जब स्वामीजीके श्रीचरणोंमें प्रणाम किया , तो स्वामीजीने उन्हें स्वाभाविक रूपसे ' पुत्रवती भव ' का आशीर्वाद दे दिया । इसपर रुक्मिणीबाईने कहा- ' प्रभो ! मेरे पतिदेव तो आपसे दीक्षा लेकर संन्यासी हो गये हैं , ऐसेमें आपका आशीर्वाद कैसे सफल होगा ? 

     स्वामी रामानन्दजी महाराज सिद्ध सन्त थे , उनकी वाणी मिथ्या नहीं हो सकती थी । उन्होंने अपनी ज्ञानदृष्टिसे भविष्यकी घटनाओंको देखते हुए भावानन्दजीको आदेश दिया कि तुम पुनः गृहस्थाश्रममें लौट जाओ । मेरी आज्ञा होनेसे तुम्हारा पतन नहीं होगा और न ही तुम्हें कोई पाप लगेगा । तुम्हें तीन दिव्य पुत्रों और एक कन्यारत्नकी प्राप्ति होगी । तुम्हारे पुत्र साक्षात् ब्रह्मा , विष्णु और महेशके अंश होंगे और पुत्री साक्षात् योगमाया होगी , अतः तुम विश्वका कल्याण करनेके लिये पुनः गृहस्थाश्रम स्वीकार करो यही विधि विधान है । 

श्रीभावानन्दजीने प्रभुकी इच्छा जानकर गुरुकी आज्ञासे पुनः गृहस्थाश्रममें प्रवेश किया । कालान्तरमें निवृत्तिनाथ , ज्ञानदेव और सोपानदेव नामक उनके तीन पुत्र हुए , जो आगे चलकर महान् सन्त हुए । एक कन्या हुई , जिसका नाम मुक्ताबाई हुआ , वह भी सिद्धयोगिनी थी । इतना सब होते हुए भी वहाँके ब्राह्मणोंने श्रीभावानन्दजीके पुत्रोंका यज्ञोपवीत संस्कार करनेसे मना कर दिया । उनका कथन था कि एक बार संन्यासी होनेके बाद पुनः गृहस्थाश्रममें लौटकर सन्तानोत्पत्ति करनेकी कोई शास्त्रीय व्यवस्था नहीं है , अतः तुम्हें प्रायश्चित्त करना होगा , तभी तुम्हारे पुत्रोंका वैदिक संस्कार सम्भव है । प्रायश्चित्त भी कोई साधारण प्रायश्चित्त नहीं था । पति - पत्नी दोनोंको शरीर त्यागना होगा- यही प्रायश्चित्त निश्चित हुआ । श्रीभावानन्दजीने कहा- जिससे धर्मशास्त्रकी रक्षा हो , जिससे मेरे पुत्रोंका कल्याण  हो वह मेरे लिये भी मंगलकारी है , ऐसा निश्चयकर वे रुक्मिणीबाईको साथ लेकर तीर्थराज प्रयाग चले आये और वहीं माता त्रिवेणीकी गोदमें समा गये । 

              श्रीअनन्तानन्दजी महाराज 

 और उनकी शिष्यपरम्परा 

जोगानंद गयेस करमचंद अल्ह पैहारी । ( सारी ) रामदास श्रीरंग अवधि गुन महिमा भारी ॥ तिन के नरहरि उदित मुदित मेहा मंगलतन । रघुबर जदुबर गाइ बिमल कीरति संच्यो धन ॥ हरिभक्ति सिंधु बेला रचे पानि पद्मजा सिर दए । अनँतानँद पद परसि कै लोकपाल से ते भए ॥३७ ॥

 योगानन्दजी , गयेशजी , कर्मचन्दजी , अल्हजी , पयहारीजी ( सारी ) रामदासजी और श्रीरंगजी उत्तम गुणोंकी सीमा तथा महाप्रतापी हुए । श्रीरंगजीके शिष्यके रूपमें परमप्रसन्न श्रीनरहरिजीका उदय हुआ । ये सभी निरन्तर भक्तिकी वर्षा करनेवाले मेघके समान मंगलमय शरीर धारण करनेवाले हुए । श्रीअनन्तानन्दजी एवं उनके शिष्यगणोंने श्रीरामचन्द्रजी तथा श्रीकृष्णचन्द्रजीका निर्मल यशोगान करके पवित्र कीर्तिरूपी धनका संग्रह किया । 2. श्रीअनन्तानन्दजी भगवद्भक्तिरूपी समुद्रकी मर्यादा थे । पद्मजा श्रीजानकीजीने आपके सिरपर अपना वरदहस्तकमल रखकर आशीर्वाद दिया । श्रीस्वामी अनन्तानन्दाचार्यजीके पूज्य श्रीचरण कमलोंका स्पर्श करके उनके ये शिष्यगण लोकपालोंके समान भक्तजनोंका पालन करनेवाले हुए ।। ३७ ।। 

यहाँ श्रीअनन्तानन्दजी तथा उनके शिष्योंका चरित संक्षेपमें दिया जा रहा है श्रीअनन्तानन्दजी श्रीअनन्तानन्दजी महाराज स्वामी श्रीरामानन्दाचार्यजी महाराजके द्वादश प्रधान शिष्योंमेंसे एक थे । आपके गृहस्थाश्रमका नाम पं ० छन्नूलाल था । आपका जन्म श्रीअयोध्याजीके समीप रामरेखा नदीके तटपर स्थित महेशपुर नामक ग्राममें हुआ था , परंतु आपकी शिक्षा - दीक्षा काशी में हुई और आप वहीं बस गये थे । आपके पिता पं ० श्रीविश्वनाथमणित्रिपाठी सनाढ्य ब्राह्मण थे , भगवान् श्रीराम और अयोध्याधामके प्रति विशेष निष्ठा होनेके कारण ये ' अवधू पण्डित ' के नामसे विख्यात थे । 

अवधू पण्डित भगवती सरस्वतीके बड़े भक्त थे , कहते हैं कि माता सरस्वतीजीके ही आशीर्वादसे कार्तिक पूर्णिमा , सं ० १३६३ वि ० को श्रीअनन्तानन्दजीका जन्म हुआ था । महापुरुषोंका जीवन बहुत ही विषम होता है । गोस्वामी तुलसीदासजीकी ही भाँति आपकी भी माताका परमधामगमन आपके जन्मके ठीक बाद ही हो गया था । उसके कुछ समय बाद पिताकी भी छत्रछाया सिरसे उठ गयी । अब तो बालक छन्नू अनाथ ही हो गये , ऐसे समयमें अवधू पण्डितके यजमान ग्वालोंकी दृष्टि आपपर पड़ी । उन लोगोंने आपका लालन पालन किया । थोड़ा बड़े होनेपर आप भी ग्वाल बालोंके साथ वनमें गाय चराने लगे । 

एक दिन आप वनमें गायें चरा रहे थे कि उसी समय आपको दिव्य वंशी - ध्वनि सुनायी पड़ी , आप उस ध्वनिसे आकर्षित होकर उस स्थानपर पहुँचे , जहाँ ' सँवरू ' नामक साँवला - सलोना बालक अपनी गायोंको चराते हुए वंशीवादन कर रहा था । आपकी बालक ' सँवरू ' से मित्रता हो गयी । अब तो सँवरूके  साथ गायें चराना और उसका वंशीवादन सुनना आपका नित्यकार्य हो गया । आप दोनोंकी मित्रता इतनी प्रगाढ़ हो गयी कि एक पलका भी विरह अच्छा नहीं लगता था । अतः आपने एक दिन अपने मित्रसे यह बात बतायी और स्वयंको भी अपने घर ले चलनेको कहा । कहनेकी बात नहीं कि आपके मित्र ' सँवरू ' और कोई नहीं , अखण्डब्रह्माण्डाधिपति गोलोकाधीश्वर भगवान् श्यामसुन्दर श्रीकृष्ण ही थे । 2. उन्होंने आपसे आँखें बन्द करनेको कहा और जैसे ही आपने अपनी आँखें बन्द कीं , एक ही क्षणमें आप भगवान्के नित्य निवास श्रीगिरिराज गोवर्धनपर पहुँच गये । वहाँ श्रीभगवान्ने आपको अपनी विविध लीलाओंका दर्शन कराया , इससे इन्हें अपने ब्रह्मस्वरूपका ध्यान हुआ और आपकी भाव - समाधि लग गयी । पुनः समाधिसे जाग्रत् होनेपर आपने अपने आपको वनमें उसी स्थानपर पाया , जहाँ आपकी सँवरूसे भेंट हुई थी । अब तो आप विरह व्याकुल हो उठे ।

 इधर भगवान्ने पं ० श्रीश्यामकिशोर नामक एक भगवद्भक्त ब्राह्मणको ध्यानावस्थामें आज्ञा दी कि वह आपको अपने घर लाये और लालन - पालन करे । पं ० श्रीश्यामकिशोरजीको भी कोई सन्तान नहीं थी , प्रभुकी आज्ञा मान उन्होंने आपका पुत्रवत् पालन - पोषण किया और विद्याध्ययनके लिये काशी ले आये और फिर यहीं बस गये । आप भगवती सरस्वतीके वरद पुत्र थे , थोड़े ही समयमें आप सर्वशास्त्रनिष्णात होकर काशीके प्रतिष्ठित विद्वान् हो गये । 

एक बारकी बात है , महाशिवरात्रिको आप भगवान् विश्वनाथजीके मन्दिरमें जागरण कर रहे थे । उसी समय आपको स्वामी श्रीरामानन्दाचार्यजी महाराजकी दिव्य शंख ध्वनि सुनायी दी । उस शंख ध्वनिसे आकृष्ट होकर आप पंचगंगाघाटस्थित स्वामी रामानन्दजीके आश्रममें आये और वहीं उसी समय उनका शिष्यत्व ग्रहण कर लिया , फिर घर लौटकर नहीं गये । श्रीमदाचार्यचरणने आपको श्रीराममन्त्रकी दीक्षा देकर ' श्रीअनन्तानन्द ' नाम रख दिया ।

 श्री 2. अनन्तानन्दजी महाराज परम अमानी और अपरिग्रही वैष्णव थे । आपने अपनी समस्त सम्पत्ति घर द्वार आदिको तृणके समान त्याग दिया और आश्रममें रहते हुए बुहारी करने लगे । साधुता सिद्धिकी कारक होती है , अनन्तानन्दजी गुरुकृपासे सिद्ध महात्मा हो गये थे । एक बार श्रीकृपाशंकरजी नामक एक सिद्धयोगी आचार्यचरण श्रीरामानन्दजी महाराजके दर्शन करने आये , उस समय आचार्यश्री समाधिस्थ थे । अनन्तानन्दजीने जब दर्शनार्थ आये योगी अतिथियोंको आकाशमें स्थित देखा तो स्वयं भी उनके स्वागतार्थ आकाशमें हो जाकर उनके लिये आसन बिछा दिया और धूपसे रक्षार्थ चंदोवा तान दिया । सिद्धलोग उनके इस अद्भुत प्रभावको देखकर विस्मित हो गये और उन्हें विश्वास हो गया कि श्रीरामानन्दजी सिद्ध सन्त हैं , जब उनके शिष्यका ऐसा प्रभाव है , तो उनकी महिमाकी क्या इयत्ता !

 भगवान् श्रीकृष्णके प्रति बालपनका आपका मित्रभाव जीवनभर बना रहा और प्रभु भी आपके प्रति अपने मित्रभावका निर्वाह करते रहे । कहते हैं कि एक बार आश्रममें नित्य - भोगके लिये दूधकी आवश्यकता थी और दूध देनेवाले ग्वालेके यहाँ अशौचावस्था थी , अतः उसके यहाँका दूध स्वीकार्य नहीं हो सकता था । ऐसे समयमें आपने अपने बालसखा ' सँवरू ' का दूधके लिये स्मरण किया और भगवान् भी उनके भावकी पूर्ति के लिये दूध लेकर सँवरूके रूपमें उपस्थित हो गये ।

 अनन्तानन्दजी अपने समयके काशीके प्रतिष्ठित विद्वान् थे , परंतु विद्याका अभिमान आपको लेशमात्र भी नहीं था । एक बार काश्मीरके एक दिग्विजयी पण्डितने आकर काशीके विद्वानोंको शास्त्रार्थ की चुनौती दी , इसपर सभी पण्डितोंने एक स्वरसे कहा कि यदि आप श्रीअनन्तानन्दजी महाराजको शास्त्रार्थमें पराजित कर देंगे तो हम लोग अपनी हार स्वीकार कर लेंगे । श्री अनन्तानन्दजीने कहा- भाई हम तो साधु हैं , हमें शास्वार्थ क्या काम , परंतु दिग्विजयी पण्डितकी हठधर्मिता के कारण आपने शास्त्रार्थ करना स्वीकार कर लिया । अन्त में परिणाम यह हुआ कि दिग्विजयी पण्डित पराजित हो गये और श्रीअनन्तानन्दजीसे मन्त्र दीक्षा लेकर उनके शिष्य बन गये ।

मित्र 

हमलोग यवन ,अंग्रेज आदि के संसर्ग मे आकर लुट चुके है । ये लोग इतना हावी कैसे हुए?  मेरा मानना है कि- अतिथि देवो भव।  के सिद्धांत पर हमारे पूर्वजों ने इन लोगों को आश्रय दिया। 2. कर्तव्य भी था ,लेकिन इन्होने जिस थाली मे खाया उसी को तोडफोड कर दिया,आजतक वही कर रहे है ।इतने दिनो के बाद भी इनमे कोई परिवर्तन नही हो सका है । जिन महापुरूषों के जीवन चरित्र का प्रचार-प्रसार कर रहे है ।इन  महापुरुष के जीवन काल मे यवन का प्रवेश भारतवर्ष मे हो चुका था। इस अवधि मे कितने बङे बङे महापुरुष का अवतरण हुआ है ,इनका सम्पूर्ण इतिहास तो उपलब्ध नही है । क्योकि, जो कुछ कमी था उसे अंग्रेज आकर पुरा कर दिया । फिर  भी  यदि इन महापुरूष के चरित्र प्रकाश मे आए तो , बात बन सकती है । भारत के इतिहास मे इन महापुरूष के जीवन चरित्र को स्थान नही मिला है । विधालय मे जरूर पढाना चाहिए। शायद बात बन जाए। 

हरिशरणम हरिशरणम हरिशरणम

आपका दासानुदास 

BHOOPAL MISHRA 

SANATAN VEDIC DHARMA KARMA 

Bhupalmishra35620@gmail.com 




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