श्री टीला जी महाराज
श्री टीलाजी महाराज का जनम ज्येष्ठ शुक्ल १० सं ० १५१५ वि ० को राजस्थान के किशनगढ़ राज्यान्तर्गत सलेमाबादमें हुआ था । आपके पिता श्रीहरिरामजी श्रोत्रिय ब्रह्मनिष्ठ पण्डित और माता श्रीमती शीलादेवी साधु - सन्तसेवी सद्गृहिणी थीं । कहते हैं कि आपके माता - पिताको बहुत समयतक कोई संतान नहीं थी , बादमें आबूराजनिवासी एक सिद्ध सन्तके आशीर्वाद से आपका जन्म हुआ था । सन्तकृपा , तीर्थक्षेत्रका प्रभाव , पूर्वजन्म के संस्कारों और माता - पिताकी भगवद्भक्तिके सम्मिलित प्रभावसे बालक टीलाजीमें बचपनसे हो भक्तिके दिव्य संस्कार उत्पन्न हो गये थे , जो आयु और शास्त्रानुशीलनके साथ - साथ बढ़ते ही रहे । आपके पिता पं ० श्रीहरिरामजी भक्त होनेके साथ - साथ विद्वान् भी थे , वे आपको बचपनसे ही पुराणोंकी कहानियाँ और भगवच्चरित्र सुनाया करते थे , जिससे आपमें भगवद्भक्तिका संस्कार दृढ़ हुआ । बचपनमें ही आप किसी ऊँचे टीलेपर चढ़कर बैठ जाते और किसी सिद्ध सन्तकी भाँति समाधिस्थ हो जाते , आपकी इस प्रवृत्तिको देखकर ही लोगोंने आपका टीलाजी नाम रख दिया ।
एक बारकी बात है , आपके पिताजीने आपको बालक ध्रुवकी कथा सुनायी ; फिर क्या था , बालक टीलाने भी तपस्या करके भगवान्का दर्शन करनेका दृढ़ निश्चय कर लिया । बालक टीलाकी भक्ति और दृढ़ता देखकर माता - पिताने भी तपस्याकी अनुमति दे दी । कहते हैं कि आपको तपके लिये उद्यत देखकर श्रीहनुमान्जीने मथुरास्थित श्रीध्रुवटीलापर तपस्या करनेका सुझाव दिया । उस सिद्ध स्थानपर तपस्या करनेसे बालक टीलाको शीघ्र ही श्रीभगवान्के दर्शन प्राप्त हो गये । भक्तवत्सल भगवान्ने टीलाजीसे वर माँगनेको कहा । इसपर टीलाजीने कहा- प्रभो ! आपका दर्शन प्राप्तकर मैं कृतकृत्य हो गया हूँ , अब मेरा कोई भी मनोरथ शेष नहीं रहा , फिर भी यदि आप मुझे कुछ देना ही चाहते हैं तो यही वरदान दीजिये कि किसी सद्गुरुसे मुझे वैष्णवी दीक्षा प्राप्त हो जाय । श्रीभगवान् बोले - वत्स ! जिस प्रकार शिष्यको सद्गुरुकी खोज रहती है , उसी प्रकार सद्गुरुको भी परमयोग्य शिष्यकी खोज रहती है । मेरी कृपासे तुम्हें घर बैठे ही परम सन्त सिद्ध सद्गुरुदेवकी प्राप्ति हो जायगी । यह कहकर भगवान् अन्तर्धान हो गये और टीलाजी उसी भुवनमोहिनी छविका निरन्तर ध्यान करते हुए भगवदाज्ञाके अनुसार घरपर ही भजन - भाव करने लगे । प्रभुकृपासे थोड़े दिनोंमें ही इनकी प्रसिद्धि चारों ओर फैल गयी । अनेक सिद्ध महात्मा आपके दर्शनहेतु आने लगे । अनेक वयोवृद्ध सन्तोंने इनकी विद्वत्ता और सिद्धता देखकर इन्हें दीक्षा लेनेको कहा , परंतु ये विनम्रतापूर्वक कहते कि जिस दिन भगवान्की इच्छा होगी , उस दिन वे दीक्षा भी दे देंगे । कुछ लोग जब अधिक हठ करते तो आप विनयपूर्वक कह देते कि आप ही कृपाकर मेरे कण्ठी बाँध दीजिये । पर जब कोई आपको कण्ठी बाँधने लगता , तो आप अपने सिद्धिबलसे आसनसहित ऊँचे उठ जाते और बाँधनेवालेका हाथ आपके गलेतक पहुँच ही न पाता - ऐसा करनेके पीछे आपका उद्देश्य सिद्धिवल दिखाना या सन्तोंकी अवमानना करना नहीं , अपितु सच्चे सद्गुरुकी खोज करना ही था ।
इस प्रकार जब बहुतसे सन्त प्रयास करनेपर भी श्रीटीलाजीके गलेमें कण्ठी न बाँध सके तो सबने जाकर श्रीपयहारीजी महाराजसे सब बातें कहीं और टीलाजीको शिष्य बनानेका निवेदन किया । पयहारीजीने प्रथम तो यह कहकर इनकार कर दिया कि वे सन्तोंको अपना सिद्धिबल दिखाते हैं , परंतु बादमें सबके आग्रहपर कण्ठी बाँधना स्वीकार कर लिया । श्रीपयहारीजी महाराज भी जब कण्ठी बाँधने लगे तो टीलाजी पूर्वकी भाँति आसनसहित ऊपर उठ गये , परंतु पयहारीजी तो ठहरे सिद्ध सन्त ; उन्होंने अपना हाथ बढ़ाया तो वह बढ़ता ही गया और अन्तमें उन्होंने टीलाजीके गलेमें कण्ठी बाँध ही दी । इस प्रकार टीलाजीको उनके सद्गुरु मिल गये और पयहारीजी महाराजको टीलाजीके रूपमें एक योग्य शिष्य प्राप्त हो गया । श्रीपयहारीजी महाराजने उन्हें उपासनाका रहस्य समझाया और वैष्णव मन्त्रकी दीक्षा देकर उनका नाम श्रीसाकेतनिवासाचार्य रख दिया।
श्रीसाकेतनिवासाचार्यजीने बहुत दिनोंतक गलतागादी ( जयपुर ) में रहते हुए श्रीपयहारीजी महाराजकी सेवा की , फिर उनकी आज्ञा लेकर भारतके सम्पूर्ण तीर्थोंका परिभ्रमण एवं भगवद्भक्तिका प्रचार किया । तत्पश्चात् जयपुरराज्यान्तर्गत ही अरविया ग्राममें आचार्यपीठका निर्माण कराकर वैष्णवधर्मका प्रचार - प्रसार करते रहे ।। चैत्रशुक्लपूर्णिमा सं ० १६४२ वि ० को श्रीसाकेतनिवासाचार्यजी महाराजने अपने आराध्य श्री सीताराम जी के साकेत धाम मे निवास किया प्राप्त किया ।
सूरजदासजी महाराज
श्रीसूरजदासजी सन्तशिरोमणि श्रीपयहारी श्रीकृष्णदासजी महाराजके षोडश प्रधान शिष्योंमेंसे एक थे । आप परम वैष्णव और सिद्ध सन्त थे तथा आपकी श्रीसीतारामजीमें अखण्ड निष्ठा थी । आपका यह दूर नियम था कि सूर्यमण्डलमध्यस्थ श्रीसीतारामजीका बिना दर्शन किये आप अन्न - जलका ग्रहण नहीं करतेथे।इस प्रकार कभी - कभी आपको कई दिन बिना अन्न - जल ग्रहण किये ही बीत जाते , परंतु अपनी नियम किंचित भी डील देना आपको स्वीकार्य नहीं था ।
एक बारकी बात है , भादो का महीना था . आकाश काले काले बादल चारों और छाये हुए थे , भगवान् सूरजदेव का कहीं अता पता नहीं था । सूरजदाराजी सन्तोकी डोली लिये हुए तीर्थयात्रापर निकले थे । आज उनके सामने अद्भुत धर्म संकट खड़ा हो गया था - एक तरफ अपने आश्रित सत्तमण्डलीका आतिष्य करना दूसरी और अपनी नियम निष्ठा निबाहना था । आखिर में स्वयं तो भूखे रह सकते थे , पर सन्तको तो भूखा नही रख सकते थे।
सेवक का बल तो स्वामी ही होते हैं , भक्त के योग क्षेम का निर्वहण तो उसके आराध्यको ही करना होता है , फिर जब सूर्यमण्डलमध्यस्थ श्रीसीतारामजी जैसे आराध्य , स्वामी और इष्टदेव हो तो सूरजदासजीको सूरज क दर्शन के लिये कैसी चिन्ता । श्रीसूरजदासजीने भक्तिभावपूर्वक पूजनका थाल तैयार किया । लोगों को आश्चर्य था कि सूर्यभगवान्का तो कहीं अता पता नहीं है , फिर ये किसके पूजनके लिये थाल तैयार कर है ।
समस्त सामग्री यथास्थान रखकर श्रीसूरजदासजीने पूजा प्रारम्भ की , फिर सूर्यदेवका दर्शन करने के लिये जैसे ही दृष्टि ऊपर गगनगण्डकी और उठायी कि मेघाच्छन आकाश अनन्तप्रकाशराशिये परिपूरित हो उठा,
भगवान् भारवर कुहरावरणका विदारण करते हुए प्रकट हो गये । अनन्य श्रद्धाभाव से सूरजदाराजी ने इस मूर्यमण्डल के मध्यमे अपने आराध्य श्रीसीतारामजीके दर्शन किये । सन्त मण्डली भक्त और भगवानकी जय - जयकार करने लगी । भक्त का प्रेम और भगवान्की कृपा देख सब लोग धन्य हो गये । ऐसे तेजस्वी और निष्ठावान संत थे श्रीसूरजदाराजी । उन्होंने अपनी इस नियम निष्ठाका आजीवन निर्वाह किया और अंत में श्रीसीताराम जी के दिव्य धाम को चले गए।
BHOOPAL Mishra
Sanatan vedic dharma
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