Krishnadas payhari, कृष्नदास पयहारी जी महाराज भारत के दिव्य महापुरुष

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 पयहारी श्री कृष्नदास जी महाराज 



जाके सिर कर धरयो तासु कर तर नहि अड्ड्यो । आप्यो पद निर्वान सोक निर्भय करि अड्ड्यो । तेजपुंज बल भजन महामुनि ऊरधरेता । सेवत चरन सरोज राय राना भुवि जेता ॥ दाहिमा बंस दिनकर उदय संत कमल हिय सुख दियो । निर्वेद अवधि कलि कृष्नदास अन परिहरि पय पान कियो ॥ ३८ ॥ 

इस कराल कलिकालमें पयहारी श्रीकृष्णदासजी वैराग्यकी सीमा हुए । आपने अन्नको त्यागकर केवल दुग्धपान करके भजन किया । इसीलिये आप ' पयहारी ' इस नामसे विशेष प्रसिद्ध हुए । आपने शिष्य बनाकर जिसे अपनाया , उससे याचना नहीं की , वरन् उसे भगवत्पद - मोक्षका अधिकारी बना दिया और सांसारिक शोक - मोहसे सदाके लिये छुड़ाकर अभय कर दिया । श्रीपयहारीजी भक्तिमय तेजके समूह थे और आपमें अपार भजनका बल था । बालब्रह्मचारी एवं योगी होनेके कारण आप ऊर्ध्वरेता हो गये थे । भारतवर्षके छोटे बड़े जितने राजा - महाराजा थे , वे सभी आपके चरणोंकी सेवा करते थे । दधीचिवंशी ब्राह्मणोंक वंशमें उदय ( उत्पन्न ) होकर आपने भक्तिके प्रतापसे भक्तोंके हृदयकमलको सुख दिया ॥  

यहाँ पयहारी श्रीकृष्णदासजीका जीवन चरित संक्षेपमें दिया जा रहा है

 जयपुरमें गलता नामक एक प्रसिद्ध स्थान है , जो गालव ऋषिका आश्रम माना जाता है । यहाँ वैष्णव सन्तोंकी गद्दी है , जो ' गालता गादी ' नामसे आज भी प्रसिद्ध है और वहाँ आज भी हजारों सन्तोंकी नित्यप्रति सेवा होती रहती है । एक समय वहाँक स्वामी श्रीकृष्णदासजी नामके प्रसिद्ध सन्त थे । ये दधीचिके वंशमें आपकी प्रसिद्धि पयहारी बाबाके नामसे रही । उत्पन्न दाहिमा ब्राह्मण थे । इन्होंने आजीवन अन्नके स्थानपर दुग्धका ही आहार किया , जिसके कारण आपकी प्रसिद्धि पयहारी बाबा के नाम से रही ।

श्रीपयहारीजी महाराज सिद्ध सन्त थे । एक बार आप विचरण करते हुए कुल्हू की पहाड़ियों की और चले गये और वहाँ एक गुफामें बैठकर भगवद्भजन करने लगे । अब उस निर्जन पहाड़ी गुफा में दूध कहाँसे  प्राप्त होता ? परंतु उन्हें भला उसकी क्या चिन्ता चिन्ता तो उसे करनी थी , जिनका ये भजन कर रहे थे क्योंकि अपने भक्तोंके योगक्षेमका भार तो वे ही वहन करते हैं । प्रभु प्रेरणासे पहाड़ियोपर चरती हुई एक खालेकी गाय झुंडसे निकलकर उस पहाड़ी गुफाके पास चली आयी और उसके स्तनोंसे पयःप्रवण होने लगा पयहारी बाबाने इसे ईश्वरकृपा मानकर अपने कमण्डतुमें दूध एकत्र कर लिया और वस्त्रपूत करके भी गये । गाय फिरसे जाकर झुंडमें शामिल हो गयी । अब तो यह नित्य प्रतिका क्रम हो गया । गाय आ जाती और बाबाजीको दूध मिल जाता । एक दिन ग्वालेने गायकी गुफाकी और जाते देख लिया , तो वह उसके पीछे - पीछे वहाँतक चला गया । यहाँका अद्भुत दृश्य देखकर यह किंकर्तव्यविमूढ़ हो जड़वत खड़ा रह गया , फिर पयहारी बाबाको सिद्ध सन्त समझ उनके चरणों में गिर पड़ा और बोला- बाबा ! गोमाताकी कृपासे आज मुझे आपके दर्शन हो गये ; आप मुझे कोई और सेवा बताइये । श्रीपयहारी बाबा उसकी साधुता और सेवा भावसे बहुत प्रसन्न हुए और बोले- तुम कोई वरदान माँग लो ग्वाला बोला- प्रभो ! आपकी कृपासे मुझे दूध - पूत सब प्राप्त है । मुझे अब किसी वस्तुकी आवश्यकता नहीं रही । हाँ , अगर आप कुछ देना ही चाहते हैं तो ऐसी कृपा कीजिये कि मेरे देश के राजाका राज्य फिरसे उन्हें मिल जाय । बाबा उसकी निःस्पृहता , स्वामिभक्ति और परोपकारिता देखकर बड़े ही प्रसन्न हुए और कहा कि तुम अपने राजाको यहाँ बुला लाना उन दिनों यहाँक राजा शत्रुओंद्वारा राज्य छीन लिये जाने और प्राण संकटके कारण एक गुफार्मे छिपकर रह रहे थे । ग्वालेने वहाँ जाकर उनसे पयहारी बाबाके विषय में बताया और उन्हें लिवा लाया । राजाने बाबाके चरणोंग दण्डवत प्रणाम किया और अपनी करुणकथा सुनायी । बाबाने राजाको ' विजयी भव ' का आशीर्वाद दिया और कहा कि इस पहाड़ीपर चढ़कर चारों ओर देखो , जहाँतक तुम्हारी दृष्टि जायगी , वहाँतकका राज्य तुम्हारा हो जायगा राजाने बाबाकी आज्ञाका पालन किया और थोड़े ही दिनोंमें बिना किसी विशेष प्रयासके उनका खोया राज्य पुनः उन्हें प्राप्त हो गया । राज्य प्राप्तिके बाद राजाने अपने सम्पूर्ण राज्यमें सन्त सेवा और भगवद्भजनका आदेश लागू कर दिया । इस प्रकार श्रीपयहारी बाबाकी कृपासे कुल्हू राज्यके लोग भगवद्भक हो गये । । 

  भक्तमालके टीकाकार श्रीप्रियादासजी महाराजने श्रीपयहारीजीके सम्बन्धमें कई रोचक घटनाओंका वर्णन इस प्रकार किया है -

जाके सिर कर धरयो तातर न ओड्यो हाथ दीनो बड़ोबर राजा कुल्लू को जु साखिये । परबत कन्दरामें दरशन दीयो आनि दियो भाव साधु हरि सेवा अभिलाखिये ॥ गिरी जो जिलेबी थार मांझते उठाई बाल भयो हिये शाल बिन अरपित चाखिये । लै करि खड़ग ताहि मारन उपाय कियो जियो सन्त ओट फिर मोल करि राखिये ।। ११  नृप सुत भक्त बड़ो अब लीं विराजमान साधु सनमान में न दूसरो बखानिये । संत बधू गर्भ देखि उभै पनवारे दिये कही अर्थ इष्ट मेरो ऐसी उर आनिये ॥ कोक भेषधारी सो व्योपारी पग दासिनको कही कृपा करो कहा जाने और प्रानिये । ऐपै तजि देवो क्रिया देखि जग बुरो होत जोति बहु दई दाम राम मति सानिये ॥ १२० ॥ 

पयहारी श्रीकृष्णदासजीने जिस किसीके सिरपर हाथ रखा , उसके हाथके नीचे अपना हाथ नहीं फैलाया , अपितु उसे बड़ा भारी - भक्तिका वरदान अवश्य दिया । कुल्हू देशका राजा इस बातका प्रमाण है । इसको आपने पर्वतकी कन्दरामें जाकर दर्शन दिया और आपकी कृपासे उसे राज्य भी प्राप्त हुआ । राजाको आपने ऐसा प्रेमभाव दिया कि उसे सन्त - भगवन्तकी सेवा करने की अभिलाषा बनी रहती थी । एक बार पुजारी मन्दिरमें भगवान्का भोग लगाने के लिये जलेबियोंके थाल ले जा रहे थे , उसमें से एक जलेबी गिर गयी । राजाका छोटा - सा बालक उसे उठाकर खा गया । यह देखकर राजाके मनमें बड़ा भारी दुःख हुआ कि बिना भोग लगे ही इसने खा लिया । तुरंत हाथ में तलवार लेकर उसे मार डालनेके लिये उठा , परंतु समीपमें उपस्थित सन्तोंने उसे बचा लिया और राजामे कहा कि अब तो यह बालक हमारा हो गया । यदि आपको लेना है तो मूल्य देकर आप इसे रख लीजिये ॥ ११ ९ ॥ श्रीप्रियादासजी कहते हैं कि कुल्हूके राजाका यह पुत्र मेरे इस टीकाके लिखनेके समयतक विराजमान है , वह बड़ा भारी भगवद्भक्त है , साधुओंकी सेवा तथा उनका सम्मान करनेमें उसके समान दूसरा कोई नहीं है । एक बार अपने भण्डारेकी पंक्तिमें एक सन्तकी पत्नीको गर्भवती देखकर राजपुत्रने दो पत्तलें दी और कहा कि गर्भस्थ बालक भक्त है और वह मेरा इष्टदेव है , मैं ऐसा मनमें मानता हूँ । इसीलिये दूसरा पत्तल दे रहा हूँ । कोई वैष्णव वेषधारी मनुष्य जूतियोंको बेंचता और गाँठता था , उसे देखकर राजपुत्रको बड़ी दया आयी और उसने उससे कहा भगवन् ! आप दूसरे लोगोंको सन्त मानकर उनकी जूतियोंकी सेवा करते हैं , पर आपके इस गुप्त भावको तुच्छ प्राणी क्या जानें । इसलिये आप इस जूती सेवा कार्यको छोड़ दीजिये । इस वेषको धारणकर और इस कार्यको देखकर लोगोंके मनमें कुभाव होता है । ऐसा कहकर उसे वैष्णव - सेवा एवं स्वनिर्वाहके लिये बहुत - सी खेती करनेयोग्य भूमि और धन दिया , साथ ही उसे ज्ञान प्रकाश भी दिया , उसकी बुद्धि राममें रम गयी ॥ १२० ॥ आमेरके राजा पृथ्वीराजजीकी रानी भी श्रीपयहारी बाबाजीकी शिष्या थीं , कालान्तरमें राजा पृथ्वीराजने भी श्रीपयहारीजी महाराजका शिष्यत्व स्वीकारकर सम्पूर्ण आमेरको वैष्णव भक्त बना दिया । कहते हैं कि एक बार राजा पृथ्वीराजजीने पयहारीजीसे श्रीद्वारिकाधीशजीके दर्शन करनेके लिये द्वारका चलनेकी प्रार्थना की । तब आपने राजाकी भक्ति देख अपनी योगसिद्धिसे आधी रातके समय राजमहलमें प्रकट हो राजाको वहाँपर श्रीद्वारकाधीशजीके दर्शन करा दिये । एक अन्य किंवदन्तीके अनुसार एक बार आपकी गुफाके पास एक बाघ आ गया , आपने अतिथि मानकर अपनी जंघाका माँस काटकर उसे खानेको दे दिया । बाघ तो मांस खाकर चला गया , परंतु उनके इस आतिथ्य - पालनरूप धर्मसे उनके इष्टदेव प्रभु श्रीरामजीसे न रहा गया ; वे कोटि कामकमनीयरूपमें प्रकट हो गये और उनके सिरपर अपने कमल - करका स्पर्श कराया । उनके स्पर्शसे पयहारीजीका शरीर तो पहले जैसा स्वस्थ हो ही गया , उनका अन्तःकरण भी प्रभु - दर्शनसे गद्गद हो गया । 

  श्री कृष्नदास जी पयहारी के शिष्य गण 

 कील्ह अगर केवल्ल चरन ब्रत हठी नरायन । सूरज पुरुषा पृथू तिपुर हरि भक्ति परायन ॥ पद्मनाभ गोपाल टेक टीला गदाधारी । देवा हेम कल्यान गंग गंगासम नारी ॥ बिष्नुदास कन्हर रँगा चाँदन सबिरि गोबिंद पर । पैहारी परसाद तें सिष्य सबै भए पार कर ॥ ३ ९ ॥

 पयहारी श्रीकृष्णदासजीको कृपासे उनके सभी शिष्य जीवोंको भवसागरसे पार करनेवाले हुए श्रीकील्हदेवजी , स्वामी श्री अग्रदेवजी , केवलदासजी , चरणदासजी , हठीनारायणजी , सूरजदासजी , पुरुषाजी ( पुरुषोत्तमदास ) , पृथुदासजी , त्रिपुरदासजी- ये हरिभक्तिमें रत थे । पद्मनाभजी , गोपालदासजी , टेकरामजी , टीलाजी , गदाधारी ( गदाधरदासजी ) , देवापण्डाजी , हेमदासजी , कल्याणदासजी , गंगाजीके समान गंगाबाई , विष्णुदासजी , कान्हरदासजी , रंगारामजी , चाँदनजी और सबीरीजी- ये सभी भक्त गोविन्दपरायण थे ॥ 

               श्री चरणदासजी महाराज 

 श्रीचरणदासजीके नामसे अनेक सन्त हुए हैं , परंतु यहाँ जिन चरणदासजीका वर्णन किया जा रहा है , वे श्रीसम्प्रदायकी आचार्य परम्पराके विशिष्ट सन्त श्रीपयहारी श्रीकृष्णदासजी महाराज के प्रधान शिष्योंमेंसे एक हैं । इनके माता - पिताका नाम या जन्मस्थान - तिथि आदि जात नहीं है , पर सन्तोंके इस प्रकारके भौतिक परिचयकी आवश्यकता भी नहीं होती , बल्कि उनका आध्यात्मिक परिचय ही विशेष रूपसे महत्त्वपूर्ण होता है । श्रीचरणदासजी महाराज आध्यात्मिक ऊँचाईप्राप्त सिद्ध सन्त थे , परंतु उनकी सिद्धियाँ चमत्कार प्रदर्शन या अहंकारके लिये नहीं होती थीं , बल्कि वे दीन - दुःखियोंकी सेवा और परोपकारके लिये होती थीं । आपकी सन्त - सेवा अद्भुत थी । आप सन्तोंको भगवान्का ही प्रतीक मानते थे और उसी भावसे उनकी सेवा करते थे । आप बिना किसी भेद - भावके सन्तमात्रका धूप - दीप नैवेद्यादिसे विधिवत् पूजन करते थे तथा सन्तोंकी सीध - प्रसादी पाते थे । एक बारकी बात है , इनके आश्रम में एक ऐसे सन्त आये , जो पैरसे चलनेमें असमर्थ थे । आप अपने स्वभाव और संस्कारवश उनकी सेवा करने लगे । इनको पूजा करनेके लिये प्रस्तुत देखकर वे सन्त महानुभाव बहुत ही संकुचित हुए और निषेध भी किया , परंतु अपनी निष्ठाके पक्के श्रीचरणदासजीने अपने नित्यके नियमानुसार विधिपूर्वक उन सन्तका पादप्रक्षालनादि करके पूजन किया । भगवान्‌की कृपा । श्रीचरणदासजीके स्पर्श करते ही उन सन्त महानुभावके चरणोंमें शक्ति आ गयी , उनकी चलने सम्बन्धी असमर्थता दूर हो गयी । प्रभुकी इस कृपा और सन्त चरणदासजीके दिव्य प्रभावको देखकर आश्रमवासी धन्य धन्य कर उठे । उन सन्त महानुभावने इसके बाद पैदल ही सभी तीर्थोंकी यात्रा करते हुए इनके सुयशका प्रचार - प्रसार किया ।

                 श्री हठीनारायणदास जी महाराज 

सन्त श्रीहठीनारायणदासजीका बचपनका नाम नारायण था , इन्होंने अपने गुरुदेव पयहारी श्रीकृष्णदासजी महाराजके दर्शनके लिये हठ किया था , इसीलिये इनकी निष्ठा देखकर श्रीगुरुदेवने इनका नाम हठीनारायणदास रख दिया । श्रीहठीनारायणदासजीका जन्म माघ मासकी मौनी अमावस्याको सं ० १६०४ वि ० में ग्राम ईंगरी जिला इटावा ( उ ० प्र ० ) में हुआ था । आपके पिताका नाम पं ० श्रीजयनारायण चतुर्वेदी और माताका नाम गंगादेवी था । कहते हैं कि आपके माता - पिताको कोई संतान नहीं थी , तब उन्होंने बदरिकाश्रम जाकर कठोर तप किया , जिसके फलस्वरूप साक्षात् भगवान् बदरीनारायणकी कृपासे आपका जन्म हुआ । ' होनहार बिरवान के होत चीकने पात ' की कहावत आपपर अक्षरशः सत्य उतरी आप बचपनसे ही अत्यन्त सौम्य और शान्त प्रकृतिके थे । परके निकटके श्रीसीतारामजीके मन्दिरसे भगवत्प्रसाद एवं  चरणामृत लेना और भगवदर्शन करना आपका नित्यकार्य था । कहते हैं कि जन्मके समय आपने रोनेके स्थानपर भगवान् श्रीरामके बीजमन्त्र ' रां रां ' का उच्चारण किया था । इस प्रकार बचपनसे ही आपकी सन्त प्रकृति थी , जिसे माता - पिताकी असमय मृत्युने वैराग्यकी ओर प्रवृत्त कर दिया और आप घर - बार छोड़कर भगवान्‌के नित्यधाम श्रीवृन्दावनको चले गये । 

श्रीवृन्दावन में आपको श्रीसम्प्रदायके महान् सन्त पयहारी श्रीकृष्णदासजी महाराजका सुयश सुननेका सौभाग्य प्राप्त हुआ और आप उससे इतना प्रभावित हुए कि उन्हें मन - ही - मन अपना गुरु मान लिया । उस समय श्रीपयहारीजी अमरनाथ गये हुए थे , अतः आप भी उनका दर्शन प्राप्त करनेके लिये श्रीअमरनाथजीकी अत्यन्त दुर्गम यात्रापर चले गये । इनका दर्शनके लिये हठ और सच्ची निष्ठा देखकर सद्गुरु श्रीपयहारीजी महाराज बहुत ही प्रसन्न हुए और इनके सम्मुख प्रकट होकर इन्हें राममन्त्रका उपदेश दिया । 

श्रीहठीरायणदासजी भगवद्भक्तिका प्रचार - प्रसार करते हुए यत्र - तत्र भ्रमण करते रहते थे । इसी क्रममें एक बार आप गुजरात प्रान्तके नडियाद ग्राम पहुँचे , वहाँके लोगोंने आपका बड़ा स्वागत किया । उस ग्रामके पासमें ही एक तान्त्रिक रहता था , उसे आपको बढ़ती हुई कीर्ति सहन न हुई । उसने आपको अप्रतिष्ठित करने और भगानेके लिये अनेक तन्त्र - मन्त्र किये , परंतु उनका आपपर तो कुछ प्रभाव न पड़ा ; उलटे वह तान्त्रिक ही उन अभिचारकर्मोके दुष्प्रभावकी चपेटमें आ गया । अन्तमें उसने स्वयं आकर श्रीहठीनारायणदासजीकी शरण ली और उनके सदुपदेशोंका श्रवणकर वह स्थान त्यागकर चला गया और एकान्तमें भगवद्भजन करने लगा । 

एक बार आप भगवद्भक्तिका प्रचार करते पंजाब पहुँच गये । आप सुध - बुध खोकर रामप्रेममें मतवाले होकर संकीर्तन कर रहे थे , लोगोंने आपकी प्रेमोन्मत्तताकी दशाको न समझकर भँगेड़ी समझ लिया । नशा किया है क्या ? - ऐसा लोगोंके पूछनेपर आप कह भी देते थे कि ' मैं नामी नशेबाज हूँ । ' आपका तात्पर्य होता था कि मैं नामामृतका पानकर उसके नशेमें उन्मत्त रहता हूँ , जबकि लोग उसका उलटा अर्थ ले लेते थे और आपको अत्यधिक नशा करनेवाला समझते थे ।

 कहते हैं कि आपके संकीर्तनमें इतनी दिव्यता होती थी कि चेतन मनुष्यकी क्या बात , जड़ वृक्ष भी झूमने लगते थे । धीरे - धीरे आपकी प्रसिद्धि वहाँके राजाके कानोंमें भी पहुँची । लोगोंके द्वारा उन्हें ज्ञात हुआ कि राज्यमें एक सिद्ध महात्मा आये हैं । उन्होंने दरबारमें बुलाकर इनका बड़ा सत्कार किया , परंतु इनकी सिद्धिकी परीक्षाके लिये इनके भोजनमें तीव्र विष मिलवा दिया । सन्तजन भोजन करनेसे पहले उसे भगवान् श्रीहरिको समर्पित करते हैं , तत्पश्चात् उसे प्रसादरूपमें ग्रहण करते हैं । श्रीहठीजीने भी उस भोजनको प्रभुप्रसादके रूपमें ही ग्रहण किया और प्रभुकृपासे उनपर कोई प्रभाव नहीं पड़ा । यह देखकर राजा अत्यन्त लज्जित हुए और इनके चरणोंमें पड़कर अपने अपराधके लिये क्षमा याचना की । सन्तोंके हृदयमें तो क्रोधके लिये कोई स्थान होता ही नहीं , श्रीहठीजीने उन्हें सदुपदेश देकर भक्त बना दिया । राजाके भक्त हो जाने से राजाकी प्रजा भी भगवद्भक हो गयी । इस प्रकार विमुख जीवोंको भगवत्सम्मुख करते और भगवद्भक्तिका श्रीसूरजदासजी प्रचार करते हुए श्रीहठीनारायणदासजी ने श्रावण शुक्ल ७ , सं ० १७०३ वि ० को भगवद्धामकी प्राप्ति की ।

  प्रिय पाठक 

इन संतो के जीवन चरित्र पढने से पता चलता है कि हमलोग कितने सौभाग्यशाली है ,कि धर्म प्रण भारतवर्ष मे जन्म हुआ है ।हिन्दु धर्म को समझने के लिए इन चरित्रों का अध्ययन अध्यापन, प्रचार-प्रसार करना चाहिए है।  यदि हो सके तो अपनी राय दें ,शेयर कर पुण्य का भागी बने। 

हरिशरणम हरिशरणम हरिशरणम 

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