Ramanucharya ji Maharaj _रामानुजाचार्य जी महाराज। (ज्ञान वापी मंदिर का सम्पूर्ण समाधान)

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                   रामानुचार्य जी महाराज महाराज 

 श्रीरामानुजाचार्य बड़े ही विद्वान् , सदाचारी , धैर्यवान् , सरल एवं उदार थे । ये आचार्य आलवन्दार ( यामुनाचार्य ) -की परम्परामें थे । इनके पिताका नाम केशवभट्ट था । ये दक्षिणके तिरुकुदूर नामक क्षेत्रमें रहते थे । जब इनकी अवस्था बहुत छोटी थी , तभी इनके पिताका देहान्त हो गया और इन्होंने कांचीमें जाकर यादवप्रकाश नामक गुरुसे वेदाध्ययन किया । इनकी बुद्धि इतनी कुशाग्र थी कि ये अपने गुरुकी व्याख्यामें भी दोष निकाल दिया करते थे । इसीलिये गुरुजी इनसे बड़ी ईर्ष्या करने लगे , यहाँतक कि वे इनके प्राण लेनेतकको उतारू हो गये । उन्होंने रामानुजके सहाध्यायी एवं चचेरे भाई गोविन्द भट्टसे मिलकर यह षड्यन्त्र रचा कि गोविन्दभट्ट रामानुजको काशीयात्राके बहाने किसी घने जंगलमें ले जाकर वहीं उनका काम तमाम कर दें । गोविन्दभट्टने ऐसा ही किया , परंतु भगवान्की कृपासे एक व्याध और उसकी स्त्रीने इनके प्राणों की रक्षा की

 । विद्या , चरित्रबल और भक्तिमें रामानुज अद्वितीय थे । इन्हें कुछ योगसिद्धियाँ भी प्राप्त थीं , जिनके बलसे इन्होंने कांचीनगरी के राजकुमारी को प्रेतबाधासे मुक्त कर दिया । इस सन्दर्भमें बड़ी ही रोचक कथा है , जिससे यह सिद्ध होता है कि मनुष्यको जीवनमें जो कुछ प्राप्त होता है - वह केवल अपने पुरुषार्थसे ही नहीं प्राप्त होता , बल्कि उसके पीछे ईश्वरकृपा भी होती है । अतः मनुष्यको जो कुछ भी धन , विद्या आदिके रूप में प्राप्त हो ; उसे अन्यमें भी बाँटते रहना चाहिये । कांचीनरेशकी राजकुमारी जिस ब्रह्मराक्षससे आविष्ट थी , वह पूर्वजन्ममें एक विद्वान् ब्राह्मण था , परंतु उसने जीवनमें किसीको भी विद्यादान नहीं दिया , फलस्वरूप ब्रह्मराक्षस हुआ । राजकुमारीको प्रेतबाधासे मुक्ति दिलाने के लिये अनेक मन्त्रज्ञ बुलाये गये , परंतु कोई लाभ नहीं हुआ । नरेशका आमन्त्रण पाकर रामानुजके गुरु यादवप्रकाशजी भी शिष्योंके साथ कांची आये । उन्होंने जैसे ही मन्त्र प्रयोग प्रारम्भ किया , तुरंत ही ब्रह्मराक्षसने राजकुमारीके मुखसे कहा- तू जीवनभर मन्त्रपाठ करे तो भी मेरा कुछ नहीं बिगाड़ सकता । हाँ , यह तेरा शिष्य रामानुज यदि मेरे मस्तकपर अपना अभय कर रख दे तो मैं इस प्रेतत्वसे मुक्त हो जाऊँगा 

। श्रीरामानुजजीने आगे बढ़कर जैसे ही राजकुमारीके मस्तकपर भगवान्का स्मरण करते हुए हाथ रखा , राजकुमारी स्वस्थ हो गयी और उसे पीड़ित करनेवाला ब्रह्मराक्षस उस कुत्सित योनिसे मुक्त हो गया । जब महात्मा आलवन्दार मृत्युकी घड़ियाँ गिन रहे थे , उन्होंने अपने शिष्यके द्वारा रामानुजाचार्यको अपने पास बुलवा भेजा । परंतु रामानुजके श्रीरंगम् पहुँचनेके पहले ही आलवन्दार ( यामुनाचार्य ) भगवान् नारायणके धाममें पहुँच चुके थे । रामानुजने देखा कि श्रीयामुनाचार्यके हाथकी तीन उँगलियाँ मुड़ी हुई हैं । इसका कारण कोई नहीं समझ सका । रामानुज तुरंत ताड़ गये कि यह संकेत मेरे लिये है । उन्होंने यह जान लिया  श्रीयामुनाचार्य मेरेद्वारा ब्रह्मसूत्र , विष्णुसहस्रनाम और आलवन्दारोंके ' दिव्यप्रबन्धम् ' की टीका करवाना चाहते हैं । उन्होंने आलवन्दारके मृत शरीरको प्रणाम किया और कहा - ' भगवन् । मुझे आपकी आज्ञा शिरोधार्य है , मैं इन तीनों ग्रन्थोंकी टीका अवश्य लिखूँगा अथवा लिखवाऊँगा । ' रामानुजके यह कहते ही आलवन्दारकी तीनों उँगलियाँ सीधी हो गयीं । इसके बाद श्रीरामानुजने आलवन्दारके प्रधान शिष्य पेरियनाम्बिसे विधिपूर्वक वैष्णव - दीक्षा ली और वे भक्तिमार्गमें प्रवृत्त हो गये । 

रामानुज गृहस्थ थे ; परंतु जब उन्होंने देखा कि गृहस्थीमें रहकर अपने उद्देश्यको पूरा करना कठिन है , तब उन्होंने गृहस्थका परित्याग कर दिया और श्रीरंगम् जाकर यतिराज नामक संन्यासीसे संन्यासकी दीक्षा ले ली । श्रीरामानुजाचार्यजीके संन्यास ग्रहणकी घटना भी बड़ी विलक्षण है , जिससे यह सिद्ध होता है कि साधकके जीवनमें आनेवाली प्रतिकूलताएँ उसके अध्यात्म - पथपर आगे बढ़नेके लिये सोपान बनती हैं । आचार्यश्रीकी पत्नी इनसे ठीक प्रतिकूल स्वभावकी थीं । श्रीरामानुजाचार्यजी श्रीयामुनाचार्यजीसे वैष्णवदीक्षा लेना चाहते थे , परंतु ऐसा संयोग बने उससे पूर्व ही श्रीयामुनाचार्यजी महाराज परमधामको प्रस्थान कर गये । अत : आचार्यश्रीने उनके पाँच प्रमुख शिष्यों ( श्रीकांचीपूर्णजी , श्रीमहापूर्णजी , श्रीगोष्ठीपूर्णजी , श्रीशैलपूर्णजी और श्रीमालाधरजी ) से पाँच उपदेश ग्रहण किये और उन्हें गुरु माना । एक दिन उन्होंने अपने श्रीकांचीपूर्णजी महाराजको अपने घरपर भगवान्‌का भोग लगाने और प्रसाद ग्रहण करनेके लिये आमन्त्रित किया और अपनी पत्नी तंजमाम्बासे प्रसाद तैयार करनेको कहा । प्रसाद तैयार होनेपर जब वे गुरुजीको बुलानेके लिये गये तो गुरुजी किसी अन्य मार्गसे पहले ही उनके घर पहुँच गये । तंजमाम्बाने उनको प्रसाद तो ग्रहण कराया , पर रसोईमें बचा हुआ समस्त भोजन शूद्रोंमें बाँटकर और रसोई धो - साफकर पुनः भोजन बनाकर रामानुजजीको दिया । रामानुजजीने जब इसका कारण पूछा तो तंजमाम्बाने कहा कि कांचीपूर्णजी हीनजातिके हैं , अतः उनका उच्छिष्ट मैं आपको नहीं दे सकती । पत्नीके मनमें गुरुके प्रति इस प्रकारके कुभाव जानकर रामानुजजी मन - ही - मन बहुत दुखी हुए ।

 बात यहींपर समाप्त हो जाती तो भी ठीक था , परंतु तंजमाम्बाने तो सम्भवतः इनके गुरुओंको अपमानित करना अपना स्वभाव ही बना लिया था । एक दिन उनके दूसरे गुरु श्रीमहापूर्णाचार्यजी महाराजकी पत्नी कुएँपर जल भरने आय , तंजमाम्बा भी जल भर रही थीं , संयोगवश इनके घड़ेका कुछ जल छलककर तंजमाम्बाके घड़ेमें पड़ गया ; फिर क्या था ; तंजमाम्बाने गुरुपत्नीपर कुवाक्यों झड़ी लगा दी । बेचारी गुरुपत्नी कुछ बोल न सकीं और घर जाकर सारी बात श्रीमहापूर्णजी महाराजसे बतायीं । श्रीमहापूर्णजी महाराजने उन्हें सांत्वना दी और चुपचाप उनको साथ लेकर कांचीसे श्रीरंगम् आ गये । जब रामानुजको इस बातकी जानकारी हुई तो उनके दुःखका पारावार न रहा । 

इसके बाद घटी एक अन्य घटनाने तो उनके गृहस्थ जीवनमें विराम - चिह्न ही लगा दिया । हुआ यूँ कि एक दिन ये भगवान् वरदराजकी सेवामें गये हुए थे , उसी समय एक भूखा गरीब ब्राह्मण इनके घर आ गया । तंजमाम्बाने उसका सत्कार करना तो दूर ; ऐसी कड़ी फटकार लगायी कि वे बेचारे ब्राह्मणदेवता -अपने भाग्यको कोसते हुए उलटे पाँव भाग खड़े हुए । संयोगवश रामानुजजी मार्गमें ही मिल गये और उन्हें सारी बातें ज्ञात हुईं । रामानुजजी दुखी तो बहुत हुए , परंतु ब्राह्मणको समझा - बुझाकर धैर्य धारण कराया और मन - ही - मन संन्यास- ग्रहणका निर्णय ले लिया । उन्होंने ब्राह्मणदेवताको बाजारसे कुछ फल आदि खरीदकर दिये और कहा कि आप पुनः मेरे घर जायँ और मेरी पत्नीसे कहें कि मैं तुम्हारे मायकेसे आया हूँ । तुम्हारी बहनका विवाह होनेवाला है और तुम्हारे माता - पिताने यह सामग्री तुम्हें उपहारस्वरूप भेजी है ।

यह सुनकर वे आपका बहुत आदर - सत्कार करेंगी । ब्राह्मणने ठीक वैसा ही किया तंजमाम्बा ने ब्राह्मणका बड़ा आदर - सत्कार किया । थोड़ी देर बाद जब रामानुज आये तो उनसे भी तंजमाम्बा ने बहनके विवाहकी बात बतायी । रामानुजजीने कहा- ' यह तो बहुत आनन्दकी बात है , तुम जाना चाहो तो आज ही चली जाओ , उत्सवके दिन मैं भी आ जाऊँगा । ' तंजमाम्बा खुशी - खुशी मायकेके लिये चल दी , इधर रामानुजजीने संन्यास ग्रहण कर लिया ।

 इधर इनके गुरु यादवप्रकाशको अपनी करनीपर बड़ा पश्चात्ताप हुआ और ये भी संन्यास लेकर श्रीरामानुजकी सेवा करनेके लिये श्रीरंगम् चले आये । उन्होंने अपना संन्यास आश्रमका नाम गोविन्दयोगी रखा ।

 श्रीरामानुजने तिरुकोट्टियूरके महात्मा नाम्बिसे अष्टाक्षर मन्त्र ( ॐ नमो नारायणाय ) की दीक्षा ली थी । नाम्बिने मन्त्र देते समय इनसे कहा था कि ' तुम इस मन्त्रको गुप्त रखना । परंतु रामानुजने सभी वर्णके लोगोंको एकत्रकर मन्दिरके शिखरपर खड़े होकर सब लोगोंको वह मन्त्र सुना दिया । गुरुने जब रामानुजकी इस धृष्टताका हाल सुना , तब वे इनपर बड़े रुष्ट हुए और कहने लगे - ' तुम्हें इस अपराधके बदले नरक भोगना पड़ेगा । ' श्रीरामानुजने इसपर बड़े विनयपूर्वक कहा कि ' भगवन् । यदि इस महामन्त्रका उच्चारण करके हजारों आदमी नरककी यन्त्रणासे बच सकते हैं तो मुझे नरक भोगनेमें आनन्द ही मिलेगा । ' रामानुजके इस उत्तरसे गुरुका क्रोध जाता रहा , उन्होंने बड़े प्रेमसे इन्हें गले लगाया और आशीर्वाद दिया । इस प्रकार रामानुजने अपने समदर्शिता और उदारताका परिचय दिया । 

श्रीप्रियादासजी महाराज इस घटनाका एक कवित्तमें वर्णन करते हुएकहते हैं 

आस्य सो बदन नाम सहस हजार मुख शेष अवतार जानो वही सुधि आई है । गुरु उपदेशि मन्त्र कह्यो नीके राखो अन्त्र जपतहि श्यामजू ने मूरति दिखाई है । करुणानिधान कही सब भगवान पावँ चढ़ि दरवाजे सो पुकारयौ धुनि छाई है । सुनि सीखे लियो यों बहत्तर हि सिद्ध भये नये भक्ति चोज यह रीति लै कै गाई है ॥

 यद्यपि श्रीरामानुजाचार्यजी उदार और समदर्शी प्रकृतिके थे , परंतु आचार - विचारके आप बहुत ही पक्के थे और उसमें जरा - सी भी ढिलाई पसन्द नहीं करते थे । एक बार आप श्रीजगन्नाथस्वामीका दर्शन करने जगन्नाथपुरी गये । वहाँ उन्होंने देखा कि पण्डे - पुजारी आचारभ्रष्ट हैं । इससे उन्हें बहुत दुःख हुआ । इस समस्याके समाधानके लिये वे वहाँके राजासे मिले और उनका ध्यान पुजारियोंकी आचारहीनताकी ओर आकृष्ट कराया । राजाकी सहमतिसे उन्होंने सभी पण्डे - पुजारियोंको हटाकर अपने एक हजार शिष्यों को भगवान् श्रीजगन्नाथस्वामीकी सेवा - पूजा साँप दी ।

 इधर पण्डे - पुजारी सेवा पूजासे हटा दिये जानेके कारण वृत्तिहीन हो गये । वे बेचारे मन्दिरके पीछे बैठकर रोने - बिलखने और महाप्रभुसे क्षमा प्रार्थना करने लगे । प्रभु तो परम करुणामय हैं ही , उनसे पण्डे पुजारियोंका दुःख न देखा गया । उन्होंने स्वप्नमें रामानुजाचार्यजीसे कहा कि वे पण्डे - पुजारियोंको सेवा पूजा करने दें । इसपर रामानुजजीने कहा कि वे मन्दिरमें वेद - विरुद्ध शूद्रवत् आचारण करते हैं , अतः मैं उन्हें मन्दिरमें प्रवेश ही नहीं करने दूंगा । भगवान्ने कहा कि वे लोग जब मेरे सम्मुख ताली बजाकर नृत्य करते हैं , तो वह मुझे बहुत ही प्रिय लगता है , अतः मेरी सेवा पूजाका कार्य तुम उन्हें ही दे दो । परंतु रामानुज उन पण्डोंको किसी भी शर्तपर सेवा - पूजाका कार्य नहीं सौंपना चाहते थे । करुणामय भगवान्को अपने भक्त रामानुजका हठ भी रखना था और अपने दीन सेवकोंपर भी करुणा करनी थी । अतः उन्होंने गरुको आज्ञा दी कि रामानुजको शिष्यों समेत औरंगनाथधाम पहुंचा दो । गरुड़जीने प्रभुके आज्ञानुसार रामानुजाचार्य जी को शिष्यों सहित रातमें सोते समय श्रीजगन्नाथामसे श्रीरंगनाथधाम पहुंचा दिया । प्रातः जगनेपर इस आश्चर्यमयी घटनाको देख रामानुजजी प्रभु की भक्तवत्सलताका अनुभवकर गद्गद हो गये । 

 भक्तमालके टीकाकार श्रीप्रियादासजी महाराज इस घटनाका दो कवितायें इस प्रकार वर्णन करते है - 

नीलाचल जगन्नाथ जू के देखिये को देख्यो अनाचार सब पण्डा दूरि किये हैं । सङ्घले हजार शिष्य रग्ङ भरि सेवा करें धरै हिये भाव गुड़ दरसाय दिये हैं ॥ बोले प्रभु वेई आवँ करे अङ्गीकार में तो प्यार ही को लेत कभुं आँगुन न लिये हैं । तऊ दुई कौनी फिरि कहीं नहीं कान दोनी लीनी वेदवाणी विधि कैसे जात छिये हैं ।। १०८ ॥ जोरावर भक्त सो बसाइ नहीं कही किती रती हूँ न लावँ मन चोज दरसायो है । गरुड़ की आज्ञा दई सोई मानि लई उन शिष्यति समेत निज देश छोड़ि आयो है ॥ जागिकै निहारे ठौर और ही मगन भये दिये यो प्रकट करि गूढ़ भाव पायो है । बेई सब सेवा करें श्याम मन सदा हरे धरै सांचो प्रेम हिये प्रभुजू दिखायो है ।। 

 रामानुजने आलवन्दारको आज्ञाके अनुसार आलवारोंके ' दिव्यप्रबनम् ' का कई बार अनुशीलन किया और उसे कण्ठ कर डाला । उनके कई शिष्य हो गये और उन्होंने इन्हें आलवन्दारकी गद्दीपर बिठाया संतु इनके कई शत्रु भी हो गये , जिन्होंने कई बार इन्हें मरवा डालनेकी चेष्टा की । एक दिन इनके किसी ने इन्हें भिक्षामें विष मिला हुआ भोजन दे दिया ; परंतु एक स्त्रीने इन्हें सावधान कर दिया और इस प्रकार रामानुजके प्राण बच गये । रामानुजने आलवाकि भक्तिमार्गका प्रचार करनेके लिये सारे भारतकी यात्रा को और गीता तथा ब्रह्मसूत्रपर भाष्य लिखे । वेदान्तसूत्रोंपर इनका भाष्य ' श्रीभाष्य ' के नामसे प्रसिद्ध है और इनका सम्प्रदाय भी ' श्रीसम्प्रदाय ' कहलाता है ; क्योंकि इस सम्प्रदायको आद्यप्रवर्तिका श्रीश्रीमहालक्ष्मीजी मानी जाती हैं । यह ग्रन्थ पहले - पहल काश्मीरके विद्वानोंको सुनाया गया था । इनके प्रधान शिष्यका नाम क्रूरतालवार ( कूरेश ) था । क्रूरतालवारके पराशर और पिल्लन नामके दो पुत्र थे । रामानुजने पराशरके द्वारा ।विष्णुसहस्रनामकी और पिल्लन्से ' दिव्यप्रबन्धम् ' की टीका लिखवायी ।इस प्रकार उन्होंन आलवन्दार की तीनो इच्छाओं को पूर्ण किया। 

   इस समय आचार्य रामानुज मैसूरराज्यके शालग्राम नामक स्थान में रहने लगे थे । वहाँके राजा भिट्टिदेव वैष्णव धर्म के सबसे बड़े पक्षपाती थे । आचार्य रामानुजने वहाँ बारह वर्षतक रहकर वैष्णवधर्म की बड़ी सेवा की । सन् १० ९९ ई ० में उन्हें नम्मले नामक स्थानमें एक प्राचीन मन्दिर मिला और राजाने उसका जीर्णोद्धार करवाकर पुनः नये ढंगसे निर्माण करवाया । वह मन्दिर आज भी तिरुनारायणपुरके नामसे प्रसिद्ध है । वहाँपर भगवान् श्रीरामका जो प्राचीन विग्रह है , वह पहले दिल्लीके बादशाहके अधिकारमें था । बादशाहकी लड़की उसे प्राणोंसे भी बढ़कर मानती थी । रामानुज अपनी योगशक्तिके द्वारा बादशाहकी स्वीकृति प्राप्तकर उस विग्रहको वहाँसे ले आये और उसकी पुनः तिरुनारायणपुरमें स्थापना की ।

 इस सन्दर्भमें जो कथा प्राप्त होती है , वह भगवान्की अतिशय भक्तवत्सलताकी कथा है । हुआ यूँ कि भगवान्ने आचार्यत्रीको स्वप्नमें बताया कि मेरी उत्सवमूर्ति बादशाहके यहाँ दिल्लीमें है , उसकी आप  स्थापना कीजिये । भगवान्का आदेश मानकर रामानुजजीने बहुत से वैष्णवोंको लेकर बादशाहका किला घेर लिया । जब बादशाहको यह समाचार मिला तो उसने अपने मन्त्रीसे कहा कि आचार्यश्रीको संग्रहालय में ले जाकर सभी मूर्तियोंके दर्शन करा दो और जो मूर्ति इनकी इष्ट हो , वह इन्हें प्राप्त करा दो । रामानुजजीने संग्रहालयमें जाकर मूर्तियोंके दर्शन किये , परंतु उन्हें वह मूर्ति न दिखायी दी , दिया था । इससे रामानुजजी बहुत ही चिन्तित और दुखी हुए । उन्हें व्याकुल देखकर स्वप्नमें दर्शन दिया और कहा कि मैं शहजादीके पास हूँ और उसकी प्रीति - डोरसे बँधा हूँ । वह मुझसे इतना स्नेह करती है कि एक भी क्षण को अलग करना नही चाहती है । 

 रामानुजजी ने पुन : बादशाहसे भेंट की और उन्हें सारी बात बतलायी । बादशाहने शहजादीसे कहा कि वह उस मूर्तिको इन हिन्दू साधुको सौंप दे और उसके बदलेमें उसके लिये मणिनिर्मित मूर्ति बनवा दी जायगी , परंतु शहजादी किसी भी प्रलोभनपर मूर्ति अपनेसे अलग करनेको राजी न हुई । अन्तमें यह निर्णय हुआ कि मूर्ति सभाके मध्यमें रखी जायगी और जिसके बुलानेपर वह चली आयेगी , वही उसकी प्राप्तिका अधिकारी होगा । 

 दूसरे दिन मूर्तिका शृंगारकर उसे सभाके मध्यमें पधरा दिया गया और आचार्यश्री तथा शहजादी दोनोंसे मूर्तिको अपने पास बुलानेके लिये कहा गया । सर्वप्रथम आचार्यश्रीने मूर्तिका आवाहन किया , परंतु मूर्ति टस से मस न हुई । इसके बाद शहजादीने अपने आराध्यरूप मूर्ति विग्रहसे विनय की तो मूर्ति बड़े ही प्रेमके साथ शहजादीकी ओर चल दी । यह देखकर अन्य लोग तो विस्मित हो गये , परंतु आचार्यश्री कुपित होकर भगवान्‌से बोले - ' यदि सभामें आपको मेरा अपमान ही करना था तो मुझे स्वप्न देकर बुलाया ही क्यों ? ' आचार्यश्रीके इस प्रकार उलाहना देनेपर मूर्ति पुनः वापस लौटकर उनकी गोदमें विराजमान हो गयी । सभा धन्य धन्य कह उठी । मूर्ति लेकर वैष्णवजन तो चल दिये , पर शहजादीने अन्न - जल त्याग दिया । बादशाहको लगा कि उसकी पुत्री प्राण दे देगी तो उसने उसे भी आचार्यजीके पीछे जानेकी अनुमति दे दी । शहजादीको इस प्रकार मार्गमें तो मूर्तिके दर्शन मिलते रहे , पर मन्दिरमें प्रतिष्ठित होनेके बाद उसका प्रवेश निषेध हो गया । तब करुणामय भगवान्से उसका दुःख न देखा गया और कहा जाता है कि उन्होंने सबके देखते - देखते उसे अपने श्रीविग्रहमें लीन कर लिया । शहजादीके अतिशय प्रेमके प्रतीकरूपमें आज भी उसकी एक सुवर्णप्रतिमा भगवान्के समीप विद्यमान है ।

 कुछ समय पश्चात् आचार्य रामानुज श्रीरंगम् चले आये । वहाँ उन्होंने एक मन्दिर बनवाया , जिसमें नम्मालवार और दूसरे आलवार सन्तोंकी प्रतिमाएँ स्थापित की गयीं और उनके नामसे कई उत्सव भी जारी किये । उन्होंने तिरुपतिके मन्दिरमें भगवान् गोविन्दराज - पेरुमलकी पुनः स्थापना करवायी और मन्दिरका पुनः निर्माण करवाया । उन्होंने देशभरमें भ्रमण करके हजारों नर - नारियोंको भक्तिमार्गमें लगाया आचार्य रामानुजके चौहत्तर शिष्य थे , जो सब के सब सन्त हुए । इन्होंने कूरत्तालवारके पुत्र महात्मा पिल्ललोकाचार्यको अपना उत्तराधिकारी बनाकर एक सौ बीस वर्षकी अवस्थामें इस असार - संसारको त्याग दिया । 

 मित्र 

आज यह कहानी मैं उन हिन्दु मुसलमान के लिए प्रकाशित कर रहा हुं ,जो अपने तुक्ष स्वार्थ की पूर्ति के लिए या अज्ञानतावश मंदिर मस्जिद को भी दांव पर लगा रहे है ।उनके लिए तथा इस समय जो देश मे दंगा ,हिंसा की आग सुलग रही है , उसमे यह कथा पानी का करेगी । राष्ट हित, मानवहित के लिए शेयर करें। 

आपका दासानुदास 

BHOOPAL MISHRA 

SANATAN VEDIC DHARMA KARMA 

bhupalmishra35620@gmail.com 

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