श्रीयोगानन्दजी
परम वैष्णव सन्त और श्रीरामभक्त श्रीयोगानन्दजीके गृहस्थाश्रमका नाम श्रीयज्ञेशदत्त था । आपके पिता श्रीमणिशंकरजी परम यशस्वी वैदिक ब्राह्मण और भगवान् सूर्यके भक्त थे । भगवान् सूर्यदेवके वरदानसे गुजरात प्रान्तमें सिद्धपुरमें आपका जन्म वैशाख कृष्ण ७ , सं ० १४५७ वि ० को हुआ । चूँकि आपका जन्म मूल नक्षत्रमें हुआ था , अतः ज्योतिषियोंके परामर्शसे श्रीमणिशंकरजीने पुत्र यज्ञेशका एक वर्षतक मुख नहीं देखा और इस अवधिमें तीर्थयात्रा करते रहे । ' Copy code snippet होनहार बिरवान के होत चीकने पात ' वाली कहावत बालक यज्ञेशपर सर्वथा लागू रही । आप बचपनसे ही दीपककी लौको टकटकी लगाकर देखा करते थे , जो इनके आगे चलकर सिद्धयोगी बननेका संकेत थी । बचपनमें आपके नेत्र सदैव अर्धनिमीलितावस्थामें ही रहा करते थे , ऐसा लगता था , कि जैसे कोई योगी समाधि अवस्थामें हो । एक दिन पासके ही बगीचेमें एक सन्त - मण्डलीका आगमन हुआ । बालक यज्ञेश भी माता - पिताके साथ सन्तोंका दर्शन करने गये । सन्तोंका दर्शन करनेके बाद यज्ञेशके नेत्र स्वाभाविक रूपसे लने लगे । नौ वर्षकी अव हुआ और वे पण्डित श्रीनाथजी महाराजकी पाठशालामें विद्याध्ययन करने लगे । बालक यज्ञेश विलक्षण प्रतिभासम्पन्न थे , उनकी अद्भुत प्रतिभाको देखकर श्रीनाथजीने उन्हें काशी जाकर विद्याध्ययन करनेका परामर्श दिया । बालक यज्ञेशने गुरूपदेशको स्वीकारकर काशीमें पं ० श्रीनारायणभट्टजीकी पाठशालामें न्याय वेदान्तका अध्ययन करना शुरू किया । थोड़े ही दिनोंमें आपकी गणना काशीके प्रतिष्ठित पण्डितोंमें होने लगी । इसके बाद आप योगका अभ्यास करने लगे और इस क्षेत्रमें भी आपको अद्भुत सफल
ता मिली और आप लम्बी अवधिकी समाधियाँ लगाने लगे । यहाँतक कि आप सत्रह महीनेतक लगातार समाधि - अवस्थामें रहे ।
काशी में ही आपका विवाह एक सुशीला ब्राह्मण कन्यासे हो गया और आपका गृहस्थ जीवन सुखपूर्वक बीतने लगा , परंतु आपका जन्म तो धर्मप्रचार और जीवोंको भगवद् - सम्मुख करनेके लिये हुआ था , अतः गृहस्थ जीवन अधिक समयतक न चल सका और अर्धागिनीका परलोकगमन हो गया । इस घटनाने आपमें संसारके प्रति वैराग्यभावको जन्म दिया और आपने पत्नीकी अन्त्येष्टि क्रिया करके सब धन - सम्पत्ति ब्राह्मणोंको दान कर दी । अकिंचनरूपमें आप भगवान् विश्वनाथजीके दर्शन करने गये और वहीं आपको प्रेरणा हुई कि इसे विधिका विधान मानकर स्वीकार करो और स्वामी रामानन्दाचार्यजी महाराजकी शरण ग्रहण करो । श्रीयज्ञेशजी मन्दिरसे सीधे श्रीरामानन्दाचार्यजी महाराजकी शरण में आये और उनका शिष्यत्व ग्रहण किया । श्रीस्वामीजीने कृपापूर्वक आपको श्रीराम मन्त्रका उपदेश दिया और यज्ञेशदत्तके स्थानपर आपका नाम ' योगानन्द ' रख दिया । श्रीस्वामीजीकी आज्ञासे श्रीअनन्तानन्दजीने आपको प्रस्थानत्रयपर आनन्दभाष्यका बोध कराया ।
श्रीयोगानन्दजी महाराज भगवान् श्रीराघवेन्द्रसरकारके अनन्य भक्त थे । श्रीरामानन्दाचार्यजीकी दिग्विजय यात्राके समय आप ठाकुरजीका सिंहासन अपने सिरपर रखकर स्वामीजीकी पालकी के आगे - आगे उलटे पैरों चलते थे । श्रीजगन्नाथधामके चन्दन तालाबका आपने जीर्णोद्धार कराया और उसे जलपूर्ण किया । जीवनके अन्तिम समयमें आपने गंगासागर - संगमपर निवास करते हुए भक्ति - प्रचारका कार्य किया । Copy code snippet श्रीयोगानन्दजी महाराज कहा करते थे कि भक्तको पतिव्रता स्त्री और चातककी तरह भगवान् श्रीराम के प्रति अनन्य भक्ति रखनी चाहिए ।
श्रीगयेशजी
श्रीगयेशजी स्वामी रामानन्दाचार्यजी के द्वादश प्रधान शिष्योंमें एक श्रीअनन्ताचार्यजी महाराजके शिष्य थे । भगवद्भक्तिके प्रचारार्थ आप भगवान्के नाम - गुणका कीर्तन करते हुए विचरण करते रहते थे । एक बारकी बात है , आप भ्रमण करते हुए एक गाँवके निकट पहुॅचे और इमलीके एक सूखे वृक्षके नीचे स्वच्छ समतल स्थानपर बैठ गये । वहीं भगवान्का ध्यान करते हुए आपको समाधि लग गयी । उस गाँवमें एक वैष्णवद्वेषी व्यक्ति निवास करता था । उसने जब आपको देखा तो आपका उपहास करने लगा । वह उधरसे जानेवाले लोगोंसे कहता- ' भाइयो । देखो , ये एक सिद्ध महात्मा बैठे हैं , ये तबतक यहाँसे नहीं उठेंगे , जबतक यह सूखा पेड़ हरा नहीं हो जायगा । '
इस प्रकार वह वैष्णवद्वेषी व्यक्ति श्रीगयेशजीकी हँसी उड़ा रहा था , परंतु गयेशजीको क्या ये तो निर्विकारभावसे अपने इष्टदेवके स्वरूपचिन्तनमें मग्न थे , उन्हें बाहा जगत्का ज्ञान ही कहाँ था । परंतु सर्वज्ञ परमात्मासे अपने भक्तका अपमान न देखा गया , उन्होंने श्रीगयेशजीकी महिमाका ख्यापन करनेके लिये उस सूखे इमलीके वृक्षको हरा - भरा कर दिया । फिर क्या था ? अभीतक जो जन समुदाय उनकी हँसी उड़ाने के लिये एकत्र हुआ था , Copy code snippet वही अब उनकी जय - जयकार करने लगा ।
। अपने दाँवको उलटा पड़ते देख वह वैष्णवद्वेषी व्यक्ति क्रुद्ध हो गया । उसे लगा कि अब तो इस वैष्णव सन्तका प्रभाव जम जायगा । उसने अपने तान्त्रिक गुरुसे अनुमति लेकर अभिचारकर्मद्वारा श्रीगयेशजीपर मारण प्रयोग किया । परंतु उस मूर्खको यह नहीं ज्ञात था कि सच्चे वैष्णव सन्तोंकी रक्षामें भगवान् श्रीहरिका सुदर्शन चक्र सतत नियुक्त रहता है । उस दुष्टका मारण प्रयोग श्रीगयेशजीका तो कुछ नहीं बिगाड़ सका , परंतु उससे उलटे उसके तान्त्रिक गुरुकी ही मृत्यु हो गयी । अब तो वह बहुत ही घबड़ाया और आकर श्रीगयेशजीके चरणों में गिर पड़ा । श्रीगयेशजी तो सन्तहृदय थे , तुरंत ही द्रवित हो गये और उसे अभय दान देते हुए उसके गुरुको भी पुनर्जीवित कर दिया । उनके इस प्रभावको देखकर उस क्षेत्रका समस्त जन समुदाय उनका शिष्य बन गया । इस प्रकार आप वैष्णव धर्मका प्रचार - प्रसार करते हुए सदा विचरण किया करते थे ।
श्रीकर्मचन्दजी.
श्रीकर्मचन्दजी अनन्तानन्दजीके शिष्य थे । आपके पिताका नाम धनचन्द था । सन्तकृपासे व्यक्तिके जीवनमें कितना परिवर्तन आ सकता है , धनचन्दजीका जीवन इसका एक अनूठा उदाहरण है । धनचन्दजी यथा नाम तथा गुण अर्थात् प्रचुर धन - सम्पत्तिके स्वामी थे । राजस्थानमें देवासा नामका एक ग्राम है , वहाँके धनी श्रेष्ठियों में आपकी गणना थी । आपकी धर्मपत्नी परमभगवद्भक्ता , उदारहृदया और सन्त - सेविका थीं ; परंतु सन्तकृपासे पूर्व आपका जीवन पत्नीके सद्गुणोंसे ठीक विपरीत था । इसका एक कारण यह भी था कि धनचन्द पत्नीके इतने धार्मिक होनेके बाद भी सन्तान सुखसे वंचित ही थे , अतः वे धर्म - कर्म , पूजा - पाठ , सन्तसेवा और दान आदिको ढकोसला ही मानते थे । एक बार जब धनचन्दजीकी पत्नी गर्भवती थीं तो ये किसी नास्तिकके प्रभाव में आकर पत्नीसे कहने लगे कि यदि तुम्हारी संतान इस बार भी जीवित नहीं रही तो मैं तुम्हें ही मार डालूँगा , अन्यथा यह सन्त - सेवा करना छोड़ दो ।
धनचन्दजीकी पत्नीको पतिके इस दुर्भावसे बहुत दुःख हुआ , परंतु उनकी सन्त - सेवामें निष्ठा और विश्वास दृढ़ ही रहे । इस अवधिमें वे भगवान्से बराबर प्रार्थना करती रहीं कि प्रभु ! मेरे सुखके लिये नहीं , अपितु सन्त - महिमाकी प्रतिष्ठा संसारमें बनी रहे इस हेतु मुझे एक भक्त पुत्र प्रदान कीजिये । भगवान्की लीला ! और बार तो पुत्र जन्म लेकर कुछ दिन जीवित रहता था , इस बार तो उसकी छठी भी न हो सकी और वह चल बसा
धनचन्दजीकी पत्नीको पुत्र वियोगका दुःख तो कम , पर सन्त - महिमापर प्रश्न चिह्न लगनेका बहुत दुःख था । धनचन्द तो आगबबूला ही हो गये और पत्नीका केश पकड़कर घरसे निकालने लगे । इतनेमें ही किसी व्यक्तिने आकर कहा कि गाँवमें स्वामी श्रीरामानन्दाचार्यजी महाराजके पट्टशिष्य श्री अनन्तानन्दाचार्यजी आये हैं ; वे सिद्ध सन्त हैं , उनकी कृपासे यह बालक पुनः जीवित हो सकता है , अतः आप लोगोंको इस बालकको लेकर उनकी शरण में चलना चाहिये । इतना सुनना था कि धनचन्दकी पत्नी तत्काल श्रीअनन्तानन्दजी महाराजके दर्शन चल दी , उसे अब सन्त- भगवन्तकी कृपापर पूर्ण विश्वास था । श्रीअनन्तानन्दजीके पास पहुँचकर उसने उनके चरणोंमें प्रणाम किया और सन्त - महिमाकी प्रत्यक्ष अनुभूति करा पतिको सद्बुद्धि प्रदान करनेका आग्रह किया ।
श्रीअनन्तानन्दजी धनचन्दके घर आये और बालकके मुखमें चरणोदक डाला । सन्तकृपाका चमत्कार ! निश्चेष्ट पड़े बालकके शरीरमें श्वास - प्रश्वासके स्पन्दन होने लगे ! फिर क्या था , हर्षसे सन्त - भगवन्तका जयघोष होने लगा । धनचन्द तो इस सुखद आश्चर्यको देखकर किंकर्तव्यविमूढ़से रह गये , फिर पश्चात्तापके आँसुओंसे श्री अनन्तानन्दजीके चरणोंका प्रक्षालन करने लगे । अनन्तानन्दजीने उन्हें उठाया और भगवद्भक्तिका उपदेश दिया । तत्पश्चात् उन्होंने बालकके गलेमें कण्ठी बाँधकर उसे भी श्रीराम नामका उपदेश दिया और उसका नाम रख दिया कर्मचन्द |
बालक कर्मचन्दमें भक्तिके संस्कार बचपनसे ही थे , बड़े होकर उन्होंने अपने पिताके कपड़ेके व्यवसायको सँभाला , पर साधु - सन्तोंके प्रति भक्ति और उदारतामें कोई कमी नहीं आयी । एक बार एक सन्त - मण्डली भगवान् अमरनाथजीके दर्शन करने जा रही थी , उन लोगोंके पास शीतनिवारणयोग्य वस्त्रोंका अभाव था । कर्मचन्दजीने दुकानसे पर्याप्त मात्रामें कम्बल निकालकर सन्त - मण्डलीको दे दिये । साधुजन आशीर्वाद देकर श्रीअमरनाथजीकी यात्रापर चल दिये । उधर इस बातकी खबर जब धनचन्दको लगी तो उन्हें लगा कि पुत्रकी यह उदारता तो मेरे व्यवसायको ही चौपट कर देगी । वे दौड़े - दौड़े सन्तोंक पास गये और उनसे कम्बल ले लिये । कर्मचन्दजीको पिताके इस व्यवहारसे बड़ा ही खेद हुआ और उन्होंने पिताको समझाते हुए कहा कि सन्तोंको कुछ देनेसे कमी नहीं आती , आपको विश्वास न हो तो आप दूकानपर चलकर स्टॉक मिला लें । धनचन्दने दूकानपर जाकर देखा तो कम्बलोंका स्टॉक पूरा था । अब उन्हें सन्तोंकी महिमा और अपनी भूलका ज्ञान हुआ , फिर उन्होंने कर्मचन्दजीके कार्योंमें हस्तक्षेप नहीं किया । कर्मचन्दजीने सन्तोंसे पिताके अभद्र व्यवहारके लिये क्षमा याचना की ।
धीरे - धीरे कर्मचन्दजीकी सन्त - सेवाकी प्रवृत्ति बढ़ती ही गयी , वे सन्तोंके भोजन - वस्त्र आदिपर खुले हाथ धन खर्च करते । इससे उनकी पत्नीको चिन्ता हुई । उन्होंने कर्मचन्दजीसे कहा कि यदि आप इसी प्रकार धन खर्च करते रहेंगे तो हम लोग एक दिन भिक्षुक हो जायेंगे , अतः आपको सन्त - सेवापर सीमित धन हो खर्च करना चाहिये । इसपर कर्मचन्दजीने आकाशकी ओर दृष्टि करने भगवान्का ध्यान किया । इतनेमें ही कर्मचन्दजीकी पत्नीने देखा बहुमूल्य मणिरत्नोंसे खचित एक पर्वताकार आकृति आकाशसे धरतीपर उतर रही है , Copy code snippet वह आकृति आकर उनके सम्मुख स्थित हो गयी । कर्मचन्दजीने पत्नीको समझाया कि सन्त साक्षात् भगवत्स्वरूप होते हैं , अतः उनके लिये धन खर्च करनेसे धनकी कमी नहीं हो सकती । उनके लिये धन खर्च करनेवाले को भगवान् इतना धन दे देते हैं कि वह उतना खर्च ही नहीं कर सकता । इसके बाद कर्मचन्दजीकी पत्नीको भी पतिके वचनों और सन्तोंकी महिमापर पूर्ण विश्वास हो गया और वे भी तन मन - धन से सन्त- सेवा करने लगीं । कर्मचन्दजीने एक पुत्रकी उत्पत्तिके बाद गृहस्थ आश्रमका परित्याग कर दिया और श्री अनन्तानन्दजीसे ही विरक्त दीक्षा ले ली । इनके पुत्र दिवाकर भी पिताकी ही भाँति परम भागवत हुए श्रीकर्मचन्दजीने अपना शेष जीवन भगवत्सेवा और भगवद्भकिके प्रचार में बिताया ।
मित्र
भारतवर्ष का जो समय यवन और ईसाई का शासन काल रहा ,वह तो निश्चय ही निंदनीय है । उसका असर आजतक है ।पता नही हमलोग कबतक बाहर आऐंगे। क्योंकि, ईतने दिनो के बाद भी ये लोग हिन्द धर्म का लेश मात्र भी नही जान पाए है । बल्कि, आज भी हमलोग इन्ही के पीछे पङे समय समय गवां रहे है ।
कहने का तात्पर्य यह है कि यवन और इसाई के शासन काल मे भी अनगिनत महापुरुष का अवतरण हुआ है ।जिनका गिनती संभव नही है । विशेष कहने से क्या लाभ !
हरिशरणम हरिशरणम हरिशरणम
आपका दासानुदास
BHOOPAL Mishra
Sanatan vedic dharma karma
Bhupalmishra35620@gmail.com