श्री पादपद्माचार्य जी महाराज
गुरू गमन ( कियो ) परदेस सिष्य सुरधुनी दृढ़ाई । एक मंजन एक पान हृदय बंदना कराई ॥ गुरु गंगा में प्रबिसि सिष्य को बेगि बुलायो । बिष्नुपदी भय जानि कमलपत्रन पर धायो ॥ पाद पद्म ता दिन प्रगट , सब प्रसन्न मन परम रुचि । श्रीमारग उपदेस कृत श्रवन सुनौ आख्यान सुचि ॥
श्रीसम्प्रदाय के अनुयायी गुरुदेवके उपदेश करनेसे गंगाजीमें उत्पन्न निष्ठाका पवित्र इतिहास सुनिये । गुरुदेव अपनी अनुपस्थितिमें अपने समान गंगाजीको माननेका उपदेश देकर चले गये । ये गुरुवत् गंगाजीकी उपासना करने लगे । अन्य कोई शिष्य श्रद्धापूर्वक स्नान करते थे , कोई गंगाजलपान करते थे , परंतु पादपद्मजी हृदयसे ही गंगाजीकी वन्दना - पूजा करते थे । कभी भी गंगाजी में स्नान , आचमन नहीं करते थे । इनके हृदयके भावको न जानकर दूसरे लोग आलोचना करते थे । बादमें गुरुदेव लौटकर आये और इनकी निष्ठाका परिचय प्रकट करनेके लिये एक दिन स्नानार्थ गंगाजीमें घुसे और पादपद्मजीको वहीं शीघ्र वस्त्र लेकर आनेको कहा । गुरुकी आज्ञाका उल्लंघन और गंगामें चरणस्पर्श इन दोनों अपराधोंसे ये भयभीत हुए । भाव जानकर गंगाजीने तटसे लेकर गुरुजीके समीपतक कमलपत्र प्रकट कर दिये । उन्हींपर पैर रखते हुए ये गुरुदेवके समीप दौड़कर गये । पादपद्मजीका जो प्रभाव गुप्त था , वह उस दिन प्रकट हो गया , इस दिव्य चमत्कारको देखकर सभीके अपार श्रद्धा हो गयी । उसी दिनसे उनका पादपद्माचार्य यह नाम पड़ गया
श्रीप्रियादासजी महाराजने इस घटनाका अपने निम्न दो कवित्तोंमें इस प्रकार वर्णन किया है -
देवधुनी तीर सो कुटीर बहु साधु रहें रहै गुरुभक्त एक न्यारो नहिं है सकै । चले प्रभु गाँव जिनि तजो बलि जाँव करौ कही दाससेवा गंगा में ही कैसे छ्वै सकै ।। क्रिया सब कूप करै ' विष्णुपदी ' ध्यान धरै रोष भरै सन्त श्रेणी भाव नहीं भ्वै सकै । आये ईश जानि दुख मानि बखान कियो आनि मन जानि बात अंग कैसे ध्वै सकै ॥ ११५ ॥ चले लैके न्हान संग गंग में प्रवेश कियो रंगभरि बोले सो अंगोछा वेगि ल्याइये । करत विचार सोच सागर न वारापार गंगा जू प्रगट कह्यो कंजन पै आइये ॥ चलेई अधर पग धरै सो मधुर जाइ प्रभु हाथ दियो लियो तीर भीर छाइये । निकसत धाय चाय पग लपटाय गये बड़ी परताप यह निशिदिन गाइये ॥
सन्त श्रीपादपद्य आचार्यजी महाराजका संक्षिप्त परिचय इस प्रकार है
श्रीपादपद्मजी श्रीसम्प्रदायके अनुयायी परम वैष्णव सन्त थे । इनकी अपने गुरु और माता गंगाजीमें अनन्य श्रद्धा थी । इनके पादपद्म नाम पड़नेकी बड़ी रोचक कथा है , जो गुरु और गंगाजीके प्रति इनकी अनन्य भक्तिको दरसाती है । पादपद्माचार्यजी अपने सद्गुरुदेवको साक्षात् परमात्मा मानकर उनकी अत्यन्त भक्तिभावसे पूजा सेवा किया करते थे । गुरुसेवाको छोड़कर अन्य कोई भी कार्य उनके लिये रुचिकर नहीं था । उन्हें अपने गुरुसे एक क्षण भी विलग रहना स्वीकार नहीं था । एक बार किसी कार्यवश उनके गुरुदेवको अन्यत्र किसी दूसरे ग्राममें जाना था , पादपद्माचार्यजीने गुरुदेवसे साथ ही ले चलनेकी प्रार्थना की और कहा कि बिना आपके श्रीचरणोंके दर्शनके मेरा जीवन सम्भव नहीं होगा , अतः कृपाकर मुझे आप अपनेसे अलग न कीजिये । गुरुदेवने कहा- वत्स ! मेरे आश्रमपर अनेक सन्त - भक्त आते रहते हैं , उनकी सेवा करना मेरा धर्म है , यदि तुम भी मेरे साथ चले चलोगे तो आश्रम सूना हो जायगा और यहाँ आनेवाले साधु - सन्तोंको महान् कष्ट होगा । अतः तुम्हें आश्रममें रहते हुए मेरे इस दायित्वकी पूर्ति करनी चाहिये । वत्स । गुरुकी आज्ञा मानना गुरुकी भौतिक सेवासे भी बड़ी बात है , तुम्हें यहीं रुककर मेरी आज्ञाका पालन करना चाहिये । रही मेरे प्रति भावकी बात तो ये माता गंगाजी तो आश्रमके पास हैं ही ; ये ब्रह्मद्रवरूपिणी साक्षात् परमात्मा ही हैं , अतः तुम इन्हें ही गुरु मानकर इनकी सेवा - पूजा करना । मैं कुछ ही समयमें वापस आ जाऊँगा । पादपद्माचार्यजीने गुरुकी आज्ञा शिरोधार्य कर ली । वे आश्रम में आये साधु - सन्तोंकी सेवा करते और गुरु मानकर नित्य गंगाजीका पूजन करते । आश्रममें गंगाजीमें अपने शरीरका स्पर्श न कराकर बाहर कुएँ आदिपर स्नान कर लेते थे । उनके इस दिव्य भावको माता गंगाजी और उनके गुरुदेव ही जान सकते थे , अन्य आश्रमवासी तो उनकी इस क्रियापर व्यंग्य ही किया करते थे । कुछ दिनों बाद गुरुदेव पुनः आश्रममें आ गये । कुछ लोगोंने पादपद्मके उक्त आचारणकी बात उनसे शिकायतके रूपमें कही । यह सब सुनकर गुरुदेवने पादपद्मजीके दिव्य भाव और उनके प्रभावको प्रकट करनेका मन - ही - मन निर्णय लिया । एक दिन वे पादपद्मजीको लेकर गंगा स्नान करने गये और तटपर अंगौछा रखकर स्वयं गंगाजीमें प्रवेश कर गये । डुबकी लगानेके बाद उन्होंने वहीं खड़े - खड़े पादपद्मजीसे अंगौछा माँगा । अब पादपद्मजीके लिये बड़ी विषम स्थिति हो गयी , यदि अंगौछा लेकर जाते हैं तो गंगाजीमें उनका पैर पड़ेगा और यदि नहीं जाते तो गुरु - आज्ञाकी अवहेलना होगी । उनके मनके इस ऊहापोह और अपने प्रति दिव्य भाव जानकर गंगाजी स्वयं प्रकट हो गयीं और उन्हें एक पद्मपत्र दिखाते हुए कहा कि इसपर पैर रखकर चले जाओ । श्रीपादपद्मजीने जैसे ही उस पद्मपत्रपर पैर रखा , उनके सामने एक दूसरा पद्मपत्र प्रकट हो गया । इस प्रकार वे पद्मपत्रोंपर पैर रखते हुए गुरुदेवतक पहुँच गये और उनका यह नाम पड़ा । क्रमश